पाँच साल पहले आज ही के दिन एमएम कलाबुर्गी की हत्या के विरोध में उदय प्रकाश ने साहित्य अकादेमी पुरस्कार लौटाया था और तब यह एक आंदोलन में बदल गया. लेखकीय ज़िम्मेदारी और गरिमा के ऐसे उदाहरण विश्व में बहुत कम मिलते हैं. उस समय आशुतोष भारद्वाज इस घटना को इंडियन एक्सप्रेस में कवर कर रहे थे. उन दिनों को याद करते हुए उनकी यह टिप्पणी.
पुरस्कार वापसी आंदोलन के पांच साल
आशुतोष भारद्वाज
ठीक पांच बरस पहले, चार सितम्बर २०१५, उदय प्रकाश ने एमएम कलाबुर्गी की हत्या के विरोध में साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाया था. साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कन्नड़ लेखक कलाबुर्गी को अज्ञात गुंडों ने तीस अगस्त को गोली मार दी थी.
उदय प्रकाश हालाँकि अकादमी पुरस्कार लौटाने पहले लेखक थे, लेकिन करीब महीना भर बाद वह देशव्यापी आन्दोलन शुरू हुआ था जब अनेक भाषाओँ के करीब चालीस लेखकों ने बीसेक दिन के अन्दर अपने पुरस्कार लौटा केंद्र की शक्तिशाली सत्ता को हिला और दहला दिया था. सत्ता के चाटुकार तुरंत इन लेखकों को बदनाम करने के लिए मैदान में आये थे. ‘अभियान प्रायोजित है’, ‘बिहार चुनाव को ध्यान में रख किया गया है’, ‘चंद लेखक इसके सूत्रधार हैं’, जैसे आरोप कई केन्द्रीय मंत्री और सत्ता-पोषित पत्रकार उछालने लगे थे, अभी तक उछालते आये हैं. साहित्य अकादमी के तत्कालीन अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी भी लेखक बिरादरी पर ऐसे ही लांछन लगा रहे थे.
मैं, बतौर पत्रकार, इस पूरे प्रकरण का साक्षी था. आज पांच साल बाद यह भी कह सकता हूँ कि इस पूरे मसले पर सबसे अधिक मैंने ही लिखा था. इंडियन एक्सप्रेस के पहले पन्ने कर कई दिनों तक यह खबर मेरी बाइलाइन से आयी थी. मैं उन दिनों अनेक लेखकों के संपर्क में था. मेरे अनुसार यह स्वतः स्फूर्त आन्दोलन था, लेखकीय अस्मिता का उद्घोष.
सत्ता के ब्रह्मभोज में दरियाँ और पत्तल बिछाने वाले तथ्य से अधिक वास्ता नहीं रखते. वे गर्दभ राग अलापते रहेंगे. अगर फुर्सत हो तो कभी वे इन तथ्यों से गुजर सकते हैं:
अक्तूबर ६
दोपहर में नयनतारा सहगल अपना अकादमी सम्मान लौटाने की सार्वजनिक घोषणा करती हैं. मैं खबर लिखने से पहले उन्हें फोन करता हूँ, वह कहती हैं:
\”प्रतिरोध का अधिकार ख़त्म हो रहा है. वर्तमान सरकार इस देश की महान सांस्कृतिक विविधता को नष्ट कर रही है.”
शाम को एक्सप्रेस के दफ्तर में खबर लिखते वक्त मुझे सूझता है कि किसी अन्य लेखक से इस पर प्रतिक्रिया ली जाए. मैं अशोक वाजपेयी को फोन करता हूँ. उन्हें तब तक अनेक लोगों की तरह नहीं मालूम कि नयनतारा सम्मान लौटा चुकी हैं. मैं जब उन्हें यह बताता हूँ, वह तुरंत कहते हैं:
“उन्होंने (नयनतारा) ने बहुत ही नेक काम किया है. मैं भी अपना पुरस्कार लौटाता हूँ.”
मैं थोड़ा हतप्रभ हूँ. मैंने सिर्फ उनकी प्रतिक्रिया के लिए फोन किया था, लेकिन उन्होंने नयनतारा सहगल के बारे में सुनते ही एक झटके से अपना पुरस्कार लौटा दिया. एक भाषा का लेखक दूसरी भाषा के लेखक के साथ तुरंत खड़ा हो जाता है.
मुझे कुछ बरस पहले का वाक्या याद आता है जब कृष्ण बलदेव वैद को मिलने वाले दिल्ली अकादमी के शलाका सम्मान का कुछ कांग्रेसी नेताओं ने विरोध किया था कि उनका लेखन “अश्लील” है. कन्नड़ के यूआर अनंतमूर्ति तुरंत बोले थे:
“वैद कद्दावर लेखक हैं. अगर उनका लेखन अश्लील है, तो मेरा भी सारा लेखन अश्लील है.”
अगली सुबह बाकी अख़बारों में सिर्फ नयनतारा का जिक्र है. एकाध अखबार को छोड़ सभी अख़बारों में अन्दर के पन्ने पर छोटी सी जगह मिली है, लेकिन इंडियन एक्सप्रेस के पहले पन्ने पर दो वरिष्ठ लेखकों के अकादमी सम्मान लौटाने की खबर है.
यहीं से सिलसिला शुरू होता है. सत्ता तिलमिला जाती है. मंत्रियों के बेबुनियाद बयान आने लगते हैं.
अक्तूबर ९
अंग्रेजी उपन्यासकार शशि देशपांडे साहित्य अकादमी की जनरल काउंसिल से इस्तीफा दे देती हैं. तब तक छह कन्नड़ और एक उर्दू लेखक राज्य की अकादमियों के सम्मान कलाबुर्गी की हत्या के विरोध में लौटा चुके हैं.
देशपांडे अकादमी के अध्यक्ष तिवारी को आक्रोश भरी चिट्ठी लिखती हैं कि अकादमी लेखक के सम्मान की रक्षा नहीं कर पायी है.
वह मुझसे बात करते हुए कहती हैं:
“मैं कलाबुर्गी को जानती थी. मुझे लगा था कि उनकी हत्या पर अकादमी कोई वक्तव्य जारी करेगी. मैं कम से कम इतना तो कर ही सकती हूँ कि जो संस्था अपने सदस्यों के लिए नहीं आगे आती, मैं उससे अलग हो जाऊं.”
अक्तूबर १०
मैं इस विषय पर एक्सप्रेस में एक सम्पादकीय लेख लिखता हूँ, टर्म्स ऑफ़ प्रोटेस्ट, जो शायद इस मसले पर कहीं भी प्रकाशित होने वाला पहला सम्पादकीय है.
इसी दिन दोपहर में मेरे पास कृष्णा सोबती का फोन आता हूँ. वह आक्रोशित हैं, अपना अकादमी सम्मान और साथ ही अकादमी की फेलोशिप भी लौटा रहीं हैं:
“अकादमी के अध्यक्ष को कोई कदम उठाना चाहिए या तुरंत इस्तीफा देना चाहिए.”
लेखक समुदाय अब तक केंद्र सरकार के विरोध में था, लेकिन कुछ दिनों से अकादमी का रवैया देख तिलमिला उठा है.
इसी दिन मलयालम उपन्यासकार सारा जोसफ अपना अकादमी सम्मान लौटाती हैं और के सच्चिदानंदन अकादमी की सभी समितियों से इस्तीफा दे देते हैं.
अक्तूबर १२
आज कुल आठ लेखक अपना सम्मान लौटाते हैं. कश्मीरी लेखक गुलाम नबी ख्याल, गुजराती कवि अनिल जोशी, कन्नड़ के रहमथ तरीकेरे और पंजाब के पांच लेखक– सुरजीत पातर, चमन लाल, बलदेव सिंह सड़कनामा, जसविंदर और दर्शन बुत्तर.
पिछले छह दिन में कुल २३ लेखक सम्मान लौटा चुके हैं. इसके अलावा कुछ लेखकों ने अनुवाद के लिए मिलने वाले अकादमी सम्मान भी लौटाए हैं. माया कृष्णा राव सरीखे रंगकर्मी संगीत नाटक अकादमी अवार्ड भी लौटा चुके हैं.
देश भर के रचनाकारों में आक्रोश फ़ैल रहा है.
इस बीच सलमान रश्दी इन लेखकों के समर्थन में आ गए हैं.
अक्तूबर १५
अमिताव घोष मुझे दिए साक्षात्कार में इस आन्दोलन का पुरजोर समर्थन करते हैं.
“अवार्ड लौटाकर इन लेखकों ने जन हित में काम किया है.”
यह साक्षात्कार एक्सप्रेस के पहले पन्ने पर है. पिछले दस दिनों से यह खबर एक्सप्रेस के पहले पन्ने पर बनी हुई है.
लेखकों की सूची बढ़ती जाती है. राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, गणेश देवी, केकी दारूवाला, काशीनाथ सिंह इत्यादि अपना सम्मान लौटा देते हैं.
इस बीच संघ का मुख-पत्र पांचजन्य अपनी कवर स्टोरी में इन लेखकों को “देशद्रोही” करार देता है, आरोप लगाता है कि ये लेखक कांग्रेस के कार्यकाल में क्यों चुप थे. पांचजन्य भूल जाता है कि २०१० में कृष्णा सोबती और बादल सरकार ने कांग्रेस के शासनकाल में पद्म भूषण को अस्वीकार कर दिया था यह कह कि वे सत्ता से करीबी नहीं चाहते.
पांचजन्य और तमाम संघ-समर्पित पत्रकार अशोक वाजपेयी पर इस आन्दोलन के सूत्रधार होने का भी आरोप लगाते हैं, जबकि उन्होंने साफ़ कहा है कि अपना सम्मान लौटने के
“दो दिनों बाद ही मैं फ्रांस और कनाडा चला गया और लगभग 16 दिन विदेश में ही था. इस बीच भारत के लेखक समुदाय के बीच क्या हुआ, इसका मुझे पता नहीं था.”
संघ हिंदी के इस लेखक से इतना डरा हुआ है कि वह मान लेना चाहता है कि यह लेखक असम, केरल और कोंकणी के लेखकों को विदेश में बैठ संचालित कर सकता है.
बाद के दिनों में एक झूठा और विद्वेषपूर्ण आरोप यह भी लगा कि इस आन्दोलन की निगाह बिहार चुनाव पर थी. सम्मान लौटाने वाले लेखकों में असमिया, मलयालम, कश्मीर, गुजरात, हिंदी, पंजाबी, कोंकणी, अंग्रेजी, तेलुगु, कन्नड़ इत्यादि भाषाओँ के लेखक शामिल थे. कश्मीर या केरल में बैठे लेखक के स्वर में बिहार चुनाव को खोज लेना संघ-पोषित पत्रकार की बड़ी मौलिक सोच है, जिसके लिए अकादमी एक अन्य पुरस्कार की घोषणा कर सकती है.
यह आन्दोलन भारतीय लेखक समुदाय की सामूहिक अभिव्यक्ति थी, जिसके नैतिक ओज ने अपार शक्तिशाली सत्ता को बौखला दिया. ऐसा कब हुआ है कि चंद लेखक तमाम विवादों में घिरी किसी संस्था का सम्मान लौटाते हैं, समूचा सरकारी तंत्र डोलने जाता है.
पांच बरस पहले इस विषय पर ख़बरें लिखते हुए लगता था कि एक ईमानदार शब्द तमाम असत्यों पर भारी पड़ता है, लेखकीय गरिमा किसी भी तानाशाह को चुनौती दे सकती है.
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