बंसत त्रिपाठी को २००४ से पढ़ता आ रहा हूँ जब उनका संग्रह ‘सहसा कुछ नहीं होता’ ज्ञानपीठ ने छापा था, हलांकि उनके साथ जो संग्रह प्रकाशित हुए थे उनमें मेरा भी संग्रह था और दिल्ली में लोकार्पण में भी हम साथ थे, फिर भी संवाद नहीं था, पर बीच में कविताएँ थीं. उनके दो कविता संग्रह और प्रकाशित हुए इस बीच– ‘मौजूदा हालात को देखते हुए’ तथा ‘उत्सव की समाप्ति के बाद’. इधर भोपाल में एक कविता समारोह में उनसे मिलना हुआ. ये कविताएँ उसी का परिणाम हैं जो यहाँ प्रकाशित हुईं हैं. इस बीच वे नागपुर से इलाहबाद आ गए हैं और कविताओं ने भी यात्राएँ की हैं. वे अब कहाँ पहुंची हैं इसका अंदाज़ा इन्हें पढ़कर ही आपको लगेगा. प्रस्तुत है उनकी कुछ नई कविताएँ.
बसंत त्रिपाठी की कविताएँ
सुंदर दुनिया और हत्यारे
कत्थई कोमल पत्तियों को मैं
बारिश से धुली
ढलती हुई शामें कहता हूँ
और बच्चों की हथेलियाँ चूमते हुए सोचता
शहद केवल छत्तों में ही नहीं होता
सड़क पर लोगों को भागते देख
मुझे अकसर उन गिलहरियों की याद हो आतीं
जो बगीचों में बेखौफ दौड़ती रहती हैं
सुंदर दुनिया जताती रहती है अपना होना
सुंदरता के लिए दुनिया को
दोषरहित देखना ज़रूरी है
हाँ, मैं यही करना चाहता हूँ
करता भी हूँ बाज़दफा
जब तक तुम
मेरी प्रकट याद से बाहर रहते हो
हत्यारो !
खेखसी, मेरी जान
स्वाद तुम्हारा नहीं है अद्भुत
न ज़ुबान पर चढ़ राज ही करती
नाम सुनकर तुम्हारा
मुँह में सोता भी नहीं फूट पड़ता
फिर भी खेखसी, मेरी जान
तुमसे प्यार है
छत्तीसगढ़ की खेखसी ओड़िया की काँकड़
मराठी की काटवेल मेरी जान
तुमसे प्यार है
अंडाकार कटीली
काई से हरे में तोते की हरियल
पक जाए गर थोड़ी तो
हरियल में उतर आता पीला
हरियल में उतर आता पीला
और बीज अंदर
मूँगे के रंग का गोल गीला
खेखसी, मेरी जान
तुम बाड़ियों से टूटकर
दलालों की राह नहीं तकती
अक्सर ही सीधे पहुँचती बाज़ार
कुल जमा एक ही महिने दिखती
लेकिन जितनी भी देर दिखती
लेकिन जितनी भी देर दिखती
मन मोह लेती
बाज़ार की सब्जियों में सबसे छोटी ढिग
और वहाँ भी एकाध ही के पास
जैसे कहती हुई
है जिसके पास कलेजा
करे वही मेरा सौदा
हाइब्रिड संस्करणों की भेड़चाल से अलग
सच्चे गाहक के इंतज़ार में बैठी खेखसी, मेरी जान
हाँ, तुमसे प्यार है.
करेले की बेल
लगती तो है बड़ी मुलायम
कोमल कोमल
पर बड़ी सख्त जान है मुई
यह देशी करेले की बेल
घर के बाहर कहीं भी उग आती
फेंस हो तो ठीक
नहीं तो जमीन पर ही बेतरह फैल
फेंस हो तो ठीक
नहीं तो जमीन पर ही बेतरह फैल
पीले छोटे फूल उछालती
हरे पोखर में खेलते जैसे
धूप के शरारती बच्चे
बेल पर दिखने लगे हैं
छोटे छोटे करेले
चाहे जितनी मुस्तैदी से खोजें
एक न एक करेला बच ही जाता
पत्तियों के पीछे छुपा हुआ वह
पकता अगली बारिश के लिए
पक कर झड़ता
झड़कर छिपता
छिपकर बचता
बचकर फिर उगता
झड़कर छिपता
छिपकर बचता
बचकर फिर उगता
करेले की यह कड़वी बेल
बस चले इसका
तो तोप की बगल से उग आए
नली को लपेट खिलाए पीले फूल
बड़ी सख्त जान है
यह करेले की बेल.
जीवन
एक आत्मीय पड़ोसी की तरह
खटखटाना चाहता हूँ
बरसों सोई आपकी चुप्पी के द्वार
और ऐसे सुनाना चाहता हूँ कविताएँ
कि शब्दों के साथ
उसका ताप भी पहुँचे आप तक
किसी तानाशाह की तरह नहीं
फूलों के रंग की तरह
मैं रहना चाहता हूँ पृथिवी में
कि मेरी आँखों में ढूँढ़ सकें आप
अपने भी सपने
बीमार सपनों के राख की तरह नहीं
उपजाऊ मिट्टी की तरह मैं
थामना चाहता हूँ बीजों की लुप्त होती नस्ल
यह जीवन कभी खत्म नहीं होता
कहीं पास ही होते हैं मजबूत डैनें
जिन्हें हथेलियों में बाँधकर उड़ा जा सकता है आसमान में
और किया जा सकता है प्रेम
दुनिया सचमुच वहीं से शुरू हो सकती है
जहाँ से लगता है
कि खत्म हो चुकी.
नींद के आसपास
नमीं से भीग रही रात में
समंदर के किनारे
मुझसे लिपटी बैठी हो तुम
लहरों और तारों में खोई हुई
तुम्हारी अव्यक्त खामोश आँखों में
एक चमक उठती है
फिर बर्फ से भी ठंडी
काली से भी अधिक अँधेरी रात में
एक पंछी की तरह गुम हो जाती है
इस रात
अथाह समंदर के किनारे
लहरों की आवाज में डूबते हुए
मैं चूमना चाहता हूँ तुम्हारे होंठ
कि अचानक समेटती हो अपने को
और लौट जाती हो
खामोश तट को
अपनी लहरों की ध्वनि से भरता समंदर
मेरी ही तरह देखता है
रेत पर लौटते तुम्हारे पाँवों के निशान
अखबार के हॉकरों की तरह सूरज किसी चौराहे पर सुबह का इंतजार कर रहा होता है
जबकि तुम स्थगित सपनों की तरह
मेरी नींद के आसपास टहलती रहती हो.
साथ
प्रिय मित्र,
तुम छह बजे शाम का
उतरता सूरज देखना मैं भी देखूँगा वह अपना केसर
हमारे पास छोड़ जाएगा
इस तरह हम
एक दृश्य के साथ होंगे एक रंग के साथ
एक दूसरे के साथ.
प्यार
किसी शाम तुम दस बरस पुरानी साइकिल पर सवार होकर
हड़बड़ाती हुई आओ
और आते ही अँधेरे का रोना रोते हुए
जल्दी जाने की जिद्द मचा दो
किसी रात
बिस्तर से उछलकर सपनों में चली आओ
मैंने बहुत दिनों से तुम्हें
सपने में देखा नहीं
किसी दिन
नहाकर छत पर बाल सुखाती रहो
और मैं पोस्टमेन की तरह
घंटी बजाता निकल जाऊँ
किसी दिन
इंतज़ार करती रहो
खीझती रहो
और मैं न आऊँ
कितना दुर्लभ हो गया है यह
उफ, प्यार करना कितना मुश्किल है !
कितना मुश्किल है उसे सहेज कर रखना !!
उदासी की शक्ल
यदि उदासी को कोई शक्ल दी जाए
तो कैसी होगी वह शक्ल?
आँखों की जगह
टेबल लैंप का ठंडा दूधिया फ्यूज़ बल्ब
घूँसे मारकर चपटी की हुई नाक
गाल, कस्बे की पीली रोशनी में
चुपचाप पड़ी देर रात की सड़कें
माथा ज्यों ब्रेन हैमरेज के बाद
वेंटीलेटर के भरोसे न मर पा रहा कोई मरीज
माथा ज्यों ब्रेन हैमरेज के बाद
वेंटीलेटर के भरोसे न मर पा रहा कोई मरीज
और कान तो ऐसे कि जिसे काटकर वान गॉग ने
भेंट कर दिया था अपनी प्रेमिका को
लिफाफे में भरकर
उदासी की शक्ल में
दुनिया की सारी असुंदरता उतर आती है
उदासी के भीतर से कोई रौशनी भी नहीं फूटती
फिर भी जब और जितनी देर तक
यह छायी रहती है
आदमी धोखा नहीं देता कत्ल नहीं करता
वह खुद इतना दुखी और अकेला होता है
कि किसी दूसरे को दुखी नहीं करता
उदासी मनुष्य न हो पाने की पीड़ा है
वह हमें और ज्यादा मनुष्य बनाती है.
रचनात्मक खीझ
दुनिया के महान कवियो !
तुम सब ने लिखीं
अपनी अपनी कविताएँ,
अपने घावों और सपनों को
अपने शब्दों से छुआ,
तुमने रचा अपने समय का
सुलगता – जंग खाया इतिहास,
फिर मुझे क्यों नहीं रहने देते
थोड़ी देर के लिए अपने साथ
निपट अकेला ?
क्यों मेरे शब्दों को ढँक लेते हो
अपनी साँसों की परछाईं से ?
क्यों घिर आते हो
मेरी मेज़ के इर्द गिर्द
अपनी उपेक्षामयी हँसी के साथ ?
तुम्हीं बताओ
क्या मैं चला जाऊँ
किसी अनजानी जगह
विषैले धुएँ से ढँके आसमान के पार ?
या खो जाऊँ कहीं भीड़ में
कि ढूँढ़ ही न पाए कोई भी ?
तुम्हीं बताओ
कविता की उम्मीद में तड़पता हुआ मैं
कैसे छूटूँ तुम्हारी इस्पाती गिरह से ?
तुम्हारे सुझाए रास्तों में बहुत भीड़भाड़ है
नए रास्ते के लिए
जब भी उठाता हूँ कदम
नकार से भरा हुआ अट्टहास
गूँज उठता है अचानक
मेरे प्रणों के ध्वस्त करता हुआ.
मेरी भाषा
मेरे पास
कुछ दुख हैं
बहुत सारा गुस्सा है
जिसे बाँध रखा है
मेरी ही सुविधाओं की समझाइश ने
थोड़ा सब्र है
थोड़ी हड़बड़ी
कुछ उनींदी रातें
बहुत-से पराजित दिन
और चिढ़ी हुई-सी कई शामें हैं
अधूरे गीत हैं कुछ
ज़रूरी रीत हैं कुछ
सबसे अंत में खड़े होने की एक सहमी मुद्रा है
कुछ सवाल भी
जिसके उत्तर दिए जाते बार-बार
लेकिन हर बार अधूरे
कई लोगों के चेहरे हैं
नज़रों ने जिनके दुखों को छुआ
और सपनों में देर तक सुबकते रहे
मैं अपनी प्यास को तुम्हारे रिसते घावों और
भागते पावों में
रखना चाहता हूँ
मेरे पास
एक भाषा है
जागे सोये बोलते बड़बड़ाते
चुप हो जाते
शब्दों की भाषा।
देश आजकल
गहरे कुएँ में
रस्सी से बँधा उतरा
एल्युमिनियम का गगरा
जिसकी पेंदी में कई कई छेद
खींच रहा हूँ
नारियल के रेशे से बटी
मोटी खुरदुरी रस्सी
पानी कितना पाऊँगा
पता नहीं
हथेली में जो फफोले पड़ रहे हैं
मैं, केवल मैं ही जानता हूँ .
कविता की आवाज़
मुझमें कोई कविता नहीं बची
मैंने दुःख में कहा
जब तक दुःख है
कविता बची रहेगी
अस्वीकार में फुसफुसाती
यह कविता की आवाज़ थी.
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बसंत त्रिपाठी
25 मार्च 1972 को भिलाई नगर, छत्तीसगढ़ में जन्म. शिक्षा-दीक्षा और संस्कार छत्तीसगढ़ में मिले. 22 वर्ष तक महाराष्ट्र के नागपुर के एक महिला महाविद्यालय में अध्यापन के उपरांत अब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी अध्यापन. कविता, कहानी और आलोचना में सतत लेखन. कविता की तीन किताबें, कहानी और आलोचना की एक-एक किताब के अलावा कई संपादित किताबें प्रकाशित.
मो 9850313062
ई-मेल basantgtripathi@gmail.com