बु ल डो ज़ र: दो |
हमारे समय की एक बड़ी विडंबना यह है कि सच को कहने और सच्चाई को बताने वाले साधन तो बढ़ और सक्षम हो गए हैं पर सच कहने वाले और सच्चाई दर्ज़ करने वाले व्यक्ति और संस्थान घट रहे हैं. ऐसे में साहित्य का एक ज़रूरी काम सच बोलने, सच्चाई का गवाह होने का अनिवार्यता: हो जाता है. उतना ही जरूरी काम है याद करना, रखना और दिलाना जबकि सब कुछ भुलाने, काल्पनिक क्रूरताएं याद रखने का एक सुनियोजित अभियान दैनिक रूप से चलाया जा रहा हो.
इधर बुलडोज़र वर्तमान निज़ाम की हृदयहीन क्रूरता के एक प्रतीक में उभरा है. पर हमें यह याद रखना है कि यह क्रूरता और उससे जुड़ी हत्या-हिंसा-ध्वंस की एक खूंखार परंपरा है. अडवाणी जी का रथ और बाबरी मस्जिद का ध्वंस देश भर के दंगों को उकसाने में किए गए सफल प्रयोग थे. रथ साम्प्रदायिक सद्भाव को ध्वस्त करने की कोशिश करनेवाला बुलडोज़र ही था.
बुलडोजर अधिक आधुनिक टेक्नोलॉजिकल माध्यम है. सच्चाई तो यह है कि पिछले आठ वर्षों में नष्ट करने के उत्साह में अभूतपूर्व सक्रियता और व्याप्ति आयी है. सरकार नागरिकों को तरह-तरह से डरा रही है. बुलडोज़र अगर ध्वस्त करता है तो साथ ही साथ डराता भी है. जिस टेक्नोलॉजी से सच और सच्चाई को जान सकने की हमारी क्षमता बढ़ी है और लोकतांत्रिक हुई है. उसी टेक्नोलॉजी का सुघर इस्तेमाल व्यापक रूप से झूठ और घृणा फैलाने, डराने के लिए भी किया जा रहा है.
साहित्य अगर इस समय अपना सही धर्म निभाना चाहे तो उसे दुस्साहसी और निर्भय होना पड़ेगा. इसे अलक्षित नहीं जाना चाहिए कि इन कविताओं आदि में साहित्यकार झूठ-क्रूरता-ध्वंस-घृणा-भय के बुलडोज़र के आगे खड़े हैं. यह हस्तक्षेप हमें आश्वस्त करता है कि साहित्य भूला नहीं है, दर्ज़ कर रहा है, सच बोल रहा है, और डर नहीं रहा है.
अशोक वाजपेयी

मदन कश्यप
बुलडोज़र
जो देते हैं घरों को तोड़ने का आदेश
बुलडोज़र सबसे पहले
उनकी आत्मा पर चल चुका होता है
उसके बाद ही वह दस-बीस घरों के साथ
दस-बीस लाख बेबस लोगों के सीने को रौंदता है
तालियाँ बजाने वाले दस-बीस करोड़ लोगों के विवेक कब
रौंद डाले जाते हैं
यह तो बुलडोज़र को भी पता नहीं होता
उसके बड़े-बड़े जबड़ों में मिट्टी और चट्टानें ही नहीं आहें
और चीत्कारें भी फंस रही होती हैं
बच्चों के रुदन और स्त्रियों के आंसुओं से
गीली हुई मिट्टी चिपक रही होती है
उसके विशाल चक्कों से
नये लोकतंत्र के इस नये गारबेज के बारे में
कुछ पता नहीं होता
बुलडोज़र बनाने और चलानेवालों को
आइंस्टीन को भी कहां पता था
कि दुनिया को ऊर्जा समृद्ध करने के लिए
खोजा था जिस परमाणु विखंडन की प्रक्रिया को उसका
इस्तेमाल मनुष्यता के विनाश के लिए
किया जाएगा!
सुधीर सक्सेना
यह बुलडोज़र है
इसे बधिर कहेंगे
या अर्द्धबधिर?
यह आदेश सुनता है
आर्तनाद नहीं,
इसे कतई पसंद नहीं
कि कोई इसका रास्ता छेंके
शब्दकोश में इसका सबसे पसंदीदा शब्द है-
नेस्तनाबूद
यह गड़ी हुई कई चीजों को उखाड़ देता है,
भले ही वो फसल हो या इमारत,
गुर्राने से जुड़ी है इसकी गतिशीलता
यह चल नहीं सकता एक भी कदम गुर्राये बगैर
इसे ईश्वर ने नहीं,
मनुष्य ने सिरजा है
कृतज्ञ है यह
जेम्स क्यूमिंग्स और जे. अर्ल मैक्लियोड का
अगले साल
सौ साल हो जायेंगे
मना सकते हैं आप सन् 2023 में इसकी जन्मशती
कैसा चमत्कार है
कि दिनों-दिन भीम और चपल और शक्तिशाली
होता जा रहा है यह
नयी सदी का प्रारंभ है यह
सदी के शेष वर्षों में
बढ़ेगी इसकी आबादी
यकीन मानिये मित्रों !
बढ़ेगा इस पर व्यवस्था का अवलंब.
बुलडोज़र
वह कंसास से चला
और देखते ही देखते
उसने सारी दुनिया नाप ली
उसका वास्ता कृषि तक न रहा
और फैल गयी विध्वंस से जुड़े
उसके सरोकारों की दुनिया
वह सर्वत्र नज़र आया,
मैदानों, खदानों, खेतों, बस्तियों
और रणभूमियों में भी
उसने ढहाया और खुश हुआ,
उसने उखाड़ा और झूम उठा,
उसने जमींदोज किया और गुर्राया
उसके वास्ता किसी से नहीं,
सिवाय मालिक के
देखते ही देखते
इस दुनिया में वह हुआ
अपने मालिक का पसंदीदा गुलाम.
विमल कुमार
अब तुमको एक सलाम तो बनता है
भागो ! भागो ! नसीम मियां !
भागो, भागो !!
जितना हो सके तुम
जल्दी भागो!!
भागो कि
तुम्हारे पीछे पीछे आ रहा है
एक बुलडोज़र !
कहां जाओगे तुम ?
कहां रहोगे तुम?
क्या खाओगे तुम?
किसी को नहीं मालूम
इसलिए कहता हूं
भागो ! भागो ! नसीम मियां !!
अब आ रहा तुम्हारे पीछे पीछे
बुलडोज़र !
अपने बच्चों को लेकर भागो
अपनी बीबी को लेकर भागो
अपनी अम्मा को लेकर पहले भागो वह चल नहीं पाती हैं
अब इस उम्र में
भागो कि
आ रहा है तुम्हारे
पीछे पीछे बुलडोज़र !
अभी तुम्हारे मोहल्ले में निकली थी तलवारें
अभी लग रहे थे जय श्रीराम के नारे
अभी तुम्हारे मोहल्ले में फहरा रहे थे भगवा झंडे
अभी तुम्हारे मोहल्ले में चले थे
गोली, चाकू और डंडे
अभी निकली थी तुम्हारी मोहल्ले में झांकी
अब मस्जिद के पास क्या रह गया था कहने को बाकी
भागो! नसीम मियां ! भागो !
अब तुम इस मोहल्ले से भागो !
रहते आये थे तुम यहां बचपन से
नहीं कोई हुआ था कोई फसाद
इतने दिन से
तुमने तो लोगों की जान बचाई थी
गर्मी में लोगों की प्यास बुझाई थी
कितने लोगों की शादियां भी तुमने कराई थी
कोई तुमको बचाने वाला नहीं रहा
यह मुल्क भी अब तुम्हारे लायक कहां रहा
अब ये वतन भी अब तुम्हारा वतन नहीं है
भले ही तुमने दी थी कई कुर्बानियां
भले ही तुमने मिटा दी थी
अपनी यहां जवानियां
रेहडी पटरी लेकर भागो
जिस पर तुम सब्जी बेचते थे
चलेगी कैसे तुम्हारी गृहस्थी
दिन रात यही सोचते थे
नसीमा मियां !तूम जल्दी भागो
आ गया तुम्हारे घर के ठीक सामने
बुलडोज़र
अरे यह क्या हो गया नसीम मियां!
तुम तो बुलडोज़र के सामने ही तन गए
ज़ुल्म के खिलाफ ढाल बन गए
बैठ गए वहीं तुम धरना देकर
जाएंगे अब यहां से न्याय लेकर
तुम्हें देख कर वह ठिठक गया बुलडोज़र
चलानेवाला भी सहम गया है
नसीम मियां!
इस मुल्क का क्या होगा, कहना अब मुश्किल है
पर एक सलाम तो तुम्हारे नाम बनता है
एक कलाम तो तुम्हारे नाम बनता है.
संजय कुंदन
बुलडोज़र
यह रथ है मनु महाराज का
लौट आए हैं महान स्मृतिकार
अपने एक नये अवतार में
लौट आई हैं उनके साथ न्याय संहिताएं
रौंद दी जाएंगी एकलव्यों की आकांक्षाएं फिर से
शंबूकों के स्वप्न मलबे में बदल दिए जाएंगे
असहमति की हर आवाज के विरुद्ध
छेड़ दिया गया है युद्ध
जब चलता है बुलडोज़र
उस पर अदृश्य होकर
सवार रहते हैं धर्मरक्षक
पीछे-पीछे भागती आती एक अदृश्य सेना
जिसमें नंग-धड़ंग साधु भी रहते और विचारक भी
अपराधी, हत्यारे, थैलीशाह, नौकरशाह
न्यायाधीश,कलमकार, फ़नकार
हमारे कई साथी और पड़ोसी भी
जब एक गरीब का आशियाना उजड़ता है,
अपनी जिंदगी से हारे एक लाचार व्यक्ति
को नए सिरे से पराजित घोषित किया जाता है,
किसी को उसके अलग ईश्वर के कारण
अपमानित किया जाता है,
सेना जोर-जोर से जय-जयकार करती है
ताकत हुंकार भरती है
बुलडोज़र के घड़घड़ाते पहियों में.
प्रियदर्शन
बुलडोज़र
एक
उनका वाद्य यंत्र है बुलडोज़र
उसकी ध्वनि उन्हें संगीत लगती है
(बजा दी सालों की- यही भाषा है न उनकी!)
ध्वंस उनकी संस्कृति है
सदियों पुरानी मज़बूत इमारतें भी ढहाते हैं
और बरसों पुरानी झुग्गियां भी.
वे स्मृति से घृणा करते हैं
क्योंकि उसमें उनको अपना बर्बर और मतलबी चेहरा दिखता है
वे एक साफ़ सुथरा इतिहास बनाना चाहते हैं
लेकिन उसके पहले मिटाना चाहते हैं
वह सारा निर्माण
जो मनुष्य की रचनात्मक मेधा का परिणाम है.
जो उनके इस दावे को देता है चुनौती
कि उनके आने से पहले कुछ हुआ ही नहीं
और जो हुआ वह बस विधर्मियों का अत्याचार था.
बामियान से बाबरी तक
बदलती पहचानों और बदलते निशानों के बावजूद
वे बिल्कुल एक हैं
पसीना पसीना माथे-पीठ और मन पर ढोते हुए बुलडोज़र
चलाते हुए टैंक
और गाते हुए विध्वंस का बर्बर गीत.
बुलडोज़र उनका वाद्य यंत्र है.
दो
वैसे तो वह एक विराट कल-पुर्जा भर है
जिसे तोड़ने के लिए तैयार किया गया है.
लेकिन उस पर बैठा कौन है?
कौन उसे चला रहा है?
और चलाने वाले को भी क्या कोई दे रहा है आदेश?
और उस आदेश देने वाले को कौन आदेश दे रहा है?
कहां से चलता है बुलडोज़र
इसी से तय होता है किस पर चलता है बुलडोज़र.
जो जहांगीरपुरी पर चला, वह नागपुर वाला बुलडोज़र था
वह नाजी जर्मनी के कारखाने में बना था.
उसे इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया गया था
लेकिन वहीं से उसे उठाकर लाए
हिटलर के भारतीय वारिस
अब वे उसे विकास का नया मॉडल बताते हैं.
वे एक पवित्र धरती की रचना कर रहे हैं
जिसे ग़रीबों के खून से धोकर शुद्ध किया जा रहा है.
जहां जहां उनका रथ जाता है, खून की लकीर बनती जाती है.
वे हत्या के उत्सव का एक अमूर्त चित्र बना रहे हैं.
यह उनकी बुलडोज़र कला है.
तीन
वे खुद एक विराट बुलडोज़र हो चुके हैं
यही उनकी महत्वाकांक्षा थी
लोग उनसे डरें
दूसरों को कुचल डालने की उनकी क्षमता पर भरोसा करें.
उन्होंने बार-बार साबित किया है कि वे बेहद कार्यकुशल बुलडोज़र हैं
उन्हें मालूम है, क्या कुचलना है.
उन्होंने न्याय को कुचला
उन्होंने विवेक को नष्ट किया
उन्होंने प्रेम और सद्भाव को बिल्कुल चिपटा कर डाला
उन्होंने बलात्कार से फेर ली आंखें
स्त्रियों पर अत्याचार उन्हें पसंद नहीं
लेकिन कभी-कभी यह ज़रूरी हो जाता है.
जब लक्ष्य बड़ा हो तो छोटी-छोटी कुर्बानियां देनी पड़ती हैं.
उन्होंने बहुत सारे छोटे-छोटे बुलडोज़र भी बनाए.
खड़ी कर दी बुलडोज़रों की सेना
जो अब इस मुल्क की सुरक्षा करती है
शत्रुओं का खोज-खोज कर संहार करती है
उनकी लिस्ट बनाती है
पहले रात के अंधेरे में जो करती थी
वह दिन के उजाले में करती है
वे इस मुल्क को एक महाविराट बुलडोज़र में बदलने की परियोजना चलाना चाहते हैं
मगर यह कमबख्त सदियों पुराना, अपनी बेडौल स्मृतियों में हिलता-डुलता, हर किसी को बसेरा देने को आतुर मुल्क
एक विशाल पेड़ से अलग कुछ होने को तैयार नहीं.
बुलडोज़र यहां हार जाते हैं लेकिन उनका अहंकार भी बचा हुआ है उनके वार भी जारी हैं.
देखें कब तक बचा रहता है मुल्क
और कब तक बचे रहते हैं हम.

प्रफुल्ल शिलेदार
बिल्लू का बुलडोज़र
शिगूफ़ा
सालगिरह पर बिल्लू को मिले खिलौनों में था एक लाल-पीले चटख रंग का मुलायम से प्लास्टिक से बना बुलडोज़र. हालांकि पम्मी को वह तब भी पसंद नहीं आया था लेकिन बिल्लू उसके साथ कई दिनों तक खेलता रहा. हाथ से धकेलने पर अपनी अजीब सी चोंच ऊपर उठाता और बिल्लू उसकी खुली चोंच में एक कंकड़ डाल देता. पम्मी दूर से ही उसका यह खेल देखकर हंसती और सोचती, यह कोई जानवर है या पंछी या शिगूफ़ा.
जीने की आंच
जीने की आंच में बचपन के खिलौनों की यादें पिघल कर बह जाती है. ज़ेहन के भीतरी परतों के नीचे धंस जाती है. आइस गोले की गाड़ी चलानेवाले बिल्लू ने अब अपनी झुग्गी के पास हाइवे पर शरबत-शिकंजी की एक छोटीसी दूकान लगा दी. अल्लाह के फ़ज़ल से दो जून रोटी पांच वक्त की नमाज और थोड़ी सी नींद नसीब आती थी. बहुत मिज़ाज से कहता था– इंशाल्ला, ठेले पर हर रोज शाम को फालूदा सेंवई खाने मर्सिडीज गाडी से लोग आते है.
रमजान का महीना
उस दिन बिल्लू की आँख जरा देर से खुली. मस्जिद के लाउडस्पीकर से मौलाना की आवाज सुनाई दी, ‘पांच मिनट बाक़ी है.’ वह हड़बड़ा कर उठा. वजू किया. बीवी ने इलायची वाले ठंडे दूध में रूह अफ़जाह डालकर फैनी दी. खाते-खाते मौलाना की आवाज आयी, ‘जनाबे हज़रात सहरी का वक्त ख़त्म हो गया है. अब कोई खाने-पीने की कोशिश न करें.’
आहट
मैं भी चलूंगी अब्बा आपके साथ. छोटी सकीना जिद करके आयी थी. अचानक दूर से जाता बुलडोज़र सकीना को दिखाकर बिल्लू बोला, देखो सकीना, बचपन में मेरे पास भी ऐसा ही एक खुबसूरत बुलडोज़र था. उसे सीने से लगाकर मैं सोता था. ‘’ इसमें ख़ूबसूरत क्या है अब्बा. मुझे बिलकुल पसंद नहीं आया ये. यह बहुत डरावना लग रहा है.’’ ‘’ नहीं बेटा, वह दूर हाईवे से ही गुजर जायेगा. इंशाल्ला, तुम डरो मत. यहाँ नहीं आयेगा. कुल्फी खाओगी. ‘’
अम्मी की याद
लेकिन बुलडोज़र धीरे-धीरे उसी ओर बढ़ रहा था. वह करीब आने लगा तो उसका विकराल रूप देखकर दिल कांप उठा बिल्लू का. सकीना का गला सूख गया. अचानक अम्मी की बहुत याद आने लगी. बीच रास्ते में आया किसोर का पान का ठेला, घुग्गू की पपीते-केले की गाड़ी, कोपचे में बैठे जीबन मोची की पोटली सब रौंदते आ रहा था. बुलडोज़रों की पूरी टोली थी. उनके चलने की आहट में मृत्यु की गुर्राहट सुनाई दे रही थी.
मलबा
पहले घाव से बिल्लू की दुकान की टिन की छत पापड़ जैसी चूर हो गई. फिर लुढ़क गई दीवारें. तेंदुए की फुर्ती से टूट पड़ा था बुलडोज़र. सकीना आँखे फाड़कर देख रही थी. होशोहवास खो बैठे इनसान ही उन्हें चला कर किसी हुक्मरान के इशारों पर निकले सियासी आदेश को अंजाम दे रहे थे. कर्ज़ पर खरीदा फ्रीज, उधार लायी चार नई कुर्सियां, शरबत-शिकंजी की कांच की बोतलें, गिलास, बर्तन, मटके, बरफ की पेटी, रस्सी पर टंगे चिप्स के खैनी के पैकेट… सबकुछ दब गया ईटों के ढेर के नीचे. सामने की फुटपाथ तक फैला बिल्लू का संसार मलबे में बदल गया.
प्रतिरोध
भीड़ देखती रही. बिल्लू चिल्लाता रहा. सकीना भयभीत होकर चीखती रही. कानून तक को अनसुना करके बुलडोज़र बेरहमी से चलता रहा. प्रतिरोध की कहीं आवाज नहीं. कोई रोक नहीं सका बुलडोज़र को.
उत्तर कथन
इस कहानी का उत्तर कथन
अब तुम्हें लिखना है कवि
उसे कलम से कागज पर नहीं
लहू से सड़क पर लिखना होगा
सकीना को बताना होगा
उसके पिता की मौत आत्महत्या नहीं थी
वह एक हत्या थी
जिसका कारण एक बुलडोज़र था
यह गहरी नींद में उसके सपनों में
आने वाला बचपन का बुलडोज़र नहीं
बल्कि दिन दहाड़े उसकी मेहनत की रोटी
छीन लेने वाला दरिंदा बुलडोज़र था
वह एक महज खिलौना नहीं रहा था
जिसे बिल्लू के अब्बा बाज़ार से लेकर आये थे
किसी शैतान ने कर लिया था कब्ज़ा उस पर
अब उसमें मुंह में खून लगे भेडिये की हिकारत थी
वह महज यंत्र भी नहीं रहा
अब उनके हाथ का हथियार बन गया है
जिन्हें इंसानों से घृणा है
जो तोड़ना चाहते है मनुष्यता की नींव
पहले वह राह बनाने के लिए पहाड़ खोदता था
अब वह युद्ध में मारे गए सैकड़ों मासूम लोगों का
सामूहिक दफन करने के लिए रातोंरात कब्र खोदता है
अब वह बने बसे घरों को निर्ममता से ढहाकर मलबा भी उठा लेता है
वह सत्ता का लाडला प्रतीक है
वह निहत्थों के दमन का हथियार है
वह कलुष से भरे रंग का परचम फैलाते आता है
जीवन की बुनाई के रेशे रेशे उधेड़ देता है
उसे बनाया तो गया था निर्माण के लिए
लेकिन अब उससे ध्वस्त करने के काम करवाए जाते है
उसकी अमानवीय ताकत से मोहित होकर तानाशाहों ने
उसे और भी भीषण रूप देकर फ़ौज में दाखिल कर लिया
वह सिरफिरों की सनक पर चलता है
उसके हाथों से मनुष्य के छोटे से छोटे सुख
कब और कैसे दु:स्वप्न में तबदील हो गए
इसका उसके पास कोई रेकॉर्ड नहीं
वह पूरी ताकत से जब घाव करता है
तब तानाशाह के मुंह से लार टपकती है
वह अपने आप में बेतहाशा हँसता है
और अगले ध्वंस की तैयारी में जुट जाता है
सकीना इसे पहचानो !
तुम्हारी निजता को मुखालफ़त को तुम्हारी कौम को
तुम्हारे वजूद के हर मायने को ख़ारिज कर देगा
तुम्हारे इस जमीन से जुड़े होने पर भी उसे खलिश है
सकीना, मनुष्य होने के नाते
इतना तो भरोसा दिला सकता हूँ तुम्हें की
हम सब साथ मिलकर
इसका विकराल जबड़ा जरूर तोड़ सकते है.
शरद कोकास
बुलडोज़र
एक
बुलडोज़र चलाते
दो मेहनतकश हाथों को
संचालित करता है एक मस्तिष्क
स्वयं आदेशित होता
किसी और मस्तिष्क से
हमारी लड़ाई बुलडोज़र से नहीं
उस मस्तिष्क से है
जो इस सुन्दर सजीली दुनिया को
बदल देना चाहता है एक बदसूरत मलबे में
बुलडोज़र तो महज़ एक मशीन है .
दो
इस्पात की एक विस्तारित भुजा है
बुलडोज़र का रीपर
जो उठाना चाहता है बड़ी बड़ी चट्टानें
जड़ों सहित पेड़ और भूखण्ड
खनन, भूमिशोधन जैसे काम
उसे अच्छे लगते है
वह कदापि नहीं उठाना चाहता
बच्चों की दूध की बोतलें
खिलौने और स्कूल की किताबें
रसोई के बर्तन और गुड़िया की फ्रॉक .
तीन
मेहनतकश हाथों की रेखाओं में
बसे थे कुदाल फावड़े और घमेले
फिर वह आया
समस्त मानव
और भौतिक संसाधनों पर
कब्ज़ा जमाता हुआ
मिटा गया समस्त रेखाएँ
लील गया
सपने इच्छाएँ और जिजीविषा
बुलडोज़र के अविष्कार का दोष
आधुनिकता पर मढ़ना काफी नहीं .
चार
कोलतार की सड़कों पर
अतीत में देखे गए
जंज़ीरों वाले
बुलडोज़र के पहियों के निशान
अवचेतन से मिटे नहीं हैं
भविष्य को रौंदते हुए वे पहिये
जिनके घर की दीवारों पर चढ़ गए
उनके मन पर बने निशान
किसे याद रहेंगे
पाँच
यह जो नन्हा सा मोबाइल है
एक बुलडोज़र का प्रतिरूप ही तो है
जिसे चलाते हुए
भेज सकते हैं आप
सकारात्मक संदेश
सुन्दर, सुखी दुनिया के निर्माण के लिए
इसी बुलडोज़र से ध्वस्त कर सकते हैं आप
प्रेम, सौहार्द, भाईचारे का सुदृढ़ संसार.
बसंत त्रिपाठी
विकास का बुलडोज़र
बस्ती उजाड़ने के बाद बुलडोज़र
सरकारी परिसर में थका हुआ-सा पस्त
चुपचाप खड़ा है
उसके डैने में कुछ चिथड़े फँसे हैं
ध्वस्त बस्ती के मलबे में
बीनने बटोरने की थकी हुई हरकतें
आँसुओं के बीच दीख रही हैं
जैसे निर्माण के महा स्वप्न में
अस्वीकार कर दी गई मनुष्यता !
आखिर कौन हो सकता है ऐसे दृश्यों पर मुग्ध ?
दिमाग में इतनी क्रूरता
दिल में इतनी नफरत कहाँ से आ पाती है ?
वैध और अवैध की परिभाषाएँ
इतनी अमानवीय कब हो गईं ?
प्रतीकों के कैसे कुचक्र में फँस गया है हमारा समय ?
गाय-बछड़ा, हाथ, बंद मुट्ठी, हँसिया-हथोड़ा, गेहूँ की बालियाँ कमल, साइकिल और झाड़ू से खुराक पाकर पुष्ट हुई
चमकदार सुविधाजीवी नागरिकता
बुलडोज़र पर लहालोट है
यह प्रतीकों के विपर्यय का समय है
ईश्वरों के चेहरे बदले जा रहे हैं
इतिहास को भूल-सुधार की तंग गलियों में ठेल दिया गया है
ट्रैक्टर की घरघराहट पर बुलडोज़र के जबड़े हावी हैं
चुनावी जीत के नशे में चूर सरकार ने
विकास को बुलडोज़र का समानार्थी शब्द घोषित कर दिया है
क्रूरताओं पर मुग्ध लोगों !
देख सकते हो तो देखो
सत्ताएँ कोमलता से पिंड छुड़ाना चाह रही हैं
तुम्हारे भीतर भी कोमलता के जो अवशेष हैं
उसके लिए भी खरीद लिया गया है
एक मज़बूत बुलडोज़र.
महेश वर्मा
बुलडोज़र पर एक निबंध
जैसे वहाँ कुछ था ही नहीं. बुलडोज़र जगहों को समतल करता है और धीरे-धीरे लोग उन लोगों और चीज़ों को भूल जाते हैं जो वहां थीं. वहाँ रहने वाले नागरिक अब कहाँ होंगे? हम सोचते रहना चाहते हैं बीच में आ जाता है विज्ञापन.
माँ थक कर, बच्ची थक कर, बाप थक कर सोए हैं. तीनों गोया एक ही सपना देखते हैं- बुलडोज़र कच्ची दीवारों को गिरा रहा है, बुलडोज़र प्लास्टिक लकड़ी और धातु की बनी चीजों को निराकार में बदल रहा है. तीनों सोचते हैं यह एक सपना है वह सो कर उठेंगे पानी पीएंगे बाहर से घंटी बजाता गुजर जाएगा कुल्फी बेचने वाला.
हमारे कस्बे में लोग आज भी इस घटना पर हँसते हैं कैसे शिकारी चा नहा रहे थे स्नानघर से बाहर आए तो उन्हें थोड़ी अधिक धूप महसूस हुई, सर उठा कर देखा तो घर था ही नहीं उनके नहाने के बीच ही एंक्रोचमेंट वाले आए थे मिनटों में घर उजाड़ कर आगे बढ़ गए शिकारी चा चीखते रहे फिर उनका चीखना रोने में बदला फिर चुपचाप मलबे पर बैठ गए.
लोग भकुवा कर उनके आसमान की ओर देखने की नकल करते हैं कि पहले वहां छत थी अब दूर आकाश दिखाई देता था. लोग हंसते हैं पीछे गूंजती है शिकारी चा की चुप्पी.
बुलडोज़र के ड्राइवर उदास घर लौटते हैं कानों में गूंजती रहती हैं रोने, गाली देने, चीखने और हँसने की आवाजें.
केशव तिवारी
बुलडोज़र
फट रही है प्रजातंत्र की छाती
लोग खुश हैं
निरंकुश सरकार को जिता रहे हैं
और सड़कों पर जुलूस निकल रहे है
न्याय लगभग पंगु
लोग ताली पीट रहे है
तानाशाह एक बार फिर प्रजातंत्र
का जाप करते आ रहा है
और लोग विश्वास कर रहे हैं
घृणा की खेती बोकर देख रहा वो
बड़ी सतर्क नज़रों से
और लोग सींच रहे हैं
लहराते देखना चाहते हैं
इतिहास की गुफा में घुसे
हिस्टीरिया के मरीज के तरह
चिल्ला रहे हैं
ये कैसा समय आ गया है
किस किस संकट से बचते बचाते
यहां तक पहुंची है जुम्हूरियत
धर्म और नस्ल की ध्वजा उठाये
बाकायदा जगह की चीन्ह पहचान के साथ
निकल चुका है बुलडोज़र
हजारों हजार साल की संस्कृति को कुचलते
और लोग खुश है.
अदनान कफ़ील दरवेश
महशर
बहुत पुराना है उनका दुःख
पुरानी चादरों और पुराने कम्बलों से भी पुराना
पुराने बर्तनों और पुराने पीपल के दरख़्तों से भी पुराना
जर्जर कुओं, सूखे तालाबों, बंजर चरागाहों और खण्डहर मकानों से भी पुराना
उजाड़ परित्यक्त रेल संपत्तियों से भी पुराना
पुराने ज़ख़्मों और पुरानी अवैध कॉलोनियों से भी पुराना
रेत और बर्फ़ से भी प्राचीन है उनका दुःख
धरती और समुद्र से भी पुराना…
जितना पुराना है नमक
उतना पुराना है उनका दुःख
या उससे भी पुराना
कि जितनी पुरानी है हिंसा…
आप सोचते होंगे आख़िर वे कौन लोग हैं
जो धुएँ की मानिंद उठते हैं और फैल जाते हैं
धूल की तरह उड़ते हैं और बैठ जाते हैं
राख की तरह झड़ते हैं और खो जाते हैं
आप जानना चाहते होंगे उनके नाम
उनके बाप दादाओं के नाम
उनकी ज़बान और उनके मज़हब का नाम !
उनके नाम अलग-अलग भाषाओं में हैं
और मज़हब कोई भी हो
लेकिन उनके डर अद्भुत रूप से समान हैं
वे दुनिया के सबसे पुराने मकीन हैं
और सबसे पुराने मुहाजिर भी
उनके चेहरे भी मिलते-जुलते से हैं
वे दुनिया के सबसे सताए हुए लोग हैं
वे अपने मुहल्लों और बस्तियों में भी विस्थापितों की सी ज़िंदगियाँ बसर करने पे मजबूर किये जाते हैं
उनके घरों को दंगों में सबसे पहले आग लगाया जाता है
और सरकारी बुलडोज़रों से सबसे पहले नेस्तनाबूद किया जाता है
वे सबसे ज़्यादा खटने वाले मेहनतकश लोग
सबसे कमज़ोर समझे जाने वाले लोग
एक दिन उट्ठेंगे
और डटकर खड़े हो जाएंगे
तमाम ज़ालिम तानाशाही हुकूमतों के ख़िलाफ़
और अपने सारे पुराने दुःखों का हिसाब माँगेंगे
एक दिन महशर यहीं से उट्ठेगा
यहीं लगेगी सबसे बड़ी अदालत
और होगा न्याय…
आप मज़लूम बस्तियाँ उजाड़ने वाले हुक्मरान लोग
उस रोज़ किस ख़ुदा को याद करेंगे.

अविनाश मिश्र
असुंदर
सुंदर है तुम्हारा संप्रदाय
सुंदर है तुम्हारी सांप्रदायिकता
सुंदर है तुम्हारा ध्वज
सुंदर है तुम्हारी हिंसा
सुंदर है तुम्हारा ईश्वर
सुंदर है तुम्हारी घृणा
सुंदर है तुम्हारा रंग
सुंदर है तुम्हारी परंपरा
सुंदर हो तुम और तुम्हारा राष्ट्र
पर तुम इसे बचाते क्यों नहीं?!
फ़रीद ख़ाँ
मज़बूत राष्ट्र में जो टूट नहीं पाए
1
राष्ट्र की सबसे मज़बूत सरकार,
अपने कदमों से जब नापती है एक राष्ट्र की आबादी
तो उसे वैज्ञानिक भाषा में बुलडोज़र कहते हैं.
अब स्मृतियों और सपनों का
एक विशाल मलबा बनेगा एक राष्ट्र
और उस मलबे पर फहराएगा एक मज़बूत ध्वज.
आ रही है हर दिशा से
मज़बूत सरकार के क़दमों की आहट.
2
दारा शिकोह और सरमद के क़त्ल के बाद भी
एक मज़बूत राष्ट्र में कुछ लोग टूट नहीं पाए.
भगत सिंह और महात्मा गांधी के क़त्ल के बाद भी
मज़बूत राष्ट्र में कुछ लोग टूट नहीं पाए.
दाभोलकर, पानसारे, कलबुर्गी,
गौरी लंकेश और चंदू के क़त्ल के बाद भी
सत्ता के विशाल प्रेक्षागृह में जारी
क़त्ल के अतिरंजित मंचन के बाद भी
जिनको सबक नहीं मिला.
जो एक वक़्त खा कर भी भूखों नहीं मरे,
जिनकी आस्था का संयम ही हत्यारों को चुभता है.
कानों में गरम और पिघला उकसाने वाला
नारा डाले जाने के बावजूद, जो धैर्य की साँस लेते रहे.
उनके धैर्य को नापने को
उठे हैं मज़बूत राष्ट्र के मज़बूत कदम.
संध्या
माई- बाप
मैं क्या करूं
कि, शब्द बदल लेते हैं आकृतियां
कुछ भी बोलने जाओ
उभर जाती है जीभ
ऐंठने लगती हैं अंतड़ियां
लिखा था न्याय और सत्य
खड़ा हो गया बुलडोज़र
ऐन सामने दांत चिरियाये
छोटे बेटे के कपड़ों की पोटली
छत के नीचे दब गई थी
देखते देखते कढ़ाई, तवा, भगोने
परात, खाने का सामान, निगल गया
बुलडोज़र , मुझे भी डाल लेता
दांतों के बीच में, कुछ उठाने समेटने दौड़ती तो
जिन्हें हमने घर समझा
आशियाना समझा
वो तो बुलडोज़र का खाना निकला…
अब क्या करूं
किस तरह न्याय का ककहरा
समझाऊं इन्हें कि,
बुलडोज़र का मुंह बंद हो
क्योंकि, कहीं जाने की
जगह भी तो नहीं मेरे पास
यही मिट्टी, पानी ज़मीन को
पुश्तैनी माना था मैंने ….
हाँ कोई कागज़ भी नहीं है मेरे पास….
सीमा सिंह
बुलडोज़र
भूल कर गुमा दी गई चीजों की कोई संख्या नहीं
जैसे इतिहास के कई पन्ने भूलवश कहीं खो गए
या छिपा दिए गए जानबूझकर पुरातत्ववेत्ता की निगाहों से
जैसे स्याही का नीला रंग खो गया है बहुत बरसों से
लिखे हुए शब्द कोई विश्वास पैदा नहीं करते
वे झूठ के बनाए मेहराबों पर टांग दिए गए
सबसे किफ़ायती हथियार हैं,
सबसे ताकतवर शब्दों ने घेर ली है जगह
सबसे कोमल भाव वाले शब्दों की,
सत्य अब कोई सम्मोहन पैदा नहीं करता
और आसमान को निहारते हुए हम करते हैं प्रतीक्षा
किसी अनहोनी की
कुछ ऐसा जो हमें अचंभित कर सके,
एक ही दिशा में हाँक दिए गए हम सब
चुभलाते जा रहे हैं समय पे डाले गए चारे को
कोई जिज्ञासा कोई प्रश्न नहीं उभरता आँखों में अब
जबकि
असंख्य दृश्यों में घट रहा जीवन निरन्तर
असंख्य आवाज़ों में छुपा हुआ है भीतर का आर्तनाद,
असंख्य भाषाओं में हो रहे उच्चरित शब्द
असंख्य विस्मृतियाँ खोज रही अपनी जगहे
कितना कुछ है जिसका पता लगाया जाना नितांत ज़रूरी है इन दिनों
इससे पहले कि तानाशाह ध्वस्त कर दें हमारे बचे सपनों को किसी बुलडोज़र के नीचे
हमें उठ जाना चाहिए मंसूर के नारे की गूंज की तरह.
अरुण देव
बुलडोज़र
नयी सदी का उजाड़ फैला है
आधुनिकता के उत्तर में
तर्क और विवेक के टूटे हुए पुर्जे बिखरे हैं
आस्था के अनुयायियों की सामूहिक प्रार्थनाओं में जुटने लगी है भीड़
बड़ी रौनक है देवालयों में
सत्ता और सम्पत्ति का यह नव साम्राज्य देसी है
दूसरे की आज़ादी का सम्मान अब जर्जर वह बूढ़ा
सड़क किनारे बच कर चलता हुआ
कुफ्र की संहिताओं में रोज जुड़ रहें हैं अध्याय
इसका विधान न्यायालयों से बाहर दंड तय कर रहा है
उदारता, अहिंसा, सहमेल आरोप हैं
जो उदात्त है मानवीय है वह षड्यंत्र है
जो असहमत है अलग है द्रोही है
कमजोर और लाचार तो संदिग्ध हैं हीं
जिसके मत का कोई मतलब नहीं
वह बेमतलब
घुसपैठिया है
वर्तमान के मरघट में जलती चिताओं से
चुपचाप लौट रहें हैं लोग
विरोध नहीं, विभ्रम है
सहमति और चुप्पी का देश यह
लोग जैसे ख़ुद को सजा दे रहें हों
आग से खेलते-खेलते जैसे
घिर गये हों
इन्हें तैयार कर लिया गया है तानाशाही के लिए
धरती की नागरिकता का प्रकाश स्तम्भ ढह गया है
बुलडोज़र बढ़ रहा है आगे.
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यह शृंखला आगे बढ़ रही है, यह प्रतिरोध को भी अग्रसर कर रही है। अनेक आयाम सामने आ रहे हैं। यह जारी रहे। बधाई। और शुभकामनाएँ।
बहुत-बहुत शुक्रिया और शुभकामना ।आपकी और अशोक जी की टिप्पणियाँ बहुत गंभीर,सुचिंतित,और हर समय के लिए महत्वपूर्ण हैं । सभी साथी कवियों को मज़दूर दिवस का अभिवादन!
मज़दूर दिवस पर मुज़ाहमत की भरपूर सामग्री। वह यंत्र जो मज़दूरों की मदद के लिए बनाया गया था। ताक़त के नशे मेंं लोगों ने मज़दूरों के ख्वाबों और उनके वजूद को कुचलने के लिए इस बुलडोज़र का रुख़ उन्हीं की तरफ़ मोड़ दिया है। अशोक वाजपेयी, अरुण देव और विजय कुमार को इस आयोजन के लिए सलाम।
यह जारी रहे।
यहां दर्ज हो रहा है वह जिसे पढ़कर जान सकेंगे अगले वक्तों के लोग कि किस अंधेरे समय से गुजर रहा था देश। और इस अंधेरे के खिलाफ कैसे गीत लिखे जा रहे थे।
यह जिस प्रतिरोध का आह्वान कर रहा है उसमें हम सब शामिल हैं।
इसके लिए कवियों के साथ साथ आप समालोचन को भी बहुत बहुत शुभकामनाएं।
इन्हें फिर फिर पढ़ना है।
पुनः बधाई
आदरणीय अरुण जी , जब समालोचन को पढ़ता हीं आपका आपके मानस पुत्र समालोचन का मुरीद हो उठता हूं ।
सच कहूं तो गंभीर मनस्थिति में ही समालोचन का पढ़ना चाहा ताकि बहुत कुछ अलक्षित अनकहे को भी देख संकू सुन सकू ।
अभी अभी समाज, संस्कृति, सोच को कुतरते उसपर व्याप्तती सोच,भीड़, सत्ता, तंत्र के जवलंत प्रतीक ’बुलडोजर’ पर आधारित मदन कश्यप, संजय कुंदन जी की कविताएं को पढा।
आपकी कविताएं मन मस्तिष्क को छूती ही नही ,अपितु दलितो ( समाज ,सत्ता के दलनो का शिकार ), इस अमानवीय असंवदेनशील तंत्र के शिकार लोगों के प्रति संवेदना जगाती हैं ।तो *बुलडोजर* के प्रति भी प्रतिकार का भाव जगाती है ।
आपके अंक में चयनित लेखकों की कविताएं इतनी मार्मिक ,इतनी चुटिल है। कि मुझे पढ़ने से ज्यादा खुद को अभिव्यक्त करना लगा ।
बहुत थोड़ा पढ़ा पर तारीफ करने से खुद को रोक नहीं पाया। आशा है आगे भी ऐसे ही जीवन अंक पढ़ने को मिलते रहेंगे ।शुभकामनाओं के साथ 🙏🌷🌷
प्रासंगिक। उल्लेखनीय। महत्त्वपूर्ण।
आज बुलडोजर वाली कविताएं पढ़ीं समालोचन में। पहले खण्ड और दूसरे खण्ड वाली कविताओं दोनों पर समग्र रूप से विचार करते हुए एक सामान्य बात जेहेन में आई।
बुनियादी तौर पर बुलडोजर को लेकर दो तरह की कविताएं हैं- एक में बुलडोज़र सीधे काव्य वस्तु है। दूसरे में वह रूपक है, उसके इर्द गिर्द समय – संस्कृति और समाज है।
पहले तरह की कविताएं गहरे विडम्बनाबोध की मांग करती हैं।30′ के दशक में यह काम ब्रेख्त की कविताएं करती हैं। वे टैंक के समान्तर ताकत और संस्कृति की चेतना का उसी उद्द्वेग के साथ आलोचनात्मक विवेक कविता में निर्मित करती हैं।स्विच की तरह खटाक से वे विरोधाभास रवह देती है।एक तीर सीधे हृदय में घुसता है।
लेकिन उस शब्दावली को प्रतिरोध के तौर पर इतना इस्तेमाल किया गया है कि उसका मुलम्मा घिस चुका है ।अब वे कम ही संवेदित-उद्धवेलित करती हैं। अब वे अधिक सूक्ष्म और नुकीलेपन की मांग करती हैं।
दूसरी तरह की कविताओं में अधिक सम्प्रेषणीयता है ।उसमें सहज़ता है । पठनीयता है।खासकर, उन कविताओं में जहां कवि ने अपने परिप्रेक्ष्य को अधिक व्यापक और विस्तृत किया है।जहां वह तत्काल के तिलिस्म को भेदने की कोशिश करता है।
संभवतः कविता की सबसे बड़ी ताकत है -वह कई समयों में साथ रह सकती है ।यही बात कविता को मनुष्यता की अनिवार्य शर्त बनाती है।
समालोचन का अंक पूरा पढ़ा ।
अद्भुत और अपूर्व ही कहूँगा ।
बुलडोज़र को लेकर अनेक कवियों की कविताओं ने तथा अशोक वाजपेयी के आलेख ने बेहद प्रभावित किया ।
बुलडोज़र को प्रतीक बनाकर आज की सियासत को बेलिबास नंग धड़ंग कर के रख दिया गया है ।
बुलडोज़र का चलना इतिहास का अत्यंत खेदजनक प्रसंग ही कहा जायेगा । अन्य कवियों के अलावा
Sharad Kokas , Madan Kashyap और केशव तिवारी की कविताएं झकझोरती हैं ।
प्रतिरोधी कविताओं का बुलडोजर – भाग -2 की कविताएं पढ़कर लगा कि समकालीन प्रगतिशील कविता का मंसूबा और भी दृढ़ हुआ है। भविष्य में तानाशाही और सत्ता की मनमानी के खिलाफ संघर्षं तेज होगा। बुलडोजर भाग 1 की आग ठंडी नहीं हुई थी कि दूसरे अलाव की आग धधकने लगी है। इसका स्वागत होना चाहिए ण् का पाठ होना चाहिए। इस समय अशोक वाजपेयी जी का साथ मिल रहा है तो निश्चय ही भविष्य संधान में बुलडोजर कविताओं की भूमिका निर्णायक दौर में पहुंच कर ही दम लेंगी।
समय का जरूरी दस्तावेजीकरण.. कविताओं के रूप में दर्ज करने के लिये समालोचन का आभार..
काँप रहा है डर
थर् थर् थर् थर्
घर घर घरर् घरर्
बुलडोजर।
बहुत शुक्रिया और शुभकामनाएँ
यह बहुत महत्वपूर्ण और ज़रूरी कविताएँ हैं
बुलडोजर एक चित्रकथा
एक नया खेल शुरू हुआ है देश में
जिस के न नियम है
न नियत समय
एक निर्मम आदेश से
जब लौह दैत्य चलने लगता है
निरीह और निम्न जन
अपने हिस्से का आस्मान
टूटते हुए देखने लगते है
आहें
आंसू
चीखें
कुछ भी नही काम आता
कवर करते मीडिया के लिए
सब तमाशे का हिस्सा बन जाता है
लोकतंत्र के पास
क्या दिखाने को
कुछ भी नही रह गया है बेहतर
(महाराज कृष्ण संतोषी)
इस अंक की सभी कविताएं समय का सच्चा दस्तावेज है। सभी श्रेष्ठ कवियों की कविताएं जरूरी प्रतिरोध के कुछ और एक नए तेवर के साथ खड़ी है। सभी को शुभकामनाएँ और अरुण सर, को बहुत बहुत बधाई।
रो रहा है इंसानियत
हैवानियत हँस रहा कि
क्रूरता को अंजाम देने
विस्थापन का नाम देने
एक सनकी निजाम देने
ध्वंश हिंसा का नाम देने
काँप रहा घृणा धर-थर
भयभीत नेत्र का स्वप्न मर मर
लाचार बधीर भी चीख रहा है
चिंघाड़ रहा है बुलडोजर
-~ सुरेन्द्र प्रजापति
सामयिक सार्थकता की इबारत बनते शब्द।