• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » बहसतलब (९) : हिन्दी आलोचना की राजनीति : आनन्द पाण्डेय

बहसतलब (९) : हिन्दी आलोचना की राजनीति : आनन्द पाण्डेय

   हिन्दी आलोचना की राजनीति   आनन्द पाण्डेय   यह लेख हिंदी आलोचना की विचारधारा की यात्रा है.  आनन्द ने सहज ढंग से  इस यात्रा की वैचारिकता का विवरण दिया है  और जहां आवश्यकता हैं विवेचन भी किया है. यह लेख नवजागरण, मार्क्सवादी साहित्यिक सिद्धांत, नारीवाद, अस्मिता विमर्श से होते हुए उत्तर आधुनिकता तक फैला है. […]

by arun dev
February 11, 2012
in बहसतलब
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें
   हिन्दी आलोचना की राजनीति  
आनन्द पाण्डेय  

यह लेख हिंदी आलोचना की विचारधारा की यात्रा है.  आनन्द ने सहज ढंग से  इस यात्रा की वैचारिकता का विवरण दिया है  और जहां आवश्यकता हैं विवेचन भी किया है. यह लेख नवजागरण, मार्क्सवादी साहित्यिक सिद्धांत, नारीवाद, अस्मिता विमर्श से होते हुए उत्तर आधुनिकता तक फैला है.
आलोचना के विकास और उसकी राजनीतिक समझ की पड़ताल की एक कोशिश यहाँ है.

हिन्दी आलोचना की विचारधारा, संवेदना और सरोकार जिस साहित्य से बनते और प्रभावित होते हैं, वह राजनीतिक है. जिस समय आलोचना आरम्भ हो रही थी, वह नवजागरण का समय है. इसमें राजनीतिक नवजागरण भी शामिल था. यह नवजागरण पश्चिमी और भारतीय संस्कृति के मिलन, आपसी द्वंद्व और संवाद की उपज था. भारतेन्दु युगीन साहित्य इसी नवजागरण का साहित्य है. राजनीतिक पराधीनता ने इस समय के लेखकों की राजनीतिक चेतना को प्रखर बना दिया था. उनके सामने यह स्पष्ट था कि देश को जब तक राजनीतिक स्वाधीनता नहीं प्राप्त होगी तब तक उसका कल्याण असंभव है. इसीलिए उस युग में एक नई तरह की राजनीतिक चेतना का विकास हुआ जिसकी अभिव्यक्ति उस समय के बहुप्रचलित पदबंध ‘देशवत्सलता’ में बड़ी अच्छी तरह से होती है. यह देशवत्सलता इस समय की साहित्यिक और राजनीतिक चर्चा का एक प्रमुख विषय और उद्देश्य था. अंग्रेजी साम्राज्य के प्रति राजभक्ति और राष्ट्रभक्ति के द्वंद्व के बावजूद इन लेखकों का साहित्य भारत में राष्ट्रीयता के विकास का काम करता है. ऐसा लगता है कि राजदंड के कोप से अपनी लेखकीय स्वतंत्रता की रक्षा के लिए इन लेखकों ने राजभक्ति का प्रदर्शन एक रणनीति के तहत किया. हृदय से वे राजभक्त थे, ऐसा नहीं लगता.

हिन्दी आलोचना जब रामचंद्र शुक्ल के यहां पहुंचती है तब उसमें साहित्य और राजनीति की एकता का अपूर्व विकास होता है. उन्होंने समय-समय पर शुद्ध राजनीतिक और आर्थिक विषयों पर लेखन तो किया ही बल्कि ‘जनता’ को आलोचना में स्थापित भी किया. उनकी आलोचना साम्राज्यवाद-विरोध और भारतीय जनता की मुक्ति-आकांक्षा से लैस है. उनसे पहले यह काम महावीरप्रसाद द्विवेदी ने बड़े प्रभाव के साथ शुरू किया था. शुक्लोत्तर आलोचकों में नंददुलारे वाजपेयी और हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपनी आलोचना के माध्यम से आलोचना और राजनीति के सरोकारों का अपनी-अपनी तरह से विकास किया. साहित्य के साथ-साथ इन आलोचकों ने राजनीति को भी आलोचना का विषय बनाया. दोनों के लक्ष्यों की एकता की परंपरा को दृढ़तर बनाया.

मार्क्सवादी आलोचना में आलोचना और राजनीतिक के लक्ष्य पूर्णतः एक हो गये. मार्क्सवादी आलोचकों का कम्युनिस्ट पार्टी से संबंध था, राजनीति से वे अधिक जीवंत रूप में जुड़े हुए थे. इसलिए, राजनीति उनके लिए संवेदना और विचारधारा का ही प्रश्न नहीं थी, बल्कि आलोचना-कर्म और जीवन-कर्म का भी अनिवार्य अंग थी. परवर्ती मार्क्सवादी आलोचकों के लिए धीरे-धीरे पार्टी कम महत्वपूर्ण होती गयी और आलोचना अपनी राजनीति में अधिक सघन, जीवंत और जनतांत्रिक होती गयी, राजनीति से उसका संबंध गाढ़ा होता गया. आज वह एक साथ राजनीतिक भी रह सकती है और एक विधा के रूप में अपने स्वभाव की रक्षा और सम्मान भी कर सकती है.

मार्क्सवादी आलोचना के विपरीत एक ऐसी आलोचना-धारा सक्रिय रही और है जिसकी मान्यता है कि साहित्य को राजनीति या अन्य अनुशासनों का उपनिवेश नहीं बनाया जाना चाहिए. हालांकि, उसकी इस मान्यता के राजनीतिक निहितार्थ समय-समय पर स्पष्ट होते रहे, फिर भी वह राजनीति से दूर नहीं रही. उसमें राजनीतिक सरोकार न केवल मौजूद हैं बल्कि वह राजनीति से उस रूप में दूर भी नहीं है, न होना चाहती है, जिस रूप में आमतौर पर माना या प्रचारित किया जाता है.

हिन्दी आलोचना के विकास में साहित्यिक विवादों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. ये विवाद साहित्यिक होने के साथ-साथ वैचारिक और राजनीतिक भी हैं. हिन्दी आलोचना का एक बड़ा हिस्सा वाद-विवाद और संवाद के रूप में लिखा गया है. उनमें साहित्य और राजनीति के सार्वभौम और सार्वकालिक मुद्दों को शामिल किया गया है. इन विवादों के कारण प्रायः राजनीतिक रहे हैं और राजनीति ही उनकी दिशा तय करती रही है. इन विवादों में हिन्दी आलोचना के गहरे राजनीतिक सरोकार और राजनीतिक प्रक्रिया के रूप में उसके व्यवहार स्पष्ट रूपों में व्यक्त हुए हैं.

हिन्दी आलोचना की राजनीतिक प्रक्रिया, राजनीति से संबंध और उसके राजनीतिक सरोकारों के अध्ययन की दृष्टि से बीसवीं सदी के अंतिम दशक की आलोचना एक प्रासंगिक विषय है. यह समयावधि कई मायने में निर्णायक रही है. इसी में रूस की समाजवादी सत्ता का पतन हुआ फलतः विश्व पूंजीवाद के पक्ष में एकधुवीय हो गया. फलतः अमरीकी नवसाम्राज्यवाद और पूंजीवाद के लिए पूरा मैदान खाली हो गया. भारत में आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया जोर-शोर से आगे बढ़ी. बाबरी मस्जिद गिरा दी गयी और पहली बार हिन्दू साम्प्रदायिक फासीवाद सत्ता के केन्द्र पर स्थापित हुआ. ये सब घटनाएं युगांतकारी थीं और दूरगामी असर डालने वाली भी. हिन्दी आलोचना ने इस दौर के संकटों को सभ्यता और संस्कृति के लिए अभूतपूर्व संकट के रूप में लिया. इसके प्रतिरोध के लिए वह उठ खड़ी हुई.

इसी दशक में कुछ सकारात्मक परिवर्तन हुए जिनसे न केवल सामाजिक परिवर्तन को गति मिली बल्कि प्रतिगामी शक्तियों से संघर्ष की ताकत भी मिली. मंडल आयोग की शिफारिशें लागू की गयीं, फलस्वरूप सामाजिक संबंधों में हो रहे बदलाव को ऐतिहासिक गति मिली. देश के अधिकांश राज्यों में पिछडे़ और दलित समुदायों के नेता सत्ता के केन्द्र बने. स्त्री और दलित संघर्षों ने आन्दोलन की शक्ल अख्तियार की. स्त्री और दलित अस्मिताओं के आलोचनात्मक और राजनीतिक विमर्श ने साहित्य की परम्परागत अवधारणा, प्रतिमानों और भाषा को अपर्याप्त साबित किया. हिन्दी आलोचना ने इन परिवर्तनों में हस्तक्षेप किया तथा इनके लिए वैचारिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आधार भी तैयार किया.

इस दौर में हिन्दी आलोचना जिन समस्याओं और चुनौतियों से जूझती है उनमें उपनिवेशवादी मानसिकता, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था और संस्कृति, साम्प्रदायिकता, फासीवाद, जातिवाद, पुरूषवाद और सामंतवाद तथा अस्मिता की राजनीति प्रमुख हैं.

उदारीकरण के माध्यम से पूंजीपतियों ने राजसत्ता पर कब्जा कर लिया और उसे अपने साधन और सहयोगी के रूप में इश्तेमाल करना शुरू कर दिया. इससे राज्य की ताकत कम हो गई. फलस्वरूप, नब्बे के दशक में राजसत्ता के साथ हिन्दी साहित्य और आलोचना का संबंध बदल गया. पहले जहां किसी भी शोषण और अत्याचार के लिए राज्य को जिम्मेदार मानकर साहित्य और आलोचना सत्ताधारियों और उसकी विचारधारा की आलोचना करती थी वहीं उदारीकरण के बाद जब राज्य कमजोर हो गया और इसका एहसास भी साहित्यकारों को हुआ तो उन्होंने राज्य का विरोध करने की बजाय सीधे-सीध पूंजीवाद को लक्षित किया. उनकी समझ स्पष्ट है पूंजीवाद ही असली सत्ता है. रचना और आलोचना ने पूंजीवादी विचारधारा और संस्कृति की अमानवीयता के विभिन्न पहलुओं को उजागर कर उसके प्रति प्रतिरोध दर्ज कराना शुरू किया. यह हिन्दी रचना और आलोचना की पूंजीवाद, उदारीकरण और राजसत्ता की गहरी समझ का परिणाम है.

हम देखते हैं कि बीसवीं सदी की हिन्दी आलोचना ने अपने समय की सबसे बड़ी चुनौती के रूप में भूमंडलीकरण, बाजारवाद और नव साम्राज्यवाद, सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की राजनीति तथा उसके भारत में स्थापित और प्रोत्साहित करने वाली उदारीकरण की राजनीति को न केवल पहचानती है बल्कि उसके द्वारा उत्पन्न चुनौतियों से भारतीय जनता की रक्षा के लिए चिंतित भी है. इसके साथ ही साथ वह वैचारिक और सांस्कृतिक स्तरों पर उसके प्रतिरोध के प्रति जागरूक और सक्रिय भी है. उसने न केवल वैचारिक और सैद्धांतिक स्तरों पर ऐसा किया है बल्कि हिन्दी रचनाशीलता में निहित साम्राज्यवाद, बाजारवाद तथा सांस्कृतिक आतंक और वर्चस्व की विरोधी चेतना की खोज और समर्थन के स्तर पर भी ऐसा किया है. अपने समय और समाज के प्रति जागरूक और जनता के हितों के प्रति प्रतिबद्ध आलोचना का उदाहरण पेश किया है.

बीसवीं सदी के अंतिम दशक को रचना और आलोचना के अनुकूल तथा जनता के लिए कल्याणकारी बनाने के लिए आलोचना ने जो वैचारिक और आलोचनात्मक संघर्ष किया उसकी वजह से उसकी छवि राजनीति और विचारधारा केन्द्रित आलोचना-धारा की बन गयी. लेकिन, वह साहित्य को साहित्य की तरह लेती है और आलोचना को आलोचना की तरह. वह राजनीतिक है, लेकिन राजनीति शास्त्र नहीं है, वह आर्थिक समस्याओं के प्रति जागरूक है, लेकिन अर्थशास्त्र नहीं है, वैसे ही वह दर्शन से संपृक्त और विचारधारात्मक है, लेकिन शुष्क विचारधारा-विमर्श नहीं. वह साहित्य और आलोचना को सामाजिक उत्पाद मानती है, इसीलिए सामाजिकता उसके लिए मानव-मूल्य के साथ-साथ आलोचनात्मक मान भी है. लेकिन, राजनीति से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी होने की उसकी परम्परा और आग्रह के कारण उसकी वैचारिक कट्टरता और लेखक संगठनों के माध्यम से खेमेबंदी और जोड़-तोड़ की समस्याओं से वह मुक्त नहीं हो पायी.

बीसवीं सदी के अंतिम दशक में भारतीय समाज के विभिन्न क्षेत्रों- राजनीति, साहित्य, आलोचना, विचारधारा और संस्कृति तथा अर्थव्यवस्था-में आए परिवर्तनों को देखने के बाद यह लगता है कि यह उत्तर आधुनिक समाज है. उपभोक्तावाद, उदारीकरण, राज्य की भूमिका का संकुचन, सेवा क्षेत्र में आया विस्तार मीडिया और संचार माध्यमों से नयी और भूमंडलीय संस्कृति का प्रसार. मीडिया, वेब मीडिया, अंग्रेजी भाषा की लगातार बढ़ती लोकप्रियता और वर्चस्व तथा संचार और परिवहन के माध्यमों ने व्यक्ति को एक साथ वैश्विक और स्थानीय बनाना शुरू कर दिया है. भले ही ये परिवर्तन उत्तर आधुनिक विचारधारा या वैचारिकी से प्रभावित नहीं हैं फिर भी इनको उत्तर आधुनिक प्रविधिके आधार पर समझा जा सकता है. इसके अतिरिक्त भारतीय राजनीति में आये अस्मितावादी मोड़ ने भी उत्तर आधुनिक सामाजिक स्थिति का भान कराया है. राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की केंद्रीयता विखंडित होती है और कई छोटे-छोटे जाति और क्षेत्र आधारित दल बनते हैं. इसके अतिरिक्त दो ऐसी और प्रवृत्तियां राजनीति में तेजी से उभरीं जिन्होंने उत्तर आधुनिक स्थिति को स्पष्ट किया. पहली जाति चेतना का राजनीतिकरणहै, तो दूसरी है, विचारधारा की बजाय विकास के नारे और धन के आधार पर चुनाव जीतने की प्रवृत्ति. जाति-चेतना ने राजनीति से सवर्णवादी-ब्राह्मणवादी वर्चस्व और उसकी केंद्रीयता को विखंडित कर दिया तथा हाशिए के लोगों को सत्ता के केन्द्र में ला दिया. उत्तर आधुनिकतावादियों के अनुसार यह उत्तर आधुनिक स्थिति है. इसके अलावा चुनाव प्रबंधन और धन तथा विभिन्न जातियों के सिद्धांतहीन गठजोड़ की राजनीति ने विचारधारा की राजनीति के युग को समाप्त कर दिया है. अब राजनीतिक दल शायद ही कभी विचारधारा का हवाला देते हों या रोना रोते हैं. उत्तर आधुनिकता के अनुसार यह ‘विचारधारा के अंत’ की स्थिति है.

बीसवीं सदी के अंतिम दशक में हिन्दी आलोचना ने अस्मितावादी साहित्यिक-आलोचनात्मक विमर्श का सामना किया, फलस्वरूप, उसने अस्मितावादी विमर्श और राजनीति के खतरों को भी समझा है. हिन्दी की आलोचना अस्मितावादी विमर्श और अस्मिता की राजनीति के प्रश्न से जूझती है और उस विमर्श पर आधारित राजनीति को आगे बढ़ाती है. समय-समय पर उसके अपने वर्गीय व्यवहार और अस्मितापरक अंतर्विरोधों के साथ-साथ उसकी राजनीति की भी पोल खुली है. बावजूद इसके वह आलोचना अस्मितावादी राजनीति और अस्मितावादी विमर्श की समस्या के प्रश्न का समाधान करने की दिशा में आगे बढ़ी है.

ये अस्मितावादी विमर्श अभूतपूर्व नहीं हैं. इनका बोध और इनके कारण हमारी परम्परा में मौजूद हैं. फिर भी बीसवीं सदी के अंतिम दशक में हिन्दी में अस्मितावादी साहित्य और आलोचना का विकास नये रूप में होता है. यह नयापन स्त्री और दलित साहित्य और आलोचना के रूप में सामने आया है. दोनों साहित्य आन्दोलनों की एक बात में समानता है कि दोनों ने सहानुभूति के परम्परागत सिद्धांत की बजाय आत्मानुभूति पर बल दिया और यह रेखांकित किया कि किसी अस्मिता की सच्ची अभिव्यक्ति उस अस्मितागत इकाई का सदस्य ही कर सकता है. दलित साहित्य के लिए यह जरूरी है कि लेखक दलित हो तो स्त्री साहित्य के लिए जरूरी है कि उसका लेखक स्त्री हो. साहित्य की अवधारणा के लिए स्त्री और दलित लेखकों का यह आग्रह एक चुनौती की तरह सामने आया. भारतीय रिप्रजेंटेटिव लोकतांत्रिक राजनीति में भी इसी तरह यह परिघटना सामने आयी कि दलितों का असली प्रतिनिधित्व दलित ही कर सकता है और स्त्री का प्रतिनिधित्व एक स्त्री ही कर सकती है. जाहिर है, यह केवल भागीदारी का प्रश्न नहीं है, बल्कि अस्मिता की खोज का भी है. प्रतिनिधित्व के लिए अब यह जरूरी नहीं रह गया कि विचारधारा सभी का समान रूप से प्रतिनिधित्व कर सकती है. उत्तर आधुनिकतावादी आलोचना साहित्य और राजनीति इन मान्यताओं का यह कहकर समर्थन करती है कि जिसे साहित्य और विचारधारा कहा जाता है वह महा-आख्यान के रूप में किसी एक अस्मिता विशेष का वर्चस्व है.अस्मिताओं का विमर्श साहित्य और राजनीति के क्षेत्र में केन्द्रीयता और वर्चस्व का विखंडन है. वर्चस्व के विरूद्ध छोटी और उपेक्षित तथा शोषित और उत्पीडि़त अस्मिताओं का आत्मरेखांकन है, उनके वर्चस्व से मुक्ति है. दलितों की तरह लेखिकाओं ने भी इस बात को रेखांकित किया है कि पुरूष-चरित्र स्त्रियों के दुख-दर्द और उनकी समस्याओं को समझने में बाधक है इसीलिए स्त्रीवादी साहित्य केवल स्त्री ही लिख सकती है, पुरूष नहीं. दलित और स्त्री अस्मिता की लड़ाई की कामयाबी के लिए यह जरूरी था और है कि वे अपने को राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित करें और सत्ता व्यवस्था को बदलें. जाति व्यवस्था और पुरूष व्यवस्था का नैरंतर्य उसकी राजसत्ता के रूप में स्वीकृति और उपस्थिति के कारण ही बना हुआ है. स्त्री और दलित अस्मितावादी आलोचना के सामने यह स्पष्ट है कि राजसत्ता को बदले बिना न दलित की मुक्ति हो सकती है और न ही स्त्री की. स्त्री की मुक्ति तो दलित की मुक्ति से और कठिन है.

दलित राजनीति के तर्कों, नारों और भाषा से दलित साहित्य और आलोचना का गहरा संबंध है. उसकी तर्कप्रणाली और समझदारी भी राजनीतिक है. वह दलित अस्मिता की राजनीति और आन्दोलन का अभिन्न हिस्सा है. दलित आलोचना में राजनीति एक केन्द्रीय विषय है, इसलिए उसका स्वभाव राजनीतिक है. दलित साहित्य जिन परिस्थितियों की उपज है, उनमें उसका राजनीतिक होना ही स्वाभाविक है.

दलितों की तरह लेखिकाओं ने भी इस बात को रेखांकित किया कि पुरूष-चरित्र स्त्रियों के दुख-दर्द और उनकी समस्याओं को समझने में बाधक है. स्त्रीवादी साहित्य केवल स्त्री ही लिख सकती है, पुरूष नहीं. नब्बे के दशक की दलित और स्त्री अस्मितावादी आलोचना की लड़ाई की कामयाबी के लिए यह जरूरी था कि वे अपने को राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित करें और सत्ता व्यवस्था को बदलें. इसलिए स्त्रीवादी आलोचना प्रक्रिया और सरोकारों के साथ-साथ लक्ष्य की दृष्टि से भी राजनीतिक है.

हिन्दी के स्त्री और दलित-विमर्श हिन्दी भाषा के स्त्री-विरोधी पुरूषवादी और दलित-विरोधी सवर्णवादी चरित्र की आलोचना और उससे मुक्ति के तरीकों पर केन्द्रित हैं. यहां प्रश्न भाषा में निहित स्त्री और दलित-विरोधी संस्कारों और पुरूषवादी-सवर्णवादी विचारों से मुक्ति का है.
…………………..
आनंद पांडेय 
अम्बेडकर नगर, उत्तर प्रदेश.
जामिया मिल्लिया इस्लामिया (एम.फिल.) और  जे.एन.यू. (पी.एचडी), से उच्च शिक्षा
स्वतंत्र अनुवादक  और राजनीतिक टिप्पणीकार
छात्र राजनीति से जुड़े हैं.
ई पता : anandpandeyjnu@gmail.com
Tags: आनंद पाण्डेय
ShareTweetSend
Previous Post

बहसतलब (८ ) आलोचना का संकट : कितना वास्तविक :: गंगा सहाय मीणा

Next Post

निज़ार क़ब्बानी : रीनू तलवाड़

Related Posts

कौन हैं भारत माता ? : आनंद पाण्डेय
समीक्षा

कौन हैं भारत माता ? : आनंद पाण्डेय

आलेख

अदम गोण्डवी : मुक्तिकामी चेतना का कवि : आनन्द पाण्डेय

आलेख

गांधीवाद रहे न रहे : आनंद पांडेय

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक