भूमंडलोत्तर कहानी – 20
हिन्दी कहानी के परिसर का विस्तार (संदर्भ: प्रत्यक्षा की कहानी ‘बारिश के देवता’)
राकेश बिहारी
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प्रत्यक्षा की कहानी ‘बारिश के देवता’, जिसका चयन प्रख्यात कथाकार उदय प्रकाश ने ‘राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान – 2018’ के लिए किया है, से गुजरना मेरे लिए एक अत्यन्त ही आत्मीय माहौल से रूबरू होने जैसा है. इस कहानी का केंद्रीय चरित्र ‘रा स कुलकर्णी’ जो डिग्रीधारी कॉस्ट अकाउंटेंट है, एक सार्वजनिक संस्थान में फाइनान्स ऑफिसर के पद पर कार्यरत है. नौकरी के शुरुआती कुछ दिन वेतन अनुभाग में कार्य करने के बाद वह संविदा मूल्यांकन वाले अनुभाग में पदस्थापित कर दिया जाता है, जो इस कहानी के मूल कथानक का घटनास्थल है. किसी कहानी के पात्र की व्यावसायिक योग्यता और ‘जॉब प्रोफाइल’ का हूबहू किसी पाठक की निजी स्थितियों से मिल जाना उस पाठक के लिए कितना सुखद हो सकता है, वह इस वक्त मुझसे बेहतर कौन महसूस कर सकता है?
हमपेशा होने के कारण प्रत्यक्षा और मैं ऐसे कुलकर्णियों की मनोदशा को समान धरातल पर महसूस कर सकते हैं. हालांकि व्यावसायिक योग्यता (आई सी डब्ल्यू ए यानी कॉस्ट अकाउंटेंसी) की समानता कुलकर्णी को खुद प्रत्यक्षा से भी ज्यादा मेरे करीब ला खड़ा करती है. इसलिए किसी कहानी में कुलकर्णी जैसे पात्र से मिलना मेरे लिए एक स्तर पर खुद से मिलने जैसा भी है. ‘कथापात्र में पाठक को खुद की छवि दिख जाना’ यदि किसी कहानी की सफलता की कसौटी हो तो ‘बारिश के देवता’ को निश्चित ही एक सफल कहानी माना जाना चाहिए.
पिछले वाक्य में प्रयुक्त ‘यदि’ और ‘तो’ के रास्ते मैं इस कहानी के भीतर दाखिल होऊँ, इसके पहले एक दिलचस्प बात यह कि इस कहानी को मेरे भीतर स्थित तीन किरदारों ने तीन अलग-अलग दृष्टि से पढ़ा है. मेरे भीतर के तीन किरदार- एक वह जो पेशे से कॉस्ट अकाउंटेंट है और संयोग से ‘रा स कुलकर्णी’ जैसी ही नौकरी करता है, दूसरा वह जो कहानियों का एक शौकीन पाठक है और तीसरा वह जो गाहे-बगाहे, साधिकार-अनाधिकार कहानियों पर बात करता है, जिसे आप अपनी कसौटी और सदाशयता के अनुसार टिप्पणीकार, समीक्षक, आलोचक या कुछ और भी कह सकते हैं.
पहले किरदार का नजरिया यानी एक अकाउंटेंट की राय
कारपोरेट, मैनेजमेंट, अकाउंटेंट जैसे शब्द सामान्यतया लेखकीय सहानुभूति के योग्य नहीं माने जाते रहे हैं. पिछले बीस-पच्चीस वर्षों के दौरान भूमंडलीकरण और उदारीकरण के बहाने निर्मित नए आर्थिक-सामाजिक पर्यावरण के बीच सांस लेते हुये व्यक्ति, नौकरीपेशा और लेखक तीनों ही रूप में मैंने यह महसूस किया है कि छोटे-बड़े व्यावसायिक संस्थानों के भीतर उन पेशेवरों का एक नया सर्वहारा वर्ग तैयार हो गया है जिसकी चिंता अमूमन लेखकीय परिसर में नहीं की जाती रही है. संदर्भित कहानी का केंद्रीय चरित्र ‘रा स कुलकर्णी’, इसी समुदाय का एक सदस्य है. इसलिए किसी कहानी की चिंता के केंद्र में ऐसे व्यक्ति का होना मेरे लिए निजी तौर पर संतोष और खुशी दोनों का विषय है. हिन्दी कहानी की चौहद्दी के इस विकास को कहानी के सतत जनतांत्रीकरण की दिशा में बढ़े एक और कदम की तरह देखते हुये इसे इस कहानी का सबसे बड़ा हासिल माना जाना चाहिए.
जब कहानी का चरित्र और उसकी स्थितियाँ किसी पाठक को अपने जैसी लगने लगें तो कहानी से उसकी अपेक्षाएँ भी बढ़ जाती हैं. वह अपने जैसे पात्र को कहानी में देख कर एक तरफ जहां खुश होता है वहीं दूसरी तरफ संवेदना और तथ्य दोनों ही कसौटियों पर हर कदम कहानी को कसता चलता है. मेरे भीतर का ‘फ़ाइनेंस प्रोफेशनल’ भी इस कहानी को पढ़ते हुये ऐसी ही अपेक्षाओं से भरा हुआ था. हर कदम कुलकर्णी की जगह खुद को रख के देखने और वैसी ही स्थितियों में अपने भीतर उत्पन्न हो सकने वाले तनावों को कुलकर्णी के जीवन-व्यवहार में खोजने की कोशिश से विनिर्मित पाठ प्रक्रिया से गुजरते हुये मैंने महसूस किया कि एक सार्वजनिक संस्थान में करणीय-अकरणीय, स्वीकार्य-अस्वीकार्य, नियमसम्मत और नियम के प्रतिकूल की परस्पर विपरीत परिस्थितियों के बीच वरिष्ठ से वरिष्ठतम अधिकारियों तक के दबाव से जूझता एक कनिष्ठ अधिकारी जिस तरह के मानसिक त्रास, बेचैनी, भय, असुरक्षा, गुस्सा, प्रतिरोध आदि के सघन संजाल में घिरा रहता है, कहानी में व्यक्त कुलकर्णी की व्यावहारिक अभिक्रियाएं उसके आसपास भी नहीं पहुँच पातीं.
कुलकर्णी का तनाव यदि पाठक के तनाव में परिवर्तित नहीं हो पाता है तो इसका कारण यह है कि कहानी कुलकर्णी के संवेदना पक्ष से ज्यादा संविदा प्रक्रिया के ब्योरों पर फोकस करती है. लेकिन ऐसा करते हुये कहानी में संविदा और निविदा की मूल्यांकन प्रक्रिया जिस तरह से घटित होती दिखाई गई है वह सामान्य प्रक्रिया के उलट होने के कारण मुझ जैसे पाठकों को एक तकनीकी खामी की तरह लगातार परेशान करती है. टेंडर के मूल्यांकन की प्रक्रिया में ‘क्वालिफ़ाइंग रिक्वायरमेंट’ की जांच पहले की जाती है और इसमें सफल होने वाले संविदाकारों के ‘प्राइस बिड’ का ही मूल्यांकन किया जाता है. पर विवेच्य कहानी में टेंडर के मूल्यांकन की इस सामान्य प्रक्रिया को उलटते हुये संविदाकारों द्वारा कोट किए गए मूल्यों का तुलनात्मक अध्ययन पहले दिखाया गया है और संविदाकारों के ‘क्वालिफ़ाइंग रिकव्यारमेंट’ की जांच बाद में की गई है. एक सामान्य पाठक जो टेंडरींग प्रक्रिया की इन बारीकियों को नहीं जानता है उसके पाठ में इस तकनीकी खामी से कोई फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन इन तकनीकी बारीकियों को समझने वाले पाठकों के लिए यह एक बड़ा तकनीकी दोष है जिसे वित्तीय अनियमितत्ताओं के दौरान सामान्य प्रक्रियाओ के उल्लंघ्न के नाम पर भी नहीं स्वीकार किया जा सकता है.
पारिभाषिक शब्दों के हिन्दी पर्याय का इस्तेमाल करते हुये भी लेखक को सतर्क होने की जरूरत होती है, जिसके अभाव में कई बार छोटी असावधानी बड़ी दुर्घटना का कारण बन सकती है. विवेच्य कहानी में भी इसका एक उदाहरण देखा जा सकता है. ध्यान दिया जाना चाहिए कि कहानी में वित्त, संविदा और इंडेंटिंग विभाग की जो तीन सदस्यीय कमिटी बनाई गई है उसे लेखिका ने एक जगह ‘आकलन’ तो दूसरी जगह ‘मूल्यांकन’ समिति कहा है. एक जैसा अर्थ ध्वनित करने बावजूद इन दोनों शब्दों के अर्थ में एक बारीक अंतर है. आकलन जहां ‘इस्टिमेट’ का पर्याय है वहीं मूल्यांकन ‘इवैल्यूशन’ का. गौरतलब है कि ‘इस्टिमेशन’ जहां टेंडरिंग प्रक्रिया शुरू होने के पहले की कार्रवाई है वहीं ‘इवैल्यूएशन’ टेंडरिंग प्रक्रिया का लगभग आखिरी (सेकेंड लास्ट) चरण. बहुत संभव है कि कहानी में हुई ऐसी चूकें एक सामान्य पाठक के पाठ में कोई अवरोध न उत्पन्न करे, पर महज इस कारण से भाषाई प्रयोगों में होनेवाली ऐसी चूकों को स्वीकार्य तो नहीं ही माना जा सकता है न!
गैरउपयोगी अपेंडिक्स के औचित्य पर प्रश्नचिह्न उर्फ दूसरे किरदार की प्रतिक्रिया
कहानी पढ़ने का शौकीन एक पाठक किसी कहानी में सबसे पहले पठनीयता और कहानीपन खोजता है. लेकिन ‘पठनीयता’ और ‘कहानीपन’ जैसी अवधारणाओं के लिए कोई सर्वमान्य कसौटी नहीं बनाई जा सकती. पठनीयता और कहानीपन के मानक और मायने तय करने में पाठकों की साहित्यिक चेतना और बौद्धिक स्तर की भी भूमिका होती है. भाषा की बारीक और कलात्मक कताई तथा संवेदनाओं के अमूर्तन की जटिलताओं के कारण प्रत्यक्षा की कहानियाँ परिष्कृत पाठकीय चेतना की मांग करती हैं. लेकिन उनकी कहानियों में सामान्यतया अमूर्तन की शिकायत करनेवाले पाठकों के लिए ‘बारिश के देवता’ उनकी अन्य कहानियों की तुलना में ज्यादा कथात्मक है या यूं कहें कि प्रत्यक्षा इस कहानी में कथासूत्र की उपस्थिति को लेकर ज्यादा सजग हैं.
हालांकि बिंबों-प्रतीकों की प्रयोगधर्मी रचनाशीलता जो प्रत्यक्षा के लेखन की खास विशेषता है, इस कहानी में भी मौजूद है, तथापि अपनी रचनाशीलता के बने-बनाए घेरे को जिस तरह वे इस कहानी में तोड़ती हैं, वह उल्लेखनीय और सराहनीय है. पर हाँ, क्या ही अच्छा होता यदि वे इस क्रम में कहानी के अंत में जोसेफ हेलर के प्रसिद्ध उपन्यास ‘कैच 22’ का संदर्भ देने के लोभ का संवरण कर पातीं. कारण कि इस संदर्भ के बिना पढे जाने पर जहां कहानी किसी अपूर्णता का अहसास नहीं कराती वहीं इसके साथ पढ़ने पर कहानी के मूल्य में कोई अभिवृद्धि नहीं होती.
इस तरह के नए और तकनीकी अनुभव क्षेत्रों की कहानियों में भाषा की बड़ी भूमिका होती है. हिन्दी की कहानी में यथासंभव हिन्दी शब्दों का प्रयोग सराहनीय है. पर संवाद और पारिभाषिक शब्दों को लिखते हुये कई बार अंग्रेजी के शब्द कहानी की संप्रेषणीयता को सहज और विश्वसनीय बनाने के लिए जरूरी होते हैं. गौर किया जाना चाहिए कि एक अलग और अपरम्परागत अनुभव क्षेत्र की प्रतीति को साकार करने के लिए इस कहानी में जो भाषाई प्रयोग हुये हैं कई बार संप्रेषणीयता में बाधा उत्पन्न करते हैं. उदाहरण के तौर पर केंद्रीय चरित्र के नाम को लिया जा सकता है. सामान्यतया दफ्तरों में अधिकारियों के नाम का लघुरूप ही प्रचलन में होता है, जो उनके नाम के अलग-अलग हिस्सों के प्रथमाक्षरों को उनके ‘सरनेम’ (सामान्यतया जातीय उपनाम) के साथ जोड़कर बनाया जाता है. लोगों को सिर्फ ‘सरनेम’ से भी बुलाये जाने का भी चलन है. पर इस कहानी में जिस तरह केंद्रीय चरित्र के नाम के लघुरूप का हिंदीकरण किया गया है, वह अपनी असहजता के कारण कहानी के पाठ को अवरुद्ध करता है.
क्या ही अच्छा होता कि अत्यन्त सहजता के साथ ‘साइनस’ के ‘प्रोब्लेम’ को ‘अक्यूट’ बताने वाली यह कहानी अपने अन्य पात्रों- महाजन, शर्मा, गुप्ता, नायर आदि की तरह ‘रा स कुलकर्णी’ को सिर्फ कुलकर्णी से ही संबोधित करती. हो सकता है कहानी और जीवन में कुलकर्णी जैसों की असहज स्थितियों को अभिव्यंजित करने के लिए कथाकार ने कुलकर्णी के नाम का असहजीकरण किया हो, पर ऐसी या इस जैसी कोई अन्य स्थिति इस प्रयोग से अभिव्यंजित नहीं होती.
किन्तु-परंतु की आखिरी किश्त यानी तीसरे किरदार का अभिमत
‘बारिश के देवता’ कहानी के केंद्र में एक निरीह और लगभग ईमानदार फाइनन्स ऑफिसर का जीवन है जो अपने वरिष्ठ अधिकारियों के दबाव में वह सब करने को विवश है जिसकी इजाजत नियम-कानून नहीं देते हैं. निर्दोष होते हुये भी वित्तीय अनियमितता के किसी केस में पनिशमेंट पोस्टिंग झेल रहा कुलकर्णी आगे कुंआ पीछे खाई की स्थिति में है. बॉस की बात न माने तो किसी बदतर जगह पर तबादला और बॉस की बात मान ले तो विजिलेन्स का डर. अलग तरह के इन दो भयों के बीच जी रहे कुलकर्णी के साथ उसकी पत्नी भी है, जिसकी एक ही चिंता है कि कब उसे सूखे क्वार्टर मिलेंगे. कारण कि चेरापूंजी, जहां कुलकर्णी पदस्थापित है, “में हर चीज़ बारिश के हिसाब से तय होती है. मसलन जो ऊपर हैं उन्हें दफ्तर में सूखा इलाका मिला हुआ है, कॉलोनी में सूखे घर मिले हुये हैं… इस जगह सूखा रहना बड़ी नियामत की चीज़ है.”
सूखा यानी सुविधा, गीला यानी असुविधा. . बाहरी-भीतरी शक्तियों के प्रलोभन या भय के दबाव में काम करनेवाले कंपनी के बड़े अधिकारी हों या उनके अधीन्स्थ छोटे कर्मचारी सब के सब सूखे-गीले के इन्हीं खांचों में बंटे हुये हैं. भौगोलिक स्थिति के आधार पर सिस्टम का चरित्र उद्घाटित करने के लिए, ‘सूखे’ और ‘मलाईदार’ पदों के प्रचलित मुहावरे के उलट, नए प्रतीक गढ़ने की कोशिश में जिस तरह यह कहानी सूखा-गीला की बाइनरी निर्मित करने की सायास कोशिश करती दिखती है वह कई बार पाठकों के लिये ऊब का कारण भी हो सकती है. इतना ही नहीं, कुलकर्णी जैसों के जीवन में व्याप्त गीलेपन और बड़े अधिकारियों के जीवन में व्याप्त सूखे के बीच पसरे फासले को चिन्हित करने का प्रयत्न करती यह कहानी अंत तक आते-आते जिस अप्रत्याशित वाचालता का शिकार होकर भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा होने का जतन करती है, वह कहानीकार के आत्मविश्वास की कमी को ही रेखांकित कर जाता है.
कहानी में सबकुछ आरोपित कर देने की इस लाउड कोशिश का ही नतीजा है कि मैला ढोने तक के लिए भी वह कुलकर्णियों को ही अभिशप्त मान बैठती है. कहने की जरूरत नहीं कि कुलकर्णी मैला ढोने के काम में लगे जातीय समूह से नहीं आते हैं. अच्छा होता यदि यह कहानी कुलकर्णी जैसों के जीवन की विवशता से उत्पन्न विडंबनाओं को अभियंजित करने का ही काम करती. तब पाठक खुद- ब- खुद उन दुरभिसंधियों की पहचान कर लेते जो इन समस्याओं के मूल में हैं.
किसी कहानी के भीतर निहित कथातत्व के प्रभावी सम्प्रेषण में भाषा और कहन की शैली की बड़ी भूमिका होती है. कहानी में व्याप्त संभावनाओं और उसके गंतव्य का उचित आकलन करते हुये लेखक यह तय करता है कि कहानी ‘प्रथम पुरुष’ में कही जायगी या ‘अन्य पुरुष’ में. कई बार कथ्य की संश्लिष्टता ‘मैं’ और ‘वह’ की आवाजाही का शिल्प भी अख़्तियार करती है. लेकिन कथानक में छुपी संभावनाओं के सही आकलन के अभाव और तदनुरूप खामीयुक्त भाषा के चयन के कारण ‘मैं’ और ‘वह’ का घालमेल कहानी की संप्रेषणीयता में बाधा उत्पन्न करता है. विवेच्य कहानी की भाषा और कहन दोनों ही में ये कमियाँ देखी जा सकती हैं. उदाहरण के तौर पर कहानी का एक हिस्सा –
“नींद में डूबने के पहले कुलकर्णी खूब सोचता है. रायलसन को कैसे लोवेस्ट बना दें इसकी जुगत सोचता है, फर्गुसन को सीन से आउट कैसे करें ये सोचता है, कौन सी लोडिंग करूँ कि फर्गुसन की प्राईस रायलसन से बढ़ जाये, सोचता है, रायलसन को इन करने से कौन फायदे में आयेगा, ये सोचता है, मेरे कँधे पर बंदूक चलेगी ये सोचता है, कल मामला विजिलेंस में गया तो मेरी नौकरी गई ये सोचता है और आज अगर शर्मा की बात न मानूं तो आज के आज किसी बदतर जगह पर ताबादला, ये सोचता है, फिर ये सोचता है इतना क्यों सोचता हूँ, फिर ये कि इतना सोचना मेरे साईनस को बढ़ायेगा.“
काव्यात्मक अभिव्यक्ति की धनी प्रत्यक्षा स्वभावतः एक शिल्प-सजग कथाकार हैं. लिहाजा अपनी बात कहने के लिए वे नए-नए बिंबों-प्रतीकों का प्रयोग भी करती हैं. उनकी यही प्रयोगधर्मिता इस कहानी में बारिश के देवता का एक ऐसा मिथ रचने की कोशिश करती है जो परंपरा से सर्वथा भिन्न है- “ बारिश के देवता की अराधना सूखे वाले ही करते हैं. हे देवता इतनी बारिश करो कि सब डूब जायें, बस हम कुछ लोग बचे रहें सूखे महफूज़. हे देवता…” बारिश के देवता का मिथक किसी न किसी रूप में प्रायः दुनिया की हर सभ्यता में मौजूद है. भारतीय समाज में इन्द्र को बारिश के देवता की मान्यता प्राप्त है, जो अतिवृष्टि और अनावृष्टि दोनों ही स्थितियों में तारणहार बन कर उपस्थित होते हैं. कमोबेश हर सभयता-समाज में प्रचलित बारिश के देवता की यही भूमिका होती है. यहाँ यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि सुविधासंपन्न वर्ग भी कभी यह नहीं चाहता कि सुविधाहीन वर्ग पूरी तरह डूब जाय या कि समाप्त हो जाये.
सुविधाहीनों की उपस्थिति दरअसल उनके लिए खाद-पानी का काम करती है. पर्याप्त वैचारिक और तार्किक तैयारी के अभाव में किसी बहुप्रचलित और स्वीकृत मिथकीय चरित्र को एक नए रूप में स्थापित कर पाना संभव नहीं होता. संभव है कि बारिश के देवता की निर्मिति की इस कोशिश के मूल में जोसेफ हेलर के उपन्यास ‘कैच 22’ में उल्लिखित ‘रेन गॉड’ का आकर्षण काम कर रहा हो, जिसका उल्लेख खुद लेखिका ने कहानी के अंत में किया है. हालांकि यहाँ ठीक-ठीक यह नहीं पता कि बारिश का देवता कौन है, पर इस बात की संभावना सबसे ज्यादा है कि कहानी शायद ‘रायलसन’ और ‘फर्गुसन’ जैसी कंपनियों को ही बारिश के देवता की तरह देखती हो, कारण कि ये कंपनियाँ हीं सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के मूल में हैं. यदि ऐसा है तो कहानी में रचित सूखे और गीले की बाइनरी के अनुसार उन्हें बारिश का नहीं सूखे का देवता कहा जाना चाहिये.
इस शुक्रवार को अंजुम शर्मा से प्रत्यक्षा की बातचीत में इस कहानी में कमी का ज़िक्र पढ़ा। तो मन हुआ कहानी और उसकी समीक्षा पढ़ी जाये।
आज प्रत्यक्षा की कहानी और उसकी समीक्षा पढ़ी। ख़रीद प्रक्रिया में होने वाली गड़बड़ियों की झलक दिखाने की कोशिश है कहानी में। बाद में गड़बड़ी पकड़ी जाने पर कुलकर्णी जैसे लोग दोषी पाये जाते हैं , बड़े लोग , जिनका निर्णय में प्रभावी हस्तक्षेप रहता है , बच जाते हैं।
कहानी की आलोचना के बहाने राकेश बिहारी जी ने ख़रीद प्रक्रिया की जानकारी देते हुए जिस तरह कहानी की पड़ताल की है वही वह तरीक़ा है जिससे टेंडर में गड़बड़ी की जाती है। मूल बात को दायें-बायें करते हुए अपनी सुविधा के हिसाब से तर्क देते हुए निर्णय सुनाना।
कहानी 2017 में लिखी गई थी। उसका ताना-बाना और पहले का होगा। दस -बारह साल पहले अधिकतर विभागों में लिमिटेड टेंडर सिंगल बिड में होते थे। तो आलोचक का इस आधार पर कहानी में झोल बताना लेखिका ने एक बिड कम कर दी, और यह न बताना कि पहले ऐसे होता था , जानकारी को छिपाना है। 😊
ख़रीदारी बड़ी जटिल प्रक्रिया है। कोई न कोई कंडीशन ऐसी हो साबित की जा सकती है जिसके आधार पर किसी का टेंडर ख़ारिज किया जा सकता है। स्वीकार किया जा सकता है। सब कुछ टेंडर कमेटी की समझ और मंशा और तमाम अन्य बातों पर निर्भर करता है।