बाहर कुछ जल रहा है
अनुवाद : सुशांत सुप्रिय
ज्वालामुखी के गह्वर में स्थित संत ऐन्ना झील एक मृत झील है. यह झील 950 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है और लगभग हैरान कर देने वाली गोलाई में मौजूद है. यह झील बरसात के पानी से भरी हुई है. इसमें जीवित रहने वाली एकमात्र मछली ‘कैटफ़िश’ प्रजाति की है. जब भालू देवदार के जंगल में से चहलक़दमी करते हुए यहाँ पानी पीने के लिए आते हैं तो वे इंसान के यहाँ आने वाले रास्ते से अलग दूसरे ही रास्ते चुनते हैं. दूसरी ओर एक ऐसा इलाक़ा है जहाँ कम ही लोग जाते हैं. यह एक धँसने वाला, सपाट, दलदली इलाक़ा है. आज लकड़ी के तख़्तों से बना एक टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता इस दलदली इलाक़े के बीच में से होकर गुज़रता है. इस झील का नाम काईदार झील है. जहाँ तक पानी की बात है, अफ़वाह यह है कि यहाँ का पानी बेहद ठंड में भी नहीं जमता है. बीच में यह पानी हमेशा गरम रहता है. यह झील लगभग हज़ार सालों से मृत है और यही हाल इस झील के पानी का है. अधिकतर यहाँ एक गहरा सन्नाटा ज़मीन की छाती पर बोझ बनकर मँडराता रहता है.
आयोजकों में से एक ने पहले दिन आने वाले अतिथियों को जगह दिखाते हुए कहा कि यह चिंतन-मनन और घूमने-फिरने के लिए आदर्श स्थान है. इस बात को सबने याद रखा. उनका शिविर सबसे ऊँचे पहाड़ के पास ही था जिसके शिखर का नाम ‘हज़ार मीटर की चोटी’था. इसलिए चोटी के नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे तक दोनों दिशाओं में लोगों का आना-जाना लगा रहा. हालाँकि इसका अर्थ यह नहीं था कि नीचे शिविर में उसी समय ज़बरदस्त गतिविधियाँ नहीं हो रही थीं. हमेशा की तरह समय बीतता जा रहा था. इस जगह की कल्पना करके सोचे गए रचनात्मक विचार और भी ज़बरदस्त तरीक़े से आकार और अंतिम रूप ले रहे थे. तब तक सभी अतिथि अपनी-अपनी नियत जगहों पर स्थापित हो चुके थे. ज़रूरत की कुछ चीज़ें उन्होंने अपने हाथों से लगा ली थीं. अधिकांश ने मुख्य भवन के निजी कक्ष को प्राप्त कर लिया था. लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्होंने काफ़ी समय से इस्तेमाल में न आई झोंपड़ियों में रहना स्वीकार किया था. आगंतुकों में से तीन लोग ऐसे थे जिन्होंने शिविर के केन्द्र-बिंदु वाले भवन की बहुत बड़ी अटारी पर क़ब्ज़ा कर लिया.
यहाँ भी तीनों ने अपने लिए अलग-अलग जगहें निर्धारित कर लीं. यह चीज़ सभी को बेहद ज़रूरी लग रही थी. वे काम करते हुए भी अपनी निजता में अकेले रहना चाहते थे. सभी को शांति चाहिए थी. वे उत्तेजना और अशांति से दूर रहना चाहते थे. इस तरह वे सभी अपने-अपने काम में जुट गए और इसी तरह काम करने में दिन बीतने लगे. ख़ाली समय में बाहर चहलक़दमी की जाती, झील में सुखद डुबकी लगाई जाती और शाम के समय शिविर के किनारे आग जला कर उसके इर्द-गिर्द बैठकर गाने गाए जाते. साथ ही घर की बनी फलोंवाली ब्रांडी पीने का लुत्फ़ उठाया जाता.
यह पूरा विचार ही अविश्वसनीय लग रहा था कि कोई उसे पूरे रास्ते नहीं बल्कि केवल सड़क के एक मोड़ तक छोड़ गया था. इसलिए, किसी को भी उसकी बात पर यक़ीन नहीं हो रहा था. या यदि और सटीक ढंग से कहें तो किसी को यह समझ नहीं आ रहा था कि उसके शब्दों की व्याख्या कैसे की जाए. अत: उसके आने के पहले दिन एकमात्र सम्भव और विवेकपूर्ण वैकल्पिक राय यही लग रही थी कि वह पूरा रास्ता पैदल चलकर आया था. हालाँकि यह राय भी अपने-आप में असंगत लग रही थी. क्या उसने बुख़ारेस्त से अपनी यात्रा इसी प्रकार शुरू की होगी और यहाँ के लिए ऐसे ही निकल पड़ा होगा ? और क्या बिना किसी रेलगाड़ी या बस पर चढ़े वह केवल पैदल चलता हुआ यहाँ तक पहुँच गया था ? फिर तो कौन जानता है , वह कितने हफ़्तों तक पैदल चला होगा.
क्या संत ऐन्ना झील तक की लम्बी यात्रा इसी प्रकार समाप्त करके वह एक शाम छह या साढ़े छह बजे शिविर का मुख्य द्वार खोलकर सीधा वहाँ पहुँच गया था ? जब उससे यह प्रश्न किया गया कि क्या आयोजन-समिति श्री इयोन ग्रिगोरेस्क्यू को सम्मानित कर रही थी, तो उसने उत्तर में केवल रुखाई से अपना सिर हिला दिया.
यदि उसके वृत्तांत की विश्वसनीयता का अनुमान उसके जूतों की हालत से लगाया जाता तो फिर किसी के मन में कोई संदेह नहीं रह जाता. शायद शुरू में वे जूते भूरे रंग के थे. वे गर्मियों में पहने जाने वाले नक़ली चमड़े के हल्के जूते थे. जूतों की अंगूठे वाली जगह पर सजावट की गई थी , लेकिन अब वह सजावट उखड़ कर एक ओर लटकी हुई थी. दोनों जूतों के तल्ले आधे उखड़े हुए थे. जूतों की एड़ियाँ पूरी तरह घिस चुकी थीं और दाएँ अंगूठे के पास एक जूते के चमड़े में छेद हो गया था जिसके कारण भीतर पहनी हुई जुराब वहाँ से नज़र आ रही थी. लेकिन यह केवल उसके जूतों की ही बात नहीं थी. अंत तक इस सब को एक रहस्य बने रहना था. कुछ भी हो , उसके कपड़े दूसरों द्वारा पहने गए पश्चिमी परिधानों से अलग दिखाई दे रहे थे.
ऐसा लगता था जैसे वह 1980 के दशक के दुर्दांत तानाशाह के युग से, उस समय की दुर्दशा के काल से सीधे वर्तमान युग में आ पहुँचा कोई पात्र हो. उसकी अज्ञात रंग की चौड़ी पतलून फ़लालेन जैसे किसी मोटे कपड़े से बनी हुई प्रतीत हो रही थी. वह पतलून उसके टखनों पर स्पष्टता से फड़फड़ा रही थी. किंतु उसने जो कार्डिगन पहन रखा था, वह देखने में और ज़्यादा कष्टकर लग रहा था. वह दलदली-हरे रंग का बेहद ढीला , निराश कर देने वाला कार्डिगन था. उसने उसे चौकोर खाने वाली क़मीज़ के ऊपर पहन रखा था और इस मौसम की गर्मी के बावजूद उसकी क़मीज़ के ठोड़ी तक के सभी ऊपरी बटन बंद थे.
वह किसी जल-पक्षी की तरह पतला-दुबला था और उसके कंधे झुके हुए थे. उसके डरावने, मरियल चेहरे पर दो गहरी भूरी जलती हुई आँखें मौजूद थीं. वे वाक़ई जलती हुई आँखें थीं — किसी अंदरूनी आग से जलती हुई आँखें नहीं, बल्कि केवल प्रतिबिम्बित करती हुईं, जैसे वे दो स्थिर आईने हों जो यह बता रहे हों कि बाहर कुछ जल रहा है.
तीसरा दिन होते-होते वे सभी समझ गए थे कि यह शिविर उसके लिए शिविर नहीं था. यहाँ होने वाला काम उसके लिए काम नहीं था. यह ग्रीष्म ऋतु उसके लिए ग्रीष्म ऋतु नहीं थी. तैरना या अन्य कोई आरामदायक छुट्टी मनाने का उपक्रम, जो आम तौर पर ऐसे सामूहिक आयोजनों का हिस्सा होता है, उसके लिए नहीं था. उसने आयोजकों से अपने लिए एक जोड़ी जूतों की माँग की और वे उसे मिल गए. (उन्होंने उसे वे जूते दे दिए जो बाहर अहाते में एक कील से लटके हुए थे.) वह उन जूतों को पूरा दिन पहनकर शिविर के इलाक़े के भीतर ही ऊपर-नीचे टहलता रहता. वह न तो पहाड़ी पर चढ़ता-उतरता, न ही झील के किनारे टहलने के लिए जाता. वह दलदली झील पर बने तख़्तों के मार्ग पर भी कभी नहीं चलता. वह अपना अधिकांश समय भीतर ही बिताता. कभी-कभी वह इधर-उधर चलता हुआ पाया जाता. ज़्यादातर वह यह देखता रहता कि कौन क्या कर रहा है. वह मुख्य भवन के सभी कमरों के सामने से गुजरता.
वह अपने चेहरे पर अति व्यस्त भाव लिए चित्रकारों, छाप या मुहर लगाने वालों तथा मूर्तिकारों के पीछे खड़े हो कर यह देखता रहता कि हर काम में प्रतिदिन कितनी प्रगति हो रही है. वह अटारी पर चढ़ जाता तथा छप्पर और लकड़ी की झोंपड़ी में घुस जाता, लेकिन उसने कभी किसी से कोई बात नहीं की. पूछने पर भी उसने शब्दों में कभी किसी बात का कोई जवाब नहीं दिया, गोया वह गूँगा-बहरा हो या वह किसी की कही कोई बात नहीं समझ पा रहा हो. उसका व्यवहार शब्दहीन था. जैसे वह उदासीन, जड़ या मूढ़ हो या कोई भूत-प्रेत हो. और तब बाक़ी के सभी ग्यारह लोग सतर्क होकर उसे देखने लगे, जैसे ग्रिगोरेस्क्यू उन्हें देखता था. वे सभी एक नतीजे पर पहुँचे और उन्होंने उस शाम जलती हुई आग के इर्द-गिर्द इस विषय पर चर्चा की. (ग्रिगोरेस्क्यू वहाँ अन्य साथियों के साथ कभी नहीं देखा गया क्योंकि वह हर शाम जल्दी सोने चला जाता था.) अन्य सभी लोग इस नतीजे पर पहुँचे कि उसका यहाँ आगमन आश्चर्यजनक था , उसके जूते अजीब थे और उसका कार्डिगन, उसका भीतर धँसा चेहरा, उसका दुबलापन, उसकी आँखें— ये सभी चीज़ेँ विचित्र थीं. लेकिन उन्होंने पाया कि उसकी एक चीज़ सबसे विशिष्ट थी, जिसका उन्होंने अभी तक संज्ञान भी नहीं लिया था. वह चीज़ वाक़ई आश्चर्यजनक थी. दरअसल यहाँ मौजूद यह प्रख्यात सर्जनात्मक आकृति, जो सदा सक्रिय रहती थी, पूरी तरह से कार्यहीन और ख़ाली थी जबकि बाक़ी सभी लोग काम-काज में व्यस्त थे.
वह ख़ाली था. यानी कुछ भी नहीं कर रहा था. यह बात समझ में आने पर वे सब हैरान रह गए. लेकिन वे ज़्यादा हैरान इस बात पर हुए कि उन्होंने शिविर के शुरुआती दिनों में इस ओर ध्यान ही नहीं दिया था. यदि गिना जाए तो आज आठवाँ दिन चल रहा था. आगंतुकों में से कुछ तो अपनी कला को अंतिम रूप दे रहे थे, किंतु उस अजनबी के कुछ न करने के इस अजीब तथ्य की ओर उन सब ने अब जाकर ध्यान दिया था.
वह वास्तव में कर क्या रहा था ?
उस समय के बाद से वे सभी अनजाने में ही उस पर निगाह रखने लगे. एक बार दसवें दिन उन्होंने पाया कि पौ फटने के बाद से सुबह के पूरे समय काफ़ी अरसे तक ग्रिगोरेस्क्यू कहीं दिखाई नहीं दिया, हालाँकि वह बहुत जल्दी उठ जाता था. अधिकांश लोग तब सोते रहते थे. उस समय किसी ने भी उसे कहीं जाते हुए नहीं देखा. वह झोंपड़ी के पास नहीं था, छप्पर के निकट नहीं था, न भीतर था, न बाहर था. दरअसल इस बीच वह किसी को भी दिखाई नहीं दिया था , गोया वह कुछ समय के लिए ग़ायब हो गया हो.
बारहवें दिन के अंत में कुछ लोगों ने उत्सुकता से भर कर अगली सुबह तड़के उठने का फ़ैसला किया ताकि वे इस मामले की जाँच कर सकें. हंगरी के एक चित्रकार ने सब को सुबह जल्दी उठाने की ज़िम्मेदारी सँभाल ली.
अभी भी अँधेरा ही था जब वे सब अगली सुबह सो कर उठे और उन्होंने पाया कि ग्रिगोरेस्क्यू अपने कमरे से नदारद था. वे सब मुख्य द्वार की ओर पहुँचे, वापस लौटे, और झोंपड़ी तथा छप्पर तक गए किंतु कहीं भी उसका नामो-निशान नहीं था. भौंचक्के होकर उन्होंने एक-दूसरे को देखा. झील की ओर से हल्की हवा बह रही थी, पौ फटने लगी थी और धीरे-धीरे सुबह के उजाले में उन्हें एक-दूसरे की आकृतियाँ दिखाई देने लगी थीं. चारों ओर घना सन्नाटा था.
और तब उन्हें एक आवाज़ सुनाई दी. जहाँ वे खड़े थे, वहाँ से वह आवाज़ बड़ी मुश्किल से सुनाई दे रही थी. वह दूर कहीं से आ रही थी. शायद शिविर के अंतिम छोर से. या ठीक से कहें तो उस अदृश्य सीमा-रेखा के दूसरी ओर से, जहाँ दो बहिगृह मौजूद थे. वे शिविर की सीमा-रेखा पर स्थित थे. ऐसा इसलिए था क्योंकि उस बिंदु के बाद से भू-भाग किसी खुले आँगन जैसा नहीं दिखता था. अभी प्रकृति ने उस मैदान पर वापस क़ब्ज़ा नहीं किया था, किंतु किसी ने उस भू-भाग में कोई रुचि नहीं दिखाई थी. असल में वह एक असभ्य, डरावनी जगह थी जहाँ कोई इंसान नहीं आता-जाता था. शिविर के मालिकों ने भी उस भू-भाग पर इतना ही दावा किया था कि वे वहाँ फ़्रिज और रसोई से निकलने वाला कूड़ा-कचरा फेंक दिया करते थे. इसलिए समय के अंतराल के साथ उस पूरे इलाक़े में अभेद्य, हठी, आदमकद झाड़-झंखाड़ उग आए थे. ये बेकार की कँटीली, मोटी, प्रतिकूल वनस्पतियाँ अविनाशी लगती थीं.
उस पार कहीं से, उस झाड़-झंखाड़ में से उन्होंने वह आवाज़ सुनी जो छन कर उनकी ओर आ रही थी.
वे सब हिचक कर ज़्यादा देर तक रुके नहीं रहे बल्कि एक-दूसरे की ओर देख कर वे आगे किए जाने वाले काम में जुट गए. चुपचाप सिर हिला कर वे उस झाड़-झंखाड़ में घुस गए. वे सब उस आवाज़ की दिशा में आगे बढ़ रहे थे.
वे उस झाड़-झंखाड़ में काफ़ी अंदर तक चले गए थे और अब शिविर की इमारतों से दूर आ गए थे. तब जाकर वे उस आवाज़ के क़रीब पहुँच पाए और यह पता लगा पाए कि शायद वहाँ कोई खुदाई कर रहा था.
वे और आगे बढ़े. अब किसी उपकरण के ज़मीन की मिट्टी से टकराने की आवाज़ स्पष्ट सुनाई दे रही थी. किसी गड्ढे में से मिट्टी निकाले जाने, और उस मिट्टी के लम्बी घास पर गिर कर फैलने की आवाज़ भी साफ़ सुनाई दे रही थी.
उन्हें दाईं ओर मुड़कर दस-पंद्रह कदम आगे चलना पड़ा. किंतु वे वहाँ इतनी जल्दी पहुँच गए कि वे सब ढलान से नीचे लगभग गिरने ही वाले थे. उन्होंने देखा कि वे एक विशाल और गहरे गड्ढे के किनारे खड़े थे. वह गड्ढा तीन मीटर चौड़ा और पाँच मीटर लम्बा था. उस गड्ढे के तल पर उन्हें ग्रिगोरेस्क्यू खुदाई करता हुआ नज़र आया. वह गड्ढा इतना गहरा था कि उसका सिर बड़ी मुश्किल से नज़र आ रहा था. अपने काम में व्यस्त होने की वजह से उसने उन सब के आने की आवाज़ नहीं सुनी थी. वे सब उस गहरे गड्ढे के किनारे खड़े होकर वहाँ से नीचे के दृश्य को देखते रहे.
वहाँ नीचे, उस गहरे गड्ढे के बीच में उन्हें मिट्टी से बनाया गया लगभग सजीव लगने वाला एक घोड़ा दिखाई दिया. उस घोड़े का सिर एक ओर ऊँचा उठा हुआ था. उसके दाँत दिख रहे थे और उसके मुँह से झाग निकल रहा था. वह घोड़ा जैसे किसी भयावह शक्ति से डरकर सरपट दौड़ रहा था, जैसे वह कहीं भाग रहा हो. वे सब इस दृश्य को देखने में इतने मग्न हो गए कि उन्होंने इस बात की ओर बहुत बाद में ध्यान दिया कि ग्रिगोरेस्क्यू ने एक बहुत बड़े इलाक़े से झाड़-झंखाड़ काट दिए थे और वहाँ यह गहरा गड्ढा खोद दिया था. गड्ढे के बीच में मौजूद उस मुँह से झाग निकालते, सरपट दौड़ते घोड़े के आस-पास से उसने सारी मिट्टी हटा दी थी. ऐसा लग रहा था जैसे ग्रिगोरेस्क्यू ने उस घोड़े को धरती के गर्भ से खोद निकाला था, उसे मुक्त कर दिया था जिसके कारण वह आदमक़द घोड़ा सबको दिखाई देने लगा था. ऐसा लग रहा था जैसे वह घोड़ा ज़मीन के नीचे मौजूद किसी भयानक चीज़ से डर कर भाग रहा हो. भौंचक्के हो कर वे सब ग्रिगोरेस्क्यू को देखते रहे जो उनकी मौजूदगी से पूरी तरह अनभिज्ञ अपने काम में व्यस्त था.
वह पिछले दस दिनों से यहाँ खुदाई कर रहा है— उस गहरे गड्ढे के बग़ल में खड़े हो कर उन्होंने अपने मन में सोचा. यानी वह पौ फटने के समय से लेकर पूरी सुबह तक इन सारे दिनों में यहाँ खुदाई करता रहा है.
किसी के पैरों के नीचे से मिट्टी फिसल कर नीचे गिरी और तब ग्रिगोरेस्क्यू ने ऊपर देखा. पल भर के लिए वह रुका. फिर उसने अपना सिर झुकाया और वह दोबारा अपने काम में व्यस्त हो गया. सभी कलाकार खुद को असुविधाजनक स्थिति में महसूस करने लगे. उन्हें लगा कि किसी-न-किसी को कुछ कहना चाहिए.
ग्रिगोरेस्क्यू ने दोबारा अपना काम करना बंद किया और वह नीचे लटकी हुई एक सीढ़ी पर चढ़ कर उस गड्ढे में से बाहर निकल आया. उसने अपनी कुदाल में लगी मिट्टी को ज़मीन पर पटक कर झाड़ा और एक रुमाल से अपने माथे का पसीना पोंछा. फिर वह उन सब लोगों की ओर आया और उसने अपनी बाँहों की धीमी, चौड़ी क्रिया के साथ उस पूरे भू-दृश्य की ओर इशारा किया.
शेष सभी कलाकार गड्ढे के बग़ल में ऊपर खड़े हो कर अपने सिर हिलाते रहे. फिर वे सभी चुपचाप शिविर के मुख्य भवन की ओर लौट गए.
अब केवल विदाई शेष रह गई थी. निदेशकों ने एक बड़े भोज का आयोजन किया, और फिर अंतिम शाम भी आ गई. अगली सुबह शिविर के मुख्य द्वार पर ताला लगा दिया गया. एक बस का प्रबंध किया गया था और कार से बुख़ारेस्ट या हंगरी से आए हुए कुछ लोग भी शिविर से विदा हो गए.
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