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समालोचन

Home » मार्खेज़: अगस्त के प्रेत: अनुवाद: सुशांत सुप्रिय

मार्खेज़: अगस्त के प्रेत: अनुवाद: सुशांत सुप्रिय

‘अगस्त के प्रेत’ 1992 में प्रकाशित मार्खेज़ के कथा-संग्रह ‘Strange Pilgrims’ में संकलित है. आकार में छोटी इस कहानी में उनकी जादुई यथार्थ की शैली नज़र आती है. इससे पहले यहीं मार्खेज़ की ग्यारह कहानियाँ प्रकाशित की जा चुकी हैं. मार्खेज़ में आपकी रुचि हो तो यह बौद्धिक संपदा आपके लिए ही है. इस कहानी का अनुवाद सुशांत सुप्रिय ने किया है. प्रस्तुत है.

by arun dev
June 3, 2024
in अनुवाद
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मार्खेज़: अगस्त के प्रेत: अनुवाद: सुशांत सुप्रिय
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मार्खेज़
अगस्त के प्रेत
अनुवाद: सुशांत सुप्रिय

दोपहर से थोड़ा पहले हम अरेज़्ज़ो पहुँच गए, और हमने दो घंटे से अधिक का समय वेनेज़ुएला के लेखक मिगुएल ओतेरो सिल्वा द्वारा टस्कनी के देहात के रमणीय इलाक़े में ख़रीदे गए नवजागरण काल के महल को ढूँढ़ने में बिताया.

वह अगस्त के शुरू के दिनों का एक जला देने वाला, हलचल भरा रविवार था और पर्यटकों से ठसाठस भरी गलियों में किसी ऐसे व्यक्ति को ढूँढ़ना आसान नहीं था जिसे कुछ पता हो. कई असफल कोशिशों के बाद हम वापस अपनी कार के पास आ गए, और हम सरू के पेड़ों की क़तार वाली , किंतु बिना किसी मार्ग-दर्शक संकेत वाली सड़क के रास्ते शहर से बाहर निकल आए. रास्ते में ही हमें हंसों की देख-भाल कर रही एक वृद्ध महिला मिली , जिसने हमें ठीक वह जगह बताई जहाँ वह महल स्थित था. हमसे विदा लेने से पहले उसने हमसे पूछा कि क्या हम रात उसी महल में बिताना चाहते हैं. हमने उत्तर दिया कि हम वहाँ केवल दोपहर का भोजन करने के लिए जा रहे हैं, जो हमारा शुरुआती इरादा भी था.

“तब तो ठीक है, “उसने कहा, “क्योंकि वह महल भुतहा है.”

मैं और मेरी पत्नी उस वृद्धा के भोलेपन पर हँस दिए क्योंकि हमें भरी दुपहरी में की जा कही भूत-प्रेतों की बातों पर बिल्कुल यक़ीन नहीं था. लेकिन नौ और सात वर्ष के हमारे दोनों बेटे इस विचार से बेहद प्रसन्न हो गए कि उन्हें किसी वास्तविक भूत-प्रेत से मिलने का मौका मिलेगा.

मिगुएल ओतेरो सिल्वा एक शानदार मेज़बान होने के साथ-साथ एक परिष्कृत चटोरे और एक अच्छे लेखक भी थे, और दोपहर का अविस्मरणीय भोजन वहाँ हमारी प्रतीक्षा कर रहा था. देर से वहाँ पहुँचने के कारण हमें खाने की मेज़ पर बैठने से पहले महल के भीतरी हिस्सों को देखने का अवसर नहीं मिला, लेकिन उसकी बाहरी बनावट में कुछ भी डरावना नहीं था. यदि कोई आशंका रही भी होगी तो वह फूलों से सजी खुली छत पर पूरे शहर का शानदार दृश्य देखते हुए दोपहर का भोजन करते समय जाती रही.

इस बात पर यक़ीन करना मुश्किल था कि इतने सारे चिर-स्थायी प्रतिभावान व्यक्तियों का जन्म मकानों की भीड़ वाले उस पहाड़ी इलाक़े में हुआ था, जहाँ नब्बे हज़ार लोगों के समाने की जगह बड़ी मुश्किल से उपलब्ध थी. हालाँकि अपने कैरेबियाई हास्य के साथ मिगुएल ने कहा कि इनमें से कोई भी अरेज़्ज़ो का सबसे प्रसिद्ध व्यक्ति नहीं था.

“उन सभी में से महानतम तो ल्यूडोविको था,” मिगुएल ओतेरो सिल्वा ने घोषणा की.

ठीक वही उसका नाम था. उसके आगे-पीछे कोई पारिवारिक नाम नहीं जुड़ा था- ल्यूडोविको, सभी कलाओं और युद्ध का महान संरक्षक. उसी ने वेदना और विपदा का यह महल बनवाया था. मिगुएल दोपहर के भोजन के दौरान उसी के बारे में बातें करते रहे. उन्होंने हमें ल्यूडोविको की असीम शक्ति, उसके कष्टदायी प्रेम और उसकी भयानक मृत्यु के बारे में बताया. उन्होंने हमें बताया कि कैसे ग़ुस्से से भरे पागलपन के उन्माद के दौरान ल्यूडोविको ने उसी बिस्तर पर अपनी प्रेमिका की छुरा भोंक कर हत्या कर दी, जहाँ उसने अभी-अभी उस प्रेमिका से सहवास किया था. फिर उसने ख़ुद पर अपने ख़ूँख़ार कुत्ते छोड़ दिए, जिन्होंने उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए.

मिगुएल ने पूरी गम्भीरता से हमें आश्वस्त किया कि अर्द्ध-रात्रि के बाद ल्यूडोविको का प्रेत प्रेम के इस दुखदायी, अँधेरे महल में शांति की तलाश में भटकता रहता है.

महल वाक़ई विशाल और अंधकारमय था. लेकिन दिन के उजाले में भरे हुए पेट और संतुष्ट हृदय के साथ हमें मिगुएल की कहानी केवल उन कई चुटकुलों में से एक लगी जिन्हें सुना कर वे अपने अतिथियों का मनोरंजन करते थ.

दोपहर का आराम करने के बाद हम बिना किसी पूर्व-ज्ञान के महल के उन बयासी कमरों में टहलते-घूमते रहे जिनमें उस महल की कई पीढ़ियों के मालिकों ने हर प्रकार के बदलाव किए थे. स्वयं मिगुएल ने पूरी पहली मंज़िल का पुनरुद्धार कर दिया था. उन्होंने वहाँ एक आधुनिक शयन-कक्ष बनवा दिया था जहाँ संगमरमर का फ़र्श था, जिसके साथ वाष्प-स्नान की सुविधा थी, व्यायाम करने के उपकरण थे और चटकीले फूलों से भरी वह खुली छत थी जहाँ हमने दोपहर का भोजन किया था.

सदियों से सबसे ज़्यादा इस्तेमाल की जाने वाली दूसरी मंजिल में अलग-अलग काल-खंडों की सजावट वाले एक जैसे साधारण कमरे थे, जिन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया था. लेकिन सबसे ऊपरी मंज़िल पर हमने एक कमरा देखा जो अक्षुण्ण रूप से संरक्षित था, जिसे समय भी भूल चुका था- ल्यूडोविको का शयन-कक्ष.

वह पल जादुई था. पलंग वहाँ पड़ा था जिसके पर्दों में सोने के धागे से ज़रदोज़ी का काम किया गया था. बिस्तरें, चादरें आदि क़त्ल की गई प्रेमिका के सूखे हुए ख़ून की वजह से अकड़ गई थीं. कोने में आग जलाने की जगह थी जहाँ बर्फ़ीली राख और पत्थर बन गई अंतिम लकड़ी पड़ी हुई थी. हथियार रखने की जगह पर उत्कृष्ट क़िस्म के हथियार पड़े हुए थे और एक सुनहले चौखटे में विचारमग्न सामंत का बना तैल-चित्र दीवार की शोभा बढ़ा रहा था. इस तैल-चित्र को फ़्लोरेंस के किसी श्रेष्ठ चित्रकार ने बनाया था किंतु बदक़िस्मती से उसका नाम उस युग के बाद किसी को याद नहीं रहा. लेकिन जिस चीज़ ने मुझे वहाँ सबसे ज़्यादा प्रभावित किया वह ताज़ी स्ट्रॉबेरी की ख़ुशबू थी जो बिना किसी संभावित कारण के शयनकक्ष के भीतर समाई हुई लग रही थी.

टस्कनी में गर्मियों के दिन लम्बे और धीमी गति से गुज़रने वाले होते हैं और क्षितिज पर रात नौ बजे तक उजाला रहता है. शाम पाँच बजे के बाद हमने समूचे महल का चक्कर लगा लिया था, लेकिन मिगुएल ने ज़ोर दे कर कहा कि हमें सैन फ़्रांसिस्को गिरिजाघर में मौजूद पिएरो देल फ़्रांसिस्का द्वारा बनाए गए भित्ति-चित्र देखने जाना चाहिए. फिर हम चौक के पास मौजूद वृक्षों के नीचे कॉफ़ी पीते हुए बैठे रहे. जब हम अपना सामान लेने के लिए वापस आए तो हमने पाया कि रात का भोजन हमारी प्रतीक्षा कर रहा था. इसलिए हम रात के खाने के लिए वहाँ रुक गए .

जब हम एकमात्र सितारे वाले बैंगनी आकाश तले रात्रि का भोजन कर रहे थे, लड़कों ने रसोई में से ‘फ़्लैश-लाइट’ निकाल ली और महल के ऊपरी मंज़िलों के अँधेरे की छान-बीन करने के लिए निकल गए. मेज़ पर से हमें सीढ़ियों पर सरपट दौड़ने की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं. मुझे ऐसा भी लगा जैसे महल के दरवाज़े शोकाकुल होकर कराह रहे हों. अँधेरे कमरों में से ल्यूडोविको को बुलाए जाने की उनकी आनंददायक आवाज़ें आ रही थीं. दरअसल उन्हीं लड़कों के मन में उस विशिष्ट कमरे में सोने का शैतानी विचार आया था. मिगुएल ओतेरो सिल्वा बेहद ख़ुश हुए और उन्होंने लड़कों की बात का समर्थन किया, जबकि हममें उन्हें ‘ना’ कहने का हौसला नहीं था.

मुझे जैसी आशंका थी, उसके विपरीत रात में हमें अच्छी नींद आई. मैं पहली मंज़िल के एक शयन-कक्ष में सोया था और बच्चे चौथी मंजिल के अगल बग़ल वाले कमरे में सोये थे. दोनों कमरों का आधुनिकीकरण कर दिया गया था और उन कमरों के बारे में कुछ भी विषादपूर्ण नहीं था.

जब मैं नींद आने की प्रतीक्षा कर रहा था, तब मैंने बाहरी कमरे की पेंडुलम-घड़ी को अनिद्रा के बारह घंटे की टन-टन बजाते हुए सुना, और तब मुझे हंसों की देखभाल कर रही उस बूढ़ी महिला द्वारा कही गई डरावनी बात याद आई. लेकिन हम सब इतने थके हुए थे कि जल्दी ही हम एक गहरी, अटूट नींद में चले गए.

सुबह मैं सात बजे के बाद ही जगा. खिड़की के सहारे ऊपर जा रही अंगूर की बेलों में से छन कर शानदार धूप कमरे में आ रही थी. मेरी बग़ल में सोई मेरी पत्नी जैसे मासूमियत के शांत समुद्र में उतरा रही थी. मैंने ख़ुद से कहा “इस युग में भूत-प्रेतों की बात सोचना भी बेवक़ूफ़ी है!” लेकिन तभी स्ट्रॉबेरी की ताज़ा गंध ने मुझे अस्थिर कर दिया. और तब मुझे कमरे के कोने में आग जलाने की वह जगह दिखी जहाँ ठंडी राख और पत्थर में बदल गई अंतिम लकड़ी पड़ी थी. साथ ही मुझे उस उदास सामंत का सोने के चौखटे में टँगा तैल-चित्र दिखा जो तीन शताब्दियों की दूरी लाँघ कर हमें देख रहा था, क्योंकि दरअसल हम पहली मंज़िल के अपने उस शयन-कक्ष में नहीं थे जहाँ हम रात में सोए थे, बल्कि ल्यूडोविको के शयन-कक्ष में थे, जहाँ बिस्तर पर ऊपर एक छतरी थी, पर्दे धूल से भरे हुए थे और बिस्तर की चादरें अभी भी मृत शापिता के गरम लहू से भीगी हुई थीं.

(स्पेनिश से अंग्रेजी में हुए अनुवादों पर आधारित)

सुशांत सुप्रिय
(जन्म : 28 मार्च, 1968)सात कथा-संग्रह, तीन काव्य-संग्रह तथा सात अनूदित कथा-संग्रह प्रकाशित.अंग्रेज़ी में काव्य-संग्रह ‘इन गाँधीज़ कंट्री’ प्रकाशित, अंग्रेज़ी कथा-संग्रह ‘ द फ़िफ़्थ डायरेक्शन ‘ प्रकाशनाधीनसंप्रति: लोक सभा सचिवालय , नई दिल्ली में अधिकारी.पता: A-5001,गौड़ ग्रीन सिटी, वैभव खंड, इंदिरापुरम ग़ाज़ियाबाद – 201014 (उ. प्र.)
ई-मेल : sushant1968@gmail.com
Tags: 20242024 अनुवादthe-ghosts-of-augustअगस्त के प्रेतगैब्रिएल गार्सिया मार्खेज़मार्खेज़सुशांत सुप्रिय
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Comments 2

  1. CHANDRA BHUSHAN says:
    12 months ago

    अनुवाद थोड़ी जल्दबाजी में किया गया लगता है। एक जगह संभवतः स्टोरी का अर्थांतर मंजिल के बजाय कथा कर दिया गया है। ड्रैकुला जैसी भुतही कहानियों में मारखेज को अदभुत फिक्शन दिखाई पड़ता था। लेकिन उनकी अपनी भुतही कहानियां उनके समूचे साहित्य में कोई ऊंचा मुकाम नहीं रखतीं। इस कहानी की अच्छी बात यह है कि हिंसा इसमें अतीत के एक किस्से तक सीमित है। लेकिन उसमें बहे खून की निरंतरता वर्तमान में दर्शक के रास्ते पाठक तक चली आती है। मां बाप की आंख अपने कमरे के बजाय हत्या की जमी हुई जगह पर खुलती है। लेकिन कहानी के क्लाइमैक्स से ठीक पहले तक सारा डर उनके दोनों बेटों पर केंद्रित था, जो इस दंपति का स्थानांतरण या रूपांतरण होने तक कहां, किस हाल में हैं, यह मसला पाठक के लिए खुला छोड़ दिया गया है।

    Reply
    • arun dev says:
      12 months ago

      चंद्र भूषण जी आभार। ठीक करता हूँ।

      Reply

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