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डॉ. राजकुमार की पुस्तक हिंदी की जातीय संस्कृति और औपनिवेशिकता, अपने शीर्षक से ही स्पष्ट है, ‘उत्तर-आधुनिक सह-सबाल्टर्न सह उत्तर औपनिवेशिक विमर्श’ के ‘सैद्धांतिक निष्कर्षों’ के प्रभाव में लिखी गयी है. पुस्तक के लेखक इसका इशारा करते हुए अपनी योजना को इंगित करते हैं, “यूरो-केन्द्रीयता से बाहर निकलने की जद्दोजहद में उत्तर-उपनिवेशवाद का जन्म हुआ. उत्तर-उपनिवेशवाद ने ज्ञानमीमांसा के क्षेत्र में वि-औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया.” (राजकुमार, 2018:153)
उत्तर औपनिवेशिक विमर्शकार रंजीत गुहा भाषाशास्त्र, राजनीतिक-अर्थशास्त्र, यात्रा-संस्मरण, नृविज्ञान (ethnography), विज्ञान, सामाजिकी, मानविकी, कला जैसे सारे अध्ययन-क्षेत्रों में उपनिवेशवाद की मानसिकता के प्रभाव को रेखांकित करते हुए दर्शन को अलग से उभारते हैं. दर्शन में विवरणों/घटनाओं के बरअक्स विचार की छूट है (dealing with ideas rather than events). इसीलिए उनके परिक्षण के केंद्र में आते हैं- हेगेल. उनके आते ही दर्शन की यह विशेषता, विवरणों के बरक्स विचारने की, तर्क के द्वारा उपनिवेशवाद की विचारधाराओं और गतिविधियों की लीपापोती का यंत्र बन जाती है. वे हेगेल के विश्व-इतिहास की धारणा को प्रस्तुत करते हैं (गुहा, 2002: 3-5), अनुवाद से बचने के लिए हिंदी में पहले से ही उपलब्ध अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है.
1986 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘मार्क्स और पिछड़े हुए समाज’ में हिंदी के आलोचक रामविलास शर्मा लिखते हैं,
“इतिहास-दर्शन (Philosophy of History) की भूमिका में हेगेल ने तीन तरह के इतिहास लेखन की चर्चा की है. मौलिक, तथ्यपरक इतिहास घटनाओं का विवरण प्रस्तुत करता है. चिंतन प्रधान इतिहास तथ्यों और घटनाओं की व्याख्या करता है. दार्शनिक इतिहास यह सिद्ध करता है कि मानव इतिहास निरपेक्ष विवेक का प्रतिफलन है. हेगेल अपना संबंध इसी तीसरी तरह के इतिहास से जोड़ते हैं. उनके लिए विवेक (रीजन) निरपेक्ष और अनंत ज्ञान है, असीम शक्ति है. मानव इतिहास द्वारा ईश्वर स्वयं को व्यक्त करता है; वह गुप्त रहस्य न बना रहे, इसीलिए इतिहास द्वारा वह मनुष्य को यह समझने का अवसर देता है कि वह क्या है. वस्तु (मैटर) और चेतना (स्प्रिट) दो भिन्न प्रपंच हैं. वस्तु का सारतत्व गुरुत्वाकर्षण है और चेतना का सारतत्व स्वतंत्रता है. दर्शनशास्त्र मनुष्य को स्वतंत्रता की और ले जाता है. विश्व इतिहास स्वतंत्रता की पहचान में प्रगति के अलावा और कुछ नहीं है.”
(शर्मा, 1986: 249)
हेगल की विचार-सरणी में उपलब्ध ‘भाववादी भंगिमा’ की कार्ल मार्क्स द्वारा प्रस्तुत आलोचनाओं के कुछ टुकड़ों को समेटते हुए रंजीत गुहा अपना स्फटिक विचार स्पष्ट करते हैं कि हेगल के लिए इतिहास, इतिहास में विवेक (reason) है.
\’इतिहास के प्रति यह नजरिया विश्व और उसकी ऐतिहासिकता को निर्मित करने वाले अधिकांश तत्वों से किनाराकशी है. यह एक तरह का पृथक्कीकरण (supersading) है. जहाँ, छंटाई (denial) और संरक्षण (preservation) की संगत अनिवार्य है, यह एक तरह का कथोपकथन (affirmation) है.’
ऊपर-ऊपर देखने से लगता है कि यह विश्व-इतिहास-दर्शन के इतने बड़े अग्रदूत (हेगल) का उत्तरउपनिवेशवादी विमर्श के अग्रदूत (रंजीत गुहा) द्वारा प्रस्तुत सूक्ष्म दार्शनिक निचोड़ है. जबकि सच्चाई यह है कि गुहा द्वारा हेगल के विवेच्य पुस्तक (Philosophy of History) में ही भौगोलिक अन्यता (Geogrophical Otherness) के विवरण प्रच्छन (explicit) रूप से मौजूद हैं. इन्हीं प्रच्छन विवरणों से डॉ. रामविलास शर्मा की पुस्तक मार्क्स और पिछड़े हुए समाज के पचासों पन्ने भर जाते हैं. जहाँ अफ़्रीकी मूल और अफ़्रीकी मूल के अमेरिकन, चीनी, भारतीय, अरबी-पारसी लोगों के बारे में ‘नस्ली’ और ‘पूर्वाग्रहपूर्ण’ टिप्पणियां भरी पड़ी हैं.[ii]इस तरह रामविलास जी निष्कर्ष निकलते हैं कि
“हेगेल का इतिहास-दर्शन यूरोप-केन्द्रित है, नस्लपंथी, गोरी जातियों खासकर जर्मन श्रेष्ठता का कायल है, भौगोलिक नियतिवाद का समर्थक है.”
उत्तरऔपनिवेशिक विमर्श के अग्रदूत गुहा भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं.[iii]
विश्व में, भारत सहित, इतिहास-लेखन और ज्ञान की सक्रिय धाराओं और प्रणालियों पर हेगेलियन-दृष्टि हावी रही है. इसीलिए, उत्तरऔपनिवेशिक अध्य्याताओं के लिए हेगेल और हेगेलियन-दृष्टि पर कुठाराघात अपने देश को, अपनी जातीय ज्ञान परंपरा को पाना या उसके नजदीक जाना लगता है.
(दो)
हिंदी की जातीय संस्कृति से सम्बंधित एक बहस जो उभर कर सामने आती है वह है रामविलास शर्मा की ‘परंपरा का मूल्यांकन’[iv]वाली स्थापनाएं. और ‘परंपरा के मूल्यांकन’ के पीछे जो दृष्टि कायम कर रही थी, वह इस प्रकार है,
“हिंदी जाति की संस्कृति भारतीय संस्कृति का ही एक अंग है…जब वेद-मंत्र रचे गए, तब उस युग के आसपास सिंधु घाटी की महान सभ्यता विकसित हुयी थी. संस्कृत के विशाल वांग्मय के एक छोर पर तक्षशिला में पाणिनि हैं तो दूसरे छोर पर केरल में शंकराचार्य हैं. आधुनिक भाषाओं में लगभग चौथी ईस्वी शताब्दी से अब तक तमिल साहित्य की अटूट गौरवशाली परंपरा है…”
हालाँकि एक अन्य पुस्तक में कहते हैं,
“राष्ट्रीय एकता की स्थापना के लिए यह आवश्यक नहीं है कि हम कल्पना करें कि वेद मंत्र कृष्णा और गोदावरी के किनारे भी रचे गए थे अथवा एक पाणिनि केरल में थे और एक शंकराचार्य तक्षशिला में.”
रामविलास शर्मा पूर्व-चर्चाओं और भविष्य की अवश्यम्भावी आलोचनाओं के प्रति सचेत हैं. “भाषा संस्कृति के निर्माण में सहायक होती है, भाषा द्वारा हम अपनी संस्कृति व्यक्त करते हैं, भाषा स्वयं संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग है.” (शर्मा, 2002: 406) इसके बाद तत्क्षण ही वे स्पष्ट कर देते हैं, जो कि भाषा-सम्बन्धी, संस्कृति-सम्बन्धी अध्ययन की सभी समस्यायों की ‘आसन्न जड़’ होती है, “…संस्कृति केवल विचारधारा नहीं है. उसमें मनुष्य की भावधारा, संवेदनाएं आदि भी सम्मिलित हैं.” (शर्मा, 2002: 407)
(तीन)
हिंदी की जातीय संस्कृति और औपनिवेशिकता पुस्तक की शुरुआत ‘भारोपीय भाषा परिवार’ के प्रणेता विलियम जोन्स की अवधारणा की आलोचना से होती है. आर्य-भाषा परिवार और द्रविड़ भाषा परिवार जैसे विभाजन को टॉमस आर. ट्राटमान के हवाले से नस्लीय मानती है.[v]डॉ. राजकुमार इस तरह भाषा-विमर्श की बहस में उतर जाते हैं. ‘तुलनात्मक भाषा-विज्ञान’ से उनकी स्पष्ट असहमति है,
“इंडो-यूरोपियन भाषा परिवार की परिकल्पना को स्वीकार कर लेने पर हुआ यह कि भारत की कथित आर्य भाषाओं और यूरोप की भाषा के बीच तुलनात्मक अध्ययन के द्वारा सामान्य तत्त्वों को सामने लाने का प्रयास तो खूब हुआ, लेकिन भारतीय भाषाओं के बीच समानता और निरंतरता को देखने और उनके निहितार्थों को समझने की कोशिश लम्बे समय तक कम ही की गयी.”
“संस्कृत चाहे कितनी ही पुरानी हो, पर इसकी गठन शानदार है. यह ग्रीक से अधिक निर्दोष और लैटिन से अधिक भरपूर और दोनों से कहीं अधिक परिष्कृत है. फिर भी उन दोनों के साथ इसकी धातुओं और व्याकरण के रूपों में इतनी समानता है कि वह आकस्मिक नहीं हो सकती. यह समानता वस्तुतः इतनी अधिक है कि इन भाषाओं की छानबीन करने वाला कोई भी भाषाशास्त्री यह माने बिना नहीं रह सकता कि यह सब एक सामान स्रोत से निकली है, जिसका संभवतः अब अस्तित्व नहीं रहा है. इसी तरह का एक कारण, यद्यपि यह इतना जोरदार नहीं है, यह मानने के लिए भी है कि गॉथिक और कैल्टिक दोनों भाषाएँ, एक विभिन्न वाग्भंगी से मिश्रित होते हुए भी उसी स्रोत से निकली है जिससे कि संस्कृत निकली है. और प्राचीन फारसी को भी उसी परिवार से जोड़ा जा सकता है.”
भारोपीय भाषा परिवार के सहारे मानसिक सजातीयता के जिस प्रकाशन की बात राधाकृष्णन कर रहे हैं, उसे भाषा-विज्ञानी सुनीति कुमार चटर्जी (चाटुर्ज्या) कुछ इस प्रकार कह रहे थे, “प्राचीन भारत की ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जातियों को ही भारत वर्ष में ‘आर्य’ नाम से प्रवेश करने वाली ‘विरोस’ की सच्ची संतान कहा जा सकता है…नात्सी जर्मनों को तो यह विश्वास करना सिखाया जाता था कि वे ही ‘विरोस’ के विशुद्धतम वंशज हैं.” (चाटुर्ज्या, 1989: 19)
“जब आर्य लोग भारत आये, तब देश जनशून्य न था. यहाँ भी कुछ ऐसी जातियां और जन बसे हुए थे जिनकी सभ्यता काफ़ी ऊँचे स्तर की थी. प्रागैतिहासिक काल में ‘आर्यों के आक्रमण के सिद्धांत’ के सर्वप्रथम प्रतिपादित होते ही, भारत के उच्चजातीय सुशिक्षित जनगण ने तुरंत ही उसे स्वीकार कर लिया. शिक्षित जनों से प्रायः उच्च वर्ण के हिन्दुओं का ही बोध होता था, और आर्यों के आक्रमण वाले इस सिद्धांत से उनके स्वाभिमान को ठेस नहीं पहुंची. अब वे अपने को मध्य-एशिया से आये हुए उन गौर वर्ण और अत्यंत सुसंस्कृत आर्य विजेताओं की वास्तविक संतान के रूप में मान सकते थे, जिन्होंने जंगली काले अनार्यों के अंधकारमय देश को सभ्यता के प्रकाश से आलोकित किया था इसके अतिरिक्त वे “आर्य” अर्थात भारतीय यूरोपीय भाषाएँ बोलने वाले यूरोपीयों को चचेरे भाइयों के रूप में देख सकते थे.”
आंग्ल इतिहासकारों ने भी इस सम्बन्ध में अपने इन भारतीय बंधुओं को ‘हमारा आर्य भाई, नम्र स्वभाव हिन्दू’ कर सहलाया, सुनीति बाबू कहते हैं कि इस सिद्धांत को आसानी से हजम कर लेने का कारण भारतीय मानस का असाम्प्रदायिक होना था. (चाटुर्ज्या, 1989: 45) डॉ. राजकुमार सुनीति बाबू के इस प्रागैतिहासिक प्राकल्पिक आख्यान को अपनी पुस्तक में विलियम जोन्स के समय स्थिर करते हुए कहते हैं, “चार-पांच हजार वर्षों के अलगाव के बाद यूरोप के आर्यों का अपने बिछुड़े हुए भारतीय आर्यों से मिलन हुआ.” (राजकुमार, 2018: 17)
(चार)
सुनीति बाबू ‘आर्यों के आक्रमण के सिद्धांत’ की हल्की चुटकी तो अवश्य लेते हैं लेकिन उनकी पुस्तक ‘भारतीय आर्यभाषा और हिंदी’ का आधार ‘भारोपीय परिवार’ की अवधारणा ही है. भारत में मोटे तौर पर चार भाषा परिवार हैं, भारोपीय भाषा परिवार, जिससे हिंदी की जातीय संस्कृति और औपनिवेशिकता पुस्तक का समीपी संपर्क है, द्रविड़ भाषा परिवार, ऑस्ट्रोएशियाटिक भाषा परिवार (मुंडा, खासी, कोल, निकोबारी आदि) और चौथा चीनी-तिब्बती भाषा परिवार (नागालैंड).
गौतम बुद्ध के समय यानी म.आ.भा. युग में उत्तर भारत की आर्य भाषा की स्थिति को विश्लेषित करते हुए सुनीति बाबू तीन भाषाई प्रदेश निर्दिष्ट करते हैं, उदीच्य, मध्य देश और प्राच्य, और पूर्व-पश्चिम के भेद को स्पष्ट करते हैं. उदीच्य को वे अब भी छांदस यानी वेद-भाषा के नजदीक मानते हैं और प्राच्य प्रदेश निरंतर छांदस से दूर होता चला गया. उदीच्य के लोग जब प्राच्य आते थे तो उन्हें यहाँ की भाषा समझ में नहीं आती थी. बुद्ध के दो ब्राह्मण शिष्यों को यह विचार आया कि क्यों न बुद्ध के उपदेशों को छान्दस यानी सुसिक्षितों की भाषा में अनुदित की जाएँ! लेकिन बुद्ध ने इस विचार को ठुकरा दिया और जन-सामन्य की बोलियों को ही वरीयता दी.
“…बौद्ध अथवा जैन प्रभाव से विभिन्न प्रादेशिक बोलियों में साहित्य खड़ा हो गया. इस आन्दोलन के पीछे संभवतः कुछ ऐसी भावना थी कि लौकिक भाषा को छान्दस या ब्राहमण ग्रंथों की संस्कृत के विरोध में खड़ा किया जाए क्योंकि यह भाषा प्रथम तो वैदिक कर्मकांड पर आधारित कट्टरपंथी ब्राहमणों की भाषा मानी जाती थी, दूसरे, साधारण जनों के समझने में अत्यंत दुरूह होती जा रही थी; तीसरे, धीरे-धीरे उसका प्रारंभिक भाव तथा अर्थ विलुप्त होता जा रहा था… इस प्रकार परिवर्तित लोक भाषाओं ब्राहमणों के मन में बिल्कुल स्नेह या रस न था. पूर्व में रहते हुए वह हमेशा पश्चिम भूमि की और देखा करता था, जो वैदिक संस्कृति का जन्मस्थान थी, जहाँ का अभिजात समस्त आर्यावर्त के उच्च वर्गों का उद्गम-स्थान था और जहाँ आर्य भाषा अपने विशुद्ध रूप में बोली जाती थी.”
इस तरह सुनीति बाबू वेद, ब्राह्मण और उदीच्य (पश्चिम) की अभिजात संस्कृति विरोध और मगध के आस-पास बौद्ध-जैन के लौकिक साहित्य के प्रादुर्भाव के आलोक में आद्य हिंदी के उद्भव-उत्थान का भ्रमण कर लेते हैं. इस भ्रमण की रही-सही पूर्णता को संत-साहित्य (भक्ति काल) परिधि में तब्दील कर देता है. इन स्थापनाओं के पार्श्व में ‘जॉर्ज गिर्यर्सन, राहुल सांकृत्यायन और काशी प्रसाद जायसवाल’ की सहमति की अनुगूँज समानांतर चलती रहती है.
(पांच)
रामविलास शर्मा भारोपीय भाषा परिवार की अवधारणा के प्रभाव में भारत के भाषा-परिवारों के अध्ययन की निष्पतियों से अपने को अलगाते हैं. वे इस बात पर आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि भारोपीय भाषा परिवार, द्रविड़ भाषा परिवार, चीनी-तिब्बती भाषा परिवार (नागालैंड की भाषाएं) के बोलने वाले सारे लोग बाहर से आये हैं!
“भाषा और समाज’ पुस्तक में मैंने ऐतिहासिक भाषा विज्ञान की मान्यताओं को अस्वीकार किया. इंडो यूरोपियन भाषा के लिए एक आदि भाषा की जगह मैंने अनेक-स्रोत भाषाओं का प्रतिपादित किया… दरअसल किसी एक आदिभाषा का एकांत शुन्य में विकसित होना तभी संभव है जब हम यह मान लें कि उस आदि-भाषा के बोलने वाले किसी एक ख़ास नस्ल के एकांतवासी लोग थे.”
रामविलास शर्मा का उपर्युक्त सिद्धांत-कथन (भिन्नता वाला), जिसे प्रयोगिक जमीन पर संस्कृत-हिंदी के सन्दर्भ में किशोरीदास वाजपेयी ने परखा था, ‘बोली-भाषा’ वाली बहस में रामविलास जी को ज्यादा दूर तक साथ नहीं दे पाती है. बिहार की देश-भाषाओं (बोलियों) को बँगला, असमिया से अलगाने के लिए जहाँ भिन्नताओं का चरम खड़ा किया जाता है, वहीं देश-भाषाओं की खड़ी बोली (हिंदी) से समीपी-संपर्क उकेरने की तत्परता भी दिखती है. क्योंकि इससे ‘हिंदी जाति’ की उनकी अवधारणा की पुष्ट होती है. (शर्मा, 2002: 335-369)
प्राच्य, मध्यदेश और उदीच्य के सन्दर्भ में आद्य-हिंदी को केन्द्रित कर सुनीति बाबू ने एक बात यह भी कही है कि प्राच्य जहाँ ऋण संस्कृत (पश्चकालीन संस्कृत) से, वहीं उदीच्य धन संस्कृत से समर्थित था, अर्थात वे ‘प्राच्य’ के भीतर के प्राच्य को वरीयता देते हुए देशी-भाषा का रास्ता प्रशस्त करते हुए नज़र आते हैं. रामविलास शर्मा इस बात का उत्तर गोल-मोल कर देते हैं, “संस्कृत के विकास में पूर्वी प्रदेशों की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका रही है, इसे न समझ पाने के अनेक कारण हैं. एक कारण इरान-अफगानिस्तान होकर आर्यों के आगमन की कहानी है. दूसरा कारण कुरुक्षेत्र या उससे और भी उत्तर के प्रदेशों वेदों का सम्बन्ध है. तीसरा कारण पूर्वी प्रदेशों के वर्तमान गरीबी है जिससे संस्कृत जैसी भाषा के विकास में उनके योग की कोई कल्पना नहीं करता. (जोर मेरा)” (शर्मा, 2002: 190)
(छह)
किशोरी दास वाजपेयी की एक प्रकल्पना (hypothesis) हिंदी की जातीय संस्कृति और औपनिवेशिकता के लेखक को लम्बी दूरी तक साथ देती है.
“काल की ही तरह देश-भेद से भी भाषा बदलती है, बहुत धीरे-धीरे. आप प्रयाग से पश्चिम चले, पैदल यात्रा करें, चार-पांच मील नित्य आगे बढ़ें, तो चलते-चलते आप पेशावर या काबुल तक पहुँच जायेंगे; पर यह न समझ पायेंगे कि हिंदी कहाँ किस गाँव में छूट गयी-पंजाबी कहाँ से प्रारंभ हुयी-पश्तो ने पंजाबी को कहाँ रोक दिया! ऐसा जान पड़ेगा कि प्रयाग से काबुल तक एक ही भाषा है. परन्तु यह यात्रा यदि वायुयान से करें और प्रयाग से उड़कर पेशावर या काबुल उतरें तो भाषा-भेद से आप चक्कर में पड़ जायेंगे. प्रयाग की भाषा कहाँ और काबुल की भाषा कहाँ! इसी तरह पूर्व की यात्रा पैदल करने पर आप हिंदी की विभिन्न ‘बोलियों’ में तथा मैथिलि-उड़िया-बंगला आदि में अंतर वैसा नहीं लाख पायेंगे. यही क्यों, दक्षिण की ओर चलें, तो ठेठ मद्रास तक पहुँच जायेंगे, भाषा सम्बन्धी कोई भी अड़चन सामने न आएगी. किन्तु वायुयान से उड़ कर मद्रास पहुँचिये, जान पड़ेगा भाषा में महान अंतर! आप कुछ समझ ही न सकेंगे.”
(राजकुमार, 2018: 24)
वाजपेयी जी का यह कथन प्रकल्पना होने के बावजूद (क्योंकि ऐसा विषद पैदल-अनुभव बंजारों और ‘काबुली वालों’ के अलावा किसके पास है?) एक निहितार्थ ग्रहण किये हुए है. यह निहितार्थ ‘मिले और चल दिए’ से आगे जाकर निकलता है, वह है, भाषाई-क्षेत्रों की सांस्कृतिक विशेषता का अनुभव किये बिना उस भाषा की आत्मा को नहीं पाया जा सकता है. ‘साहित्य-उत्पादन’ और ‘संस्कृति-उद्योग’ के सन्दर्भ में यह अति आवश्यक हो जाती है. अंततः डॉ. राजकुमार का जोर इसी बात पर है.
भक्ति द्राविड़ उपजी लाये रामानंद
प्रगट करी कबीर ने सप्तद्वीप नौ खंड
हरिहर निवास द्विवेदी के हवाले से कहा गया है कि बंगाली वैष्णव भक्त कवियों के द्वारा ‘ब्रज भाषा’ शब्द का चलन 17वीं सदी में में व्यापक हुआ. (राजकुमार, 2018: 38) विद्यापति की ‘पदावली’ से प्रभावित होकर बंगला, उड़िया, असमिया कवियों ने, चैतन्य महाप्रभु के समय से ही, जो वैष्णव, राधा-कृष्ण से संदर्भित, पदावलियाँ लिखीं उसे ब्रज बोली (ब्रज बुली) कहा गया (सेन, 1935:1-3). यह एक तरह की ‘कृत्रिम’ (साहित्यिक) भाषा थी. “ब्रजबुली (ब्रज बोली), ब्रजभाव के उद्दीपन में केवल एक देश की भाषा नहीं रही, वह अनेक भाषाओं की भावात्मक संकलनी बन गयी…” (झा, 1974: आमुख)
ब्रजभाषा के ‘कॉस्मोपॉलिटन’ बनने की प्रक्रिया के सन्दर्भ में शेल्डन पॉलक ने स्पष्ट रूप से कहा है कि कॉस्मोपॉलिटन भाषाओं का वर्नाकुलर होना जरुरी ही हो ऐसा नहीं है. इसके लिए वे संस्कृत और लैटिन का उदहारण देते हैं. वहीं कई-एक देशभाषाएँ ऐसी भी हैं जो अपने क्षेत्रीय-संसार में कॉस्मोपॉलिटन का दर्जा पा गयीं. ब्रजभाषा को उसकी स्थानीयता (भाषाई) से काटकर और अन्य ‘क्षेत्रीय देशभाषाओं’ से उसकी भिन्नता को नकार कर उसे कॉस्मोपॉलिटन बना दिया गया. (पॉलक, 1998: 7-8) अतः यहाँ फिर से वही प्रश्न सामने आ जाता है कि क्या ‘राजनीतिक’ कारणों (भक्ति आंदोलन) को किनारे रखकर सिर्फ ‘भाषा के इलाकाई-भ्रमण’ के सिद्धांत (किशोरी दास वाजपेयी) से ब्रज के कॉस्मोपॉलिटन होने को समझा जा सकता है?
इसी से संदर्भित एक अन्य प्रश्न कि किसी एक भाषा के कॉस्मोपॉलिटन वर्चस्व की हानि के उपरान्त दूसरी भाषा का कॉस्मोपॉलिटन स्वरूप उभरता है तो इस प्रक्रिया को आप कैसे रेखांकित करेंगे! क्या इस बात से किसी की आपत्ति होनी चाहिए कि ब्रज के कॉस्मोपॉलिटन होने या भारतीय सन्दर्भ में देशभाषीकरण के पहले संस्कृत कॉस्मोपॉलिटन भाषा थी. ब्रजभाषा के कॉस्मोपॉलिटन भाषा बन जाने के बावजूद ‘भारतीय अभिजात्य’ (दारा शिकोह) और भारतीय अभिजात्य के संपर्क में आने वाले यूरोपीय/विदेशी लोगों के लिए संस्कृत मुख्य आकर्षण था. ग्यारहवीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में अलबरूनी के संस्कृत-अभ्यास से तो परिचित ही हैं.
बर्निअर अपने पत्र की शुरुआत कुछ इस तरह करते हैं,
“आश्चर्यचकित मत होना कि बिना संस्कृत जाने संस्कृत की पुस्तकों से कुछ बातें तुझे बताऊंगा…”
डॉ. राजकुमार का यह कथन जायज है कि देशभाषा और व्यापक रूप से भारतीय वांग्मय में अनुवाद की परम्परा नहीं थी, मूल-ग्रन्थ की अवधारणा नहीं थी, टीका-भाष्य आदि ज्यादा प्रचलित थे. फ़ारसी और यूरोपीय लोगों के संपर्क में जब ‘फ़ारसी’ और यूरोपीय ढंग के अनुवाद की परंपरा चल पड़ी तब भी विदेशियों ने देशभाषा (उत्तर भारतीय) को महत्व नहीं दिया. राजकुमार का यह कहना भी सही हो सकता है कि देशभाषा के ‘पंडित’ कवियों की संस्कृत में पारंगतता थी और रीतिकालीन तक आते-आते उसमें फ़ारसी[vii]भी सम्मिलित हो गयी. लेकिन आश्चर्यजनक रूप वे संत कवियों को ‘ज्ञानी’ कहकर छोड़ देते हैं.
देशभाषीकरण के बाद औपनिवेशिक युग में संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन के अभाव को रेखांकित करते हैं, “संस्कृत सीखने की प्रक्रिया को सबसे बड़ा धक्का लोकभाषीकरण के दौरान नहीं, बल्कि औपनिवेशिक दौर में अंग्रेजीकरण के कारण लगा. इसीलिए इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि संस्कृत ग्रंथों का बड़े पैमाने पर अनुवाद लोकभाषा के अभ्युदय के दौरान नहीं, बल्कि उपनिवेशवाद के दौरान किया गया.” जबकि, कबीर की एक बहुचर्चित पंक्ति को किन्हीं और सन्दर्भ में राजकुमार खुद उद्धृत करते हैं, ‘संस्कीरत है कूप जल भाखा बहता नीर’.
‘परंपरा के आहत नैरन्तर्य’ से बहुविध आयामों से डॉ. राजकुमार खुद परिचित हैं. शुद्ध-हिंदी गढ़ने के प्रयास पर औपनिवेशिक प्रभुओं की ‘सहज छाप’ आरोपित करने के बावजूद वे मानते हैं कि लोकभाषा की पूर्व (प्राच्य) परंपरा के साथ न्याय नहीं हुआ है. ब्रजभाषा (यहाँ हिंदी भी कर दें तो ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है) और उर्दू के अंतर को वे वे सिर्फ लिपि और शब्द-चयन तक सीमित नहीं करते हैं बल्कि कह ही देते हैं कि ऐसा “सांस्कृतिक विरासत के भिन्न स्रोतों से अपना सम्बन्ध जोड़ने के कारण भी है.” (राजकुमार, 2018: 40)
सांस्कृतिक विरासत के ‘निजी’ स्रोतों को कल्पित करने लेने का परिणाम उर्दू-हिंदी की अंतिम परिणति के रूप में हिन्दुस्तान की आज़ादी के साथ देश-विभाजन में दीख जाता है. वली का दिल्ली आगमन, शाह गुलशन से मुलाकात, शाह हातिम (दीवानजादा) का ‘इस्लाह ज़बान’, (भाषा-सुधार, (फ़ारूकी, 2007: 130), (फ़ारूकी, 2003: 805-863), के प्रवर्तक के बतौर उभरना, इंशाअल्लाह खान के उर्दू-मैन्युअल (उर्दू व्याकरण) से लेकर 15 फरवरी 1961 को ग़ालिब के 92वें जयंती पर बाबा-ए-उर्दू अब्दुल हक, जो कभी मानते थे कि उर्दू सिर्फ मुसलामानों की भाषा नहीं है, का यह कहना कि
“पाकिस्तान को न तो जिन्ना ने बनाया है और न ही इक़बाल ने. हिन्दू-मुस्लमान के बीच का फसाद उर्दू भाषा थी. पूरा का पूरा द्वि-राष्ट्र सिद्धांत उर्दू भाषा की देन है. इसलिए यह पाकिस्तान पर एक कर्ज की तरह है.”
ब्रज-हिंदी-उर्दू के अतिरिक्त अन्य उत्तर भारतीय देशभाषाओं, ख़ासकर पुरबी, के ‘स्थानीय-रूपों’ के साहित्यिक उन्नयन की संभावना में आड़े आये ऐतिहासिक बाधा-विघ्नों के प्रति डॉ. राजकुमार चिंतित तो दीखते हैं लेकिन उसका कोई औपनिवेशिक सन्दर्भ न पाकर कह ही देते हैं कि “संभवतः हिन्दवी/ब्रजभाषा के कॉस्मोपॉलिटन रूप ने इस संभावना का निषेध कर दिया.” (राजकुमार, 2018: 44)
(सात)
उत्तरऔपनिवेशिक विमर्श के संदर्भ में हिंदी गद्य को अपनी पुस्तक हिंदी की जातीय संस्कृति और उत्तरऔपनिवेशिकता में डॉ. राजकुमार न के बराबर जगह देते हैं, हालांकि यह कहते जरूर नज़र आते हैं कि प्रेमचंद भारतीय परंपरा के लेखक हैं और एक अध्याय भी प्रेमचंद पर है (संज्ञान में यह है कि प्रेमचंद के बारे में लेखक की एक स्वतंत्र पुस्तक है). क्या यह अकारण है? आधुनिक भारतीय भाषाओं (हिंदी सहित) का कथा-साहित्य/गद्य इस बात की इजाज़त तो कतई नहीं देता है कि आप उसे ‘औपनिवेशिक चंगुल’ का गद्य बताकर छोड़ सकते हैं.
इस बात को और स्पष्ट करते हुए सुनीति कुमार चटर्जी लिखते हैं,
“नव्य-भारतीय-आर्य को संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश से रिक्थ रूप में मिली हुयी परंपरा काव्य शास्त्र की थी. संस्कृत के बृहत्काय काव्य-साहित्य की तुलना में यहाँ का गद्य लगभग नगण्य-सा है…पश्च्कालीन संस्कृत टीकाओं तथा गद्यकाव्यों की शैली नभाआ भाषाओँ में न आ सकी. नभाआ भाषाओँ में जहाँ कहीं भी गद्य का उपयोग हुआ है, वहां वह वैज्ञानिक या दार्शनिक या विचारात्मक रूप में न होकर, सीधे-सीधे कथात्मक रूप में हुआ है… ब्रिटिश काल के अंतर्गत भारतीय आर्य भाषा के विकास के एक बिल्कुल नूतन युग का सूत्रपात हो गया… अंग्रेजी के साथ-साथ भारत में गद्य का आविर्भाव हुआ, कविता की जगह तर्क ने ली.”
हिंदी-उर्दू दोनों के ‘प्रथम’ गद्यकार यथा, इंशा अल्लाह खानऔर मीर अम्मन संस्कृत-ऋण थे लेकिन फ़ारसी में पारंगत. दोनों हिन्दू भी नहीं थे. बावजूद, दोनों की अपने ज़माने में चलती थी. ऐसी चलती बाद के दिनों में सिर्फ देवकीनंदन खत्री को ही प्राप्त हुयी. मीर अम्मन का बाग़-ओ-बहार और रानी केतकी की कहानी भविष्य में आने वाले गद्य की मिसाल बनी. रानी केतकी की कहानी के सत्तर साल बाद जाकर ‘हिंदी नयी चाल’ में ढलती है. इसी तरह अंग्रेजी में पहला गद्य लिखने वाले भारतीय शेख दीन मुहम्मद, बिहार के बक्सर से, जाति के नाई थे. तात्पर्य यही कि इन चारों का संस्कृत-परंपरा से कटाव था.
डॉ. राजकुमार रंजीत गुहा के हवाले से, और उसमें अपना जोड़ते हुए कहते हैं,
“अद्भुत पर अनुभूति की विजय हुयी… साहित्य, संस्कृति और ज्ञान-विज्ञान की बुनियाद आदुनिकता की ज्ञान-मीमांसा पर टिक जाती है और भारतीय ज्ञान-मीमांसा की परंपरा का इस्तेमाल सिर्फ खाली जगहों को भरने के लिए, एक ऐसा संस्करण संस्करण जिसकी पैकेजिंग भारत में की गयी हो…भारतीय भाषाओं में लिखने से कोई भारतीय नहीं हो जाता.”
सवाल फिर से वही रह जाता है कि ‘भातीय होना’ क्या है? संस्कृत होना, उपनिषद होना ही भारतीय होना है? देशभाषा की सारी चिंताओं का फिर क्या करना होगा? डॉ. राजकुमार इससे भलीभांति परिचित हैं. इसीलिए लोक, लोककला, लोकगीत संदर्भित उनकी चिंताएं जायज हैं. लेकिन ज्यादा संभावना इसी की दिखती हैं कि यह लोक ‘अनुमान’ में ही तब्दील होकर न रह जाए!
उपनिवेश से मुक्ति के प्रसंग में तीन धाराएं (विचार) स्पष्ट रूप से संलग्न थीं, नेहरु, सुभाष और भगत सिंह की, गांधी प्रतीक थे; और जो धारा संलग्न नहीं थी उसने गांधी की ही हत्या कर दी, ‘प्रतीक’ की हत्या कर दी. अगर अभी भी कहीं उपनिवेशवादी मानसिकता है और उसे विमुक्त करने की जरुरत है तो, उसे कम से कम इन तीन धाराओं के साझे संघर्ष से तो गुजरना ही होगा. ‘भारतीयता’ रुपी प्रतीक की रक्षा इन्हीं साझे संघर्षों में संभव है.
अपनी पुस्तक ‘पोस्ट कोलोनियल थ्योरी एंड द स्पेक्टर ऑफ़ कैपिटल’ के पहले अध्याय के शुरुआत में ही विवेक छिब्बर कहते हैं कि पिछले दो दशकों से उत्तरऔपनिवेशिक विमर्श अकादमिक पटल पर पर्याप्त रूप से छाया हुआ है. विश्व-साहित्य पटल पर गैर पश्चिमी साहित्य को जो ‘हाशिया’ हासिल था, इस ‘हाशिये की बहस’ ने उसे मुख्यधारा में ला दिया. न्युगी वा थ्युंगो, सलमान रुश्दी, ग्राबिएल गार्सिया मार्खेज आदि के साहित्य को अमेरिकन एकेडेमिया में जगह मिलने लगी. इस सफलता को छिब्बर भी सलाम करते हैं.
इसी प्रक्रिया में अरुंधती रॉय, अनीता देसाई, अरविन्द अडिगा एवं अंग्रेजी के अन्य भारतीय लेखकों की लोकप्रियता को भी शामिल कर सकते हैं.
अमेरिकी और यूरोपीय देशों के अंग्रेजी, विश्व-साहित्य और तुलनात्मक साहित्य के विभागों में उत्तरऔपनिवेशिक विमर्श के विजय-घोष को हिंदी का आलोचक, लेखक, अध्येता और पाठक को किस तरह देखना चाहिए! हिन्दुस्तान की देशभाषा (वर्नाकुलर) हुए बिना कॉस्मोपॉलिटन भाषा के रूप में अंग्रेजी प्रतिष्ठित हो गयी है. यह हमारी नयी ‘संस्कृत’ है, और इसमें उत्तरऔपनवेशिक विमर्श का बहुत बड़ा योगदान है. इसे क्या ऐसे देखा जाना चाहिए?
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उदय शंकर ने जेएन.यू नई दिल्ली से अपना शोध कार्य पूरा किया है.
udayshankar151@gmail.com
[i] हिंदी की जातीय संस्कृति और औपनिवेशिकता (राजकमल प्रकाशन प्रा.लि., नई दिल्ली, 2018, पृष्ठ संख्या- 218, मूल्य- 699, सजिल्द) डॉ. राजकुमार की सद्य प्रकाशित आलोचना-विचार की पुस्तक है. एक पाठक के रूप में पढ़ते हुए यह चौंकाता है. दिनों बाद ऐसी पुस्तक देखने को मिली है जिसमें अध्ययन का दायरा बहुत बड़ा, तथा इसकी ‘प्रस्तावना’ पश्चिमी, ख़ासकर अमेरिकी एकेडेमिया में ‘अति प्रचारित’ है और ‘विचारधारा ख़ास लोगों’ के लिए विवादित भी है. यह लेख इसी किताब के साथ एक यात्रा है.
[ii] उदाहरण के लिए, ‘नीग्रो लोगों में नैतिक भावना कमजोर होती है…माता-पिता बच्चों को बेच देते हैं इसी तरह बच्चे माता-पिता को बेच देते हैं…मिसाल के लिए लन्दन में एक नीग्रो ने कहा कि वह एकदम गरीब हो गया है क्योंकि उसने सारे सम्बन्धियों को बेच दिया है, चीन का सम्राट कुलपति के समान है और उसकी प्रजा बच्चों की तरह है…वहां इतिहास और विज्ञान दोनों में आत्मगत चेतना का अभाव है…अच्छे-भले बैठे हैं (मंगोल) मन में तरंग उठी, विनाशकारी अभियानों पर चल पड़े… अरब देश में रेगिस्तान है, वहां कट्टरता का होना स्वाभाविक है…जहाँ मैदानों में सभ्यता का विकास हुआ, वहां लोग अपने घरौंधे में बंद हैं… भारत की स्त्रियों में एक विशेष प्रकार का सौंदर्य है. इनके चेहरे पर पारदर्शी त्वचा है, उस पर हल्का गुलाबीपन है. यह सहज स्वास्थ्य की लालिमा नहीं है, यह ऐसी लालिमा है जिसका सहज संस्कार किया गया है, मानो भीतर से उसमें प्राण फूंक दिए हैं…यह ऐसी शिथिलता का सौन्दर्य है कि जो कुछ भी जड़, कठोर, अंतर्विरोधमय है, वह अंतर्धान हो जाता है, और हमें केवल भावप्रवण अवस्था में आत्मा दिखाई देती है. किन्तु इस आत्मा में स्वतंत्र, आत्मनिर्भर चेतना की मृत्यु का आभास मिलता है.’ (शर्मा, 1986: 254: 259)
[iii] …Strategy was the same as in the previous instance—that is, a joint operation of wars and words, modified only to the extent that the wars were to be British and the words German.
Three centuries was a lot of time of course. Meanwhile, guns and gunboats had grown in size. Equally, if not more significantly, the hands and minds that deployed them were those the West had put at the helm of each of its emergent nation-states. Philosophy was attuned to this development at an early stage…But it was left to Hegel, caught up as he was in the ebb and flow of the European revolutions of his time, to lay the foundations of a comprehensive philosophy of history with the question of the state at its core. A people or a nation lacked history, he argued, not because it knew no writing but because lacking as it did in statehood it had nothing to write about. (Guha, 2002: 8-9)
[iv] डॉ. रामविलास शर्मा की पुस्तक ‘परंपरा का मूल्यांकन’ एक तरह से हिंदी की जातीय-संस्कृति या ज्ञान-परंपरा का एक एम्पिरिकल खाका प्रस्तुत करती है. जहाँ संस्कृत के भवभूति से लेकर उर्दू के फ़िराक गोरखपूरी तक को समेटा गया है. बीच में संत साहित्य, रीतिकालीन साहित्य, भारतेंदु हरिश्चंद, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, निराला से लेकर आधुनिक साहित्य तक की चर्चा है.
[v] मनुस्मृति, कामसूत्र आदि के हवाले से काव्यमीमांसा में राजशेखर कहते हैं, “पूर्व और पश्चिम सागर एवं हिमालय तथा विन्ध्याचल के बीच का भाग आर्यावर्त कहा जाता है. इस आर्यावर्त में चार आश्रमों तथा चार वर्णों की व्यवस्था है. इन्हीं वर्णाश्रम के आधार पर यहाँ सदाचार प्रचलित है. प्रायशः यहीं का व्यवहार कवियों का आदर्श होता है. माहिष्पस्त नगरी से आगे दक्षिणापथ है. उसमें महाराष्ट्र, माहिषक, अश्मक, सिंहल, चोड, दंडक, पाण्डय, गांग, पल्लव, नासिक्य, कोंकण, कोल्ल्गिरी, वल्लर आदि जनपद हैं…इन सब देशों के बीच मध्यदेश है. यह कवियों के व्यवहार में प्रचलित है, पर यह स्मरण रखना चाहिए कि यह केवल कवि-व्यवहार में ही प्रचलित नहीं, अपितु शास्त्रसमर्थित भी है. जैसा कि कहा है- हिमाचल और विन्ध्याचल के बीच विनाशन से पूर्व तथा प्रयाग से पश्चिम मध्यदेश कहा जाता है.
दक्षिणात्यों की कृष्णता का उदारहण- सूर्य का यह बिम्ब जो गलाए स्वर्ण-गोलक के समान है तथा जिसकी ज्योति मंद पड़ गयी है. धीरे-धीरे निचे जा रहा है. उधर पूर्व दिशा में मुरल-देश (दक्षिण में अवस्थित देश) निवासिनी स्त्रियों के कपोल के भांति मलिन तथा वृक्षों की छायाओं से पुंजीभूत-सा अन्धकार का समूह प्रसृत हो रहा है.” (राजशेखर, 2013: 198-199, 205)
[vi] ‘यदि आप बुद्धिस्ट सिद्ध साहित्य और नाथपंथी योगियों के साहित्य की बानगियों का परिक्षण करेंगे तब पायेंगे कि यह देशभाषा संग मिश्रित अपभ्रंश है, जैसे कि पुरानी खड़ी बोली. वे अपने दोहा में इसी भाषा का उपयोग करते थे और यह भाषा गुजरात, राजस्थान, ब्रज से लेकर बिहार तक के शिक्षित लोगों में प्रचलित थी. वहीं सिद्धों की भूमि होने के कारण मगध के पूर्वी छौंक को भी आप इसमें देख सकते हैं.’ उद्धृत (राय, 1984: 51)
[vii] ब्रजभाषा रुचिर कहैं सुमति सब कोय/ मिलै संस्कृत पारस्यो पै अति प्रगट जू होय. एलिसन बुश ने अपने लेख ‘रीति और रजिस्टर’ में फारसी और ब्रज, कैसे ‘धर्मनिरपेक्ष’ तरीके से संवाद कर रहे हैं, इसके उदाहरण के बतौर इसे उद्धृत किया है. (बुश, 2010:88)
(प्रतिमान के नए अंक में भी प्रकाशित\’)