भाषा सत्ता का प्रकट रूप है. आप जो सुनते, बोलते और लिखते हैं- वह सत्ता की विभिन्न तहों से होकर आता है. यह कभी-कभी बहुत सायास होता है तो कभी-कभार आपके अस्तित्व को सत्ता के साथ परिभाषित करने के लिए भाषा नए रूप धर कर सामने आती है. यहाँ इसका आशय यह कदापि न लगाया जाए कि व्यक्तियों या समुदायों के निजी दायरे में भाषा की भूमिका होती ही नहीं है. वह उनके स्वत्व (बीइंग) को रचती है. यह स्वत्व जैसे ही सार्वजनिक स्पेस में पहुँचता है वैसे ही भाषा और सत्ता का खेल शुरू हो जाता है क्योंकि सार्वजनिक स्पेस को सत्ता रचती है. यदि आपको सत्ता शब्द अच्छा न लगे तो इसकी जगह राज्य(स्टेट) शब्द से काम चला सकते हैं.
तो भारतीय उप महाद्वीप में भाषा का प्रश्न सदैव राज्य से गहन रूप से जुड़ा रहा है. आरंभिक भारत में मौर्य शासक अशोक को एक अखिल भारतीय साम्राज्य निर्मित करने का श्रेय दिया जाता है. इस साम्राज्य को आपस में जोड़े रखने के लिए, अपनी शासकीय नीतियों को प्रजा तक पहुँचाने के लिए उसने अपने संदेश कई भाषाओं और लिपियों में लिख छोड़े हैं. इसी प्रकार दक्षिण भारत में पल्लव शासकों ने तमिल और संस्कृत में अपना संदेश अपनी प्रजा के लिए प्रसारित किया. पल्लव शासकों के इन अभिलेखों में संस्कृत भाषा में जो हिस्से थे, वे राजकीय कामकाज एवं आदेश से संबंधित हिस्से होते थे जबकि सामान्य प्रजा के लिए तमिल भाषा में संदेश लिखा गया होता था.
मध्यकालीन भारत में अशोक की तरह अलाउद्दीन खिलजी, अकबर और औरंगजेब ने बड़े साम्राज्य स्थापित करने के प्रयास किए. उनका काम भी एक से अधिक भाषाओं में होता था. इसी दौर की कई छोटी-छोटी सल्तनतें और राज्य कम से कम दो भाषाओं के साथ अपना काम चलाते रहे. सल्तनत काल और मुगल काल में फारसी के साथ क्षेत्रीय भाषाओं का प्रचलन जारी रहा. यह सब बताने का आशय यही है कि शासन के स्तर पर भारतीय उप महाद्वीप में एक बहुभाषिकता मौजूद रही है. संस्कृति और साहित्य के विविध रूपों में तो यह कहीं और ज्यादा लक्षित होती थी.
ब्रिटिश साम्राज्य ने भारत में अपने चरमोत्कर्ष के दौरान इस बहुभाषिकता तोड़कर अंग्रेजी भाषा को शासक वर्ग की भाषा के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया. इसे ही मानवविज्ञानी-इतिहासकार बर्नार्ड कोह्न समादेश की भाषा (लैंगुएज ऑफ़ कमांड)’ कहते हैं. कोह्न कहते हैं कि ब्रिटिश अधिकारियों ने भारत की समृद्ध भाषा परंपरा को सीखा, इसके साथ ही व्याकरणों, शब्दकोशों, निबन्धों, पुस्तकों एवं अनुवादों के द्वारा एक नवीन सत्ता तन्त्र का सृजन भी किया. इस सबका परिणाम यह हुआ कि किसी भी किस्म का भारतीय ज्ञान यूरोप की एक परियोजना के रूप में परिवर्तित होने लगा. इसने एक नवीन बुद्धिजीवी वर्ग का निर्माण भी किया जो अपने आपको अंग्रेजी भाषा में सहज पाता था. अंग्रेजी ने उसे यूरोपीय साहबों की पंगत में साथ में तो नहीं लेकिन उनके पीछे खड़े होने के काबिल तो बना ही दिया. इसने भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग को एक मुखौटा उपलब्ध करा दिया. गौरी विश्वनाथन ने अपने काम ‘मास्क्स आफ कांक्वेस्टः लिटरेरी स्टडी एंड ब्रिटिश रूल इन इण्डिया’ में दिखाया है कि भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग के मनोजगत को आधुनिक बनाने की परियोजनाएं वास्तव में ब्रिटिश साम्राज्य के विजय के मुखौटे थीं।
भारत की आजादी की लड़ाई इसी पृष्ठभूमि शुरू भले हुई लेकिन उसका सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषाई आधार विस्तृत होता गया. हर नए क्षेत्र में जब यह लड़ाई पहुँची तो अंग्रेजी गयी, उसी के साथ उस क्षेत्र की भाषा ने भी अपना अस्तित्व सहेजा. इस प्रकार बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में एक ऐसा समय आया जब भारत में बोली जाने वाली हर भाषा आजादी के आन्दोलन के साथ जुड़ गयी.
15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ लेकिन इससे पहले ही संविधान सभा का गठन हुआ. पहले इसमें मुस्लिम लीग भी शामिल होनी थी लेकिन पाकिस्तान के निर्माण के साथ इसका कोई औचित्य नहीं बचा. संविधान सभा की बैठकें 9 दिसम्बर 1946 से शुरू होकर 24 जनवरी 1950 तक चलीं और इसमें सितम्बर 1949 तक भाषा का सवाल एक महत्वपूर्ण सवाल बनकर आ खड़ा हुआ. बीसवीं शताब्दी के पहले पचास वर्षों में आजादी के आंदोलन के अनुभव ने देश के नेताओं के सामने यह स्पष्ट कर दिया था कि एक नवीन एवं स्वतंत्र राष्ट्र के निर्माण के साथ इस सवाल को आगे छोड़कर बढ़ा नहीं जा सकता है. कुछ समूह भाषा को अंतिम सत्य मानते हुए उसे राष्ट्र निर्माण से जोड़ रहे थे कुछ के लिए भारत नामक देश की बहुलता भी मायने रखती थी. भारत की संविधान सभा में यह सब लक्षित हो रहा था. 10 दिसम्बर 1946 को संविधान सभा को सुचारु रूप से चलाने के लिए नियम बनाने की एक समिति की स्थापना की जा रही थी, कार्य-संचालन अंग्रेजी भाषा में हो रहा था तो संयुक्त प्रांत के सामान्य सदस्य आर. वी. धुलेकर ने उस दिन यहाँ तक कह दिया :
‘जो हिंदुस्तानी नहीं जानते, उन्हें हिंदुस्तान में रहने का अधिकार नहीं. जो लोग भारत का विधान निर्माण करने आए हैं और हिंदुस्तानी नहीं जानते हैं, वे इस सभा के सदस्य होने के भी योग्य नहीं है.’
धुलेकर का यह कथन यह हिंदी भाषा को लेकर उस लड़ाकूपन की ओर संकेत है जो पिछले सत्तर-अस्सी वर्षों में उत्तर भारत में विकसित हो रहा था. हालाँकि इसमें महात्मा गाँधी जैसे हिंदी प्रेमी भी थे जो इसे सर्वसम्मति और पूरी वैचारिक तैयारी से लागू करना चाहते थे. वे 1916 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय गए और इसके स्थापना समारोह में अपना प्रसिद्ध भाषण दिया और इससे एक दिन पहले वह काशी नागरी प्रचारिणी सभा भी गए थे. उन्होंने वहाँ अपने हिंदी भाषी श्रोताओं को याद दिलाया कि यदि वे चाहते हैं कि तमिल हिंदी बोलें तो उन्हें भी तमिल भाषा सीखनी चाहिए. हिंदी भाषा पर जोर देते हुए भी उन्होंने दूसरी भारतीय भाषाओं को महत्ता दी. वे दक्षिण अफ्रीका में ही चार भाषाओं में एक अखबार निकाल चुके थे और भारत के विभिन्न प्रान्तों के लोगों को इकट्ठा कर संघर्ष किया था. उनके जीवन को कोई यदि समग्रता से देखे तो इस बात से इनकार नहीं करेगा कि हिंदी के प्रति आग्रह और अनुराग रखने के बावजूद गाँधी अन्य भारतीय भाषाओं का आदर करते रहे.
इस प्रकार एक बहुभाषी संविधान सभा के बीच हिंदी भाषा पर बहस होने जा रही थी. 24 नवम्बर 1948 को ठाकुरदास भार्गव ने एक संशोधन प्रस्तुत किया. वे पहले अंग्रेज़ी में बोले और फिर हिंदी में. वे बोल ही रहे थे कि मद्रास से सामान्य सदस्य एस. नागप्पा बोल उठे कि उनके सम्मानित मित्र यानी भार्गव जी यदि चाहते तो अंग्रेज़ी में बोल सकते थे लेकिन वे जानबूझकर उर्दू या हिंदुस्तानी में बोल रहे हैं. उस दिन सदन की अध्यक्षता के लिए एच. सी. मुखर्जी को चुना गया था. उन्होंने कहा कि भार्गव जिस भी भाषा में चाहें, उसमें बोल सकते हैं फिर भी वे उनसे अंग्रेजी में बोलने का निवेदन करेंगे. यद्यपि अंग्रेज़ी में बोलना उनके लिए अनिवार्य नहीं है. इसके बाद ठाकुरदास भार्गव ने कहा कि वे हिंदी में बोलना पसंद करेंगे क्योंकि विषय महत्वपूर्ण है और इसे वे हिंदी में सुगमता पूर्वक व्यक्त कर सकेंगे. खैर, उन्होंने हिंदी में अपनी बात रखी.
इसके पहले 9 नवम्बर 1948 को संयुक्त प्रांत के सामान्य सदस्य विश्वम्भर दयालु त्रिपाठी यह कह चुके थे कि वे हिंदी में बोलना पसंद करेंगे लेकिन अपने दक्षिण भारतीय मित्रों की सुविधा के लिए अंग्रेज़ी में बोल देंगे. इस प्रकार भाषा का प्रश्न संविधान सभा का एक तात्कालिक प्रश्न भी था कि आखिर किस भाषा में सदन का कामकाज चले. इसमें तनाव और समायोजन उत्पन्न होता रहता था लेकिन इससे आगे जाते हुए यह सबको पता था कि भाषा का सवाल सुलझाए बिना भारत के संविधान की बात आगे बढ़ाना कोई सुचिंतित नीति नहीं होगी क्योंकि संविधान तो अपने आप में भाषा का प्रकटीकरण ही तो है.
अपनी तरफ से धुलेकर इस चिंता को थोड़ी उग्रता के साथ प्रकट कर रहे थे. इन बहसो के बीच संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने इसे भविष्य में गठित होने वाली संसद के विवेक पर छोड़ देने का सुझाव दिया था लेकिन अधिकांश सदस्यों ने इस पर बहस करके मामले को निपटा लेने का सुझाव दिया. स्वयं संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने इसे उसी समय निपटाने पर जोर दिया था. उन्हें समस्या की गंभीरता पता थी इसलिए 12 सितम्बर 1949 को भाषा संबंधी बहस शुरू होने से पहले उन्होंने सदस्यों से अपील की कि वे संयत रहें और तर्क युक्त भाषा में अपनी बात रखें. भाषा संबंधी अनुच्छेदों पर तीन सौ से अधिक संशोधन आए. इसका आशय था कि लगभग पूरी सभा इस बहस में शामिल हो गयी थी.
महावीर त्यागी, मौलाना हसरत मोहानी, सेठ गोविंद दास, बालकृष्ण शर्मा, रविशंकर शुक्ल, जसपतराय कपूर, पी. एस. देशमुख, जवाहरलाल नेहरु, देशबंधु गुप्त, नजीरुद्दीन अहमद, एस. वी. कृष्णमूर्ति राव, आर. वी. धुलेकर, डॉ. बी. आर. आंबेडकर, एच. वी. कामथ, लक्ष्मीकांत मैत्र, डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, एस. नागप्पा, गोविन्द मालवीय, काजी सैयद करीमुद्दीन, के. वेंकटराव, एस. वी. कृष्णामूर्ति राव, के. संतानम, मौलाना हिफजुर्रहमान, शिब्बनलाल सक्सेना, फ्रैंक एंथोनी, हृदयनाथ कुंजरू, सारंगधर दास, राम सहाय, वी. आई. मुनिस्वामी पिल्लै, लक्ष्मीनारायण साहू, एन. वी. गाडगिल, टी. ए. रामलिंगम चेट्टियार, प्रोफेसर एन. जी.रंग, सतीश चंद्र सामंत, अलगू राय शास्त्री, पी. ए. चाको, बी. दास, एच. जे. खांडेकर. आर. के सिधावा, पी. सुब्बारायण, टी. टी. कृष्णामाचारी, कुलधर चालिहा, रेवरेंड जिरोम डिसूजा, बी. एम. गुप्ते, बी. पी. झुनझुनवाला, कृष्णास्वामी भारती, जयनारायण व्यास, सरदार हुकुम सिंह, जी. दुर्गाबाई, शंकरराव देव, जयपाल सिंह, पुरुषोत्तमदास टंडन, मौलाना अबुल कलाम आजाद, डॉ. रघुवीर, के. एम. मुंशी और घनश्याम सिंह गुप्त ने इन बहसों में अपना पक्ष रखा.
लगभग एक अनुच्छेद में इन सदस्यों के नाम गिनाने का यहाँ मेरा मकसद नहीं है. आप इन नामों को आसानी से गूगल कर सकते हैं. आप पाएंगे कि यह नाम उस तत्व को प्रकट करते हैं जिसे लोकप्रिय रूप में ‘भारत की आत्मा’ कहा जाता है. यह सभी लोग भारत के अलग-अलग हिस्सों से आए थे, उनके इलाके का उपनिवेशवाद का सामना अलग तरीके से हुआ था, वे सब कम से कम दो और कई सदस्य कई-कई भाषाएँ जानते थे. जाहिर है इस सबका प्रभाव भारत की भाषा नीति पर पड़ना था. किसी भी भाषा के बारे में सोचते समय हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि यदि भारत के लोगों की कोई भी सभा बनेगी तो उसमें कोई एक भाषा अपना वर्चस्व स्थापित नहीं कर सकती है.
12 सितम्बर 1949 को मद्रास के सामान्य सदस्य एन. गोपालस्वामी आयंगर ने भाषा से संबंधित प्रस्ताव पेश किए. उन्होंने ‘नए संविधान के अधीन समस्त सरकारी प्रयोजनों के लिए’ हिंदी भाषा को ग्रहण करने का प्रस्ताव रखा. उनके अनुसार यह अंतिम लक्ष्य था जिसे प्राप्त करना था. इसी समय उन्होंने यह भी कहा कि जब तक हिंदी उचित स्थान न प्राप्त कर ले तब तक अंग्रेजी को चलते रहने दिया जाए. राज्यों में परस्पर संचार के लिए अंग्रेजी रहे और यदि किन्हीं राज्यों के बीच सहमति हो तो वे आपस में हिंदी में पत्राचार कर सकते हैं. न्यायालयों और विधान के लिए उन्होंने कहा :
वह भाषा अंग्रेजी हो जिसमें विधान, चाहे वह विधेयकों तथा अधिनियमों के रूप में हो अथवा नियमों तथा आदेशों के रूप में हो, और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों द्वारा दिए गए निर्णयों का निर्वाचन आगे आने वाले कई वर्षों तक अंग्रेजी में हो. मेरा विचार यह है कि कई वर्षों तक इसे रखना होगा. यह इस कारण नहीं है कि इन प्रयोजनों के लिए हम इस प्रकार से अंग्रेजी भाषा रखना चाहते हों. यह इस कारण है कि जिस भाषा को हम संघ के प्रयोजनों के लिए अभिज्ञात करते हैं और जिन भाषाओं को हम राज्य के प्रयोजनों के लिए अभिज्ञात करते हैं वे काफी उन्नत नहीं हैं और जिन प्रयोजनों का मैंने वर्णन किया है अथवा विधियों तथा न्यायालयों द्वारा विधियों के निर्वचन का वे पर्याप्त रूप से सही अर्थबोध नहीं कर पाती हैं .
आयंगर ने यह रेखांकित किया कि यद्यपि संघ के सरकारी प्रयोजनों के लिए हिंदी भाषा को अपना लिया गया है फिर भी हमें यह मानना चाहिए और आज वह भाषा काफी उन्नत नहीं है. कई दिशाओं में उसे बहुत ही समृद्धिशाली बनाना अपेक्षित है, उसमें आधुनिकता लाना अपेक्षित है . इस प्रयोजन के लिए इस मसौदे में एक अनुच्छेद रखा गया जो राज्य के लिए यह कर्तव्य निर्धारित करता था कि वह भाषा की प्रगति में उन्नति करें जिससे उसमें ये सब समृद्धियाँ आ आएँ और कालांतर में वह उस अंग्रेजी भाषा का सम्यक रूप से स्थान ग्रहण करने के लिए पर्याप्त रूप में समुन्नत हो जाये. इसके बाद इस प्रस्ताव पर बहसें और संशोधन पेश होने आरंभ हुए. आर.वी. धुलेकर ने उस दिन फिर कहा:
सभापति जी, जो प्रश्न मैं आपके सामने उपस्थित करना चाहता हूँ वह यह है कि पहले दिन मैंने जो अपना संशोधन पेश किया था उसमें मैंने लिखा था कि हमारी राष्ट्र भाषा में ही यह विधान बनना चाहिए और अंग्रेजी भाषा का जो विधान बनेगा वह उसका तर्जुमा समझा जाना चाहिए . इसलिए मैं यह प्रस्ताव उपस्थित करना चाहता हूँ कि जिस समय अंग्रेजी भाषा के विधान पर बहस पूरी हो जाये और वह पूरा पास कर लिया जाये उसके बाद आपकी आज्ञा के अनुसार जो राष्ट्र- भाषा निश्चित होगी तो उस समय मैं आपके सामने यह प्रस्ताव उपस्थित करूँगा कि जो विधान राष्ट्र-भाषा में लिखा जायेगा वही विधान मौलिक समझा जायेगा . अंग्रेजी भाषा से तर्जुमा किया हुआ विधान अपनाना यह हमारे लिए अपमानजनक बात होगी . किसी राष्ट्र ने ऐसा अभी तक नहीं किया है .
धुलेकर कभी-कभी अतिश्योक्ति पूर्ण बातें भी कर जाते थे. मसलन, 13 सितम्बर 1949 को उन्होंने महात्मा गाँधी का सहारा लिया और कहा कि उन्होंने अपनी आत्मकथा हिंदी में लिखी और उसका महादेव देसाई से अनुवाद कराया. गाँधी की आत्मकथा के अधिकारी विद्वान यह बात कायदे से जानते हैं कि यह सबसे पहले गुजराती में लिखी गयी थी. खैर, धुलेकर की उर्जा देखते हुए एस.वी. कृष्णामूर्ति राव ने कहा कि अभी जैसी स्थिति है , वैसी ही रखी जाए और भाषा के विषय को भावी संसद के विनिश्चय पर छोड़ दिया जाये.
मामला केवल हिंदी बनाम अंग्रेजी का ही नहीं था. यह उससे अगल-बगल का भी था. 13 सितम्बर 1949 को धुलेकर ने कहा कि भाषाओं के बीच तनातनी रही है और वे एक दूसरे से बाजी मारने कोशिश में रही हैं। जो भाषा शक्ति संपन्न थी, जिसमें राष्ट्र भाषा के तत्त्व थे, वही आज इस देश की राष्ट्र भाषा हो सकी है।उनकी इस बात पर मैसूर के एच. आर. गुरु रेड्डी ने बीच में टोकते हुए पूछा कि क्या हमें इसे(हिंदी) को राजभाषा नहीं कहेंगे? धुलेकर ने कहा कि वह राष्ट्र भाषा है. ‘आपका कथन गलत है कि वह राजभाषा है’. धुलेकर ने अंग्रेज़ी को अगले पंद्रह वर्षों तक चलने देने का विरोध भी किया और कहा कि इसके लिए समितियों के गठन की कोई जरूरत नहीं है.
पश्चिम बंगाल से लक्ष्मीकांत मैत्र ने संस्कृत को राजभाषा और राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने का एक प्रस्ताव रखा था जिस पर भी 13 सितम्बर 1949 को बहस हुई. मैत्र ने कहा कि चूँकि हिंदी को लेकर ज्यादा कटुता उत्पन्न हो रही है तो संस्कृत को राष्ट्र भाषा बना देने से यह विवाद भी सुलझ जाएगा! इसके अलावा उन्होंने एक संशोधन और भी पेश किया था कि भारत के संविधान में संस्कृत को भारत की एक भाषा के रूप में मान्यता मिले. ध्यातव्य है कि मैत्र ने अपने भाषण में मैक्समूलर, कीथ, टेलर, विलियम हंटर, शोपेनहावर का उल्लेख किया और कहा कि यह सभी विद्वान संस्कृत को बहुत मान देते थे. वास्तव में संस्कृत, उपनिवेश और भारत-विद्या(इंडोलॉजी) से सजा मैत्र का यह तर्क आज भी ज्यों का त्यों भारत के सार्वजनिक दायरे में प्रस्तुत किया जाता है. मैत्र को पता था कि वे शायद व्यवहारिक धरातल पर यह न कह सकें कि संस्कृत भाषियों की संख्या इतने करोड़ है जिस प्रकार हिंदी के समर्थक संविधान सभा में कह रहे थे. उस समय 1931 की जनगणना के अनुसार लगभग 14 करोड़ लोग हिंदी भाषी थे. इसलिए उन्होंने अपने विरोधियों के तर्क छीनते हुए कहा कि आप कह सकते हैं कि संस्कृत एक मृत भाषा है. यदि संस्कृत एक मृत भाषा है तो वह अपनी कब्र से हम पर शासन कर रही है. नजीरुद्दीन अहमद ने भी संस्कृत भाषा के पक्ष में अपनी बात रखी. यहाँ पर यह भी ध्यातव्य है कि बंगाल से आने वाले डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने संस्कृत भाषा की प्रशंसा करने के बावजूद हिंदी के पक्ष में अपना मत प्रस्तुत किया था. डा. मुखर्जी ने सदस्यों से अपील करते हुए कहा कि
हिंदी के विकास को कुंठित न कीजिये. मैं बंगाली ढंग से हिंदी बोल सकता हूँ. महात्मा गांधी अपने ढंग से हिंदी बोलते थे. सरदार पटेल अपने गुजराती ढंग से हिंदी बोलते हैं. यदि संयुक्त प्रान्त अथवा बिहार के मेरे मित्र यह कहें कि उनकी हिंदी ही प्रामाणिक हिंदी है और कोई जो इस प्रकार की हिंदी नहीं बोल सकेगा. उसका बहिष्कार किया जायेगा तो यह न केवल हिंदी के लिए बल्कि सारे देश के लिए एक बुरी बात होगी.
भाषा नौकरी से भी जुडी चीज है. एक समय था कि फारसी पढ़ा आदमी ज्ञानी माना जाता था. कोर्ट-कचहरी में उसकी पूछ होती थी. अंग्रेजी भाषा के प्रसार ने उसे कहीं का न छोड़ा. अवधी भाषा में एक कहावत ही प्रचलित हो गयी : पढ़े फारसी बेचयं तेल, ई देख्यो कुदरत कय खेल – फारसी पढ़ा हुआ इन्सान तेल बेच रहा है, ऐसी दशा हो गयी है. अंग्रेजी में नौकरी मिलती थी. इसके बाद फारसी और उर्दू का नम्बर आता था. उर्दू के समर्थक काजी सैयद करीमुद्दीन ऐसा ही मानते थे. उन्होंने उत्तर प्रदेश, बिहार और बरार के मुसलामनों के बारे में कहा कि उनकी मादरी ज़बान उर्दू है. यदि नेशनल लैंगुएज उर्दू हो जाएगी उनकी नौकरी के अवसर कम हो जाएंगे.
खैर, इन चिंताओं के बीच जवाहरलाल नेहरू भी थे. उनके लिए तो बड़ी चुनौती आ खड़ी हुई थी. इतिहास में छवियों का बड़ा महत्व है. बड़े राजनेता और महापुरुष इसके लिए चिंतित रहते हैं कि इतिहास में उन्हें कैसे देखा जाएगा. कुछ नेता तो सारा काम-धाम छोड़कर अपना छवि प्रबंधन करते रहते हैं. 1930 के दशक से ही जवाहरलाल नेहरू अपनी छवि के प्रति सजग थे लेकिन आजादी के आंदोलन में उनके योगदान और उनकी किताबों, समझदारी, वक्तृता और सबसे बढ़कर जनता के बीच उनकी स्वीकार्यता ने उन्हें एक राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित कर दिया था. उन्होंने देश-दुनिया को कई-कई बार नजदीक से देखा था और उसे उसकी भाषाई एवं सांस्कृतिक बहुवचनीयता में स्वीकारा था. 1947 के बाद के भारत में दिल्ली ने उनकी छवि अंग्रेजीदां राजनेता की सृजित कर दी जिससे उसका हित सधता रहे. खैर, इस सबके विपरीत नेहरू ने संविधान सभा में सदैव एक राष्ट्रीय नेता के रूप में अपने आपको प्रस्तुत किया जिससे देश के हर हिस्से के लोगों का उनमें विश्वास कायम रहे. आखिर वे देश के प्रधानमंत्री थे और अपनी किसी वाचिक या राजनीतिक भंगिमा वे ऐसा कोई संदेश नहीं देते थे जिससे कोई व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह अपने को बेगाना समझे. भाषा के नाजुक मुद्दे पर भी उन्होंने यही किया.
उन्होंने महात्मा गाँधी के हवाले से अपनी बात शुरू की. इसके दो कारण थे- महात्मा गाँधी का हिंदी प्रेम और इसके पीछे छिपी नैतिक शक्ति. उन्होंने कहा :