by Solvyng 1799 |
समकालीन हिंदी कथा-साहित्य पर आधारित स्तम्भ –‘भूमंडलोत्तर कहानी’ के अंतर्गत आशुतोष की कहानी – ‘अगिन असनान’ की विवेचना आप आज पढ़ेंगे. यह कहानी ‘सती’ के बहाने समाज के उस हिंसक सच से आपका परिचय कराती है जिसपर व्यवस्था के सभी अंग पर्दा डालना चाहते हैं. युवा आलोचक राकेश बिहारी ने इस कहानी के सामाजिक, आर्थिक आयामों को ध्यान में रखते हुए इसका विश्लेषण किया है. यह स्तम्भ अब पूर्णता की ओर अग्रसर है और शीघ्र ही पुस्तकाकार प्रकाश्य है.
भूमंडलोत्तर कहानी – १९
गति और ठहराव की अभिसंधि पर निर्वासित गांधी की प्रतीक्षा
(संदर्भ: आशुतोष की कहानी ‘अगिन असनान’)
रचना समय (जनवरी–फरवरी, 2016) में प्रकाशित आशुतोष की कहानी ‘अगिन असनान’ से गुजरते हुये रामचन्द्र छत्रपति की याद लगातार बनी रहती है. रामचन्द्र छत्रपति हरियाणा के सिरसा से निकलनेवाले अल्पज्ञात अखबार ‘पूरा सच’ के संपादक थे. डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह को जेल के सलाखों के पीछे पहुंचाने में उनकी और उनके अखबार की बड़ी भूमिका रही है. गौरतलब है कि गुरमीत सिंह की करतूतों का खुलासा करने वाली खबर के छपने के कुछ दिनों बाद ही रामचन्द्र छत्रपति की हत्या कर दी गई थी.
टी आर पी के तेज रफ्तार मीडिया–मानकों के बीच झूठ, सनसनी और अंधविश्वास के व्यावसायिक माहौल की रचना करते हुये आम नागरिकों के सोचने–समझने की शक्ति और विवेक को क्षतिग्रस्त करनेवाले सूचना समय में मूल्यों और सरोकारों की बात करने वाले रामचन्द्र छत्रपतियों का यह हश्र अब एक आम बात हो चुकी है. ऐसे में ‘अगिन असनान’ से गुजरते हुये इस कहानी के एक पात्र क्षेत्रीय पत्रकार के लिए मन दुआओं से भरा रहता है, जिसके नाम से पहली बार किसी बड़े अखबार में कोई खबर छ्पी थी. हालांकि उस पहली खबर में सुनैना के सती होने की बात ही कही गई थी, पर बाद में उसने दो–एक और खोजी रिपोर्ट प्रकाशित करवाए थे जिसमें न सिर्फ सुनैना देवीसती कांड पर कुछ बुनियादी सवाल उठाए गए थे बल्कि उसमें इस बात के भी पर्याप्त संकेत दिये गए थे कि सतीकांड की तरह प्रचारित वह घटना दरअसल एक हत्याकांड थी. हालांकि सतीकांड भी एक तरह की सांस्थानिक हत्या ही होती है, जिसके महिमामन्डन के लिए धर्म, परंपरा आदि का कुत्सित सहारा लिया जाता है. इस बात को यह कहानी जिस संवेदना के साथ रेखांकित करती है, उसे देखते हुये दो महत्वपूर्ण प्रश्न सामने आते हैं.
पहला प्रश्न उस धर्म–सत्ता और राजनैतिक–सत्ता की परस्पर पोषित संरचना से जुड़ा हुआ है, जहां किसी हत्याकांड को बाकायदा एक सांस्कृतिक अनुष्ठान के रूप में स्थापित करने की हर कवायद की जाती है तो दूसरा प्रश्न उस न्याय व्यवस्था से जुड़ा हुआ है जो अपने हर संभव जतन से न सिर्फ एक हत्याकांड को सांस्कृतिक अनुष्ठान में तब्दील कर दिये जाने की जघन्य घटना की आधिकारिक पुष्टि करती है, बल्कि उस झूठ को विश्वसनीयता प्रदान करने के लिए किसी बेगुनाह तक को दोषी करार देने में लेश मात्र भी संकोच नहीं करती है.
इस तरह यह कहानी जितनी सुनैना की है, उतनी ही उसकी अन्त्येष्टि के समय बाजा बजाने वाले बशरुदीन, लियाकत, रमई और झड़ेला की भी है, जो बिना किसी दोष के जांच कमिटी की भेंट चढ़ गए. परिस्थितियों की यह विद्रूप भयावहता रामचन्द्र छत्रपतियों की हत्या से भी एक कदम आगे का मामला है, जिसे आशुतोष अपनी इस कहानी में बखूबी पहचानते हैं. किस्सागोई के सहज शिल्प में रची–बुनी गई यह कहानी अलग–अलग सत्ता प्रतिष्ठानों के सूक्ष्म संजालों के परस्पर सम्बन्धों को समझने का एक जरूरी अवसर प्रदान करती है. समाज के हाशिये पर खड़े दीनतम व्यक्ति को उसके निवाले से दूर करने वाले दूरगामी निर्णयों को मजमेबाजी और गणेशजी की सूंढ के बहाने शल्यचिकित्सा की वैज्ञानिकता को वेद–पुराणों में ढूंढ़ने वाले प्रहसनों की आड़ में छुपा ले जाने की शासकीय धूर्तताओं के बीच विकास का छद्म मॉडल रचने में व्यस्त शाहों और साहबों के सांस्कृतिक राष्ट्रवादी लोकतन्त्र वाले समय में इस कहानी को बहुत गौर और धैर्य से पढे जाने की जरूरत है.
लोरिक के ज्येष्ठ पुत्र मगरू की पत्नी सुनैना की हत्या, जिसे भय, रहस्य और आस्था की खोल में लपेट कर एक दैवी घटना की तरह आरोपित कर दिया गया, की पृष्ठभूमि में लिखी गई यह कहानी एक साथ कई परतों और कोने–अंतरों को खोलती–खंगालती चलती है. हमारे जेहन में पल–पल दर्ज हो रही सूचना समय की तेज गति के बरक्स विकास के ठहराव को यह कहानी जिस समय–बोध के साथ पुनराविष्कृत करती है, वह उल्लेखनीय है. ‘सबसे तेज’ और ‘सबसे पहले’ की होड़ में एक दूसरे को पीछे धकेलेने को आतुर मीडियाप्रसूत गतिधर्मिता के बीच स्वप्न और विकास की तमाम अवधारणाएँ किस मुकाम पर ठहरी हुई हैं उसे समझने के कई जरूरी उपक्रम इस कहानी में मौजूद हैं. साथ ही, श्रम, सौहार्द और सहकार के संयुक्त उद्यम को पूंजी संचय की सांघातिक लिप्सा किस तरह छिन्न–भिन्न कर देती है, उसे समझने के भी कई सूत्रों का पता यह कहानी देती हैं. भ्रष्ट पूंजी और व्यवस्था का अवसरवादी गठजोड़ गतिशीलता में परिसीमित प्रगति का मुखौटा लगाकर जहां एक तरफ धर्मभीरुता के सुनियोजित व्यवसाय के लिए खाद–पानी सहेजने का काम कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ लैंगिक पक्षपात का सनातन खेल भी जारी है. यह कहानी पूंजी, व्यवस्था और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के इस अपवित्र गठजोड़ को बिना किसी लागलपेट के एक्सपोज करती है. यह अनायास नहीं है कि सतीकांड को हत्याकांड साबित करनेवाली खबर से सबसे ज्यादा विचलित वह बिल्डर होता है जिसने बहावलपुर में उभरते धार्मिक पर्यटन का भविष्य देखते हुये वहाँ भरपूर निवेश किया था.
इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए कि उस बिल्डर की नाराजगी बरास्ता उस बड़े अखबार के संपादक उस पत्रकार को नौकरी से निष्काषित करने तक का सफर तय करती है. धर्म, राजनीति,पूंजी और मीडिया को सत्ता केन्द्र में बदल कर इन सभी की संयुक्त और सुनियोजित रणनीति के तहत समूचे लोकतन्त्र को बंधक बना लेने की यह प्रक्रिया आजके समय का बड़ा सच है. कार्यपालिका और विधायिका में पतन की शुरुआत तो सत्तर के दशक से ही दिखने लगी थी, लेकिन न्यायपालिका और मीडिया का भी उसी राह पर चल पड़ना पिछली सदी के आखिरी दशक में खुलकर सामने आया है. लोकतंत्र के इन चारों स्तंभों के आपसी टकराव और सांठगांठ के बीच धर्म–सता की सक्रिय भागीदारी से बना पंचमेल भूमंडलोत्तर समय की खास विशेषता है जिसे यह कहानी बहुत बारीकी से उजागर करती है.
गति सूचना–सभ्यता की परिकल्पना के मूल में हैं. औद्योगिक क्रान्ति और सूचना क्रान्ति के बीच समय, समाज और सभ्यता के विभिन्न आयामों में जो सबसे बड़ा अंतर आया है, वह गति का ही है. तेज सम्प्रेषण, तेज आवागमन, तेज खबर, तेज जीवनशैली, तेज उत्पादन, तेज आपूर्ति, तेज उपकरण… तेज विशेषण से युक्त संज्ञा और क्रियाओं की इस अंतहीन फेहरिस्त में भूमंडलोत्तर समय की सामर्थ्य और सीमा दोनों ही निहित है. इसमें कोई दो मत नहीं कि गतिशीलता की अवधारणा ने सभ्यता और विकास की रफ्तार को तेज करते हुये हमारे समक्ष सुविधाओं के संसार की एक नई दुनिया का दरवाजा खोल दिया है. लेकिन दौड़ में पीछे छूट जाने वालों की श्रृंखला गति आधारित सभ्यता का एक ऐसा अनिवार्य उपोत्पाद होती है, जिसकी संख्या मुख्य उत्पाद से कहीं ज्यादा होती है. नतीजतन, दौड़ में असफल या गति की अवधारणा से अनभिज्ञ व्यक्ति या व्यक्ति–समूह एक ऐसे हाशिये का निर्माण करते हैं जहां जीवन और सभ्यता का विकास अतीत के किसी मुकाम पर आकर ठहर जाता है.
‘अगिन असनान’ कहानी इस लिए भी महत्वपूर्ण है कि यह इस समय की दोनों विशेषताओं गति और ठहराव को समान संवेदना के साथ थाहती है. उल्लेखनीय है कि बहावलपुर जो कहानी का मुख्य घटनास्थल है अपने जिला मुख्यालय से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक पंचायत है जहां एक दंपत्ति की हत्या करके फरार हो चुके परिवार की खबर तीन दिनों तक कहीं नहीं छपती न प्रसारित होती है. घटना के चौथे दिन एक क्षेत्रीय पत्रकार वहाँ पहुंचता है और पांचवें दिन की सुबह पहली बार इसकी खबर छपती है और वह भी झूठी. न्यूज ब्रेक करने और सबसे पहले पहुँचने की होड का शोर करते इस मीडिया–समय का यह सच हमारे समय की बड़ी विडम्बना है. गति के शोर के बीच ठहराव का साक्षी यह कौन सा समाज है? क्या डिजिटल और कैशलेस इंडिया की चमकदार प्रस्तावना को येन केन प्रकारेण झूठे–सच्चे आंकड़ों से प्रतिपादित करती सत्ताओं को भारत देश में स्थित इन बहावलपुरों का पता–ठिकाना मालूम है? गति और ठहराव की अभिसंधि पर पल्लवित ‘सबसे तेज’ के दावों–प्रतिदावों का नतीजा यह होता है कि जिस गाँव की घटना चार दिनों तक खबर भी न बन सकी वहाँ छठे दिन की सुबह आरती–भजन के साथ होती है, सातवें दिन संसद में विपक्षी दल सरकार से प्रश्न पूछ लेता है, आठवें दिन बहावलपुर में पड़ोसी राज्यों से श्रद्धालु आने लगते हैं, नवें से तेरहवें दिन के बीच तथाकथित सती स्थान पर मेला लग जाता है, चौदहवें दिन एक अवकाशप्राप्त जज की अध्यक्षता में सरकार जांच समिति का गठन कर देती है, सोलहवें दिन तक वह सती स्थान सिद्ध पीठ में बदल जाता है और अठारहवें दिन जांच समिति की रिपोर्ट के आधार पर समाज के हाशिए पर किसी तरह गुजर–बसर कर रहे चार निरीह निर्दोष लोगों को दोषी करार दे कर जेल भेज दिया जाता है.
गति के समकालीन स्वरूप का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है? भूमंडलोत्तर समय में फल–फूल रहे ‘सबसे तेज’ की स्पर्धा आज जिस तरह का माहौल तैयार कर रही है उसके दो प्रत्यक्ष प्रभाव हम देख सकते हैं– एक लोक के मन में पल रहे संदेह को खारिज करते हुये झूठ को ही सच की तरह स्थापित किया जाना और दूसरा, अपने द्वारा निर्मित सच के प्रभाव का एक ऐसा दबाव क्षेत्र तैयार करना जिसके अहाते में न्याय और नियंत्रण की महान संस्थाएं भी समर्पण कर दें. ठहर कर सोचने के सारे अवसरों को सोखकर सिर्फ और सिर्फ रफ्तार को ही तमाम मूल्यों में श्रेष्ठ माना लेने का ही यह नतीजा है कि बहावलपुर जैसे गाँव की घटना के आगे ‘जस्टिस डिलेड, जस्टिस डिनायड’ का सूत्र वाक्य भी अपनी अर्थवत्ता खो देता है. एक तरफ गति की यह आक्रामकता और दूसरी तरफ सभ्यता का ठहराव, जहां नपुंसकता की बीमारी तथाकथित आधुनिक समाज के एक हिस्से को आज भी चिकित्सकों के बजाय पंडितों के दरवाजे तक ले जाती है, जहां संतानोत्पत्ति ही स्त्री के अस्तित्व का अकेला पहचान मान लिया जाता है, जहां खानदानी संपत्ति पर अनाधिकार आधिपत्य की लालसा आज भी किसी व्यक्ति को अपने ही परिवारजनों की हत्या की नृशंस नियति तक पहुँच जाती है… ‘अगिन असनान’ कहानी का मर्म गतिशीलता और ठहराव की संयुक्त उपस्थिति से उत्पन्न इन्हीं विडंबनाओं के उदघाटन में निहित है.
लोकतन्त्र के चारों स्तंभों के बीच की सुनयोजित साँठगाठ,जो अंततः लोकतन्त्र की हत्या करने पर ही आमादा है, को उद्घाटित करती यह कहानी संयुक्त परिवार, उसकी जटिलताओं, उसके टूटन, उसके भीतर बनते–बिगड़ते स्त्री–पुरुष सम्बन्धों की सूक्ष्मताओं और परंपरा से चले आ रहे सम्बन्धों की रूढ़ हो चुकी पारस्परिकताओं के बीच पारिवारिक–सामाजिक व्यवहारों में हो रहे सूक्ष्म परिवर्तनों को भी एक खास किस्म की भावप्रवणता के साथ रेखांकित करती चलती है. पति के नपुंसक होने के कारण बांझ होने के आरोप का दंश झेलती सुनैना के भीतर पल रहे दुख, आक्रोश, अवसाद, और ममत्व को आशुतोष एक कुशल शिल्पी की तरह रेशा रेशा जोड़ते हैं. कुछेक अपवादों कों छोड़ दें तो नारी मन को समझने की ऐसी कोशिश इधर के पुरुष कथाकारों की कहानियों में अमूमन नहीं दिखती. लेकिन इस क्रम में सुनैना के पति मंगरु के मानसिक भूगोल तक कहानी का नहीं पहुँच पाना खटकता है. इसका अंदाजा खुद लेखक को भी है जिसका संकेत कहानी में ही मौजूद है– “बहावलपुर में धीरे–धीरे दबी जुबान से ही सही यह चर्चा आम हो गई थी कि मगरू नपुंसक है. यह मगरू को कैसी लगती थी इसके ठीक–ठीक साक्ष्य नहीं मिलते.”
इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि समय और समाज में जो अप्रकट है यानी नंगी आँखों से जिन यथार्थों को नहीं देखा जा सकता, एक रचनाकार उसी को तो अपनी रचनाओं में प्रकट करता है. क्या ही अच्छा होता कि आशुतोष इस तरह की सफाई पेश करने के बजाए मंगरु के मन की थाह लेने की कोशिश भी करते. हाँ, यहाँ इस बात का भी जरूर जिक्र किया जाना चाहिए कि ऊपर से बहुत हद तक पारंपरिक मूल्यों के अहाते में खड़ी दिखने के बावजूद यह कहानी स्त्री–पुरुष के परस्पर व्यवहार की कई रूढ़ियों का प्रगतिशील प्रतिलोम भी रचती है. मंगरू और सुनैना का परस्पर संबंध इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण है. अमूमन पितृसत्ता के संस्कारों के साथ पला–बढ़ा पुरुष अपनी नपुंसकता से वाकिफ होने क बाद भी अपनी स्त्री पर रोब गाँठने से बाज नहीं आता. लेकिन यहाँ मंगरू के व्यवहार में ऐसे कोई संकेत नहीं मिलते बल्कि वह मन ही मन सुनैना के प्रति तमाम सदाशयताओं से भरा होने के बावजूद उसकी उपेक्षा, आक्रोश और अबोले को सहज स्वीकार लेता है. उन दोनों के सम्बन्धों का व्याकरण तब बदलता है जब तनाव और आक्रोश से भरी सुनैना को एकदिन मंगरु के लिए अपने उपेक्षा भाव का अहसास होता है. उसके बाद उन दोनों के बीच परस्पर प्रेम, सौहार्द्र और साहचर्य का एक ऐसा वातावरण निर्मित होता है, जिसमें पुरुष और स्त्री मालिक–नौकर की पितृसत्तात्मक आचार–संहिता को नकार कर एक दूसरे के साथ आत्मीय मित्र की तरह पेश आते हैं.
सुनैना अपने पति के मर्द (पुंसत्व के लिहाज से) न होने के आगे उसके बेहतर मनुष्य होने को तरजीह देती है. पितृसतात्मक माहौल में पले बढ़े मंगरू को अपनी पत्नी के सखा के रूप में विकसित कर आशुतोष ने एक ऐसे आदर्श पुरुष की संरचना की है जिसका सपना हर स्त्री के मन में पलता है. देह के विरुद्ध परस्पर साहचर्य आधारित प्रेम, वंशबेल सींचने की पितृसत्तात्मक अवधारणा के विरुद्ध अपनी पत्नी के भतीजे को अपना वारिस बनाने की अभिलाषा रखने की उदारता… ये कुछ ऐसे विरल संयोग हैं जो मंगरू को आम पुरुषों से अलग करते हैं.
पिछले कुछ वर्षों में प्रकाशित कथाकृतियों की संरचना पर गौर करें तो पाएंगे कि उपन्यासों की लंबाई जहां पहले की तुलना में कम हुई है वहीं आज की कहानियाँ अपनी पूर्ववर्ती कहानियों की तुलना में दीर्घ हुई हैं. जिन कुछ कथाकारों ने अपनी सुदीर्घ कहानियों से पाठको–आलोचकों का ध्यान खींचा है, उनमें निःसन्देह आशुतोष भी शामिल हैं. लंबी कहानियों की सफलता में जिन दो अवयवो का खास योगदान होता है वे हैं– किस्सागोई और वर्णनात्मकता. आशुतोष की कहानियाँ इन दोनों ही मोर्चों पर समृद्ध हैं. किस्सागोई और वर्णनात्मकता के इस संयुक्त उपक्रम में लोक की तरल उपस्थिति आशुतोष की कहानियों को एक खास तरह की पठनीयता प्रदान करती है. इस बात को रेखांकित किया जाना चाहिए कि आशुतोष की अन्य कहानियों की ये विशेषताएँ ‘अगिन असनान’ में भी मौजूद हैं.
भूमंडलोत्तर कथा पीढ़ी की निर्मिति पर जिन वरिष्ठ कथाकारों की भाषा–शैली का स्पष्ट प्रभाव दिखाता है, उनमें निर्मल वर्मा, उदय प्रकाश और विनोद कुमार शुक्ल प्रमुख हैं. बुन्देली लोक की अलहदा मौजूदगी और अपने पात्रों को लेखकीय स्नेह और संवेदना का उष्ण स्पर्श देने के कारण अलग होने के बावजूद कथा सूत्र और कथा समय के बीच उल्लेखनीय आवाजाही और लेखकीय उपस्थितियुक्त उदयप्रकाशीय कथा शैली का कुछ प्रभाव ‘अगिन असनान’ पर भी देखा जा सकता है. इस क्रम में कहानी के लगभग उत्तरार्ध में हत्याकांड के अंत के संभावित विकल्पों की तलाश में लेखकीय उपस्थिति कहानी के पाठ में कुछ अवरोध उपस्थित करता है, जिससे बचा जाना चाहिए था.
‘अगिन असनान’ जहां अपनी वर्णनात्मकता के कारण विशिष्ट है, वहीं इस कहानी की कुछ सांकेतिकतायेँ भी इसे उल्लेखनीय और बहुपरतीय बनाती हैं. जिन सहज संकेतों के माध्यम से यह कहानी गांधी को सुनियोजित रूप से निष्काषित किए जाने की साजिश की तरफ इशारा करते हुये उनकी पुनः वापसी की जरूरतों को रेखांकित करती है वह कला और वैचारिकी के सहज संयोग का विरल उदाहरण है. उल्लेख किया जाना चाहिए कि बशरुदीन, लियाकत, रमई और झड़ेला, जिन्हें तेज न्याय व्यवस्था ने जेल भेज कर धार्मिक सत्ता और राजनैतिक सत्ता की साज़िशों को सांस्थानिक स्वीकृति दिलाई, सुनैना देवी की अन्त्येष्टि के समय अपने बाजे पर ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जाने रे…’ की धुन निकाल रहे थे. ‘
‘वैष्णव जन’ की धुन बजाने वाले इन चार निर्दोष, निरीहों को बंदी बनाना सुनियोजित तरीके से गांधी के विचारों को काल कोठारी में भेज देने का प्रतीक ही तो है. कहानी के अंत में एक बुढ़िया घूम–घूम कर लोगों से यह पूछती है कि ‘काय मालिक, वैष्णव जन…’ गावे बारो हमाओ डोकरा काबे आ है.’ बुन्देली में बूढ़े को डोकरा कहते हैं. इन पंक्तियों तक आते–आते यह कहानी जिस तरह गोडसे के मन्दिर निर्माण को मौन सहमति देकर चरखा चलाने का अभिनय करते हुये हमारी स्मृतियों से गांधी की उपस्थिति को पोंछ देने की कुटिल साजिश करने वाले समकालीन सत्ताधीशों की राजनीति का रूपक बन कर खड़ा हो जाती है वह इसे एक महत्वपूर्ण और यादगार कहानी में बदल देता है.
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