शालिनी मोहन की कविताएँ
सादगी
सादगी को
जब छुओगे तुम
तुम्हारे हाथ आएँगे ढ़ेर सारे रंग
सब अलग-अलग
टेढ़ी-मेढ़ी, टूटी-फूटी रेखाएँ
उभर कर, स्पष्ट दिखने लगेंगी
किसी एक दिन
जब तुम्हारा दिमाग़ बिल्कुल ऊब चुका होगा
सोचने, पहचानने और समझने की अधिकता से
सादगी, तुम्हारे पीछे खड़ी होगी
नंगे पैर.
तुम जरूर रोना
जब पहाड़ जैसा दुख
कलेजे पर आ बैठता है
अंधकार धूप सोख-सोख
दुख को हरा रखता है
पहाड़ जैसे दुख को कलेजे पर उठाये
तुम रोना, जरूर रोना
वैसे ही रोना
जिस तरह भी तुम चाहो, तुम्हें अच्छा लगे
छाती पीट-पीट, दहाड़-दहाड़
सबके सामने, अकेले में छुप-छुप
हाथ-पैर पटक-पटक, देह को छोड़
तुम रोना, जरुर रोना
दुख को व्यक्त करने की
उतनी ही आजादी है
जितनी की खुशी को
इसलिए अपने कठोर दुख, असह्य पीड़ा को
एक छोर से दूसरी छोर तक नाप
तुम रोना, संतुष्टि भर रोना
और जब रोते-रोते तुम्हारी आँखें सूनी हो जाये
सारे खारे पानी को
उलीचना अपने कलेजे पर
कि गीला रह सके कलेजा
और दुख बना रहे हरा
तुम रोना, जरूर रोना
किसी भी दिन जब टाँगना
अपना कलेजा खूँटी पर
अपनी सूनी आँखों से
कहना सावन भादो को
कि जब आये
दे जाये तुम्हारी आँखों में
एक बूँद पानी
तुम रोना, जरूर रोना
सड़कें
सड़कें कितनी लावारिस होती हैं
बिल्कुल आवारा सी दिखती हैं
बिछी रहती हैं, पसरी रहती हैं, चलती रहती हैं
कभी सीधी, कभी टेढ़ी-मेढ़ी तो कभी टूटी-फूटी
कहीं जाकर घूम जाती हैं, कहीं-कहीं पर
जाकर तो बिल्कुल ख़त्म हो जाती हैं
चौराहे पर आपस में मिल जाती हैं सड़कें
कौन होता है इन सड़कों का
कोई भी तो नहीं होता है
कोई होता है क्या
रोज़ाना कुचली जाती हैं पैरों और गाड़ियों से
देखती हैं कितने जुलूस, भीड़, आतंक
सहती हैं खून-खराबा और कर्फ्यू
खाँसती हैं धुएँ में और खाँसते-खाँसते
सड़कें बूढी हो जाती हैं, तपती हैं तेज़ धूप में
बारिश कर देती है पूरी तरह तरबतर
ठिठुरती हैं ठंड में और गुम हो जाती हैं कोहरे में
सुबह से शाम, शाम से रात और फिर रात से सुबह
सड़कें होती हैं, अकेली, चुपचाप, ख़ामोश
सच तो यह है कि
यही सड़कें कितने ही बेघर लोगों का घर बन जाती हैं
सड़कें कभी सुस्ताती नहीं
भीड़ में और भीड़ के बाद भी रहती हैं ये सड़कें.
आलाप
छोड़ देती हूँ अपने शब्दों को
रुप-प्रतिरूप से परे
बहुत ऊँघने के लिए
काग़ज़ के कोर पर, ऊँघते रहें
परागकण के इर्द-गिर्द घूमना
शब्दों को अच्छा लगने लगा है
धरती देती है स्वतंत्रता हरी घास को कि
वह अपनी नमी और भी गीली कर ले
ओस को निचोड़, चटक कर ले
अपने रंग को और भी गाढ़ा, इतना गाढ़ा कि
मिट्टी की गंध में उसकी ख़ुशबू श्रेष्ठ हो
पक्षी का विचरण तय करे आकाश की सीमा
लौट आये पक्षी क्षितिज के पास से
अपनी चोंच में धर एक टूकड़ा बादल
जिसमें इन्द्रधनुष के केवल छह रंग हों
नदी बहे अपने गीले किनारे छोड़
अपने आख़िरी सफ़र में तोड़ दे बाध्यता
सागर में विलीन होने को
कोयल की मीठी बोली में पके नीम के कड़वे फल
युद्ध में हारकर लौटें घोड़ों के पदचाप
संधि कर लें भूमि की सतही ध्वनि से
किसी भी साम्राज्य का पूर्ण हस्ताक्षर
जब हस्तान्तरित हो पत्थर की देह पर
शंख की ध्वनि का हस्तक्षेप
फिसल जाये पत्थर की काया से
एक कवि जब आत्महत्या करे किसी ऊँची पहाड़ी से
उसकी पीठ पर हो सिर्फ़ हरी घास का लेप.
मौन
मौन
सघन वन में
अनाम वनस्पति होता है
शब्द
न ओस बनते हैं
न फूल.
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शालिनी मोहन मूल रूप से पटना की हैं, फिलहाल बंगलुरू में रहती हैं. पटना विमेंस कालेज से अर्थशास्त्र में बी.ए. करने के पश्चात सिम्बायोसिस (एस.सी. डीएल.) से एमबीए किया है. कुछ कविताएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं.
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