कविता के विस्मयादि में
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इस २ जुलाई को साहित्य के नोबेल से सम्मानित वीस्वावा शिम्बोर्स्का (Wisława Szymborska) की जन्म शताब्दी का साल पूरा हुआ है. कविताओं की आठेक पतली पुस्तिकाओं में दर्ज कविताओं के कारण 1996 का नोबेल उन्हें मिला. उस वक्त उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा,
“मैं लड़ती रहती हूँ उस ख़राब कवि से, जिसे आदत है बहुत सारे शब्दों के इस्तेमाल करने की.”
इतना कम लिखने वाले को शायद पहली बार नोबेल से नवाज़ा गया. पर जिस विलक्षणता से वह अपनी कविता गढ़ती हैं, वह पोलैंड के बाहर दूसरे देश, काल, भाषाओं में भी लोगों को अपना मुरीद बनाती चलती हैं.शिम्बोर्स्का को हम पोलिश से अनुवाद में पढ़ते हैं, अंग्रेज़ी और हिंदी में. वह चकित चमत्कृत करना नहीं छोड़ती. उन्हें पढ़ते हुए ये अंदाज़ा लगाना बहुत मुश्किल है, कि ये कविताएँ किसी और भाषा में लिखी गई हैं.
और ये भी कि कैशोर्य में उनका देश और वक़्त हिटलर के ख़ौफ़ में था, और जवानी के दिनों में स्तालिन के. वह दोनों के नरसंहारों और क्रूरताओं से वाक़िफ़ भी थीं और गवाह भी. और अपनी तरह से आवाज़ उठाने वालों में शरीक भी. पर उनका तरीक़ा सबसे अलग और अनूठा था, पोलैंड के बाक़ी समकालीन महान कवियों की तुलना में.
जिन चीजों को हम गंभीरता से लेते हैं, उन्हें वह किसी बिल्कुल ही मामूली बात से रेखांकित कर देती हैं. दूसरी तरफ़, जिन बातों पर हम ध्यान भी नहीं देते, उन पर अपनी कलम चला कर वह इतना महत्वपूर्ण और भारी बना देती हैं, जैसे आपको ख़ुद पर ताज्जुब होने लगे, कि अरे ऐसा कैसे नहीं सोचा. और ये कि ये सोचा कैसे? जिन चीजों पर उनकी निगाह पड़ती है, जिस तरह से वह रूपांतरित करती हैं, एक साधारण सी चीज को एक विहंगम सच्चाई में (जैसे जंग के बाद दबी रह गई घास, जैसे ११ सितम्बर की तस्वीर में न्यूयॉर्क में हुए हमले में ट्रेड टॉवर से गिरता हुआ आदमी, जैसे काग़ज़ पर बना नक़्शा और उस पर होते सियासी बवाल और लड़ाइयाँ) बदल देती हैं.
वह महत्वपूर्ण तारीख़ों में वे वह चीज़ निकाल लाती हैं, जिस पर किसी का ध्यान नहीं गया था. वह हमारे पूर्वानुमानित साधारणीकरणों के बरक्स सवाल छोड़ती चलती हैं, और उसे किसी नये दृष्टांत तक ले जाती हुई. दूसरी जंग के बाद के पोलैंड में वह विभीषिकाओं को अपनी मनुष्यता से संतुलित करती चलती हैं. उनकी सबसे महत्वपूर्ण कविता अंत और शुरूआत में वह लिखती हैं, ‘किसी को तो उठ कर साफ़ करने पड़ेंगे जंग के छूटे हुए दाग़’ और फिर ये कि ‘फोटोजेनिक नहीं ये सब/ कैमरे निकल चुके हैं/ अगली जंग की तरफ’.
वह सहज सरल तरीक़े से सच को बयान करते हुए एक बहुत ही साधारण चीज से मनुष्यता को, हमारी कमज़ोरियों को, उम्मीद को, समय को, दुनियादारियों को रेखांकित करती चलती हैं. बिना तुर्श हुए, बिना ग़ुस्से के, जैसे कोई बड़ी बात ही न हो.
फ़ेहरिस्तों को लेकर फ़ेहरिस्तें हैं.
कविताओं को लेकर कविताएँ हैं.
अभिनेताओं को लेकर नाटक हैं अभिनेताओं द्वारा अभिनीत.
ख़तों को लेकर ख़त.
शब्दों की सफ़ाई देने के लिए शब्द.
दिमाग़ों को पढ़ने के लिए लगे हुए दिमाग़.
हँसी की तरह ही संक्रामक जैसे दुःख.
रद्दी में से निकलते हुए काग़ज़.
नज़र में आती झलक.
हालात से मजबूर हालात, परिस्थितिवश.
लम्बी नदियाँ छोटी नदियों के ख़ास योगदान से बनती हुई.
जंगल के ऊपर और पर उगता हुआ जंगल.
मशीनों को डिज़ाइन करने वाले मशीनें.
सपने जो यकायक जगाते हों हमें सपनों से.
सेहतमंद होने के लिए ज़रूरी सेहत.
सीढ़ियाँ जितना नीची जाती हुईं, उतनी ऊपर भी.
चश्मा ढूँढने के लिए चश्मा.
समय ख़त्म होते वक़्त आती प्रेरणा.
और भले ही बाज दफ़ा
नफ़रत से नफ़रत.
कुल मिला कर
नादानी की नादानी
और हाथ धोने के लिए इस्तेमाल होते हाथ.
(परस्परता)
शिम्बोर्स्का की कविता का एक बड़ा हासिल यह भी है कि आप कविता के आख़िर तक पहुँचते-पहुँचते सिर्फ़ एक गहरे मौन तक ही नहीं, बल्कि एक तरह की उजास में छूटते हैं. कई बार उम्मीद के, कई बार विस्मय भरे पुलक में. कम कवियों में इस तरह की पुलक मिलती है, एक गंभीर विषय या इतिहास पर कलम चलाते वक़्त. अपने ही भीतर के बच्चे और बड़े दोनों से बात करते हुए. शिम्बोर्स्का अपनी कविताओं के ज़रिये पाठक को अपनी उन मनुष्यताओं को लेकर सगा महसूस करवाती हैं, जो पृथ्वी में कहीं भी मौजूद इंसान पर लागू होता है.
एक भी शब्द अतिरिक्त नहीं लगता उनकी कविताओं में. सीधे सपाट वाक्य. इस किफ़ायत के अलावा, विलक्षण शिल्प और निगाह के अलावा उनकी कविता हमें छोड़ती हैं एक विस्मय भाव में. कई बार जज़्ब करती हुई, कई बार उजास लाती हुई, कई बार हंसाती हुई भी. सबसे मुश्किल काम शायद यही है. शिम्बोर्स्का के मुताबिक़ ’पहली बात तो ये संघर्ष है, क्योंकि साफ़ है, हर कविता के केंद्र में भावुकता है. और करना ये है कि उस भावुकता से लड़ना है. अगर सिर्फ़ भावुकता से ही काम लेना है तो इतना कहना ही काफ़ी होगा, ’मैं तुमसे प्यार करता हूँ. पूर्ण विराम. मुझे छोड़कर मत जा. क्या करूँगा मैं तुम्हारे बिना? ओह मेरे बेचारे देश! और मेरे बेचारी मातृभूमि!’ कविता को इनसे बचकर आगे निकलना पड़ता है.
मसलन इस गणितीय संख्या पाई पर कविता और कौन लिख सकता था, शिम्बोर्स्का के सिवा, जिसे पढ़ कर किसी साहित्य और कविता प्रेमी से कहीं ज़्यादा कोई गणित में माहिर व्यक्ति हंस भी सकता है और जुड़ा हुआ भी महसूस कर सकता है. या प्याज़ के भीतर पूरा खगोल मंडल देख पाना. या सांख्यिकी पर उनकी यह कविता.
हर सौ इंसानों में
वे, जिन्हें हमेशा से ज़्यादा पता था:
बावन
हर कदम को लेकर अनिश्चय से भरे
बचे हुए लगभग सारे.
बहुत टाइम न लगे
तो मदद के लिए तैयार:
उनचास.
हमेशा अच्छे
क्योंकि वे और कुछ हो ही नहीं सकते थे:
चार- चलो शायद पाँच.
बिना जलन के सराहना करने वाले:
अट्ठारह.
जवानी जिन्हें ग़लतियों
की तरफ़ ले गई (जो गुज़र जाती है)
साठ, के आसपास.
वे, जिनसे पंगे लेने का नई
चालीस और चार.
जो जीवित हैं किसी बात या व्यक्ति
के लगातार डर में:
सतत्तर.
खुश रहने के सक्षम:
मुश्किल से बीस.
अकेले में नुक़सान न पहुँचाने वाले
भीड़ में बर्बर हो जाने वाले:
पक्की तौर पर आधे से ज़्यादा.
हालातों के ज़ोर से
क्रूर हो जाने वाले:
बेहतर है न ही जानना
और न ही अंदाज़ लगाना.
पीछे देखकर समझदार होने वाले:
उनसे बहुत ज़्यादा नहीं
जो आगे देखकर समझदार हैं.
ज़िंदगी में चीजों के अलावा कुछ न हासिल कर पाने वाले:
तीस
(हालाँकि मैं चाहूँगी ग़लत साबित होना)
दर्द से दुहरे होने वाले
और अंधेरे में बिना फ़्लैश लाइट के :
तिरासी, देर-सबेर.
वे जो न्यायसंगत हैं
पैंतीस की उम्र में कई सारे.
पर अगर समझने की ज़रूरत पड़े:
तीन.
सहानुभूति के हक़दार
निन्यानवे.
नश्वर:
सौ में से सौ-
जो अंक कभी भी बदला नहीं अब तक.
(सांख्यिकी पर एक शब्द)
सतह पर खिलंदड़ लगती हुई शुरुआत के बाद वे गहरे मायने अख्तियार करने लगती हैं. वे अपने आयाम बदलती हैं. छायाओं की तरह. और फिर वह एक ज़रूरी सच को जैसे उद्घाटित करने लगती हैं. उनकी कविताओं में लगातार एक ड्रामा चल रहा होता है, जहां वे होने के बग़ल में न हो रही, और न होने के भीतर जो हो रहा है, उसे लगातार लेकर आती चलती हैं. साधारण में से कुछ ख़ास खोद निकालने की धुन हो जैसे.
आमफहम चमत्कार:
कि इतने सारे आमफहम चमत्कार होते रहते हैं.
साधारण चमत्कार:
रात के देर में
अदृश्य कुत्ते भौंकते हुए.
बहुत में से एक चमत्कार:
छोटा से हवाई बादल की कूवत
कि इतने बड़े चाँद की तरफ़ से ध्यान खींच ले
एक में कई सारे चमत्कार:
एल्डर का पेड़ पानी में प्रतिबिम्बित
और बाएँ का दाएँ में पलटा हुआ
शाखाओं से तने की तरफ़ बड़ा होता हुआ
पर कभी भी जड़ों से नहीं जुड़ता
जबकि पानी गहरा नहीं है.
एक आम तौर वाला चमत्कार:
हल्की से मध्यम हवाएँ
तूफ़ान में तेज़ होती हुईं.
पहली बार का चमत्कार:
गाय गाय ही रहेगी.
उससे अगला, पर आख़िरी नहीं:
बस ये वाला चेरी का बाग़ीचा
बस इस वाली चेरी की गुठली से.
बिना टोपी और पूँछ वाला चमत्कार:
फड़फड़ाते हुए सफ़ेद कबूतर.
एक चमत्कार ये भी (और क्या कहें इसे?):
सूरज आज सुबह तीन बजकर चौदह मिनट पर उगा
और डूबेगा आठ बजकर एक मिनट पर.
एक चमत्कार जिसे हम देख नहीं पाए:
हाथ में दरअसल छह से कम उँगलियाँ होती हैं
पर देखो… फिर भी चार से तो ज़्यादा हैं.
एक चमत्कार, जरा सिर घुमा कर देखो:
यह पृथ्वी, जिससे बचा नहीं जा सकता.
एक अतिरिक्त चमत्कार, न्यारा और सामान्य:
जो सोचा नहीं जा सकता
सोचा जा सकता है वह भी.
(चमत्कारों का मेला)

बीसवीं सदी की कई सारी मान्यताओं को ध्वस्त होता देखते हुए और ध्वस्त करते हुए, वह लगातार एक चश्मदीद गवाह की तरह अपनी ही तरह का हलफिया बयान दर्ज करते चलती हैं. और जंग, विभीषिकाओं, जनसंहार के बीच में एक परिंदे का बोलना, एक बच्चे का पैदा होना, एक आम सी मुलाक़ात को सामने रख देती हैं, जिसके अनकहे के बहुत सारे मतलब हैं.
ऐसा हो सकता था.
ऐसा होना ही था.
ऐसा पहले हुआ था. बाद में.
पास में. दूर कहीं.
हुआ पर तुम्हारे साथ नहीं.
बच गये तुम क्योंकि पहले थे.
बच गये तुम क्योंकि आख़िरी थे.
क्योंकि अकेले थे. क्योंकि बाक़ी लोग थे.
क्योंकि बाएँ में थे. क्योंकि दाएँ में थे.
क्योंकि बारिश हो रही थी. क्योंकि धूप निकली हुई थी.
क्योंकि छाया थी.
क़िस्मत से वहाँ जंगल था.
क़िस्मत से वहाँ पेड़ नहीं थे.
क़िस्मत से एक पटरी, एक काँटा, एक शहतीर, ब्रेक
एक खाँचा, एक मोड़, एक इंच, एक सेकंड.
क़िस्मत से एक तिनका तैर रहा था पानी पर.
वह तो भला हो, और इसलिये, इसके बावजूद, और फिर भी.
पता नहीं क्या होता, अगर हाथ, पाँव, एक कदम, एक बाल दूरी पर?
तो अब तुम यहाँ हो? उस पल से सीधे निकल कर अभी भी लटके हुए?
जाल तो बहुत कसा हुआ था, पर तुम? जाल से निकलकर?
मैं उसपर चकित होना नहीं रोक सकती, न ही चुप रह सकती हूँ
सुनो
कितनी तेज़ी से तुम्हारा दिल धड़क रहा है मुझमें.
(जो भी हो)
१९९६ के साहित्य का नोबेल देते वक़्त समिति ने शिम्बोर्स्का को ‘कविता का मोत्सार्ट’ कहा. अपने नोबेल भाषण में उन्होंने कहा, ‘माना कि रोज़मर्रा की ज़ुबान में, जहाँ हम ठिठकते नहीं हर शब्द के इस्तेमाल से पहले, हम इस्तेमाल करते हैं ‘सामान्य दुनिया,’ ‘सामान्य ज़िंदगी’, ‘घटनाओं के सामान्य क्रम’ का… पर कविता की ज़ुबान में, जहाँ हर शब्द तुला हुआ है, आम और सामान्य कुछ भी नहीं. एक पत्थर और उसके ऊपर अकेला बादल भी नहीं. एक भी दिन और उसके बाद की एक भी रात नहीं. और सबसे बड़ी बात कि एक का भी होना नहीं, इस दुनिया में किसी का भी होना नहीं.’ उनकी कविताएँ सामने बैठकर किसी ललकार, फुफकार, या छूटी हुई लम्बी आह या साँस की तरह सामने नहीं आती. वे आपके बग़ल में आकर बैठ जाती हैं. अपनी मौजूदगी के साथ, जो इतिहास में भी है, लिखे के पल में भी, और पढ़े जाने के पल में भी. ज़िंदा और साबुत सरगोशियों में. बिना शोर और सनसनी के कुछ रौशन होते हुए, कुछ करते हुए. एक नये तल को खोलते, थोड़ा परे ले जाती हुई. निजी और सार्वभौमिक दोनों.
अमेरिकी कवि चार्ल्स सिमिक के मुताबिक़ शिम्बोर्स्का ऐसे लिखती हैं जैसे कोई विषय उन्हें लिखने को दिया गया हो. अगर ऐसा लगता है कि कविता की शक्ल में वह विवरणात्मक लेखन है, तो वह है. मेरे ख़्याल में किसी भी दूसरे कवि से ज़्यादा, शिम्बोर्स्का न सिर्फ़ अपने पाठकों में एक तरह का काव्यात्मक बोध पैदा करना चाहती हैं, पर साथ में उन्हें वह सब बताना भी चाहती हैं, जो उन्हें पहले से पता नहीं थी, और उनके बारे में उन्हें ख़्याल भी नहीं आया था.’ जैसे प्यार पर उनकी यह कविता-
तय तौर पर दोनों मानते हैं कि
एक ही जुनून ने उन्हें यकायक जकड़ा.
यह निश्चितता सुंदर है,
पर अनिश्चितता तो अभी और भी सुंदर है.
क्योंकि वे कभी मिले नहीं पहले, उन्हें पक्का यक़ीन है
उनके बीच में पहले कभी कुछ भी नहीं रहा.
पर उन गलियों, सीढ़ियों, गलियारों का क्या-
शायद जहाँ से वे गुजरे होंगे एक दूसरे की बग़ल से लाखों बार?
मैं पूछना चाहती हूँ उनसे
कि क्या उन्हें बिल्कुल भी नहीं याद
एक भी ऐसा पल जब वे किसी घूमते दरवाज़े
में आमने-सामने पड़ गये हों?
शायद भीड़ में कहीं बुदबुदाया गया हो ‘सॉरी’?
फ़ोन पर किसी ने रॉंग नम्बर कहकर काट दिया हो?
पर जवाब मुझे पता है.
नहीं, उन्हें कुछ याद नहीं.
यह सुनकर वे चकित रह जाएँगे
कि मौक़ा खेलता रहा है उनके साथ
अब तो सालों से.
पूरी तरह तैयार नहीं
उनकी नियति बनने को.
उसने धकेला उन्हें क़रीब, फिर दूर कर दिया,
उनका रास्ता रोक लिया
अपनी हंसी को रोकते हुए
और फिर फाँद गया दूसरी तरफ़.
लक्षण और संकेत तो कई सारे थे
भले ही वे पढ़ नहीं पाए अभी तक.
शायद तीन साल पहले
या फिर पिछले ही मंगलवार
एक पत्ती कांपी एक से दूसरे कंधे के बीच?
कुछ गिर गया और उठा लिया गया.
किसे पता, वह गेंद जो गुम गई थी शायद
बचपन की झाड़ी में.
दरवाज़ों के हत्थे और घंटियाँ थी
जहाँ एक के स्पर्श ने दूसरे के स्पर्श को पहले छुआ.
जमा होने के बाद सूटकेस खड़े रहे एक दूसरे की बग़ल में.
एक रात, शायद, एक ही सपना
सुबह आते आते धुंधला हो गया.
हर शुरुआत आख़िरकार
अगला अंक होती है पिछले की
और घटनाओं की किताब
हमेशा बीच से खुली होती है.
(पहली नज़र का प्यार)
उन्होंने काफ़ी बाद में कवि और आलोचक एडवर्ड हर्श से कहा,
‘जब मैं जवान थी, तो मुझे कम्यूनिस्ट विचार पर यक़ीन था. मैं दुनिया को साम्यवाद के ज़रिये बचाना चाहती थी. जल्दी ही मुझे पता चल गया, वह काम का नहीं है, पर मैंने कभी भी यह नहीं जताया कि मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ था… अपनी रचनात्मक ज़िंदगी की शुरुआत में मुझे मानवीयता से प्यार था. मैं इंसानियत के लिए कुछ करना चाहती थी. जल्द ही मुझे समझ में आ गया था कि मानवीयता का बचाना मुमकिन नहीं है.’
1957 में उन्होंने अपना शुरुआती काव्य कर्म और साम्यवाद – दोनों को छोड़ दिया. दशकों बाद वे पोलैंड में कम्यूनिस्ट पार्टी के ख़िलाफ़ आंदोलन में शामिल हुईं. शिम्बोर्स्का के लिए कविता व्यक्तिगत रही, राजनीतिक नहीं. न्यूयार्क टाइम्स को १९९६ में नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद दिये गये इसी इंटरव्यू में उन्होंने कहा,
‘हाँ बिल्कुल, ज़िंदगी और राजनीति एक दूसरे से गुजरते हैं… पर मेरी कविताएँ बिलकुल भी राजनीतिक नहीं हैं. वे लोगों और ज़िंदगी के बारे में ज़्यादा हैं.’
और आख़िरी में ये, कि
‘कविता इंसान या लोगों को बचाती नहीं हैं. मेरा पक्का यक़ीन है कि कविता से दुनिया बच नहीं सकती. वह उसे पढ़ने वाले को सोचने में मदद कर सकती है. वह उसकी आध्यात्मिक ज़िंदगी में कुछ जोड़ सकती है. उसे पढ़कर शायद उसे थोड़ा कम अकेला लगे.’
शिम्बोर्स्का को पढ़कर कम अकेला लगता है. ज़्यादातर अच्छे कवि अपने एकांत को पाठक तक ले आते हैं और वहीं छोड़ते हैं. पर इनकी कविताओं में रोज़मर्रा की ज़िंदगी और उसके अचरज हैं, बिल्ली, कैंची, घूमते दरवाज़े, उनके हत्थे, मेज़ पर बिछे कपड़े को खींचता हुआ बच्चा, नक़्शे पर बने ज्वालामुखी पर उँगली का रखा जाना.. उनकी कविताओं में हमारा अलक्षित संसार उजागर होता चलता है भाषा की बारीकी और मायनों में गहराई के साथ. कई बार रहस्यों की तरह भी.
सिगरेट उन्होंने बहुत पी. ज़्यादातर तस्वीरों में दिखलाई पड़ती हैं. और फेफड़े के कैंसर से 2012 में.
भाषा, देश, काल को लांघते हुए शिम्बोर्स्का कविताओं से प्यार करने वालों के लिए अब भी एक संरक्षक संत की तरह हैं. अपनी अदा में, और नज़र, कहन और मायनों में भी.
दिल्ली में आईआईएमसी (भारतीय जनसंचार संस्थान) में दाख़िला मिला, वहां. बहुत बाद में लंदन की वेस्टमिन्स्टर यूनिवर्सिटी में बतौर ब्रिटिश स्कॉलर चीवनिंग फेलोशिप. वहां पहुंच कर लगा कि बहुत पहले आना चाहिए था ऐसी जगह पर. डेबोनयेर हिंदी में नौकरी मिली, वह चालू ही नहीं हुई. इस बीच नवभारत नागपुर, राष्ट्रीय सहारा, ईस्ट वेस्ट टीवी, जैन टीवी, इंडिया टुडे, बिज़नेस इंडिया टीवी, देशबंधु भोपाल, दैनिक भास्कर चंडीगढ़ और भोपाल में काम किया. बीच में गुजराती सीख कर दिव्य भास्कर के अहमदाबाद और बड़ौदा संस्करणों की लॉन्च टीम में रहा. बेनेट कोलमेन एंड कंपनी लिमिटेड के अंग्रेज़ी टैबलॉयड पुणे मिरर के एडिटर. फिर चंडीगढ़ के अंग्रेज़ी द ट्रिब्यून में चीफ न्यूज़ एडिटर. ‘तमन्ना तुम अब कहाँ हो’ नाम से एक किताब पेंग्विन से तथा ‘कुछ नहीं : सब कुछ’ शीर्षक से एक कविता संग्रह प्रकाशित. आदि nidheeshtyagi@gmail.com
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बहुत ही सुंदर आलेख है और शिम्बोर्स्का की कविताओं के सारे महत्वपूर्ण पहलुओं को दर्ज़ करता है । कितना सुखद संयोग है कि मैं इधर शिम्बोर्स्का के संग्रहों से दोबारा गुजरता रहा -“पिपुल ऑन द ब्रिज” और” व्यू विद ए ग्रेन ऑफ सैंड” से लेकर “मैप “और “हीयर “तक की तमाम कविताओं को दोबारा पढ़ना एक बड़ा अनुभव था।
Excellent article.She could create magic out of ordinary words.
शिम्बोर्सका पर अच्छा आलेख बहुत बहुत बधाई शुभ कामनाएं
शिम्बोर्स्का मेरी प्रिय कवि हैं। बहुत अच्छा लिखा है। भले ही वे अपने को राजनीतिक कवि न मानती हों, लेकिन उनकी कविताएँ गहरे अर्थ में राजनीतिक हैं। निधीश ने उनकी कविताओं के लिए सही लिखा है कि ये उजली और हमारे साथ रह जाने वाली हैं।
बढ़िया आलेख, सहज अनुवाद और कविताएं तो नागीने सी हैँ। वे विश्व कविता की विश्वस्तम उपस्थिति थी, रहेंगी
अति सुंदर प्रस्तुति।कविताओं को पढ़कर लगता है कि हम स्वयं से बात कर रहे हैं और वह भी काफी तर्कसंगत।इसके लिए निधीश त्यागी जी को कोटिशः धन्यवाद।
आखिर में आपने जो अपना परिचय दिया है,एक साहित्यकार के लिए मुझे जरूरी नहीं लगा।यह मेरी अपना विचार है,अगर बुरा लगे तो क्षमाप्रार्थी हूँ।