कविता भाषा की मिट्टी से गढ़ी जाती है, संतोष अर्श शब्दों के संस्कार और सरोकार दोनों से वाकिफ हैं. उन्हें कविता को आकार देना आता है. इन कविताओं को उम्मीद की तरह देखा जाना चाहिए.
संतोष अर्श की कविताएँ
हम लोग
हम मिट्टी को रोटी में तब्दील करने वाले लोग हैं
हम घास को दूध में तब्दील करने वाले लोग हैं
हम कसैले को मीठे में तब्दील करने वाले लोग हैं
हम अभाव को उल्लास में तब्दील करने वाले लोग हैं
हम असुंदर को सुंदर में तब्दील करने वाले लोग हैं
हम मृत्यु को जीवन में तब्दील करने वाले लोग हैं
इसलिए जब हम रचेंगे कविता,
तो उससे बहुत कुछ तब्दील हो जाएगा.
घृणा की जोंक
तुमसे कुछ नहीं हो पाएगा !
न मुहब्बत, न नफ़रत
न जंग, न अमन
न इंसाफ़, न बगावत.
असल में इन सबके लिए
आदमीयत की ज़रूरत होती है
जो तुम में कभी थी ही नहीं
तुम्हारे भीतर बस घृणा की एक जोंक थी
जो आज भी
लहू की महक से लपलपाने लगती है.
जामुन
जामुन पहले कच्चे हरे होते हैं
फिर आधे हरे और आधे गुलाबी हो जाते हैं
धीरे-धीरे गहराते जाते हैं
गंगा-जमुना बन जाते हैं
दो-एक लहदर पानी बरसने के बाद
जामुन चटख जामुनी रंग पाते हैं
जिसे फरेंदी रंग कहते हैं
मेरी प्रेमिका की आँखें फरेंदी रंग की हैं
लड़के उनके पीछे परेशान रहते हैं.
तोते
तोतों के बीच रहना अच्छा लगता है
तोते मेरी प्रेमिका की तरह सुंदर होते हैं
तोते ख़ुशी में ख़ूब बोलते हैं
एक बात कई बार सुन लेने पर
तोते याद कर लेते हैं
तोते तीखी मिर्ची खाते हैं और मीठा बोलते हैं
तोते निमकौरी चूसते हैं और मीठा बोलते हैं
मीठा बोलने के कारण तोते पिंजरे में डाले जाते हैं
पिंजरा खुल जाने पर तोते भाग जाते हैं
इसीलिए तोते बेवफ़ा कहलाते हैं.
सींखचों के पीछे खड़े फैसले
तुम हमारे ख़ून का लोहा निकाल कर
उसकी बेड़ी बनाकर हमारे पाँव में डालते हो,
और इसे क़ानून कहते हो !
हम जानते हैं,
अदालतों में जो वारे-न्यारे होते हैं,
वो तुम्हारे होते हैं !
हमारे होते हैं,
जेल की चहारदीवारियों से घिरे,
सींखचों के पीछे खड़े फैसले.
पोस्ते का फूल
माँ तुम जब भी मुझे याद आती हो
तो चाँदी के उन वज़नी गहनों की तरह
जो बहुत मामूली रक़म के लिए गिरवी रखे गए थे
लेकिन कभी छुड़ाए न जा सके.
छोटे-छोटे साँवले,
बिना पायल वाले बिंवाईदार पाँवों की तरह,
जो चवन्नी की पुड़िया वाले गुलाबी रंग से रंगे रहते थे.
माँ तुम जब भी मुझे याद आती हो,
मैं पोस्ते के खेत की क्यारियों में पहुँच जाता हूँ !
औए पोस्ते का बज्र सफ़ेद फूल बन जाता हूँ।
मुक्तिबोध के प्रति
तुम्हे कैसे बताऊँ मैं
अँधेरी बावड़ी में अब भी,
रहता है वो ब्रह्मराक्षस,
सवेरे शाम दिखता है,
अभी तक देह घिसता है,
मगर अब मैल ज़्यादा है बहुत,
नाख़ून छोटे हैं.
सफलता के वो चक्करदार ज़ीने,
यांत्रिक होकर,
चकरघिन्नी से नचते हैं, नचाते हैं,
उड़ा है खूब कचरा-धूल,
हम सब ओढ़ने वाले.
तुम्हारी बात पर ही पार्टनर,
जी गया हूँ, जैसे तैसे धरती में गड़कर,
ये गरबीली ग़रीबी भी मुझे स्वीकार है तो बस,
तुम्हारी बात पर हमदम.
नई अभिव्यक्ति देते हो !
मेरा अस्तित्व रंदे और बसूले से,
इसी अभिव्यक्ति ने छीला तराशा है
तुम्ही वह शक्ति देते हो
मैं जिससे कि,
तुम्हारा वह अधूरा कार्य,
तुम्हारी वेदना का स्रोत
संगत, पूर्ण निष्कर्षों तलक
पहुंचा सकूँ.
तुम्ही तो हो !
हमारे इस हृदय के गुप्त स्वर्णाक्षर,
तुम्हारी हार का बदला
चुकाने आयेगा
संकल्प-धर्मा- चेतना का
रक्तप्लावित स्वर.
ll ग़ज़लें ll
सुब्ह तक आसमाँ से एक सितारा न गया
रात भर आँख से वो आँख का तारा न गया
तमाम उम्र हम एहसास-ए-कमतरी में रहे
हमसे कुछ डूबते लोगों को उबारा न गया
चारागार कर मेरी तदबीर सुना है मैंने
के तेरे दर से कभी कोई बेचारा न गया
चंद आवारा सी ख़ुशियों का ये बेसूद नश्शा
सबका काफ़ूर हो गया है तुम्हारा न गया
जहाँ से लौट कर रस्ते ख़फ़ा-ख़फ़ा से लगे
वहाँ से लौटकर आया तो तो दोबारा न गया
तुमको आए हुए अरसा हुआ, हुई मुद्दत
आज तक घर से मेरे जश्ने-बहाराँ न गया
तुझसे मंसूब था तुझ बिन वो गुज़रता कैसे
उम्र गुज़री है मगर वक़्त गुज़ारा न गया
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ये जो बरगद है दरख़्तों का पीर है शायद
ये जो जुगनू है पतंगों का मीर है शायद
ये जो मछली है इसका रंग नया है सबसे
तेरी रंगत की ज़रा सी नज़ीर है शायद
उड़ के आया है तो पहलू में गिरा है सीधे
ज़र्द पत्ता ये ख़िज़ाँ का सफ़ीर है शायद
दिल मचलता है रूह सच के लिए जलती है
ज़र्रा भर ही सही मुझमें कबीर है शायद
ठीक बाईं तरफ़ सीने के लगा है आकर
चूकता क्यूँ भला अपनों का तीर है शायद
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ख़लिश दिल में रही जाती है तुमको क्या पता साहब
ये जो जाँ है यही जाती है तुमको क्या पता साहब
जवानी तुम जिसे कहते थे ज़न्नत का मज़ा देगी
वो अश्कों में बही जाती है तुमको क्या पता साहब
मुअत्तर सेज फूलों की तुम्हें अच्छी तो लगती है
चुभन कैसे सही जाती है तुमको क्या पता साहब
उसी की नींव की ईंटें मुख़ालिफ़ हो गई होंगी
इमारत क्यूँ ढही जाती है तुमको क्या पता साहब
मैं शाइर ही नहीं ज़रदोज़ हूँ बारीक़ कुदरत का
कहाँ तक फुलचुही जाती है तुमको क्या पता साहब
लहू की रौशनाई में क़लम कर दिल डुबोते हैं
ग़ज़ल कैसे कही जाती है तुमको क्या पता साहब
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संतोष अर्श (1987, बाराबंकी, उत्तर- प्रदेश)
ग़ज़लों के तीन संग्रह ‘फ़ासले से आगे’, ‘क्या पता’ और ‘अभी है आग सीने में’ प्रकाशित.
अवध के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक लेखन में भी रुचि
‘लोकसंघर्ष’ त्रैमासिक में लगातार राजनीतिक, सामाजिक न्याय के मसलों पर लेखन.
2013 के लखनऊ लिट्रेचर कार्निवाल में बतौर युवा लेखक आमंत्रित.
फ़िलवक़्त गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिन्दी भाषा एवं साहित्य केंद्र में शोधार्थी
poetarshbbk@gmail.com
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