भारतेंदु हरिश्चन्द्र को हिंदी उसी तरह प्यार करती है जिस तरह बांग्ला रबीन्द्रनाथ टैगोर से. असहमतियां रबीन्द्र से भी हैं भारतेंदु से भी रहेंगी. भारतेंदु के प्रेम सम्बन्धों को पहले भी किसी क्षेपक की तरह देखा जाता था आज भी उनकी प्रणय कथा से असंतोष है. मैं समझता हूँ यह बेहतर स्थिति है, कि कथ्य पूरी तरह से हस्तगत नहीं किया जा सका है और किसी/अनेक पाठों के अंकुरण की अभी गुंजाईश है.
भारतेंदु और मल्लिका की प्रणय कथा पर आधारित मनीषा कुलश्रेष्ठ का उपन्यास ‘मल्लिका’ अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ है. आलोचक अरुण माहेश्वरी ने इस पर एक टिप्पणी लिखी थी जो समालोचन के पिछले अंक में प्रकाशित हुई है. इस उपन्यास को लेकर उनके अपने प्रश्न हैं. इस संवाद को आगे बढ़ा रहें हैं मनोचिकित्सक और हिंदी के कवि-लेखक विनय कुमार.
(दो)
मल्लिका
शुद्ध प्रेमकथा भी कोरी प्रेमकथा नहीं होती
विनय कुमार
कोई भी कथा, चाहे अतीत के बारे में ही क्यों न हो, अपने समय में ही कही जाती है और समकालीनता को ही सम्बोधित करती है. मल्लिका के रचनाकार को इस बात का पूरा ध्यान है. इसलिए उसने “महान भारतेंदु के पार्श्व में लता-सी लेटी एक स्त्री जो लिख भी लेती है” के बदले में स्वतंत्र चेतना वाली एक बनती हुई लेखिका को रचा है जो भारतेंदु से प्रेम करती है. वह एक बार भी उस युग-पुरुष को पटाती नहीं दिखती. बिलकुल स्वाभाविक तरीक़े से ख़याल रखती है और फ़िक्र करती है.
ग़ौर से देखें तो मल्लिका कल की नहीं आज की स्त्री है- नियति के दंश से उबरती और अपने अस्तित्व को अर्थवान बनाती हुई. रचनाकार ने मल्लिका को उल्का की तरह नहीं टपकाया है बनारस में, उसे एक भरे-पूरे परिवार में पाल-पोसकर बड़ा किया है. बाग़-तड़ाग, खेत-खलिहान, फूल-फल और भरे-पूरे परिवार के बीच. इस प्रक्रिया में इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि उसकी निर्मिति में उन्हीं तत्त्वों का इस्तेमाल हो जो भारतेंदु की प्रेयसी रही मल्लिका को ही रचे और इस क़दर कि इक्कीसवीं सदी में प्रासंगिक भी हो. सुखद आश्चर्य होता है कि मनीषा कुलश्रेष्ठ की मल्लिका बिना किसी विरोधाभास के पुरानी भी है और नयी भी.
‘समालोचन ई पत्रिका’ पर अरुण महेश्वरी जी की समीक्षा मल्लिका के साथ न्याय नहीं करती. उन्होंने उपन्यास को एक सामान्य प्रेमकथा में reduce करने का प्रयास किया है और उद्धरण भी वैसे ही चुने हैं. वे उद्धरण एक ख़ास संदर्भ बेहद ख़ूबसूरत अंश हैं मगर वही सब कुछ नहीं. अपनी स्थापना देते हुए वे कहते हैं :
“इस ढांचे को देखने से ही साफ हो जाता है कि बांग्ला नवजागरण की पीठिका से आई मल्लिका का हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत भारतेन्दु से संपर्क के बावजूद इस प्रणय कथा में उनके स्वतंत्र चरित्र के विकास की कोई कहानी नहीं बनती दिखाई देती है. यह किसी खास परिपार्श्व के संसर्ग से बनने-बिगड़ने वाले चरित्र की कथा नहीं है जो अपने जीवन संघर्षों और अन्तरद्वंद्वों की दरारों से अपने समय और समाज को भी प्रकाशित करता है. यह शुद्ध रूप से एक विधवा की प्रेम कथा है, प्रणय-प्रेम गाथा है.”
मैं उपन्यास और कथा का आलोचक तो नहीं मगर पाठक के रूप में एक उम्र गुज़ारी है. डॉक्टर हूँ. शरीर की चीड़-फाड़ भी की है और २७ सालों से बहैसियत मनोचिकित्सक काम करते हुए हज़ारों लोगों के मन में भी झाँका है. जैविक स्तर पर सारे मनुष्य एक हैं. भोजन हो या सम्भोग- सारी जैविक क्रियाएँ एक तरह से सम्पन्न होती हैं. हमारा मानस भी मूलत: एक है. जो अंतर दिखता है सिर्फ़ सीखे गए व्यवहार की वजह से. कोई डाइनिंग टेबल पर चम्मच से खाता है तो कोई हाथ चाट-चाटकर. शयन कक्ष के भीतर की मूल क्रिया भी समान होती है. अंतर बस अंतरंग संवाद और एक दूसरे के पास पहुँचने के अन्दाज़ में. .. तो जो अंतर है वह cultural construct का है और साहित्य imagined reality के इसी पल-पल बदलते स्पेस में अपना संसार रचता है. एक पाठक के रूप में मुझे यही संसार लुभाता और समृद्ध भी करता रहा है. यह अलग बात है कि विद्वान समीक्षक उपन्यास में रचे गए cultural construct को ख़ारिज करते हुए चंद पृष्ठों पर आए अंतरंग संवादों और दृश्यों को ही उपन्यास का अभिप्राय और उद्देश्य बता बैठे हैं.
इस सिद्धांत पर अमल करें तो बड़े से बड़े उपन्यास को यह कहकर reduce किया जा सकता है कि यह ग़रीबी या भूख या मृत्यु के बारे में है. स्त्री और पुरूष के प्रेम की कथा तो चंद पंक्तियों या एक छोटी-सी कहानी में भी निपटायी जा सकती है. मगर जब कोई रचनाकार औपन्यासिक यात्रा पर निकलता है तो उसकी दृष्टि में वे सारे भौगोलिक-सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ होते हैं जिनसे पात्रों के मानस को रचा जाना है. शुद्ध प्रेमकथा भी कोरी प्रेमकथा नहीं होती. बाहर तो बाहर, कई कारक प्रेमियों के जीव- और मनो- विज्ञान के भीतर भी होते हैं जो प्रेम की गति-नियति तय करते हैं.
मल्लिका एक ऐसा उपन्यास है जिसके दोनों पात्र वास्तविक हैं. भारतेंदु के बारे में काफ़ी कुछ पता है मगर मल्लिका के बारे में बहुत कम. तीन उपन्यास, प्राथमिकस्रोतों से प्राप्त कुछ सूचनाएँ और एक तस्वीर- यही तो! तस्वीर भारतेंदु के साथ उसकी अंतरंगता और उसके व्यक्तित्व की कुछ बातों की सूचना देती है. तस्वीर में उन दोनों की मुद्रा, अंग-भाषा और चेहरे पर बिम्बित मनोभाव अपने आप में प्रेमकथा का सारांश रचते हैं. मगर क्या इतने भर से सम्भव था यह उपन्यास? क्या उपन्यास का अभिप्राय वही चंद दृश्य और संवाद है जो उद्धृत किए गए हैं? भारतेंदु के मानस और परिवेश की पड़ताल अनावश्यक थी ?
क्या इनका महत्त्व सिर्फ़ उनके लिए है जो इन घटनाओं को जानते हैं? भारतेंदु की सामाजिक प्रतिष्ठा, उनकी पारिवारिक-आर्थिक स्थिति, उनकी उदारता, उनकी रचनाशीलता, उनका जागता-जगाता मानस और अन्य प्रेमसम्बंध अनावश्यक फ़ुटेज खाते हैं ? बंगाली नवजागरण की पीठिका से आयी मल्लिका हिंदी नवजागरण के दूत से प्रेमकरती है और वे भी उससे. सच तो यही कि उपन्यास में वर्णित प्रेम पर दोनों के अतीत और वर्तमान के पार्श्व परिवेश बख़ूबी असर डालते हैं. इस प्रेम पर भारतेंदु के क्षरित होते दैहिक और आर्थिक स्वास्थ्य का ही नहीं उनके सामाजिक और लेखकीय जीवन का भी प्रभाव है. और फिर बनारस तो है ही. उपन्यास में बनारस एक शहर-भर नहीं है. वह अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक परम्परा, जीवन शैली अपने उत्सव और अपने अच्छे-बुरे बाशिंदों के साथ मल्लिका के बंगालोत्तर चरित्र के रचाव की प्रक्रिया में बड़ी सहजता से दाख़िल होता चलता है. और भारतेंदु तो बनारसी बाबू ही ठहरे. फ़र्ज़ कीजिए वे कलकत्ता या दिल्ली या पटना के वासी होते और तब सोचिए कि उनका व्यक्तित्व कैसा होता.
और यह मल्लिका कैसे सम्भव हो पाती? कैसे रचा जाता उसका मानस? इतना तो तय है कि मल्लिका बंगाल की थी, और बाल विधवा थी. तो फिर बनारस? मिथक और इतिहास के इस मंच ने क्यों खींचा उसे ? “जस्ट फ़ॉर फ़न” और “अड्वेंचर” के लिए बनारस तो नहीं ही आयी होगी. परम्परा ही निभाना होता तो सीधे वृंदावन चली जाती. कुछ तो होगा उसके मन में! अगर चुपचाप वैधव्य ही काटना होता तो बंगाल ही क्या बुरा था! रही स्त्री और युवावस्था के कारण आनेवाले संकटों की बात. तो जानी-पहचानी जगह छोड़कर कोई अनजान इलाक़े में क्यों जाए? और फिर इसके अलावा उसका लेखक और अनुवादक होना. इसे कैसे देखा जाना चाहिए? क्या उसके जीवन का “पार्श्व परिदृश्य” एक सामान्य प्रेमकथा के साथ अनुस्यूत अतिरिक्त भार की तरह है? उसके कथा-चरित्र के विकास में कोई भूमिका नहीं निभाता? न्यूनतम सूचनाओं के आधार पर भी कहा जाए तो कहना पड़ेगा कि एक बाल विधवा का अभिशप्त जीवन जीने से इंकार, अपने प्रांत और परिजनों से दूर जाकर लेखक का जीवन जीने का साहसिक निर्णय और एक प्रसिद्ध व्यक्ति के साथ विधवा के लिए वर्जित फल का सेवन जैसे तत्त्व उसे सामान्य नारी रहने ही नहीं देते.
ये सत्यापित सूचनाएँ इतना तो अवश्य बताती हैं कि उसके व्यक्तिव में नवजागरण के तत्त्व थे. और अगर ये तत्त्व थे तो कथा का विकास उस सामाजिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि को छोड़कर कैसे किया जा सकता था? उपन्यास के विषय के रूप में अलपज्ञात मल्लिका के जीवन का चयन सिर्फ़ भावनात्मक होता तो क़िस्सागोई का अन्दाज़ कुछ और ही होता. इसे तो सामान्य लेखक भी समझता है. ज़ाहिर है, उपलब्ध स्रोतों और तत्कालीन ऐतिहासिक संदर्भों के अध्ययन के बाद ही मल्लिका के व्यक्तिव को रचने लायक कच्चा माल मिला होगा. शेष तो कृती के अचेतन का सम्बद्ध अयस्क और चेतन की क्षमता !
इस उपन्यास में मल्लिका और भारतेंदु के सम्बंध इतने सरलीकृत नहीं कि उन्हें “एक और प्रेमकथा” की चिप्पी सटी को पोटली में बंदकर ताक़ पर रख दिया जाए. सच तो यह है कि इन दोनों के सम्बन्धों के बहाने “परिवर्तन को प्रस्तुत पुरुष” और “अपने समय से आगे बढ़कर सोचनेवाली आत्मसजग स्त्री” के कई आयामों की पड़ताल की गयी है. वे गुरु और शिष्या भी हैं, रचनाकार मित्र भी, बिज़नेस पार्ट्नर भी और दो स्वतंत्र मनुष्य भी.
भारतेंदु की तरफ़ खड़े होकर देखें तो कई स्त्रियों के बीच मल्लिका भले एक पार्श्व चरित्र नज़र आए मगर इस उपन्यास से बाहर. यहाँ तो बहुगामी भारतेंदु ही पार्श्व चरित्र लगते हैं- अपनी विशाल उपलब्धियों के बावजूद थके-हारे. और मुश्किल जीवन जीती दृढ़मना नायिका अक्षय अमृतधारा सी. माना कि भारतेंदु कई स्त्रियों से प्रेम-सम्बंध बनाने वाले स्वतंत्र पुरुष के रूप में जाने जाते हैं तो इस उपन्यास की मल्लिका भी आश्रिता नहीं. वह तो भारतेंदु द्वारा “धर्म-रक्षिता” कहे जाने का भी प्रतिवाद करती है. वह अपना मूल्यांकन करते हुए कहती है :
“तुम्हारा और मेरा नाता इस संसार की व्याख्या का विषय नहीं है. लोग प्रेम को व्याभिचार समझते हैं. जबकि प्रेम की परिभाषा तक में अपना व्यापक संबंध समेटे नहीं सिमटता. हम धँसते हैं एक दूसरे की कला में अभिव्यक्ति में! मुझे किसी के आगे अपना और तुम्हारा चरित्र सत्यापित नहीं करना.”
वह मातृभाषा में कवितायें लिखती है और हिंदी में गद्य. यानी कोरी संवेदना पर नहीं ठहरी है वह, बल्कि विचार और समय की माँग को पहचानने के लिए सक्रिय है. वह सयत्न हिंदी सीखती है और उपन्यास भी लिखती है. बंकिम बाबू से मल्लिका के बौद्धिक जुड़ाव और संवाद के प्रसंग सरसरी तौर पर भले दूर की कौड़ी लगें मगर नवजागरण-नारी के मानस की काव्यात्मक रचना के दृष्टिकोण से सोचें तो अर्थवान मेटाफ़र. ईश्वर चंद्र विद्यासागर की कोई सभा-गोष्ठी बनारस में हुई थी या नहीं, मुझे नहीं पता मगर इस गोष्ठी में विद्यासागर-भारतेंदु संवाद को सुनती मल्लिका मायके से आए नए विचारों के ध्वजधारी के प्रति गर्व और अपने प्रेमी के उदार आग्रहों के प्रति हौले-हौले आश्वस्त होती वधू-सी दिखती है. यह तथ्य भले न हो, उपन्यास के इस चरित्र की निर्मिति के लिए अनिवार्य काव्य-सत्य तो यक़ीनन है.
रोचक क़िस्सागोई न हो तो उपन्यास अपने को पढ़वा नहीं पाता और कथा के अनुरूप भाषा न हो तो लगता है किसी अनाड़ी का किया अनुवाद पढ़ रहे. यह उपन्यास इन दोनों दोषों से रहित है. कथा बाँधती है, जिज्ञासा को जगाए रखती है और पाठक को साथ लिए चलती है. उपन्यास उठाओ तो एक सिटिंग में ख़त्म. भाषा की प्रांजलता मन को मोहती है, ख़ासकर तब जब चर्चा प्रकृति या अंतर्मन की हो रही हो. प्रकृति का वर्णन तो कमाल का. पढ़ते हुए लगता है कि पुराने बंगाल के किसी गाँव पर बनी डॉक्युमेंटरी देख रहे हों.
सारांशत:, यह उपन्यास भारतेंदु और मल्लिका की प्रेमकथा तो है ही मगर उससे कहीं अधिक रूपसी बांग्ला की एक सुसंस्कृत मगर अभिशप्त कन्या के स्वप्नों और संघर्षों की कथा है. नियति के निर्णय की छाया से बाहर निकलने के साहस का काव्य है. यह अकारण नहीं कि कथा प्रतीक्षा की गर्म रेत पर फैले विहवल एकांत से शुरू होती है और समाप्त एक निर्गुण प्रशांति में.
(अरुण माहेश्वरी की टिप्पणी – भारतेन्दु बाबू की प्रणय कथा ________
कवि विनय कुमार की \’यक्षिणी\’ अभी हाल ही में प्रकाशित हुई है.
Hony General Secretary:Indian Psychiatric Society
Chairperson: Publication Committee, Indian Psychiatric Society (2016-18)
Hony Treasurer: Indian Association for Social Psychiatry
Imm. Past Hony Treasurer: Indian Psychiatric Society (2012-16)
Consultant Psychiatrist:Manoved Mind Hospital,
NC 116, SBI Officers Colony, Kankarbagh, Patna India.
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