यथार्थ के चित्रण को जो तरीका का प्रेमचंद के समय प्रचलित था आज वैसा नहीं रह गया है. समय-दर-समय उसमें परिवर्तन हुआ है और यह परिवर्तन प्रेमचंद का स्वाभाविक विकास है. समकालीन कहानी में यथार्थ को ‘रुपक’, ‘फेंटेंसी’ और ‘जादुई यथार्थ’ के माध्यम से कहा जा रहा है. सामाजिक बदलाव के हथियार अब बदल चुके है इसलिए लेखक ज्यादा बारिकी से चीजों के प्रति लोगों की मानसिकता को बदलने का काम करते है. चेखव के शब्दों में कहूँ तो दुनिया में बहुत से दार्शनिक हुए है जो असफल कथाकार थे लेकिन बिना जीवनदर्शन के कोई अच्छी चीज नहीं लिखी गई. इस तरह हर लेखक का जीवनदर्शन उसके अपने जीवन के अनुभवों के निचोड़ से निकलता है. अगर लेखक जीवन से जुड़ा नहीं है तो वह केवल दर्शन या राजनीति की किताबें पढकर कहानी नहीं लिख सकता. सामाजिक संबंधों में हो रहे नित नए बदलावों का वास्तविक चित्रण वह सामाजिक जीवन से जुड़कर ही कर कर सकता है. समाज को देखने-समझने-निरीक्षण के कहानी के मूल आधार भी यही है. इसलिए अपने समय की समझ और बदलती मानसिकताओं को पकड़ने की क्षमता और भाषा के आधार पर कहानी की विषयवस्तु और उसका रूप बदलता रहा है और आगे भी बदलेगा.
आज की कहानी में विस्तार ज्यादा है उसमें गाँव, कस्बा, शहर और महानगर सभी कुछ है. वह इनमें हो रहे बदलाव की, बदलते हुए समाज से जुड़ी, उसी की बात करती है. वह गाँव में घुसे बाजार की पड़ताल करती है. ‘टेकना है तो टेक न तो गो’ (नीलाक्षी सिंह) कहानी बाजार के खिलाफ, उसके प्रतिरोध में लिखी कहानी है. इसमें पति पहले मिठाई की एक दुकान करता था. लेकिन अब उसने दुकान की जगह एक बड़ा सा मिष्ठान भंडार बना लिया है और वह चाहता है कि उसकी पत्नी भी उसके साथ काम में हाथ बटाए. लेकिन पत्नी गर्व और स्वाभिमान के साथ वहीं रहकर अपना काम करती है और ग्राहकों से स्पष्ट कहती है कि ‘टेकना है तो टेक न तो गो’ यानी सामान लेना है तो ले, नहीं तो जा. आज बाजार पर अधिकार के लिए पति-पत्नी आपस में प्रतिस्पर्धा कर रहे है. इसी तरह बाजार के प्रभाव में आजकल हिंदी में भी अर्थशास्त्र और राजनीतिविज्ञान की भाषा को जबरन चलाया जा रहा है और यह सही नहीं है. जहाँ तक कहानियों के बदलने की बात है तो वह सामाजिक संबंधों में, स्त्री-पुरूष संबंधों में आए बदलावों से बदलती है. वह न तो तारिखों से बदलती है और न घटनाओं का उनपर सीधा प्रभाव पडता है. वह उन विचारों से बदलती है जो उसे लेखन के लिए प्रेरित करते है. कहानी अपने शुरूआती काल से आदमी और आदमी के बीच के संवाद की विधा रही है और जब तक आदमी है, तब तक ‘संवाद’ बना रहेगा, ‘कहानी’ बनी रहेगी.
कहानी का मतलब है अनुभवों का साझा. यानी जब तक आदमी एक-दूसरे से अनुभवों का साझा करता रहेगा तब तक कहानी बनती रहेगी. इसकी भाषा, स्वरूप और तकनीक बदल सकती है पर इसकी मूल चेतना या आत्मा जोकि ‘संवाद’ है, नहीं बदल सकता. कहानी की यही संवादधर्मिता उसे समाज को देखने, समझने और परखने की शक्ति देती है. इसलिए कहानी के रूप में जो परिवर्तन हो रहे है उसे लेकर परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है. यह अंतर वैसा ही है जैसा फोटोग्राफी और फिल्म में होता है. फोटोग्राफी अपने आप में एक संपूर्ण विधा है और एक तस्वीर अपने आप में एक वक्तव्य है. जबकि फिल्म में वह सब एक ‘प्रवाह’ में होता है इसलिए अंतर ‘गतिशीलता’ का है. इसी तरह उपन्यास प्रवाह में चलता है और बड़े फ्रेम का हिस्सा है. उसमें कहानी के अनुभव और घटनाएँ भी आती है लेकिन इससे कहानी लुप्त तो नहीं हो जाती. वह एक स्वतंत्र विधा है न कि उपन्यास का पूर्वाभ्यास. बाजार के प्रभाव में कहानी को उपन्यास का पूर्वाभ्यास कहना ठीक वैसा ही है जैसा यह कहना कि जो लोग नाटक या फोटोग्राफी का अभ्यास करते है वे आगे चलकर फिल्म में चले जाते है. हालांकि फिल्म ‘छा जाने वाली’ विधा (डोमिनेंट मीडीयम) है इसलिए व्यावसायिक कारणों से कोई उसमें जा सकता है.
दरअसल कभी-कभी बाजार कुछ चीजों को उठा तो लेता है लेकिन वे जिंदा अपनी भीतरी जिजीविषा से ही रहती है और हम इसे नकार नहीं सकते. इसलिए कहानी और उपन्यास अपनी भीतरी जिजीविषा से जिंदा है. पहले कभी किसी कहानी या उपन्यास पर फिल्म बन जाती थी पर अब इसकी गुँजाइश नहीं है. अब तो वह पत्रिकाओं के रविवारीय पन्नों पर एक पेज की चीज बनकर रह गई है और इसके बावजूद एक से बढकर एक खूबसूरत कहानी आ रही है. वह ज्यादा से ज्यादा पठनीय बनाई जा रही है. लेखक पर बाजार के प्रभाव को जहाँ तक मैं समझता हूँ वह यह है कि वह कहानी को ‘अधिक से अधिक पठनीय’ बनाता है और यह कहानी की मूलभूत जरूरत भी है. इसलिए इसे केवल बाजार का प्रभाव न कहकर कहानी की आधारभूत जरूरत या अंतर्भुक्त गुण कहा जाना चाहिए. कहानी मूलरूप से संवाद की विधा है और अगर वह पाठक से संवाद करने में, उसे बाँधकर रखने में असमर्थ है तो फिर उसका कोई मतलब नहीं है. अगर मेरी कहानी आपको बाँधकर नहीं रख सकती तो मैं क्यों और किसके लिए लिख रहा हूँ? इसी तरह कभी-कभी व्यावसायिक कारणों से भी कहानी को फैला-फुलाकर उपन्यास बना दिया जाता है. अल्बेयर कामू का ‘अजनबी’ केवल पृष्ठ संख्या के कारण उपन्यास है वरना उसकी पूरी संकल्पना और गठन कहानी का ही है. क्या यह कहानी और कहानीकार पर बाजार का दबाव नहीं है, जिसमें विधाओं की दीवारें टूट रही है.
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