सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर लिखने वाले सुपरिचित लेखक, अनुवादक सुभाष गाताडे हिंदी, अंग्रेजी के साथ-साथ अपनी मातृभाषा मराठी में भी लिखते हैं. यह ‘आत्म’ अंश उनके जीवन के कुछ ऐसे प्रसंगों से जुड़ा है जो अभी भी उन्हें विकल और विचलित करता रहता है.
मैं भी अश्वत्थामा ?
सुभाष गाताडे
समुंदर की लहरें तेज हो चली हैं, और उस पर एक जहाज हिचकोले खा रहा है.
जान बचाने की गुहार लगाते लोगों की आवाज़ सुनने के लिए दूर-दूर तक कोई नहीं है. जहाज से अचानक एक लाईफबोट नीचे उतारी जाती है जिस पर सवार होकर एक आदमी निकल आता है.
लगभग तीस साल का वक्फा़ गुजर गया जब एक फिल्म देखी थी. उसी फिल्म का एक दृश्य अभी भी मन की आंखों पर अंकित हो गया है.
फिल्म का नायक अक्सर नींद से अचानक जग जाता है, और उसी नज़ारे को देखता है.
और तेजी से घर से बाहर निकल कर भागता है.. गोया उसी तरीके से वह उस सपने से भी दूरी बना लेगा.
धीरे–धीरे पता चलता है कि वह उसके ही अपने जीवन का कोई हादसा था, जब वह अपने मित्रों को, संगी–साथियों को मरने के लिए छोड़ते हुए भागा था.
अपनी अतीत की यह भारी भूल उसका निरंतर पीछा करती रहती है.
कभी–कभी फिल्में भी जिन्दगी की झलक बयां कर देती हैं.
कई बार आप खुद अपने अतीत से भागने की कोशिश करते रहते हैं, यह बखूबी जानते हुए कि ऐसा कहां मुमकिन होता है ?
आप बस यही सोचते रह जाते हैं कि काश कोई ऐसी टाईम मशीन होती जिसमें सवार होकर आप अपने अतीत में लौटते और उन लमहों को, उन पलों की तासीर बदल देते, जो आज भी आप का पीछा कर रही हैं.
2.
उस वक्त मैं दूसरी या तीसरी कक्षा में रहा हूंगा.
पुणे के शुक्रवार पेठ में स्थित शिंदे गली (गली को मराठी में आळी भी बोलते हैं). के पास आदमाणे के मकान में हम लोग किराये पर रहते थे. पिताजी सेंट्रल एक्साइज विभाग में इन्स्पेक्टर थे, जिन्हें हम बाबा कहकर पुकारते थे, मां- मराठी में आई- आज की जबान में होम मेकर अर्थात गृहिणी थीं.
सबसे बड़ी बहन रेखा थी- जो मुझसे पांच साल बड़ी थी, फिर मंझले भाई थे सुनिल- जो तीन साल बड़े थे और उसके बाद अपुन. भाई बहनों में सबसे छोटे. मराठी में ऐसी सन्तानों को शेण्डेफल कहा जाता है.
मेरा सबसे पहला स्कूल घर के बगल के ही मकान में था, इतने बगल में कि किराये के हमारे मकान की खिड़की से दिखता रहता था कि स्कूल चल रहा है या नहीं. मैडम- जिन्हें पूरे सम्मान के साथ मराठी में हम ‘बाई’ कहते थे- आयी हैं या नहीं. इन दिनों जिसे लोअर केजी और अप्पर केजी कहा जाता है, वैसे दो साल मैं इसी स्कूल में जाता था.
स्कूल का नाम था शायद ‘बाल गोपाल मंदिर. ’
कई बार होता था कि रेखा और सुनिल की छुट्टी होती थी, मगर मेरे स्कूल की छुट्टी नहीं होती थी, फिर भी मैं ऐलान कर देता था कि मेरी भी आज छुट्टी है. और स्कूल नहीं जाता था. घर की खिड़की से चुपके से अपनी ही क्लास को देखना एक अलग तरह का रोमांच लगता था.
लोअर एवं अपर केजी के बाद जब मैं पहली में पहुंचा तो मेरा नाम भी उसी स्कूल में लिखवाया गया जहां रेखा और सुनिल पढ़ते थे. आदर्श विद्या मंदिर.
स्कूल के सामने ही राजा केलकर संग्रहालय (म्यूजियम) था. मैं जब छोटा था तब संग्रहालय की स्थापना करनेवाले केलकरसाब जिन्दा थे. वह म्यूजियम उन्हीं की अपनी कोशिशों का फल था. कई जुनूनी लोग होते हैं समाज में, उसी किस्म के व्यक्ति थे वह.
घर से स्कूल की दूरी बमुश्किल सात आठ मिनट पैदल की थी.
आदमाणे वाड़ा – मराठी में बड़ा मकान- जिसमें कई किरायेदार रहते थे- के बगल में शिंदे गली थी, उसे पार करने के बाद ही सड़क के उस पार बायी तरफ स्कूल शुरू होता था. स्कूल में जब अवकाश होता था, तब हमारे जैसे बच्चे घर ही आते थे और अगली घंटी बजने के पहले स्कूल पहुंच जाते थे.
दूसरी, तीसरी तथा चौथी कक्षा के क्लासेस जहां लगते थे, वहां एक खाली मैदाननुमा जगह थी.
जैसा कि मैं आप से बता रहा था कि उस वक्त़ मैं दूसरी या तीसरी कक्षा में रहा हूंगा.
रिसेस खतम होने को थी और मैं घर से लौटते हुए अपनी कक्षा की तरफ बढ़ रहा था.
मैदाननुमा उस जगह में मेरे ही कुछ सहपाठी गोल बना कर दिखे और कुछ चिल्लाते जा रहे थे. क्या हो रहा है यह देखने को मैं रुका और मैंने पाया कि मेरा ही एक सहपाठी जमीन पर बैठा हुआ है, और अपने ही कान बंद करके उस तमाम शोर से अपने आप को बचाने की असफल कोशिश कर रहा है.
उसका सांवला सा चेहरा जो अत्यधिक कातर हो चुका था, मेरे मन की आंखों के सामने आज भी नमूदार होता रहता है. यह बिना जाने कि मामला क्या हैं मैं अपने अन्य सहपाठियों के उस शोरगुल में खुद शामिल हो गया था. और चिल्लाने लगा था \”___’’, \”________\”
मुझे यह भी पता नहीं था कि उस चिल्लाने का क्या अर्थ है. इतने में स्कूल की घंटी बजी थी और सभी बच्चे भाग कर कक्षा में पहुंच गए थे.
घर लौट कर आई अर्थात अपनी मां से पूछा कि बाकी बच्चे पाटील (बदला हुआ नाम) को यह \”______\” कह कर चिढ़ा रहे थे.
पता चला कि दलित जाति से संबद्ध पाटील को उसकी जाति की याद दिलाने का वह सामूहिक वीभत्स कार्यक्रम था, जिसका मैं भी सहर्ष सहभागी बना था.
इस प्रसंग को कम से कम 56-57 साल से अधिक वक्त गुजर गया है.
लेकिन मुझे आज भी वह प्रसंग अक्सर याद आता है.
पाटील तो उसका टायटल था, उसका नाम बिल्कुल भूल गया है. हां, एक क्लू जरूर मेरे पास है. पाटील का जिगरी दोस्त राजू (बदला हुआ नाम) था. राजू के पिताजी शायद टेलरिंग की दुकान चलाते थे. ऐसा संयोग था कि राजू की मां अक्सर स्कूल आया करती थी. मुझे दूसरी-तीसरी कक्षा के सहपाठियों में से एक दो को छोड़ कर अन्य किसी की शक्ल याद नहीं है, लेकिन पाटील, राजू, राजू के माता पिता की शक्ल बखूबी याद है.
अपने मन में कई बार सोचा हूं कि पुणे जाकर पाटील का कहीं से पता लगाउं और उससे मिलूं.
और उसके सामने नतमस्तक खड़ा रहूं, दोनों हाथ जोड़े.
पाटील यार, माफ करना, मैंने उस दिन उस दिन तुझे बहुत अपमानित किया था..
हो सके, तो मुझे माफ कर देना.
३.
उन्हीं दिनों की बात है जब एक अन्य सहपाठी था- नाम मोहम्मद था, टायटल क्या था, पता नहीं !
गहरे लाल और नीले रंग की चौकोर डिज़ाईन की शर्ट पहने वह स्कूल आता था. कभी–कभी वह फुल पैन्ट भी पहना होता था. उसके बाल कभी ज्यादा बड़े नहीं दिखते थे. उसके पिताजी का कोई छोटा-मोटा वर्कशॉप रहा होगा या गैरेज चला रहे थे शायद.
1965 में पुणे शहर में दंगे हुए थे. ‘हम और वे’ की सियासत की पहली झलक उस वक्त देखने को मिली थी.
दंगें जब हुए तब स्कूल बन्द हो गए थे और हम बच्चों को ‘वाडा’ के बाहर जाने की अनुमति नहीं थी. वाडे के आंगन में या पिछली गली में ही खेलना होता था. पुराना वाडा था, जिसका लकड़ी का बड़ा दरवाजा था और उसी में एक छोटा दरवाजा भी था. आम तौर पर लोग उस छोटे दरवाजे का ही इस्तेमाल करते थे.
मराठी में वाडा उसको कहते हैं जिसमें कई छोटे बडे़ मकान होते हैं. पेशवाओं के जमाने में उनका दरबार जिस जगह लगता था और उनके परिवार के लोग जिस जगह रहते थे, उस विशाल जगह को शनवारवाडा कहते थे. मैं जब छोटा था तब पुणे में ऐसे कई वाडे थे, पेशवाओं के सरदार कभी उनमें रहा करते होंगे. रफ्ता–रफ्ता फलैट की संस्कृति आयी और शनवारवाडा जैसी ऐतिहासिक जगह को छोड़ कर बाकी तमाम वाडे जमींदोज कर दिए गए, जहां आधुनिक तरीके से फलैट बने. मैं जब कालेज पहुंचा तो आदमाणे वाडा भी जमींदोज हुआ और वहां पर फलैट बने.
हमारे मकान मालिक- जिन्हें बाबासाहेब कहा जाता था- बुजुर्ग हो चले थे और अक्सर पहली मंज़िल पर बने अपने मकान की खिड़की में ही बैठे रहते थे. किराये पर वहां रहनेवाले लोगों ने एक तरह से बाबासाहेब को वीटो दिया था कि वह चाहे तो उनके बच्चों को डांट सकते हैं, अगर वह दरवाज़ा लांघ कर बाहर जाने की कोशिश करें तो.
वाडे के आंगन में खेलते-खेलते कभी बोअर होकर अगर कोई संगी गलती से ही दरवाजे की तरफ बढ़ा तो उपर से बाबासाहब की बुलंद आवाज़ सुनायी देती थी, \’कौन दरवाजा खोल रहा है, और हम चुप हो जाते थे.\’
उस वाडे में मकान मालिक आदमाणे के अलावा दस बारह परिवार और रहते थे, जिनमें से कुछ उनके अपने रिश्तेदार थे, और कुछ हमारे जैसे लोग. वाडा के आंगन में शाम के वक्त़ बच्चे खेलते रहते थे और मेरी आई और अन्य परिवारों की महिलाएं-माताएं बैठ कर थोडा गपशप करती थीं.
दंगे कैसे हुए इसका एक किस्सा उन दिनों खूब चलता था, जो हमारे दिलो दिमाग पर अंकित हो गया था.
हमारे घर से ही थोड़ी दूरी पर आंग्रे वाडा था. आंग्रे पेशवाओं के कोई सरदार थे, जिनके किसी वंशज के पास वह विशाल वाडा रहा होगा. आदमाणे वाडा में जिस तरह ग्यारह-बारह परिवार रहते थे, उसी तरह आंग्रे वाडा में भी तमाम परिवार किराये पर रहते थे. अधिकतर गरीब तबके के लोग या निम्न मध्यमवर्ग के लोग वहां रहते थे. उन्हीं में से एक हाल्या था.
हाल्या निश्चित ही उसका मूल नाम नहीं रहा होगा, हो सकता है हलीमुददीन रहा हो या अन्य कोई, लेकिन महाराष्ट्र में नामों के विद्रूपीकरण की जो रवायत चली आ रही है, जिसके तहत मेरे खास दोस्त भी मुझे सुब्या बोलते थे, उसी के तहत उसका नाम भी हाल्या हो गया था.
हाल्या पेशे से हमाल अर्थात सामान ढोनेवाला था. और जो महात्मा फुले भाजी मंडई अर्थात सब्जी मार्केट- जो घर के पास ही था- वहां हमाली करता था.
पुणे तथा महाराष्ट में बहुचर्चित गणेशोत्सव के तहत फुले मंडई की तरफ से भी गणेश मूर्तियों की पूजा होती थी और उन्हें बाकायदा जुलूस की शक्ल में विसर्जन के लिए ले जाया जाता था. फुले मार्केट में बाकायदा एक अलग कमरा बनाया गया था, जहां गणेश की यह मूर्तियां स्थापित की जाती थीं.
तो दंगा कैसे शुरू हुआ इसकी यही कहानी बतायी जाती थी कि हाल्या ने गणेश की मूर्ति के सामने लघुशंका की थी और दंगा शुरू हुआ था. बालमन में कभी भी दंगे की इस कहानी पर संदेह होने का सवाल ही नहीं था क्योंकि यही कहानी सभी लोग बताते थे.
बाद के दिनों में भी जब-जब गणेशोत्सव होता था तो वाडे में लोग बताते थे कि पुलिस हाल्या को पकड़ कर ले गयी है, अर्थात दंगा फैलाने के लिए ‘चिंगारी’ डालने के तौर पर खलनायक के तौर पर वही प्रस्तुत रहता था. और हम सभी मन ही मन गोया निश्चिंत हो जाते थे.
उन दिनों मन यह कभी नहीं सोचता था कि कोई जब तक पागल न हो वह किसी आस्था के स्थान पर जाकर गंदगी क्यों फैलाएगा, आखिर उसे क्या मिलेगा ?
आज जब 65 के उस दंगे के उस प्रसंग पर सोचता हूं तो इस कहानी के ढेर सारे झोल समझ में आते हैं, दंगे कैसे कराये जाते हैं, अफवाहें कैसे फैलायी जाती हैं, वह सब आंखों के सामने नमूदार हो जाता है. ?
घबड़ाइये मत, मैं उस पर नहीं जाऊंगा.
अभी अपनी बात 65 के उस ‘दंगे’ तक ही सीमित रखूंगा.
कफर्यू का पीरियड समाप्त हुआ. स्कूल शुरू हुआ.
एक–एक कर सभी बच्चे स्कूल पहुंचने लगे.
इन चार पांच दिनों में- जबकि अपने अगल बगल उसी किस्म के किस्से सुनाई पड़ते थे- कभी अचानक शोर होता कि ‘वह’ हथियार लेकर आ रहे हैं – जबकि हिंदू बहुल उस इलाके में ऐसी किसी स्थिति की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी.
मैं भी अंदर–अंदर शायद थोड़ा बदल गया था.
इतने में दूर से हमेशा की तरह झूमता मोहम्मद आता दिखाई दिया था. कुछ लोगों की नीचे देख कर चलने की आदत होती है. उसी अंदाज में वह चला आ रहा था. हमारी आपस में कभी बात भी नहीं होती थी.
मुझे इतना जरूर याद है कि उसे देख कर मैं थोड़ा असहज हो गया था. मेरी अपनी निगाहें बदली थीं.
गनीमत है कि मैंने कुछ कहा नहीं.
स्कूल की घंटी बज गयी, सभी बच्चे अपने अपने कक्षा में चले गए.
4.
हम तीन भाई बहनों में रेखा सबसे बड़ी थी.
रेखा के बाद दो साल छोटा सुनिल और ‘शेंडेफल’ मैं- जो पांच साल छोटा था.
मुझे यह याद नहीं है कि भाइयों को बहनों की ‘रक्षा’ करनी होती है, यह बात हमारे दिमाग में कैसे पहुंची. हो सकता है, घर परिवार में जो चर्चा चलती रहती हो, समाज में जो बातें सुनाई देती रहती हों, उनका एक धीमा असर रहा हो.
यूं तो फिल्म देखना उतना आम नहीं था.
कभी–कभी जब आई-बाबा के साथ जाते थे, तो मुझे याद है कि आई को यह बोल बोल कर परेशान करते थे कि फिल्म कब शुरू होगी ? जब थोड़े बड़े हुए तो हम तीनों को साथ जाने की इजाजत मिली थी.
इसका एक पहलू आर्थिक भी रहा हो, जिसका एहसास आई बाबा ने हमें कभी होने नहीं दिया था. एक मध्यमवर्गीय परिवार- जहां पिताजी अकेले कमाते थे- जिन्होंने हमारी पढ़ाई बाधित न हो इसलिए मुंबई तबादला होने पर, समूचे परिवार को वहां ले जाने के बजाय रोज पुणे मुंबई की यात्रा करना कबूला था. इस सिलसिले को वह पूरा 12 साल निष्ठा से निभाते रहे. रोज सुबह छह बजे साइकिल से शिवाजीनगर स्टेशन पहुंचते थे और वहां से मुंबई की ट्रेन पकड़ते थे. और शाम की ट्रेन से लौटते थे.
एक फिल्म जो हम तीनों ने साथ देखी थी, उसका शीर्षक अभी भी याद है. दिलीपकुमार के डबल रोल वाली फिल्म ‘राम और शाम’. आई उन दिनों शायद ननिहाल गयी थी और बाबा के साथ हमही बच्चे घर पर थे. फिल्म से लौट कर अपने पिता को मैंने फिल्म की पूरी स्टोरी बाकायदा अभिनय करके सुनायी थी, ऐसा मुझे याद है और जैसा कि पिताजी का स्वभाव था, उन्होंने भी बिना थके मेरी इस लीला को देखा था.
हम तीनों साथ जाते थे तो बैठने का एरेंजमेण्ट भी एकदम तय था. रेखा बीच की सीट में बैठती थी और हम दोनों तरफ ‘रक्षक’ के तौर पर बैठते थे. हो सकता है यह सिलसिला पहले रेखा की पहल पर ही शुरू हुआ हो, जिसने दोनों छोटे भाइयों को दोनों तरफ बिठाना शुरू किया हो, लेकिन मेरे मन में वह इसी रूप में अंकित है कि हम उसके ‘रक्षक’ के तौर पर बैठते थे.
आज याद करता हूं तो बहुत हंसी छूटती है. बहन से पांच साल छोटा मैं उसकी क्या रक्षा करनेवाला था, लेकिन यह सोचने की जरूरत उस वक्त नहीं थी.
लगता होगा कि हर साल रक्षा बंधन पर अपनी बहन से राखी बंधवाने वाले हम भाइयों का कुछ तो फर्ज बनता था आखिर ?
मराठी में एक कहावत चलती है ‘गायकाची पोरे पण सुरात रडतात’ अर्थात गायक की संतानें भी रोती हैं सुरो में ही.
बाबा मूलतः एक साहित्यिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे. उन्हें तो कायदन किसी कालेज में प्रोफेसर होना चाहिए था. परिवार की आर्थिक मजबूरियां रही होंगी कि वह बी. ए. के बाद तुरंत नौकरी पर लग गए.
दरअसल बाबा तीन भाई थे, सबसे बड़े थे अण्णा काका और सबसे छोटे थे मधु काका.
दादाजी- जिन्हें हम आजोबा कहते थे- की तीसरी शादी की यह तीनों संतानें थीं. जहां तक याद है उनकी पहली दोनों पत्नियां बच्चों की डिलीवरी के दौरान ही गुजरी थीं, हमारी दादी का देहांत भी शायद इसी तरह हुआ था.
परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी तो अण्णा काका- जो काफी तेज दिमाग़ के थे- उन्हें 17 साल की उम्र में ही फौज में भरती होना पड़ा था. दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया था और आसानी से भरती हो रही थी.
युद्ध खत्म हुआ, अण्णा काका घर लौटे, निश्चित ही नियमित आय का जरिया अब रूक सा गया था.
लिहाजा बी. ए. करने के बाद ही बाबा को नौकरी ढूंढनी पड़ी थी.
साहित्य की ललक उनमें हमेशा ही बनी रही और वह लिखते भी रहे. मेरी सीमित जानकारी में बहुत कम लोग ऐसे होंगे जो तीन भाषाओं में साहित्य रचना करते हों, लेकिन वह कहानियां लिखते थे मराठी में, अंग्रेजी में तथा कभी-कभी हिंदी में. उनकी इस लेखन प्रतिभा पर फिर कभी आउंगा. उन दिनों दिल्ली से निकलने वाली ‘कैरेवान’ पत्रिका- जो इन दिनों न्यूज मैगजीन बनी है- मूलतः साहित्यिक पत्रिका हुआ करती थी. इस पत्रिका में भी पिताजी की कहानियां छपती थीं. और एक कहानी का पारिश्रमिक तीन सौ रुपए मिलता था.
उनकी इस साहित्यिक प्रवृत्ति का असर शायद हम तीनों पर भी आया था. तीनों में सुनिल सबसे अच्छी कविताएं करता था. रेखा भी कविता करती थी, कभी-कभी लेख भी लिखती थी. उन दिनों ‘बायजा’ नामक पत्रिका निकलती थी. अगर मेरी याददाश्त मुझे धोखा नहीं दे रही है तो उसका संपादन जानेमाने विद्वान \’गं. बा.सरदार\’ की बेटी ‘सौदामिनी राव’- जो किसी कॉलेज में पढ़ाती थीं- करती थीं. एक बार रेखा ने स्त्रियों की समस्या पर एक लेख लिखा था, जिसे देने के लिए हम दोनों उनके घर गए थे.
बहरहाल, अपनी किस्सागोई में मैं थोड़ा आगे निकल गया.
रेखा ने कालेज पूरा किया तब की बात है. उसने जब बी. कॉम. किया तो हमने अपनी स्कूली शिक्षा भी पूरी नहीं की थी. रेखा पढ़ने में अच्छी थी. मेहनती थी. अपने स्कूल के दिनों में वह अव्वल रहती थी. अपनी एक सहपाठी महाशब्दे के साथ उसकी प्रतियोगिता चलती थी. अगर वह आगे पढ़ती तो अच्छा ही रहता, लेकिन वह मुमकिन नहीं हो सका.
उन दिनों- सत्तर के दशक की शुरूआत में- लड़कियों की अधिक पढ़ाई के लिए बहुत प्रोत्साहित भी नहीं किया जाता था.
उस माहौल का असर रहा हो या कुछ आर्थिक मजबूरियों का दबाव रहा हो, बी कॉम से आगे की उसकी पढ़ाई हो नहीं सकी. इसमें कोई दो राय नहीं कि वह पढ़ना जरूर चाहती थी.
घर में ऐसे ही खाने के वक्त रेखा की आगे की पढ़ाई के बारे में बात चल रही थी.
आई और बाबा कुछ कह रहे थे, सुनिल भी बातचीत में शामिल था. वे निश्चित तौर पर क्या बात कह रहे थे, याद नहीं है. लेकिन मेरी अपनी बात अभी भी कानों में गूंजती रहती है. प्रस्तुत कलमघिस्सु सुभाष गाताडे- जिसने अभी स्कूली तालीम भी पूरी नहीं की थी- उसने बेहद गंभीर होकर कहा था-
‘रेखा , तुम आगे पढ़ कर क्या करोगी’ !
5.
कभी–कभी ग्लानि बोध मन में इस कदर भर जाता है कि कुछ करने का मन नहीं करता गोया नासूर बना कोई घाव अचानक उभर आए और उसमें से खून और मवाद का एक अजीब संमिश्रण बाहर आने लगे.
होली का त्यौहार मेरी एक ऐसी ही शर्मनाक करतूत का गवाह रहा है-
उन दिनों मैं इंजिनीयरिंग पढ़ रहा था. बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के इन्स्टिटयूट आफ टेक्नोलाजी का वह मेरा तीसरा साल था. उन दिनों इंजीनियरिंग का कोर्स पांच साल का हुआ करता था. होली के एक दिन पहले अचानक किसी दोस्त ने रात के वक्त आवाज़ लगायी और बुलाया ‘‘चलो, चलो लोग होली मनाने सड़क पर निकल रहे हैं, होली के जुलूस में.”
मैं भी उस जुलूस में शामिल हुआ था. किसी ने ढपली उठायी थी, किसी ने डिब्ब्बा ही उठाया था. पहले कुछ होली के गाने चले.
फिर अचानक एक सीनियर ने- जिनके बाल थोड़े घुंघराले थे, जिनकी शक्ल मुझे अभी भी पूरी तरह याद है, अश्लील किस्म के गाने गाने शुरू किए और बाकियों की तरह मैं भी त्यौहार की मस्ती के नाम पर हुजूम का हिस्सा बना आगे बढ़ता रहा.
उन दिनों विश्वविद्यालय की सड़कों पर होली के आसपास लड़कियों का निकलना बन्द हो जाता था. उनका इस तरह अचानक गायब हो जाना कहीं कचोटता नहीं था. सबकुछ सामान्य लगता था. अपने परिचितों को भी हम मुफ्त सलाह देते घूमते थे कि इन दिनों कॉलेज मत आना या छात्रावास में ही सीमित रहना.
दो तीन साल पहले जब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय छात्रा आन्दोलन के चलते जब सुर्खियों में था, तब पता चला कि इस मामले में चीज़ें खास आगे नहीं बढ़ी हैं. एक बात जो नयी जुड़ी है कि लड़कियों के छात्रावासों की दीवारों के बाहर युनिवर्सिटी की सड़क पर कभी-कभी छात्रों द्वारा फलैशिंग के मामले भी उजागर हुए हैं.
होली की शाम बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पास के एक इलाके में एक अलग किस्म का आयोजन होता था. मेरी उस तरफ कभी जाने की भी हिम्मत नहीं हुई, जब सुना कि वहां त्यौहार के नाम पर क्या चलता है. इन दिनों यह आयोजन चलता है या नहीं इसकी जानकारी नहीं है.
बताया जाता है कि वहां बाकायदा मंच लगा कर लाउडस्पीकर लगा कर, कवि सम्मेलन मार्का गीत पहले चलते थे. इन तमाम गीतों में अश्लीलता परोसी रहती थी. फलां टीचर के फलां से संबंध पर चटखारे लेकर गाने गाए जाते थे. आयोजकों की तरफ से दूर-दूर तक लाउडस्पीकर लगाने की वजह यही थी कि आसपास के ही नहीं बल्कि दूर रहनेवाले लोग भी इस साहित्यिक रसरंग का ‘आस्वाद’ लें, इन गीतों के श्रवण से वंचित न रहें.
अगर होली के उस किस्से की ओर वापस लौटूं तो दूसरे दिन रंग खेलते हुए छात्रों का जुलूस निकला.
रवायत यह थी कि छात्र गाना गाते-बजाते हुजूम में ही अलग-अलग टीचरों के घर पर जाते थे. और वहां टीचरों द्वारा दी जानेवाली गुजिया का आनंद उठाते थे.
हैदराबाद कालोनी का ही वह एक मकान था. विश्वविद्यालय परिसर में बना अध्यापकों का वह आवासीय इलाका था.
किसी प्रोफेसर के मकान में छात्रों का वह हुजूम पहुंचा. हमारे इस होली मिलन के जुलूस में तब कई अजनबी छात्र भी जुड़ गए थे.
वहां कुछ लड़कियां रंग खेल रही थी. हमउम्र रही होंगी या कुछ छोटी.
मेरे बगल में जो लड़कों का समूह था- जिनसे मेरा परिचय बिल्कुल नहीं था- उनमें से एक छात्र ने आव देखा न ताव झट से उनमें से एक लड़की को गलत ढंग से छूने की कोशिश की. लड़कियां चिल्लायीं- भागते अपने घर के अन्दर चली गयीं. फिर इस ‘जीत’ पर इतराते छात्रों का वह हुजूम वहां से निकल गया.
आज जब भी होली के हुडदंग के नाम पर लड़कियों के साथ होने वाली बदतमीजी के किस्से पढ़ता हूं, सुनता हूं, मुझे अपनी उस होली की याद आती है, जब मैं खुद भी परोक्ष रूप से उस लड़की की प्रताडना में शामिल था.
सोचता हूं कि मैंने उस लड़के का हाथ क्यों नहीं पकड़ा ?
उसे क्यों नहीं लताडा ?
भले ही उसके लिए प्रताडना झेलनी पड़ती !
मार खाना पड़ता !!
6.
बाबा ने कभी महाभारत के अश्वत्थामा की कहानी बतायी थी.
कौरवों के गुरु द्रोणाचार्य का वह पराक्रमी पुत्र था, जिसे अमरत्व का वरदान मिला था.
महाभारत की कहानी में बताया जाता है कि जन्म के समय से ही उसके मस्तक में एक अमूल्य मणि विद्यमान थी, जो उसे ‘दैत्य, दानव, शस्त्र, व्याधि, देवता, नाग आदि से निर्भय रखती थी.
द्रोणाचार्य की मौत के बाद क्रुद्ध होकर उसने पांडवों के खेमे में जाकर कई हत्याएं की थी, जिसमें द्रौपदी के कई पुत्रों की हत्याएं भी शामिल थीं. कहा जाता है कि इन हत्याओं से विचलित होकर संभवतः श्रीक्रष्ण ने उसके मस्तक में विद्यमान उस अमूल्य मणि को खींच लिया था और उसे दर दर भटकने के लिए छोड़ दिया था. शाप देते हुए श्रीक्रष्ण ने कहा था कि उसके यह तन का घाव कभी नहीं भरेगा और वह हजारों वर्ष दर दर भटकता रहेगा. और इस दौरान उसकी किसी से बात भी नहीं हो पाएगी.
कहानी के अंत में बाबा बताते थे कि चूंकि वह अमर है लिहाजा आज भी वह दर-दर भटक रहा है, अपने उस घाव के लिए तेल मांगने हुए.
अतीत की गलतियों से मुक्ति मिथकीय कथाओं में भी मुमकिन नहीं होती, फिर इस जीवन की क्या बिसात ?
तो क्या मैं भी अश्वत्थामा ?
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