हिंदी के कवियों के इधर प्रकाशित काव्य संग्रहों की विवेचना पर आधारित आलोचक ओम निश्चल के आलेखों की श्रृंखला की दूसरी कड़ी प्रस्तुत है. इस कड़ी में विनोद पदरज, अनिल करमेले, प्रेमशंकर शुक्ल,प्रियदर्शन, प्रभात और शिरीष मौर्य के कविता संग्रहों की चर्चा की गई है, काव्य-संवेदना के विकास के विभिन्न सोपानों पर ओम जी की नज़र है, साथ में दूसरे समकालीन कविओं से भी वे इनकी तुलना करते चलते हैं. ओम जी हिंदी कविता के व्यापक परिदृश्य से जहाँ सुपरिचित हैं वहीं इसपर उनका लेखन भी विस्तृत है.
यह श्रृंखला अभी जारी है.
‘समकालीनता और शाश्वतता की वय:संधि पर कवि’ प्रस्तुत है.
युवा कविता : दो
समकालीनता और शाश्वतता की वय:संधि पर कवि
ओम निश्चल
कविता की लौ कभी मंद नहीं होती. अँधेरा जितना भी सघन हो, कवि अपने मोर्चे पर अथक सक्रिय रहता है. हाल में आए कवियों की नई रचनाओं से गुज़रते हुए हम देखते हैं जहां अपने समय का संताप कविताओं में है वहां भाषा, अर्थ और कथ्य में नयेपन का भी संघान हुआ है. इनकी कविताएं नए अर्थ के साथ खुलती हैं और नए काव्यास्वाद का परिचय भी देती हैं. इस प्रक्रिया में हम यह न भूलें कि हर नया कवि अपनी परंपरा से खाद पानी लेता है, चेतना के नए स्फुलिंग निर्मित करता है तथा अपनी कविता के जरिए ही समाज में प्राण फूँकने का काम करता है. हिंदी आलोचना का प्राय: दुर्भाग्य रहा है कि वह बहु प्रचारित कवियों के पास से गुजरती है तो एकाधिक उल्लेखनीय कवि चर्चा से ओझल भी रह जाते हैं. ऐसे कवियों में जिनका हस्तक्षेप कविता में प्रभावी रहा है उनमें दो नाम महत्वपूर्ण और अपरिहार्य हैं.
वे हैं विनोद पदरज और अनिल करमेले. विनोद पदरज काफी अरसे से लिख रहे हैं और राजस्थान के कवियों में विजेन्द्र, ऋतुराज और नंद चतुर्वेदी के बाद की पी़ढी के कवियों में आते हैं. यह और बात है कि उनके युवा कवित्व को उस तरह सेलीब्रेट नहीं किया गया जैसे आज दिल्ली के कविसत्ताकेंद्रित प्रभामंडल से निकले कवि चर्चा में रहे हैं. विनोद पदरज में राजस्थान की ज़मीनी हक़ीकत के साथ स्त्री का एक ऐसा चेहरा दीखता है जिसे विनोद पदरज बहुत बारीकी से नोट करते हैं. उनकी कविता उस प्रगतिशील चिंतन की अनुगामिनी रही है जो कविता में विचार से कहीं ज्यादा संवेदना को अहमियत देती है. हालांकि प्रगतिशीलों में यह संवेदना विजेंद्र के यहां कम, ऋतुराज में ज्यादा दीखती है. विजेंद्र के भाषा और अनुभव में यथार्थ के रूखे प्रतिबिम्ब दिखते हैं तो ऋतुराज के यहां भाषा जैसे सरितप्रवाही है. विनोद संवेदना की उसी सरणि पर चलते हैं जिस पर ऋतुराज, हेमंत शेष, गोविंद माथुर और नंद भारद्वाज चलते रहे हैं, युवा कवि प्रभात चल रहे हैं जहां राजस्थान की माटी का संघर्ष, उनकी अंतध्र्वनियां, उनके जीवन स्वभाव और चुनौतियॉं दृष्टिगत होती हैं. प्रभात के पहले संग्रह में तो यह बात थी ही, उनके नए संग्रह \’जीवन के दिन\’ में भी ये गुणसूत्र मिलते हैं. उनकी कविता में राजस्थान का भूगोल और समाज अपनी पूरी निर्ममता से दृष्टिगत होता है.
विनोद पदरज: बुर्जुआ अवधारण से परे
विनोद पदरज को उम्र की परिसीमा में भले ही आज भले ही युवा न माना जाए, पर युवा कविता का वह तेवर उनके यहां अक्षुण्ण है जो उन्हें न तो बुर्जुआ अवधारण के वशीभूत होने देता है न उनकी भाषा संवदेना में पुरानेपन का प्रतिबिम्ब दीख पड़ता है.
\’तुम कहां से आये हो कवि
किन रस्तों की धूल है तुम्हारे पॉंवों में?\’ –
पूछने वाला यह कवि अपनी इस प्रश्नाकुलता में ही यह जता देता है कि उसके लिए बिना धूल धक्कड़ के अनुभवों से गुजरे भला कोई कवि कैसे हो सकता है. हिंदी कविता की मुख्यधारा में यह नाम अचीन्हा है. पर कविताएं पढ़िए तो जैसे हर कविता हाथ पकड़ कर पास बिठा लेती है. गहरी संवेदना झॉंकती है इस कवि की संवेदनासिद्ध काव्यभाषा में. वह कहानी जैसा कहता है, वह कथोपकथन की भाषा में कहता है, वह झॉंकता है कवि-मन में, स्त्री मन में. वह स्त्रियों पर लिखता है तो जैसे हृदय काढ़ लेता है, उनकी बेआवाज़ उदासियां दर्ज करता है तो मन में एक हूक-सी उठती है. राजस्थान के कवियों में इस कवि की अपनी आवाज़ है जो गए दो तीन दशकों में बनी है. वह रिश्तों की कविताएं लिखता है तो मां के तीन बेटों का हाल लिखता है. उस मां का हाल जिसका मन किसी बेटे के यहां नहीं लगता बस गांव में लगता है. पर उसके जीने का आसरा भी बेटे नहीं उसकी पेंशन है.
स्त्री प्रजाति पर कवि का स्नेह बहुत उमड़ता है. वह जानता है कि इन स्त्रियों के होने से ही सुंदर है यह दुनिया पर इनके लिए कोई पूजा कोई उपवास कोई मन्नत नहीं. वे सदा ही अनचाही आईं संसार में. पर ऐसा करते हुए उसकी प्राथमिकताओं वे वे स्त्रियॉं आती हैं जो साधारण इकाई की तरह हैं, निम्नवर्ग की हैं, आधुनिकाएं नहीं. आधुनिकताओं को वह दूसरी निगाह से देखता है और वैभव के चाकचिक्य में डूबी स्त्रियों पर कविता लिखते हुए यह नहीं भूल जाता कि वे किट्टी पार्टी में ऐसे मिलती हैं जैसे सुखों से ऊबी हुए आत्माएं. वह औरतों की उस दुर्लभ हँसी को लोकेट करता है जो तमाम दुपहर सन्नाटे के ताल में कभी द्रुत विलंबित कभी कभी तीव्र कभी मद्धम झरने की तरह फूट पड़ती हैं. वह स्त्रियों पर इतना लिख कर भी उसे जानने का दावा नहीं करता क्योंकि वह जानता है कि संबंधों से जुड़ी स्त्री को जानना सिर्फ संबंधों को जानना है, स्त्री को नहीं. उसे तभी जाना जा सकता है जब उसके पास स्त्री की तरह जाया जाए. कभी कभी तो उसकी ओढ़नी पर टँके फूलों को जान कर ही उसे थोड़ा सा जाना जा सकता है. मॉ और बेटे के प्रेम वह गाय और बछड़े के रूपक से सिद्ध करता है और इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि शिशु की शिशुता को मॉं की ममता ही समझती है.
इस कवि के पास स्त्री को समझने की भाषा है जिसे उसने गाय की आंख से ढुलकते हुए आंसुओं में देखा है. ससुराल में बहन की प्रताड़ना से जाना है, घर और ठीहे बदलती स्त्री से जाना है, वृद्धाओं को उनके दुख भरे गीतों से जाना है जिनके स्मृतिकोश में सुख के गीत हैं ही नहीं, उस काम वाली लड़की से जाना है जो यौवन की दहलीज पर आने से पहले दो बच्चियों की मां बन चुकी है, उन बालवधुओं से जानता है जिनकी दस और सात साल में शादी हो चुकी है, उस स्त्री से जाना है जो पीहर में खुश रहती लेकिन ससुराल आते ही बीमार होकर मार खाती रहती है, पीहर में थक कर देर तक आराम से सोती बेटी से जाना है. यहां कोई सघन भाषाई स्थापत्य नहीं, कहीं तार्किकता का घटाटोप नहीं, बस अपने देशज आब्जर्वेशन्स को कवि कुछ निष्पत्तियों में ढालता है, एक निष्कर्ष आयत्त करता है. यों देखिए तो औरतों स्त्रियों पर कविताओं का अंबार है इन दिनो. बहुत कुछ रेहाटारिक, बहुधा जाना पहचाना, नया कथ्य कम, प्रचलित भाष्य ज्यादा, ज्यादातर दुहराई हुई आवृत्तियों सी. हर दृश्य परिदृश्य और प्रेक्षण से कविता निकाल सकना सहज नहीं, जब तक कि वह कवि के भीतर के संवेदी संयत्र की रिफाइनरी से छन कर आत्मीय प्रतीति में नहीं बदलती. यह कभी कभी ही संभव होता है इसलिए हर प्रेक्षण कविता में नहीं बदलता, बहुत सारा कविताभास भर होकर रह जाता है और कवि इस मुगालते में कि कविता हुई है. इस कवि को पढ़ते हुए इस कविता पर देर तक मेरी निगाह ठिठकी रही.
तुम कहां से आये हो कवि
किन रस्तों की धूल है तुम्हारे पांवों में
किन कुंओं का जल पिया है तुमने
किन पेड़ों के नीचे सुस्ताये हो
किन जगहों पर रात्रियां बिताई हैं
किन घरों का अन्न खाया है
किनसे भर भर बाथ मिले हो
किनको गले लगाया है?
(तुम कहां से आये हो कवि)
यों तो बहुतेरे साधारण जीवनावलोकनों पर कवि की निगाह ठिठकी है पर जब मैने विनोद पदरज की यह कविता पढ़ी, तुम कहां से आये हो कवि ? किन रस्तों की धूल है तुम्हारे पॉंवों में? तो मुझे इस कवि को पहचानने की जैसे कुंजी मिल गयी. राजस्थान की लोक भाषा का पराग इन कविताओं के स्थापत्य में यत्र तत्र झलकता है पर वह हिंदी के रस में पगा दिखता है. जिस भी कवि ने कहा हो, दुख ही जीवन की कथा रही, आज भी वह उसे स्त्री की कथा दुख से ही निमज्जित दिखती है. देहाती समाज की बारीक से बारीक दिनचर्या उससे ओझल नहीं होती जैसे कि लावणी करती एक औरत का मेड़ पर दरांती लिए ही सो जाना, ठसाठस भरी बस में एक बूढे और बुढ़िया का साथ सफर करना, वह किसान जिसकी जूतियों में यात्राएं नहीं यातनाएं भरी होती हैं और जिसका चेहरा थिगलियों से भरा व आंखें जलती बुझती दिखती हैं. वह गांव के अकेलेपन को भी चिंता से निहारता है जो ग्रामीणों में कस्बों की ओर रुख करने के बाद सन्नाटों में बदल गए हैं.
पानी पर विनोद पदरज की तीनों कविताएं पढ़ कर केदारनाथ सिंह की पानी पर लिखी कविताएं ध्यान में हो आईं. वहां नफासत भरे बिम्बों से पानी की दुर्लभता की प्रतीति होती है तो यहां सारे ताल तलैया, नाली पोखर, कुआं बावड़ियां ऐसे कि पानी की तलाश में कवि नदियों के पास जाता है तो मृत्यु शय्या पर दिखती हैं, पानी खोजने वाले की हालत हिरण जैसी हो जाती है कि वह जल तृष्णा भी भाग रहा है बस इसी निवेदन के साथ कि किसी दिन मरा पाया जाऊॅ तो हिरण मत मान लेना. सबसे बड़ी बात यह कि विनोद की कविताओं से उनकी भाषाई और भौगोलिक पहचान उजागर होती है जो कि किसी भी कवि की सार्थकता का एक अहम पहलू है.
अनिल करमेले : कितने दुख हैं जीवन में और कितनी कम कविताएं
हिंदी कविता में अनिल करमेले ने बहुत खामोशी से ऐसे रंग भरे हैं जो अब तक अलक्षित रहे हैं. मध्यप्रदेश के कवियों में भगवत रावत, राजेश जोशी, कुमार अंबुज, लीलाधर मंडलोई के बाद की पीढ़ी में पवन करण, हरिओम राजौरिया, मोहन कुमार डेहरिया और नीलेश रघुवंशी को छोड़ कर ओम भारती और अनिल करमेले ऐसे सक्रिय कवियों में रहे हैं जिनके पास उक्त दोनों कवियों से अलग भाषा स्थापत्य है यद्यपि वे चर्चा के नेपथ्य में ही रहे आए हैं. ओम भारती के यहां राजनीतिक चेतना ज्यादा लाउड दिखती है किन्तु कविता में एकरसता नहीं, एकरैखिकता नहीं. उनके यहां कविता का आंतरिक छंद ध्वन्यात्मकता से संवलित है बल्कि उनकी वाक्य संरचनाओं से गु़जरें तो कहीं दूर लीलाधर मंडलोई तक में उसकी आभा पल्लवित होती दिखती है, जैसे कि राजेश जोशी की कुछ एक कविताओं में ओम भारती का स्थापत्य झलकता है. अनिल करमेले के यहां ओम भारती की तरह ऐसी नई अर्थध्वनियां मिलती हैं जो किसी दूसरे से प्रभावित न होकर अपनी अलग पहचान रखती हैं. खेद कि अब तक मेरा भी ध्यान राजेश जोशी और ओम भारती से आगे तक न जा सका था.
विनोद पदरज की ही तरह मुख्य धारा की आलोचना में अब तक लगभग अचर्चित अनिल करमेले अपने नए संग्रह के साथ चर्चा में हैं. बाकी बचे कुछ लोग- से उनकी कविता अभिव्यक्ति के मार्ग पर पूरी सजगता और त्वरा के साथ अग्रसर होती हुई दिखती है. जीवन में समेटी हुई चालाकियों से बने एक उदास शख्स से शुरु यह संग्रह उस जिद पर खत्म होता है जिस जिद पर अड़े इंसान अब मुश्किल से मिलते हैं. किसी कवि ने कहा है कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है. पर यह एक चातुरी भी है और सलीका भी. कुछ लोग अपनी चातुरी से बाज नहीं आते तो कुछ लोग अपने सलीके से बाहर नहीं आ पाते. दोनों के खेल को कवि परखता है समझता है.
अनिल करमेले की निगाह हर उस इकाई पर पड़ती है जहां से कुछ ध्यातव्य निकलता है. वह किसी कवि की तरह आम मनुष्य की तरह अखबार पढ़ता है उस खास पेज पर जिस पर अंतिम संस्कार संबंधी समाचार हैं निविदाएं हैं, फरार अपराधियों की तस्वीरें हैं और छोटेमोटे विज्ञापन हैं पर वह उस गुमशुदा शख्स के उस विज्ञापन को देख कर मर्माहत है. हर रोज उस पेज को वह इस उम्मीद से निहारता है कि अच्छा हो आज यह खबर न हो. दिवंगत की स्मृति में दो मिनट का मौन भी अब मुश्किल हो चला है. जरा सी देर का श्मशान वैराग्य और फिर इसी जीवन के खेल में शरीक हो जाने की विवशता कैसी इंसानी हकीकत है. वह संचार की दुनिया में गायब हुई तार प्रणाली के अवसान पर उस पूरे परिदृश्य पर एक मार्मिक दृश्यालेख \’टेलीग्राम\’ लिखता है कि कैसे न केवल तार गायब हुए बल्कि वह साइकिल भी अब कहां दिखती है वह झोला भी जो चिट्ठीरसा साइकिल पर टांग दिया करता था. इसी कविता की पूरक कविता \’चिट्ठियां\’ है. आज के त्वरित संप्रेषण ने सारी चीजों को आमूल बदल दिया है. अब न तार आते हैं न चिट्ठियां.
याद आते हैं रमेशचंद्र शाह जिन्होंने चिट्ठीरसैन की इस सुगंधि को अपनी एक रम्य रचना में स्मरण किया है. उसके झोले में सुख दुख सबसे भीगे संदेश हुआ करते. वह दुख का ही नहीं, सुख का भी चिट्ठीरसा हुआ करता था. अब तार नहीं तारों का अपना इतिहास ही निशेष है और वैसे चिट्ठीरसा भी नहीं,बस उसके किस्से सुनाने वाले लोग कुछ बचे होंगे कदाचित. यह कविता किसी ललित निबंध का काव्यानुवाद जैसे लगती है.
अनिल करमेले की कविता में चिट्ठीरसा ही नहीं, भीमा लुहार भी आता है जो श्रम स्वेद और कर्मठता का एक उदाहरण है. गांव का इकलौता लुहार जिसकी भट्ठी में लोहा तपता, पिघलता और मनचाहा आकार लेता था, फाल, खुरपी, किसानी के अन्य उपकरणों वह देशज निर्माता जैसे धरती की उर्वर कोख का नियामक था. आज भले ही खेत जोतने फसल काटने के नए नए आधुनिक उपकरण मौजूद हों पर भीमा और उसकी पत्नी की धौंकनी की तरह चलती सांसों और गहरी आंच में आकार लेते फाल के देशज सौंदर्य को कैसे भूला जा सकता है. कवि का एक काम यह भी है कि वह नगण्य का बखान करे, उसे याद करे. करमेले भीमा के बहाने इस प्रजाति के लुप्त होते जाने की कहानी भी कहते हैं. अब कहां रहे गांवों में लुहार, भड़भूजे, नाई, धोबी, कहार, सामुदायिक उत्सवों में इनका होना शुभ सगुन माना जाता था. बाकी बचे कुछ लोग एक ऐसे नेता का उदाहरण है जो इस डर से कि ऐसे कुछ लोग अभी हैं जो उसकी आंख में आंख मिला कर उसकी धज्जियां उड़ा सकते हैं, वह उनके प्रति हिंसक होता है–चीखों और चीत्कारों के धब्बों को सांस्कृतिक रंगों से ढँक देना चाहता है पर लोग हैं कि उसकी इस फितरत से अनजान नहीं है.
कविता मे ऐसे तानाशाहों पर समय समय पर कविताएं लिखी गयी हैं. कविता इस दृष्टि से ऐसी ही कविताओं की श्रृंखला की एक और कड़ी है. उसके यहां \’डायरी\’, बेटी के आगमन पर लिखी उदास कविता \’उसके आगमन पर\’ गोरे रंग का मर्सिया, आदिवासियों पर लिखी कविता \’आदि नागरिक\’ जैसी कविताएं हैं जहां उसकी परदुखकातरता झलकती है. डायरी जो दिनचर्या की दैनंदिनी ही नहीं, जीवन की डायरी बन जाती है, अवांछित बेटी कैसे बाप को उदास कर देती है, गोरा रंग कैसे सौंदर्य का एक अचूक मिथक बन चुका हे, आदिवासी किस तरह अपना होना बचाए हुए हैं–इसे शिद्दत से कवि महसूस करता है तथा यथाशक्य चित्रित करता है.
करमेले ने प्रेम, प्रतीक्षा और हल्की उदासियों की कविताएं भी लिखी हैं. कुछ छोटी कविताएं बेहद असरदार लगती हैं. जहां तकिया अवसाद, आंसुओं और सिसकियों की गवाही देता है, न की गयी लेकिन अभिलषित यात्राओं की थकान महसूस होती है, मौन में भी खरगोश की तरह कुलांचे भरते शब्द होते हैं, और मिलने से ज्यादा न मिलने में खुशी होती है- ऐसे अनुभव कविताओं में आए हैं. प्रेम कविताएं यद्यपि साधारण का ही आख्यान हैं, जिनसे किसी अलक्षित साधना साक्ष्य नहीं मिलता पर \’बेहतर दुनिया की कोशिश में\’ एक अच्छी कविता है, बल्कि इस थीम पर लिखी गयी दशाधिक कविताओं के बीच अपने निजी शिल्प की मौलिकता से मंडित भी है, ऐसा कहना अतिशयोक्ति न होगी. उदाहरणत-
मैं दंगे में मारा जाऊँ
या अपने ही खेत में
किसी पेड़ पर फॉंसी लगा कर
मैं बच्चों का समर्थन करते हुए मारा जाऊँ
या किसी स्त्री को बचाते हुए
__
लेकिन मर कर भी खत्म नहीं होने वाला
ज़मीन में दफ्न
मेरी हड्डियों का कैल्शियम
कपास में उतर कर
बचे हुए लोगों की रजाइयों में बदल जाएगा.
इसी तरह का भाव कवि ने एक नयी राह में संजोया है. ईमान को बचाते हुए एक नई राह की तलाश उसका लक्ष्य है. एक तरह से यह कविता कवि का आत्मकथ्य हो जैसे. यों तो कविताओं में कवि के आत्म का प्रक्षेपण तो होता ही है कहीं बारीक कहीं स्थूल. कहीं सांकेतिक कहीं मुखर. उसके प्रेम की चाहतों में गौरये और गुलमोहर की संगति है तो सपनों की लडकियों की यादें भी. यहां स्त्री विमर्श है, कस्बे की माधुरी और बैंडिट क्वीन की एवजी का स्वप्न और संघर्ष भी. स्त्री पर अन्य कुछ कविताएं भी स्त्री की विवशताओं पर प्रकाश डालती हैं तो कुछ स्फुलिंग की तरह चित्त को खींच लेने वाली छोटी कविताएं भी यहां हैं; जैसे नमक और दुख—- और दुख में तो जैसे कविता की सच्ची कसौटी निहित है:-
कितने दुख हैं जीवन में और कितनी कम कविताएं
कितना गुस्सा है आसपास और कविता कितनी रूमानी
कितनी बेचैनी है लगातार तुम्हें चबाती हुई लेकिन कविता में कितनी कम
और कई बार ठीक इसके विपरीत भी.
(दुख)
जाहिर है कि कवि ने इस कविता के बहाने अपनी कविताओं के लिए एक कसौटी जाने अनजाने निर्मित कर दी है. कवि वही जो जीवन के दुखों का उदघाटन करे, समाज के प्रतिरोध को केंद्र में रखे, बेचैनियों को कविता में जगह दे. अनिल की प्राथमिकताएं उनकी कविताओं में झलकती भी हैं. वे कविताओं में शिल्पगत पच्चीकारी या उक्तिवैचित्र्य का सहारा नहीं लेते न कलावादियों के गुणसूत्र आजमाते और अपने ही दुखों का प्रायोजित पाठ रचते हैं. कविताएं अपने सुनिश्चित आयतन में ही ईमानदारी का परिचय देती हैं तथा उनके भीतर के कवित्व का उदघाटन भी करती हैं. कविताओं का नैरेटिव सहज है तथा उनसे उम्मीदें भी कि आगामी समय के वे महत्वपूर्ण कवि हो सकते हैं.
प्रेमशंकर शुक्ल : जहां बहती है कविता की अलग जलवायु
भोपाल के ही एक अन्य कवि प्रेमशंकर शुक्ल की चर्चा किए बिना हिंदी कविता की युवतर चेतना का आभास नहीं किया जा सकता. प्रेमशंकर शुक्ल का कवि कलाओं के साहचर्य से उपजा है. वह सम-सामयिकता से उतना आक्रांत नहीं, जितना प्रकृति, लोकगीत, संगीत, नाट्य, ललित कलाओं, रंगों, रेखाओं, नृत्यलिपियों, तैलचित्रों, काजल, महावर, नदियों, तालों, झीलों, अभिनय की बारीकियों, भाषा की मलमल सरीखी कोमलताओं और खजुराहो की संवादी रतिरत छवियों से प्रभावित आप्लावित और संपोषित दिखता है . उसकी कविता में जरा भी कोलाहल नहीं सुन पड़ता. वह गद्य में लिखी जाती हुई भी संगीत की सुकोमल बंदिशों सदृश लगती है.
![](https://1.bp.blogspot.com/-qeFwoLLABUM/XpZ2XmVeKdI/AAAAAAAAWWY/U8SkXIZF8pQG66Lh0PHcc0AsSSYRVO_tACNcBGAsYHQ/s320/8109UV-NSWL_edited_edited.jpg)
\’जन्म से ही जीवित है पृथ्वी\’ की कविताएं उनकी इस काव्यकला का परिचायक हैं. कला अनुशासनों पर केंद्रित कविताओं का इतना वृहद संग्रह शायद हिंदी कविता में कोई दूसरा न हो. उसकी इन कविताओं के पीछे कलाओं के घर भारत भवन में उसकी सतत उपस्थिति बहुत मायने रखती है. जहां बड़े से बड़े कलाकारों, संगीतकारों, रंगकर्मियों, कवियों, लेखकों, वैयाकरणों की आवाजाही लगी रहती हो, वहां इस कवि का जागतिक व्यस्तताओं से समय चुराकर ऐसी कलाओं की सन्निधि में समय गुजारना उस सुर वैविध्य के आलाप में खो जाना होता है जहां से कविता के प्रत्यय पराग की तरह उसकी चेतना में झरते हैं. यों तो कहने वाले यह भी कह सकते हैं कि यह कैसा कवि है जो अपने समय के ज्वलंत सवालों से मुंह फेरे कलाओं और सृष्टि के सौंदर्य और अनहद में खोया हुआ दिखता है. पर रह रह कर उसकी निर्मल कवि चेतना में जो कौंधता है वह उसके कवि को कलाओं का साझीदार बना देता है. इन कलाओं की अंतर्दृष्टि से ही वह सृष्टि के स्थापत्य को देखता समझता है.
प्रेमशंकर शुक्ल की कविता कला, रंगकर्म, नाट्य, नृत्य, सुर, ताल का एक शाब्दिक समन्वय है. उसकी कविता कलाओं को अभिव्यक्ति देने की एक कलात्मक कोशिश है. कलाएं सुसंस्कृत मनुष्य के निर्माण की कार्यशालाएं हैं. कविता के लिए भाषा की निपुणता चाहिए तो संस्कारवान मनुष्य के लिए कलाओं की सन्निधि. कविता संगीत नृत्य नाट्य के ताल लय की तरह ही जीवन में भी लय ताल का अपना छंद होता है. जीवन में यह छंद कविता से और कविता में यह छंद कलाओं की सन्निधि से आता है. प्रेमशंकर ऐसे ही अप्रत्याशित के निर्वचन में सन्नद्ध रहने वाले रचनाकार हैं जो इस बात की परवाह किए बिना कि बिना समकालीनता के इन कविताओं को आसानी से कलावादी रुचियों के खाते में डाल कर इनकी प्रासंगिकता को नेपथ्य में धकेला जा सकता है, वे अपने कवि जीवन के आरंभ से ही अपनी अभिरुचि की कविताएं लिखने के अभ्यस्त रहे हैं.
कविता में वह क्या है जो नवनीत की तरह काढ़ कर कवि हमारे सामने परोस देता है. वह क्या है जो अजुरी में स्फीत जल की तरह बह कर जरा सी नमी की तरह रह जाता है. वह क्या है जिसमें नई हूक और नई कूक रचने की व्यग्रताओं से कवि गुजरता है. वह क्या है जिसके लिए कवि केदारनाथ सिंह को कहना पड़ा था, जब भी मैंने कविता के बारे में सोचा मुझे रामचंद्र शुक्ल की मूँछें याद आईं. यह बात अचानक मुझे हिंदी के नए कवि प्रेमशंकर शुक्ल के नए संग्रह \’\’जन्म से ही जीवित है पृथ्वी\’\’ की कुछ कविताएं पढ़ते हुए याद आई.
उनके यहां आसान प्रमेयों में उलझी कविताएं हैं तो सीधी सरल ऋजु रेखा पर चलने वाली कविताएं भी. पृथ्वी पानी का देश है कहने वाला कवि पृथ्वी को लेकर सदैव प्रश्नाकुल रहा है. वह पदार्थ से दिखते पहाड़ झील भित्तिचित्रों तथा कुदरत के बनाए संसार को देख कर चटकविलसित भाव से आहलादित होता रहा है तथा अपने समवयस कवियों से अलग पार्थिवता से होते हुए उसके पार जाकर इस जीवन और संसार को देखता रहा है. उसके देखे रचे में उसके अनुभव की बानी है, उसकी संवेदना की प्राणवायु है, उसकी भाषाई सुघरता का रचाव है. दूर से देखने पर लगता है यह कवि कुदरत की कंदरा से प्रवास करने वाला कवि तो नहीं है, पत्थरों पानियों झीलों पृथ्वियों में सिर खपाता कवि. पर उसके लिए तो ये सब निमित्त मात्र हैं, वह तो जे कृष्णमूर्ति की तरह अपने अनुभवों का साधक है अपनी संवेदना का अनुचर है अपनी भाषा का राजदूत है. वह हांक लगाता है तो उसमें कबीरी ठाट की सुंदरता गोचर हो उठती है, उसमें सूर का सा अनुपम लालित्य बरसता है, तुलसी के अमित अरथ अति आखर थोरे– में कविता का अर्थ खिल उठता है. यों कविता पूरी तरह समझने की चीज नहीं है वह तो धीरेधीरे मोमबत्ती की तरह जलने की प्रक्रिया है, लोबान की तरह धीरे-धीरे सुलगने की प्रक्रिया है वह संगीत के सुरों के धीरे धीरे आस्वादन तंत्र से एकात्म होने की प्रक्रिया है. यह कवि जितना साधु दिखता है, उतना है नहीं. भाषा का पंडित, अर्थविन्यास में चतुर और धारोष्ण संवेदना को दुहने में कुशल है. वह रचता है तो कविता की अलग जलवायु पैदा होती है.
कविता में मुड़ कर देखना समक्ष प्रेक्षण से ज्यादा जरूरी है. वही नहीं जो देख रहे हो. वह भी जिसे देख आए हो छोड़ आए हो उसे भी कविता में मुड मुड कर देखना होता है.
सच ही है, कवि होना सारी दुनिया की पीड़ा को अंगीकार करना है. अपने सिर लेना है. वही है जो प्रेम का पथ बुहारता है. करुणा की सरणियों को अपनी संवेदना से सींचता है. वही परदुखकातर और समव्यथी है. जागै अरु रोवै कहने वाले कवि कबीर का वंशज है. तभी तो वह कहता है :
कविता में बोल रहा हूँ जो मैं ये शब्द
इनमें अनंत होठों की आग है
बारिश है कई पीढ़ियों की
कविता मेंरा आविष्कार नहीं, उत्तराधिकार है.
जनदुख-जीवदुख शुरु से ही मथता रहता है कविता का कलेजा.
(कवि-पुरखे )
कविता में भाषा की बड़ी कीमत है. भाषा कविता का आभरण है. वही है जो संवेदना की उंगली पकड़ कर अर्थ के नए विन्यास नए इलाके में ले जाती है. कविता के नए इलाके में पहुंच कर वही है तो कहती है :
भाषा के साथ कविता की लंबी जुगलबंदी है
इसीलिए भाषा को ठस होठ छूने से
कविता को लगती है ठेस
पर यह भाषा भी कैसी हो. एक बड़े कवि ने जब यह कहा कि जिस तरह हम देखते हैं उस तरह तू लिख. तो वे आजमाई हुई बरती हुई भाषा में कहने की बात कर रहे थे. हम वह लिखें जो हमारी कमाई हुई भाषा हो. यह नही कि हम वैसा लिखें जैसे ताद्युष रोजेविच लिखते हैं, जार्ज सेफरीज लिखते हैं, मोंताले लिखते हैं या नेरूदा. हमारी कविता अरसे से इसी आकर्षण और अनुसरण में अनूदित कविता की सहयात्री हुई जा रही है. आज की अधिकांश कविता अनुवाद की छत्रछाया से पली पुसी दिखती है. पाश्चात्य कवियों के आकर्षण के जाल ने हमारी देशज अभिव्यक्ति और संवेदना को ढँक लिया है. इस अर्थ में प्रेम शंकर के यहां देशज अवलोकन और अभिव्यक्तियां हैं.
कहा है केदारनाथ सिंह ने- मेरे भीतर तदभवता की बेचैनी है. प्रेमशंकर भी तदभवता की ओर इशारा करते हैं. बिल्कुल देसी चित्त की कविता–बिना तत्सम की रिफाइनरी में छने हुए जो कवि के भीतर उतरती है उसका स्वाद ही अलग होता है. वह कविता खोजते हुए लोक रस में पगे उन स्त्रियों तक पहुंचता है जिन्होंने गाते गाते गीतों में अपना मन रख दिया. अभी भी लोकराग का कोई तोड़ नहीं है. उसका देशज पाठ कितना तांबई कितना धात्विक और अनगढ़ होता है. बिना भाषाई पालिश में चित्त के सारे सर्गों को खोल कर हमारे समक्ष रखता हुआ. यह बात कवि को अविस्मरणीय लगती है तभी तो वह इसे नोट करता है —
गाते गाते उसने अपना मन
एक गीत में रख दिया
और भूली रही वह बहुत दिन
अचानक उसे अपने मन की जरूरत पड़ी
लेकिन बिसर गयी कि कहां रख दिया है अपना मन
…….
झूमती बारिश में अचानक उसके कंठ में
उठा वही गीत
तब जाकर पाया उसने गीत में अपना मन
(अपना मन)
क्या कवि का उदवेलन भी लोक की स्त्रियों से कहीं कमतर है? वही तो पीडा का आधायक है. वे लोक की स्त्रियों से लेकर इकतारा गाते फकीरों और लोकगायकों के पास तक पहुंचते हैं. उन्हें इकतारा में अध्यात्म में भीग कर गाता हुआ मीरा-मन दिखता है. वह पाता है कि उमड़ी हुई हैं एक तार पर भक्ति/ करुणा से भीज रही है दसों दिशाएं/ एक तार ने गा गा कर चमका दिया है/ करुणा संवेदना की सारी धातु/ और आलोड़न में बढ़ गया है अनुभूति का जल(इकतारा)
प्रेमशंकर शुक्ल के लिए कविता लिखना,
\’\’बदला लेना है
अपने ही दुख से
सुख को बुनना है विनम्र
चाक की माटी की तरह अपनी ठसक को लोच देना है.\’\’ ….
लिखना : वक्त पर बोलने की अपने भीतर तमीज़ पैदा करना है.
(कविता लिखना)
सोचता हूँ यह कैसा कवि है जो समय की धूल न धो पोंछ सकने के लिए अपनी भाषा से क्षमा मांगता है. जो जानता है कि कवियों का कोई पता नहीं होता. उनका पता ठिकाना तो उनकी कविताओं में होता है. उन्हें खोजना हो तो जाना चाहिए उसकी कविताओं की सरणियों में और वहीं तलाशना चाहिए उस कवि का ठीहा—उसका घर. कितनी मासूमियम से वे कहते हैं —
जहां तुम नहीं रहते प्रेमशंकर शुक्ल
वह भी तुम्हारा पता है
जैसे कि तुम नहीं जानते कि तुम्हारे दुख
किस पते से आते हैं
और झुलसा कर तुम्हें चले जाते हैं कहां
कविता को किस गहरे आब्जर्व करते हैं प्रेमशंकर शुक्ल यह उनकी पुस्तक \’जन्म से जीवित है पृथ्वी\’ पढ़ते हुए महसूस होता है. अरसे से कविता के जरिए आत्मप्रक्षालन पर लगा यह कवि वास्तव में उस पृथ्वी की पुकार को सुनना चाहता है जिसे मानवता अक्सर अनसुनी करती आई है.
प्रियदर्शन: रघुवीर सहाय के पथ पर
युवा कवियों में अनन्य प्रियदर्शन के यहां समकालीन समय की उपस्थितियां हैं–आलोचना के तीखे फ्रेम में रची ये कविताएं राजनीतिक-सी लगती कविताओं की सरणि पर चलती हैं तथा जिस प्रतिपक्ष की कमी आज की कविता में बहुधा महूसस की जाती है, उसकी कमी पूरा करती हुई दिखती हैं. उनकी कविताएं राजनीति और पूंजी के गठजोड़ से उपजी हिंसक वृत्तियों को चिह्नित करते हुए प्रतिरोध की इबारत तैयार करने का उपक्रम हैं. हालांकि अपने स्तर पर जिरहप्रिय दिखती उनकी कविताएं तर्क और तथ्यों के मद्देनजर अपनी बात कहने में पहले से ही बेझिझक व बेबाकी से पेश आती रही हैं.
पत्रकारिता से जुड़े होने के कारण उनकी कविता के स्थापत्य में ये खूबियां स्वत: दीखती हैं जिसका पथ कभी रघुवीर सहाय जैसे कवि ने प्रशस्त किया. जहां तमाम चैनल सत्ता भक्ति में तल्लीन दिखते हुए हिज मास्टर्स वायस का हिस्सा बन चुके हैं वहां रह कर न अपने पत्रकारीय मिशन और दायित्व को डिगने से बचाया जा सकता है न कवित विवेक की लीक पर चलने की जिद पूरी की जा सकती है. प्रियदर्शन ने अपने विवेक को पिछले दशकों में कुछ अवधारणाओं का बोलबाला कविता में रहा है. आठवें दशक की प्रतीकात्मक शब्दावली से मुक्त प्रियदर्शन की पीढ़ी के कवियों ने राजनीति को कविता के लिए वर्जित विषय नहीं माना. मनुष्य की नियति तय करने में जिस राजनीति का हाथ रहा है उसे कवि अपनी बौद्धिकता से जिरह की कसौटी पर रख कर देखता है तभी वह धर्म, अधर्म, करुणा, ताकतवर, कमज़ोर, हिंदू, लव जेहाद, रोहित वेमुला, और किताबों पर कविताएं लिखता है.
वे हमारे समय में राजनीति का केंद्र बन गयी कुछ बद्धमूल अवधारणाओं पर सोचते हैं. बाहर से बहुत अच्छा और साधु लगने वाला धर्म क्या है. आस्था क्या है. मन क्या है, धार्मिक उन्माद क्या है, आस्था क्या है. कैसे धार्मिक उन्माद के आगे आस्था पानी भरती है और कैसे इस धर्म की मारी मनुष्यता कॉंपती- थर थर करती है, कैसे संस्कृति की लहर सभ्यता का कहर बन कर टूटती है–इसे वे एक कवि विवेक के आईने में परखते हैं. लिखने की तमाम स्वतंत्रताओं के बावजूद आज या तो सच कहने वाले कम हैं या शायद सदैव सच के पक्ष में कम लोग होते हैं. लेखकों कवियों को जिस जागरूक विपक्ष की भूमिका निभानी थी, वे भी सत्ता और ताकतवरों के पक्षकार होकर रह गए हैं.
प्रियदर्शन की कविताएं इस चिंता में शरीक दिखती हैं. जहॉं तक भाषाई उपार्जन का प्रश्न है, प्रियदर्शन की कविताओं की भाषा आमफहम है. वह पत्रकारिता की बोलचाल भी जबान के नजदीक है. यह पांडित्यप्रदर्शन और अनावश्यक रूपकों उत्प्रेक्षाओं अलंकरणों से बचने वाली कविता है. वह प्राय: प्रोजैक दिखती है- यहां तक कि अन्त्यनुप्रास या सामासिक प्रयोगों में भी उसकी बहुत दिलचस्पी नहीं जान पड़ती. तो भी सरोकारों के स्तर पर यह बेबाक है और यही बेबाकी उनके कवित्व का एक बड़ा गुणसूत्र है.
प्रियदर्शन समसामयिक राजनीति अर्थनीति व समाजनीति बॉंचने वाली मीडिया के अंत:पुर के नागरिक हैं. हाल के बरसों में मीडिया जिस तरह सत्ताभिमुख और पूंजीपरस्त हुई है, उसने सत्ता के प्रति कृतज्ञता का प्रदर्शन सर्वाधिक किया है कि स्वयं सरकार का प्रचार माध्यम भी शरमा जाए. प्रियदर्शन उस पत्रकारिता के प्रतिनिधि हैं जो सत्ता , मल्टीनेशनल कारपोरेशन्स, पूंजीपतियों व इजारेदारों के गठजोड़ का प्रति भाष्य करने का बीड़ा उठाती है. पर जहां तक कविता में राजनीतिक भाष्य का प्रश्न है, उनकी कविता आलोक धन्वा के लाउडनेस, ओम भारती की राजनीतिक मुखरता व ज्ञानेन्द्रपति तथा वीरेन डंगवाल के भाषायी स्थापत्य से अलग दिखती है तथापि उनकी ही तरह हमारे समय के सांस्कृतिक क्षितिज पर पड़ते राजनीतिक धब्बों व मानवीय मलिनताओं का साहसिक उदघाटन करने में संकोच नहीं करती. उसमें वैचारिक सघनता के साथ संवेदना की सघनता भी उतनी ही प्रगाढ़ है. कदाचित इसीलिए वह अपने लिए उक्त कवियों की अपेक्षा रघुवीर सहाय की राजनीतिक कविता के उच्चादर्श को अपने लिए ज्यादा अनुकूल मानती है.
प्रियदर्शन की कविताएं इस बात की गवाही देती हैं कि कविता केवल एक प्रायोजित दार्शनिक अंदाज में शुद्ध अनुभूति के प्राकट्य का मामला नहीं है, बल्कि वह एक जागरूक कवि, जागरूक नागरिक और प्रश्नाकुलता के साथ पेश आते व्यक्ति का प्रत्याख्यान है. इस घोर राजनीतिक समय में जब कविताओं में इसकी तासीर दर्ज की जानी चाहिए, कम कवि हैं जो सातवें-आठवें दशक के कवियों की तरह इस कार्यभार को कवि का कार्यभार मानते हैं. मैं शुद्ध कविता के तत्वों की क्षति की कीमत पर भी इन कविताओं की सराहना करना चाहूंगा जिन्होंने कवि को अभिव्यक्ति के इस साहस के लिए अग्रसर किया है.
प्रभात: अभावों के आंच का कवि
प्रभात का कवित्व मरुभूमि में खिले उस दुर्लभ फूल की तरह है जिसके साथ वैसी नमी वैसी धूप वैसा वातावरण और वैसा ही सराहने वाला मन चाहिए. प्रभात ने इस फूल को खिलाने के लिए लगातार अपनी कविता की ज़मीन को अपने कच्चे अनुभवों और पक्की संवेदना से सींचा है. उत्तरोत्तर जीवन में गहरे धंस कर उन्होंने अपने अनुभवों को अपने प्रेक्षणों की आंच में पकाया है जो कि उनकी कविताओं में झलकता है. उनकी कविताओं में लोकवार्ता का सा आस्वाद है, लोकगीतों की सी संवेदना है. सरसों के फूल जैसी आभा है. ढाणी की देशज प्रतीति है, स्वेद और श्रम से जुड़े जीवन के दिनों को उन्होंने अपनी आत्मा के उजास में रचा और सिरजा है. प्रभात ने जीवन की गतिविधियों को बहुत बारीकी से देखा है तभी धीमे चलते गड़रिये की गति से जीवन की गति को अनुकूलित कर के देखा है. पर उनके यहां गड़रियों लोकगायिकाओं, लोक गायकों, लोक देवताओं लोक कथाओं के केवल वृत्तांत भर नहीं, ये कविताएं समाज का एक गहरा क्रिटीक हैं. यहां सतही स्त्री विमर्श नहीं, समूची सामाजिक संरचना में स्त्री कहां है, यह देखने की कोशिश है. ![](https://1.bp.blogspot.com/-wpKfMAl6qPE/XpZ2921Er8I/AAAAAAAAWWk/wly2rrg2DmAGPktvMsLEm3m5CUR1sRegACNcBGAsYHQ/s320/jeevan_ke_din_hb.jpg)
शिक्षा व्यवस्था पर करारा तमाचा जड़ती \’प्राथमिक शिक्षक\’ जैसी लंबी कविता है पर यह शिकायतनामा नहीं है जैसा कि मध्यवर्गीय कवियों में ऐसे शिकायतनामे बहुधा देखने को मिलते हैं. यह व्यवस्था को लगातार पतन की ढलान पर अग्रसर करने वाली शक्तियों का उदघाटन भी है. इस पर बाद में बात करेंगे. पहले यह देखते हैं इस कवि की दृष्टि किस तरह उन मलिनताओं पर पड़ती है जो इस समाज की विडंबनाओं की उपज हैं. वह \’शरणार्थी\’ पर कविता लिखता है तो किस्सागोई में दास्तान लिखते हुए उनके पराभव, अपमान, उनकी कलाओं के जमींदोज होने तथा कभी भी खदेड़ दिए जाने की आशंकाओं के बिम्ब जाग्रत हो उठते हैं. उदाहरण के लिए कवि की ये पंक्तियां —
तुम जिन्दा लाश हो एक सभ्यता एक संस्कृति की
तुम जिन्दा लाश हो जीवन में गहरी अभिरुचि की
तुम जिन्दा लाश हो एक देश की स्मृति की
(जीवन के दिन/ पृष्ठ 134)
घर को सूना छोड़ कर हमेशा के लिए चले जाने वाले लोगों के बाद सूने घर पर कविता पढ़ते हुए ज्ञानेन्द्रपति की एक कविता स्मरण हो आई. बरसों सूना पड़ा रहा कवि का घर. पर यहां पर सूना घर अलग किस्म का है. यह कवि का नहीं, यह किसी गार्हस्थ्य और कलरवभरे संसार के घर से विदा हो जाने के अरसे बाद उजाड़ संग्रहालय बने घर का चित्र है. कहना न होगा कि ऐसे चित्र जो बिम्ब निर्मित करते हैं वहीं कहीं से कविता का आगम होता है.
प्रभात सदैव ऐसे बिम्ब अपनी संवेदना में सहेजते हैं जहां किसी गुमशुदा बच्चे की याद है; मालगाड़ी के डिब्बे में सारंगी सुनाता और सो गया लड़का है; कस्बे का कवि है- अधिकारी कवि नहीं, आम जीवन में गहरे धँसा हुआ, दूसरों के सुख दुख में शामिल; एक ऐसा शख्स है जिसके हर काम निर्विघ्न होते जाने के पीछे \’निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा\’ जैसे श्लोक की महिमा नहीं, जनसंघर्ष में पिसने का लंबा इतिहास है; धर्म कर्म के नाम पर चंदा उगाहने वाले लोग हैं; परिवर्तन के नाम पर कालोनियों के नाम बदलने की मुहिम है, रिश्तों के जर्जर होने की त्रासदी है; रेशम के बनने की करुण कहानी है जिन्हें प़ढना स्वयं एक यातना से गुजरना है. यह आंखों देखे चॉंपा- जाँजगीर में सिवनी में उबलते कोसा से सूत लेकर जाँघ पर हथेली से मसल-मसल कर धागा बनाने वाली बृद्धा को बिना देखे न लौटने का कवि-आग्रह है
\’\’जिसकी कदली सी जॉंघ दिखती है धातु की सिल-सी जिसके हाथ रह गए ऑंख गई. … हल पल मालूम रहता है इन कामगारों को किसी चिलकती शांत दोपहर में एकाएक मुँह से खून आएगा. हल्की चीख पुकार मचेगी घर में घोर अंधेरा हो जाएगा.\’\’
(वही, पृष्ठ 106)
वह ऐसे समाज के बारे में सोचते हुए करुणा से भर जाता है कि जिसने हत्या की है वह घर और रिश्तेदारियों में अभी भी कितना पूज्य बना हुआ है. वह उन दबंगों पर रोशनी डालता है जिन्होंने बिना कुछ किए लाखों की जायदार, जमीने व ट्रैक्टर व जीपें बसें खरीदीं बंदूक और पिस्तौलें भी, अफीम व हथियारों की तस्करी में शामिल रहे, बलात्कार भी किये, पर किसी बुजु्र्ग ने उसे अन्याय न करार दिया. यह आज का समाज है. यहां कविता की कारुणिकता के साथ साथ बदल रहे समाज का एक आईना भी है. वह उन मासूम आदिवासी लड़कियों की झलक भी नहीं भूलता जो हाट में आते जाते आईनों की दुकान पर झुक कर अपना चेहरा एक बार निहार कर तोष पा लेती हैं.
उनकी एक विलक्षण कविता शिशु और वृद्ध पर है. एक समानांतर अवलोकन जैसा प्रयास. वे कहते हैं, शिशु के रहन सहन पालन पोषण निर्भरता और उसे सम्हालने सहेजने में जैसे एक मां की जरूरत होती है, वृद्ध के भी उत्तर जीवन में एक मां की जरूरत होती है. कठिन है बच्चे का पोषण तो बूढ़े शख्स की भी सार सम्हाल कठिन है, तमाम हवा बयार शीत शरद से बचाने की हिकमत चाहिए और देखिए कि इस कविता का अंत कैसा सहज है:
\’\’प्रकृति की अपनी एक व्यवस्था है
पेड़ के पीले पत्ते को बहा ले जाती है हवा
आयु के दरख्त पर पूरे हुए जीवन को ले जाता है काल.\’\’
पर इसी के साथ कवि एक सवाल भी छोड़ जाता है, बच्चे की तो मॉं होती है क्या बूढ़ों के लिए भी मॉं की जरूरत नहीं? याद रहे इसी कवि ने अपने पिछले संग्रह \’अपनों में नहीं रह पाने का गीत\’ में लिखा है,
\’\’जिन्हें मां की याद नहीं आती, उन्हें मॉं की जगह किसकी याद आती है?\’\’
और मां के न रहने की पीड़ा को शब्द देते हुए कहता है –
\’\’तुम नहीं थी इसलिए मेरा बचपन दूसरों के घरों के चूल्हे, आंगनों में ताकने झॉंकने में ही गुजरा.\’\’ जिसे पढते हुए कवि नरेश मेहता का बचपन याद आ जाता है जो कहते थे, \’\’मैंने अपने आंगन में कभी कोइ्र साडी सूखते नहीं देखी. \’\’
प्रभात ने जीवन के दिन में मृत्यु तक की कल्पना की है. सफेद चादर ऐसी ही कविता है जिसका अंत कितना भावुक कर देनेवाला है:
\’\’सब शामिल होंगे, एक मैं ही नहीं होऊँगा
इस शरीर के अंतिम संस्कार में शामिल
जो तमाम उम्र मेरा घर बना रहा.\’\’
(सफेद चादर)
कैसे होंते हैं गांव कैसी होती हैं ढाणियॉं, प्रभात इन सबके धूसरे फीके और चटख रंगों को जगह ब जगह उकेरते हैं तथा प्रेम में हो या गार्हस्थ्य में जो मिला उसे कम नहीं आंकते यह स्वीकार करते हुए कि \’\’प्रेम में जो मिला/घास फूस खरपतवार/झोंपड़ी और नाव बनाने के लिए काफी है.\” (झोपड़ी और नाव) जहां जरा से प्रेम में संतोष है वहीं आंखें खो चुकीं बुआ के अभिशप्त जीवन का मलाल भी कि उनका प्रेम पाप कहलाया, उजाड़ गांव में ब्याह दिया गया और जिसका बेटा उन्हें गोबर के कंडों के घर में रखता है. (प्रेम और पाप)
कवि का परात्पर स्वभाव उसकी कविता में छिपा नही रहता, वह \’बदनामी\’ जैसी कविता में उजागर हो उठता है जहॉं वह किसी बदनाम प्रतिबिम्ब की पुकार सुन कर उसे आसक्त भाव से अपने अस्तित्व की गोद में सहेज लेता है.
प्रभात की कविताओं में आपको किसी धीरोदात्त जीवन के बिम्ब नहीं ऐसे ही रोजाना के जद्दोजेहद से निकले प्रत्यय मिलेंगे–कहीं कुछ सपने, कहीं कुछ यादें, बबूल के कांटे, सारस के जोड़े, धूप सहते पेड़, कोई अशुभ संदेश, गृहस्थी में जुती मॉं, भीतर टहलता दुख, असमय आपदा बन कर बरसती मार्च की बारिश, धीमे धीमे चलते गड़रिये, सूखते पोखर आदि इत्यादि. उसे सरसों के प्यारे फूल के पीछे यदि सांवली मिट्टी का चेहरा दिखता है तो इसमें किसी बुजुर्ग कवि(जगूड़ी) के कहे की खुशबू भी आती है: \’हर हरियाली के हम अंतिम परिणाम हैं/ हम जलेंगे तो धरती दूर से ही दिखाई देगी काली और उपजाऊ. \’
यों तो प्रभात को पढ़ते जाना किसी लोक कथा के वृत्तांत को पढ़ने की तरह है. फिर भी इन कविताओं का शिल्प बाहर से कुछ झीना झीना जरूर लग सकता है. इनमें वाक्यों की तराश वैसी नहीं जैसे किसी कलासजग कवि की. कलासजगता कहीं कहीं कविता की कोमल काया पर भारी पड़ती है. कविता तो बहते पानी की तरह ही फूटती है—अलंकरण उसके सहज स्वभाव में ही नहीं है. पर जीवन से उगाहे गए मुहावरे हों तो कविता एक हलचल की तरह मन को भेदती है. जीवन के दिन की एक कविता \’जैसे\’ में प्रभात के कवि की अद्वितीयता ओझल नहीं रहती. इसके सादृश्य बोध में एक अनूठा आकर्षण है इस कविता का उत्तरांश :
जैसे तुम्हारे चेहरे को नहीं बताना पड़ता
क्यों पड़ा हूँ उसमें, घास में नाव की तरह
जैसे तुम्हारी आंखों को नहीं बताना पड़ता
क्यों तोते की तरह लौटता हूँ इन्हीं कोटरों में
जैसे तुम्हारे कानों को नहीं बताना पड़ता
क्यों सुनाई देता हूँ फूलों के टपकने की तरह
जैसे तुम्हारे बदन को नहीं बताना पड़ता
क्यों तुम्हारे नहाने का पानी हूँ मैं.
(जीवन के दिन,पृष्ठ 55 )
प्रभात की कविताओं से विनोद पदरज की ही तरह उनके लोकेल का पता चलता है जैसे ज्ञानेन्द्रपति की कविताओं से झारखंड, बिहार और गांगेय इलाके का. जैसे विजेंद्र में स्थानीयता का, अष्टभुजा शुक्ल में एक पुरबिये कवि का, आदिवासी कवियों में आदिवासी जनजीवन का. उसके कवि का अवलोकन बहुत वस्तुनिष्ठ किस्म का है–गड़ेरिये पर दो मूल्यवान कविताएं यहां हैं और कहना न होगा कि एक कवि गडरिये सी धीमी चाल की सीख लेता है. वह जब कहता है कि गड़रिये चंद्रमा हैं पृथ्वी पर चलते हुए तो वह उनकी चाल का कितना मुरीद हो उठता है यह देखने की बात है. प्रभात ने जीवन की आकाशगंगा में भेड़ों के बीच चलते गड़रिये की सी थिर चाल को ही न केवल अपना अभीष्ट माना है बल्कि उसकी कविताएं उसकी इसी धीमी गड़रिये जैसी चाल और अवलोकनों का प्रतिफल हैं. और अंत में प्राथमिक शिक्षक . लंबी कविता. बारह चरणों में. यह देश में प्राथमिक शिक्षा के नाम पर चल रहे प्रहसन का एक श्वेतपत्र है. पूरी तरह राजस्थानी जबान और अनुभवों से भरा. एक शिक्षक की जबानी यह कविता आजाद भारत की छत्रछाया में पल रही बुनियादी तालीम की सीवनें उधेड़ती है जिसमें पढाई, शिक्षण प्रशिक्षण, पाठशाला की दिनचर्या, बच्चों से सुलूक, उनसे करायी जाने वाली सेवा टहल, शिक्षा के नाम पर बदहाली, गँवारूपन, अध्यापकों के पूरे सच्चे भदेस संवाद का जीवंत वृत्तांत है. एक कवि यहाँ शुद्ध कविता की परवाह न कर अपने कवि कर्तव्य की कसौटी पर इस पूरे परिदृश्य को कसता है.
ऋतुद्रष्टा : ऋतुसंहार के पन्ने पलटता कवि
हिंदी में युवा कवियों में कम कवि ऐसे हैं जिन्हें अपनी कविता की अंतर्वस्तु और विन्यास में तब्दीलियों की जरूरत महसूस होती है. अन्यथा नई कविता के फार्मेट में एक खास तरह की एकरसता और ऊब भी पैदा होती है. कवि वही जो हर बार अपना शिल्प नया कर दे, कविता की अंतर्वस्तु में पुनर्नवता लाए. मनुष्य, जीवन, संसार और विडंबनाओं को देखने की दृष्टि उत्तरोत्तर गहरी और भाषा सरल होती जाए.
कविताएं उसके कवित विवेक का प्रस्तावन हों. वह कविता संबंधी अपनी मान्यताओं से नहीं, कविता में अपने स्थापत्य से जाना जाए और ऐसे नवाचार जिस युवा कवि में एक जगह एकत्र मिलते हैं वह हैं शिरीष कुमार मौर्य. उनके कविता संसार में मोड़ और पड़ाव देखे जा सकते हैं. वे एक जगह ठहरे हुए स्थितप्रज्ञ कवि नहीं हैं, हर बार उतने ही चंचल, उतने ही संजीदा उतने ही तत्वान्वेषी जैसा कि एक कवि को होना चाहिए. समसामयिकता में खर्च होने के बजाय वे परंपरा से कवियों के गुणसूत्रों का अनुगमन करते हैं. किसी थीम पर सीरीजबद्ध कविताएं लिखने में वे भी प्रेमरंजन अनिमेष की तरह ही प्रयोगधर्मी हैं. इससे पहले \’सांसों के प्राचीन ग्रामोफोन सरीखे इस बाजे पर\’ में वे अपना कौशल दिखा चुके हैं. \’रितुरैण\’ में वे ऋतुओं को लेकर अपनी नई उदभावनाओं के साथ फिर आए हैं जैसे हिंदी में किसी नए कालिदास का अवतरण हुआ है जो नये तरीके से \’ऋतुसंहार\’ के पन्ने पलट रहा है.
जिसने ग्रीष्म नहीं जिया
सावन नहीं पिया
शरद में क्या झरेगा
उसकी निखद्द देह से
इसे पढ़ते हुए जायसी याद हो आए. तपनि मृगशिरा जे सहहिं आद्रा ते पलुहंत. तपना जैसे मृगशिरा में वैसे ही रचना की ऋतु में भी तपना होता है. अनुभव की आंच में तपने से ही संवदेना की कोख उर्वर होती है. हमारे यहां ऋतुओं को लेकर बारहमासा रचे गए हैं. बारहो मास में हर मास की अपनी तासीर है, हर ऋतु का अपना वैशिष्ट्य है, हर मौसम का अपना मिजाज है. नागरिक ही नहीं, ऋतुएं भी कवियों का मिजाज बदल देती हैं. मौसम अनुकूल हो तो साधारण नागरिक भी कवि हो उठता है. हालांकि वह कुछ रचता नहीं पर उसके भीतर अव्यक्त भावनाओं का ज्वार तो उठता ही है. शिरीष के भीतर ऋतुओं को जीने, रचने और उसे बरतने का व्याकरण है, सलीका है तभी तो वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि :
\’\’शिशिर जो कँपा देता है
शिवालिक की आत्मा तक को
मरुथलों को सजाता है ओसकणों से
रेत के भीतर मृत जलधाराएं जागती हैं मानो
किसी कल्पना में जागती हो मनुष्यता
यथार्थ में सो जाती हो.\’\’
अचरज नहीं कि कवि शरद की पैदाइश है सो शरद के प्रति उसमें एक दुर्निवार आकर्षण है. वह ऋतुओं के साहचर्य का साक्षी है, उसने ऋतुओं का अपनापा देखा है, उनमें मिजाज का पार्थक्य देखा है. वह जानता है कि बसंत कितनी ही कवियों की मित्र ऋतु हो, वह असमाधेय हिंसा से भरी हो सकती है. वसंत आते और जाते देर नहीं लगती इसीलिए तो लोककवियों ने कहा है फागुन दुइ रे दिना. इसलिए कवि एक जगह उन कवियों की कूट (विनोद) करता है जो यह कहते हैं, बसंत आ गया है, जबकि बसंत आता है. शिवालिक की छाया में रहता हुआ कवि शिवालिक को जैसे अपने अनुभवों का साक्षी मानता है. ऋतुओं के साहचर्य में शायद हर भाषा में विपुल काव्य रचना हुई है.
संस्कृत में ऋतुचक्र शिशिर से आरंभ होता है, जबकि हिंदी में बसंत से. पर शिरीष ने शिशिर से ऋतुसंवदेना का आरंभ करते हुए रितुरैण को जिया है जैसे वे उसके इस वैशिष्ट्य पर मुग्ध हों -कहा गया है, सिसिर सरस मन बरनिये, केशव राजा-रंक. नाचत-गावत रैन–दिन, खेलत-हँसत निसंक.. यों बसंत कवियों का प्रिय मौसम है. \’आए बसंत महंत\’ कह कर कवियों ने उसका महिमा मंडन किया है पर शिरीष के मन में बसंत की एक विपरीत आभा है जिसने बसंत का वर्तमान जघन्य देखा है, उसे लगता है, बसंत की आवाजें धोखादेह होती हैं. वह बसंत के सम्मोहनों से बचने वाला कवि है और उसे शिशिर से बसंत का हालचाल मिल जाता है. कवि के लेखे —
मैं बसंत को बहुत प्रशंसनीय ऋतु नहीं मानता
मैंने बचपन से ही
गांव के घरों में अकेली छूटीं
हर वय की कलपती स्त्रियां और
उनके साथ बसंत की हिंसा देखी है.
वह विनोद में नहीं शायद गंभीरता से यह कहने में संकोच नहीं करता कि \’\’साहित्य के पड़ोस में शस्त्रागार था/ शस्त्रागार में सब दिन वसंत था. \’\’ इसलिए इन ऋतुधर्मी कविताओं के ऋतुओं से संवाद करता हुई कविताओं में सभी ऋतुएं आवाजाही करती हैं. एक ऋतु का दूसरी से अन्योन्याश्रित संबंध भी तो है और दो ऋतुओं के बीच की वय:संधि का कहना ही क्या. कवि इस वय:संधि में शायद सबसे ज्यादा बेचैन होता है, सबसे ज्यादा उर्वर और निरंकुश भी. ऋतुएं भावुक बनाती हैं. कइयों को कवि भी बना देती हैं. शिशिर से ग्रीष्म तक की चर्या को एक कविता में बांधते हुए यह युवा कवि कहता है:
\’\’ऐसा ही हो शिशिर का विस्तार
जीवन के बचे खुचे वर्षों तक हो पर ज्यादा कुहरा न हो
अस्थियों को धूप का ताप मिले
दिल को आस बँधे चैत की
ग्रीष्म का आकाश मिले खुला
इच्छाओं को वनसुग्गों सी सामूहिक उड़ान मिले
गा पाऊँ रितुरैण अपने किसी दर्द का.\’\’
शिरीष की इन कविताओं में ऋतुओं का माहात्म्य नहीं, उनकी उत्सवता का अहसास नहीं, बल्कि इन ऋतुओं और ऋतुओं की वय:संधि के दौरान तमाम किस्म की विरल अनुभूतियां और दुख हैं, ऋतुओं का बदलता विचित्र स्वभाव है. गहरी चिंता में कवि पाता है कि उम्मीदें घटते जलस्तर की तरह घटती जा रहीं और ऋतुओं के भरोसे नहीं रह सकता आदमी. अब तो ऋतुएं भी हँसाती कम, रुलाती ज्यादा हैं. वे हमारे अभावों का उपहास उड़ाती हैं. इस तरह ये ऋतुरंजन की नहीं ऋतुरैण की कविताएं हैं. रूदन और विलाप की कविताएं. दुख, विक्षोभ और संताप की कविताएं. इनमें शिवालिक की सुखद गर्मियां भी हैं तो कॅपा देने वाले शिशिर की हिंस्र प्रवृत्ति भी, हेमंत की दाहकता है तो बसंत की उम्मीद और स्मृति भी और जीवन की न मुरझाने वाली द्वाभा भी. वह उस चैत की उद्विग्नता का साक्षी भी है जिसके कारण चैत में हिमालय का हिम भर नहीं गलता , ससुराल में स्त्रियों का दिल भी जलता है. \’शिशिर की शर्वरी हिंस्र पशुओं भरी\’ वाली भयातुरता में भी वह यह उम्मीद नहीं छोड़ता कि —
अस्थियों को धूप का ताप मिले
दिल को आस भरे चैत की
ग्रीष्म का आकाश मिले खुला
इच्छाओं को वन सुग्गों सी उड़ान मिले
गा पाऊँ रितुरैण अपने किसी दर्द का.\’
(पृष्ठ 46)
इन कविताओं के नैरेटिव में शिशिर ने ज्यादा जगह छेंक रखी है तो शिशिर के प्रति कवि-स्नेह भी है, उसकी मुश्किलें भी जिनसे इस शिवालिकवासी कवि को गुजरना होता है. वह ऋतुओं के साथ धार्मिक स्नानों, संगमों को याद करता हुआ पूछता है, \’\’निर्ममता जघन्यता और सियासत के कितने संगम हैं देश के?\’\’ सारांशत: इन कविताओं की कुंजी इस सीरीज की 32वीं कड़ी में मिलती है, जब कवि कहता है:
ग्रीष्म का स्वागत
मैं हमेशा नई फसल के गेहूं से करता हूँ
वर्षा में जाता हूँ
धान की पौध के साथ
शरद में मेरी देह से दर्द झरता है
और आत्मा में
अनदेखी कुछ कोंपलें फूटती हैं
हेमंत में पाता हूँ
कि मैं कवि नहीं हरकारा हूँ
मेरे झोले में शरद के कुछ पीले पत्ते हैं.
(पृष्ठ 80)
वह ऋतुओं के न्याय के साथ ही कहीं न कहीं \’पोयटिक जस्टिस\’ की बात भी करता है. उसके लेखे, कवि वहीं जिसमें शरद के पीले पत्तों को फूलों में बदल देने का हुनर हो. \’रितुरैण\’ केवल कवि का नहीं, हर किसी का अपना एक \’रितुरैण\’ होता है. कवि कहता है,
\’\’न कोई व्यक्ति न कोई ऋतु
कोई नहीं हर सकता किसी का ताप
हर किसी को अपने एक रितुरैण
अपने एक बुखार में रहना पड़ता है.\’
(पृष्ठ94)
वह ऋतुओं के गुणसूत्रों के साथ मनुष्य के संबंधों को टटोलता है. ऋतुओं की ही हिंसा नहीं, मनुष्यों की हिंसा को भी निगाह में रखता है. वह \’हर ओर घनघोर वसंत\’ का अभ्यासी भले न हो, जीवन के यथार्थ को रघुवीर सहाय की तरह वही देख पाता है कि यथार्थ यथास्थिति नहीं. आज कविता में राजनीतिक हवाले कम दिखते हैं. यही कारण हैं उसे लगता है कि \’\’राजनीतिक कविताओं में फूल चुनने वाले माली अब खाली हैं. प्रेम हर बार धर्म के विरुद्ध खड़ा होता है / धर्म का पा लेने जितना आसान नहीं है/ प्रेम को पा लेना.\’\’ (पृष्ठ 143)
\’रितुरैण\’ की ये कविताएं शिरीष के काव्य कौशल का नमूना हैं. यों देखने में नैरेटिव एक-से लहजे का शिकार भी हुआ लगता है पर इस नैरेटिव पर पार पाने के बाद ही समझ में आता है कि कवि का गंतव्य और मंतव्य क्या है. हम इस कवि के शब्द ही उधार लेकर कह सकते हैं कि ये कविताएं \’आंख में अँटके हुए ऑंसू हैं जो भाषा के रूखते कपोलों पर ढुलक कर रह गए हैं. –\’रही समकालीनता (जिसकी दुंदुभि और विस्तारसीमा अनंत है) वह कुछ छुटभैयों का अभयारण्य है.\’ कविता में अपने समय, अपनी ऋतुओं, अपनी कविता, अपने संताप और अपने कवित विवेक का यह प्रदर्शन ही \’रितुरैण\’ का अंतत: मंतव्य और गंतव्य है. इसे स्वत:स्फूर्त कवित्व का प्रमाण नहीं, प्रायोजित कवि संवेदना का विस्तार ही माना जाना चाहिए.
एक समय में इतने कवियों का इतने वैविध्य के साथ कविता में अपने समय की समकालीनता और शाश्वतता के सहकार को उपस्थित करना न केवल युगधर्म है बल्कि कविधर्म भी, यदि उसे किसी संकीर्णता के आलोक में न पढा जाए. यहां भाषा की महीन कतान है तो वाचिक का मार्वेलस-भाव भी, कला की शुभ्रता है तो प्रयत्नलाघव भी, राजनीतिक प्रतिबद्धता है तो दृश्य को बांध लेने का कवि-सामर्थ्य भी.
हम भाषा के लिए प्रेमशंकर शुक्ल, प्रतिबद्धता के लिए विनोद पदरज, वैचारिक विवेक के लिए प्रियदर्शन, साधारणता को गौरव देने के लिए अनिल करमेले, अपनी स्थानिकता को कविता में पिरोने के लिए प्रभात और पर्यावरण मैत्री के लिए शिरीष को रेखांकित कर सकते हैं.
जहां तक शैलीकार होने का प्रश्न है, इसके लिए कविता बड़ी एकाग्र साधना चाहती है. प्रेमशंकर शुक्ल और प्रभात के अलावा इनमें से कौन अपने शैलीगत वैशिष्ट्य के कारण भविष्य में पहचाना जाएगा, यह तो समय ही बताएगा.
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(जारी ….)
ओम निश्चल
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