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Home » रंग – राग : प्रभाकर बर्वे : अखिलेश

रंग – राग : प्रभाकर बर्वे : अखिलेश

(पेंटिग : प्रभाकर बर्वे) प्रभाकर बर्वे (1936- 1995) प्रसिद्ध प्रतीकवादी अमूर्त चित्रकार प्रभाकर बर्वे ने अपने चाचा मूर्ति शिल्पकार वी. पी. करमारकर और फिल्मों से जुड़े अपने पिता से बहुत कुछ सीखा. जे. जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट्स से स्नातक बर्वे की चित्रकला में बनारस के ‘तन्त्र’ (mysticism) का बहुत प्रभाव है. ‘कोरा कैनवस’ नाम से […]

by arun dev
April 11, 2017
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(पेंटिग : प्रभाकर बर्वे)
प्रभाकर बर्वे (1936- 1995)
प्रसिद्ध प्रतीकवादी अमूर्त चित्रकार प्रभाकर बर्वे ने अपने चाचा मूर्ति शिल्पकार वी. पी. करमारकर और फिल्मों से जुड़े अपने पिता से बहुत कुछ सीखा. जे. जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट्स से स्नातक बर्वे की चित्रकला में बनारस के ‘तन्त्र’ (mysticism) का बहुत प्रभाव है. ‘कोरा कैनवस’ नाम से उनकी एक किताब भी मराठी में प्रकाशित है. ऑब्जेक्ट और स्पेस के आपसी सम्बन्धों पर उन्होंने चित्रकला के माध्यम से बहुत कार्य किया है. देश विदेश में उनकी तमाम एकल प्रदर्शनियाँ आयोजित हुई हैं. उन्हें ललित कला एकेडमी सम्मान आदि प्राप्त है.
चित्रकार अखिलेश जहाँ अपनी पेंटिग के लिए विख्यात हैं वहीँ अपने लेखन के लिए भी खूब सराहे जा रहे हैं. किसी पेंटर पर कोई पेंटर लिखे यह वैसे भी दुर्लभ है.

प्रभाकर बर्वे जैसे प्रतीकवादी चित्रकार पर लिखना दुरूह है. अखिलेश ने उनके प्रतीकों को लेकर यह प्रयोग किया है, जो खुद  एक शानदार साहित्यिक अनुभव में बदल गया है.  


शीर्षक नहीं                         

अखिलेश 
प्रभाकर बर्वे
पिछले कई दिनों से टिक–टिक ने उसका जीना हराम कर दिया था. घड़ी की टिक–टिक से बचती हुई वो घूम रही थी और टिक–टिक उसका पीछा नहीं छोड़ रही थी. सोते–जागते, उठते–बैठते हर दम हर तरफ बस टिक–टिक, टिक–टिक. इसी से घबराकर वह इस बगीचे में आ गयी थी शायद यहाँ चैन मिले. तब भी टिक–टिक नहीं पीछा नहीं छोड़ा. पिछले बरस उसके मन में एक विचार आया कि क्यों न वह एक किताब में जा छिपे और जब से वह किताब ढूँढ़ रही थी और किताब थी कि खुद किताब में छुपी थी. वह पेड़ पर चढ़ना चाहती थी और पेड़ कुछ ऊँचा था. थोड़ा झुका–सा. पेड़ पर एक पत्ता न था. पत्ते की परछाईं भी जमीं पर थी. दूर–दूर तक कोई दिखाई न दे रहा था. खुद परेशां कि कहाँ आ गयी और कोई क्यों नहीं मिलता? एक चिड़िया थी और एक तितली. चिड़िया तितली जैसी और बगीचा ऐसा था कि खाली मैदान खड़ा है या रेगिस्तान.

वो स्वप्न में थी और यथार्थ सरक रहा था.

दूर कुछ सीढ़ियाँ दिखीं, वो दौड़कर चढ़ गयी. उसे भटकते हुए कई बरस हो गए थे, प्यास से गला सूख रहा था. सामने कुआँ है और कुएँ में पानी नहीं. उफ़क पर सूरज दीख रहा था किन्तु उसमें आग नहीं. कुछ काला कुछ नीला ठण्डा सूरज चाँद भी नहीं था, उसे लगा यह सूरज ही है. कुछ सूरज था कुछ सूरज–सा.

कई दिनों से यहाँ कुछ अजीब हो रहा था. पहले उसे डर लगा फिर उसने देखा यहाँ सब कुछ होता है घटता नहीं. एक परछाई चलती हुई चली गयी दूसरी उसके पीछे उड़ती हुई आयी और फलक में जम गयी. बादल बकरी का सर लेकर उड़ा चला जाता है फिर लौट आता है.

कभी उसे डर लगता था कि कोई बन्दूक की गोली आकर उसके सीने में न रहने लगे. फिलहाल टिक–टिक से भाग रही हूँ के ख्याल ने उसकी घड़ी फिर चालू कर दी. वो सोच रही थी और घड़ी चल रही थी.

सामने कुकुरमुत्ते से पेड़ एक क़तार में लगे से थे, उन पर बैठी चिड़िया की छाया उड़ रही थी. लालटेन जल रही थी और उसका बुझा–सा  प्रकाश फैला हुआ था, उसी के उजाले में पत्ती और उसकी छाया वहाँ रहती थी. अभी वह देख ही रही थी कि एक छोटे से आदमी ने आकर दरवाज़ा खटखटाया. इस आदमी की परछाई भी साथ थी और हाथ में एक स्लेट थी जिस पर देवनागरी पर ‘अ’ लिखा हुआ था. यह आदमी जहाँ भी जाता उसकी परछाई साथ जाती. रात में साफ़ और गहरी दिखाई देने लगती. परछाई आदमी से उपजी थी और बगैर प्रकाश के रहती. जब कोई नहीं होता परछाई कुछ देर आराम कर लेती. वह इतनी भारी थी कि हर वक्त जमीं पर पड़ी हाँफती रहती और जब कोई परछाई न हो तब कुछ हल्का हो उड़ लेती. आदमी और परछाई एक साथ पैदा हुए. वह संसार का पहला आदमी था जो अपनी परछाई लिए पैदा हुआ. जन्म से ही इस छोटे आदमी की परछाई कुछ ज़्यादा बड़ी थी. वह नल पर पानी पीने जाने की हर वक्त सोचता और कभी नहीं जा पाता. बीच–बीच में कुछ भेड़ें इस दिशा से उस दिशा तक चली जाती और उनमें सबसे छोटी भेड़ हर वक्त भीड़ के बीच अकेली ‘भेड़ चाल’ को झुठलाती उलटी चलती रहती. वह यथार्थ अनुभव कर रही थी और सब कुछ स्वप्न–सा था.

पेंटिग : प्रभाकर बर्वे


दूर पहाड़ की परछाई के पीछे का आसमान नीला हो चला है और अब कुछ भेड़ें उस प्राचीन नदी से पानी पीना चाहती है, जो अभी–अभी बहना शुरू हुई. इस प्राचीन काली नदी में कहीं–कहीं खून बह रहा है और उसका काला रंग गहरा है नदी गहरी नहीं है. बहती नदी के नीचे जम चुकी सभ्यताएँ दबी  हुई हैं और उनकी हड्डियों भरे हाथ यहाँ–वहाँ झाँकते रहते. उसकी बहती हुई परछाई और गहरी  यह नदी समुद्र और आसमान से मिलने नहीं जाती बस बह रही है.

वहीं किनारे एक आधा फटा कोरा कैनवास अपने फ्रेम में जड़ा पड़ा है जिसके सामने एक सेव रखा है मानो सेजा आकर इसी फल का चित्र बनाने वाला है. यहाँ वान गॉग सी तूफानी हलचल नहीं है और रोथको के ठहरे रंग भी नहीं दीखते. पास रखी पेन्सिल से कुछ नहीं उकेरा जा सकता यह नसरीन को पता है. हुसैन के आकाश का विस्तार सँभाला हुआ है.

चलते–चलते वह भैंस के मुँह के पास आ गयी थी और उसी की परछाई वाली सड़क पर चलने लगी. इस बीच वह एक काम कर चुकी थी जिसका नतीजा उसके मनमाफिक नहीं रहा. उसने गुस्से में घड़ी का मुँह काला कर दिया था और उसके काँटे भी घुमा दिये किन्तु टिक–टिक चलती रही.

उसे लगा उसके भरे भारी स्तन अब चिड़िया ले उड़ी है. गहरे नीले आकाश में वह भागकर अपने स्तन वापस लेना चाहती है और उसका भारी भरा भ्रम भागने में मदद नहीं करता. चिड़िया चबैने की तरह उसके स्तन ले भगी.

पास रखा लैम्प बुझा हुआ था  और उसी की रोशनी में उसे एक शंख  दिखा जिस पर कुछ नहीं लिखा था. उसकी उम्मीद अब टूट चुकी थी. कोरा फटा कैनवास और उसका मटमैला रंग उसे भाया. तिकोना–सा फटा या कटा कैनवास अपनी सूखी जंग लगी फ्रेम में अटका हुआ था. कुछ रंग के डब्बे उसे उदास नज़रों से देख रहे थे और उसके पीछे से झाँकते अपने में मगन एक चेहरे ने उसे चौंका दिया. उसके सामने रखे चौकोर ने चमका दिया. वह हैरान–सी उन्हें घूरती चली गयी.

पेंटिग ; प्रभाकर बर्वे


सूखा कुम्हड़ा प्राचीन नदी के पानी से और सूख रहा था. उसकी परछाई दूर एक खम्बे पर जा कर चिपक गयी. उसने देखा परछाई से चेहरे की एक और परछाई निकली और दूसरे खम्बे पर जा चिपकी. वे खम्बे हिल गए और ठीक रुके रहने की कोशिश  में धराशायी हो खड़े हो गए. अब उन पर उनके धराशायी होने के निशान भी खड़े थे. बेशरम परछाई फिर भी चिपकी रही और दूर किसी मटके का पानी बूँद–बूँद गिरने लगा.

हर तरफ कोहरा छाया था सब साफ़ दिखाई दे रहा था गिरे हुए डब्बे और हवेली की परछाई, गर्भवती के कहने में है. सीढ़ियाँ कहाँ खत्म होती हैं यह सामने था और उसकी परछाई से उतरन उतार ली गयी थी. घड़ी की परछाई और जमे हुए पत्थरों का दुःख पिघले लोहे की तरह जार में जमा हो रहा था. कटी खिड़कियाँ और डाकघर की आधी सील उसके मन को सांत्वना नहीं दे सके. उसका मन भरे भी क्यों? आखिरकार उसके स्तन चिड़िया ले जा चुकी है. इसी घनघोर अँधेरे में उसने केरम रखा हुआ देखा है और गोटें नहीं हैं, वे कीड़े–सी उन पर फिसल गयी हैं उस बुझी हुई चिमनी के प्रकाश में उसे दीख रहा है. आधा काला चाँद जो सर पर चमक रहा था.

पास ही रखे ईज़ल पर कुछ नहीं रखा था. नंगा ईज़ल पीछे टिकी सारंगीनुमा से शरमाया हुआ सामने बिखरे डब्बों से मुखातिब था. हवा में अजवाइन की महक फैल रही थी. उसे शर्म आयी बिना भारी भरे स्तनों के वो कैसे इस जहाँ से उठ सकती है भले ही मीर तकी मीर की यह ग़ज़ल सुनाई दे रही हो ‘देख तो दिल से जां से उठता है.’
उसने  दुःख या शंख पर कुछ लिखा नहीं है और काला चाँद भी बेवज़ह बेशरम बेमुरव्वत निकला.

वह भर आयी और उसे लगा यहाँ आये काफी समय हो गया है अब तक महक उसके नथुनों में भर चुकी थी और ठीक इस वक्त टिकटिक शुरू हो गयी. घड़ी से कम और घड़ी की परछाई से ज़्यादा टिक–टिक सुनाई दे रही थी. उसने उम्मीद से दुनिया को याने अपनी परछाइयों को देखा कि क्या वे भी इस टिक–टिक से परेशा हैं? उसे अजीब लगा जब उसने देखा वे निश्चिन्त हो खेल खा रही थी और लगातार बड़ी हो रही थी. उसने उस आदमी की परछाई को देखा वह झूला झूल रही थी. उसे शक हुआ ये परछाइयाँ बहरी हैं. इन्हें टिक–टिक नहीं सुनाई देती है. प्राचीन नदी का पानी बगैर कुछ कहे बह रहा था. खून भी. कालापन भी. पत्तियां बेआवाज़ गिरी जा रही हैं शांत सूरज बिलावजह जला जा रहा है.

उसे बर्वे की याद आयी. वह हड्डियों से भरी पहाड़ की नींव पर पहाड़ खड़ा कर देता था और उसकी परछाई में जान डाल सो जाता था. काश वो आज साथ होता और इन परछाइयों को सुन पाता कितना कुछ कह रही हैं किन्तु टिक–टिक नहीं सुन रही. उसकी नज़र अपने स्तनों पर गयी जो अब मछली बनते जा रहे थे, वे उसके पास नहीं थे, न ही अब चिड़िया की चोंच में, वे स्वतंत्र होकर मछली का रूप ले रहे थे. उसे अच्छा लगने लगा और कावड़ के चारों तरफ अब तक सूखी घड़ियों का ढेर लग चुका था कोई खाली थी कोई सिर्फ़ आकार धरे थी. खाली घड़ी के काँटे खोजें भी न मिले. मछली के काँटे मछली की तरह जम गए और इन्हें खेल–खेल में रोक दिया हो. दूर खिलौने का चौदइ इंची घोड़ा अपने पिछले पैरों पर खड़ा चिल्ला रहा था– ‘गुलाब के फूल के पत्ते अंडकोश से खिले हैं.’

पेंटिग : प्रभाकर बर्वे

ऊपर आसमान में बरसात का आवारा बादल भूरा हुआ जा रहा है. अब तक बोतल में लगी फनल से पानी भरा जा चुका है और स्वामीनाथन की चिड़िया अनन्त में उड़ान ले चुकी थी. उसने चैन की साँस ली ही थी कि टिक–टिक सुनाई दी. वह घबराकर मिट्टी के टीले खोदने लगी. वह छिप जाना चाहती है उन गहराइयों में जहाँ ये आवाज़ न पहुँचे उसकी उँगलियों किसी चीज़ से टकरायीं उसने आहिस्ता से उठा लिया. वो नहीं चाहती कि टकराई चीज़ से अपनी उँगलियों तुड़ा ले. उसके हाथ में हाथ का पंजा था जो अब सिर्फ़ हड्डियाँ भर था. वो अक्सर पुरानी सभ्यताओं की खोज में खुदाई से ताज़ी स्वस्थ हड्डियाँ निकाल लिया करती हैं. इतनी ताज़ी कि वे हाथ में लेते ही रेत सी बिखर जाती है और उनमें से आबशार बह निकलता है.

इस बार से वो ज़रूर हैरान हुई कि उसने तीनों शिलालेख ध्यान से पढ़े जिस पर कुछ नहीं लिखा था और अब उसे तसल्ली थी कि यह हाथ उसी का है. इस चित्र में विदेशी हाथ का होना ठीक नहीं था. चाहे वो पॉल क्ले का ही क्यों न हो? उसने अपना झोला चश्मा बेंच पर रखा और अपने आप खुल गयी उस किताब को उठा लिया जिसकी जिल्द भारी थी. अब उसे चिन्ता नहीं थी कि उसकी चिता ठीक से जल सकेगी. वह सुलगना चाहती थी और किताब का नाम था ठीक से कैसे जलें? वह पढ़ पाती उसके पहले टूटे हुए खम्बे पर रखा पुतला बोल उठा– ‘‘आकाश में एक बादल उसका काला ले उड़ा है’’ वह घबरा गयी एक यही काला तो बचा था वह भी छिना जा रहा है? वो चीखी और उस बादल के लिए लपकी. बादल भी कम न था. उसने काला बदल लिया. वह भूरा हो उड चला.  चाँद काला हो मुस्कुराया कावड़ के पायें के किनारे काले हो गए ईज़ल के छेद काले या चिड़िया का सिर. छाया काली और काली भेड़ सेव काला और पुतले का काला लैम्प में तेल की जगह भर गया उसी वक्त मटके का काला पहाड़ पास ही बह रही प्राचीन नदी में खून की तरह बहने लगा. घड़ी की टिक–टिक शाश्वत रही, वह धीरे–धीरे उसकी लय में मदहोश होने लगी.

अखिलेश 

हवा जैतून के तेल की महक फैलाने लगी. प्रभाकर बर्वे की याद फ़िज़ा में तैर गयी.

_______________


अखिलेश 

भोपाल में रहते हैं. इंदौर के ललित कला सस्थान से डिग्री हासिल करने के बाद दस साल तक लगातार काले रंग में अमूर्त शैली में काम करते रहे. भारतीय समकालीन चित्रकला में अपनी एक खास अवधारणा रूप अध्यात्म के कारण खासे चर्चित और विवादित. देश-विदेश में अब तक उनकी कई एकल और समूह प्रदर्शनियां हो चुकी हैं. कुछ युवा और वरिष्ठ चित्रकारों की समूह प्रदर्शनियां क्यूरेट कर चुके हैं.
प्रकाशन :  
एक संवाद
आपबीती ( रूसी चित्रकार शागाल की आत्मकथा का अनुवाद)
अचम्भे का रोना
मकबूल ( हुसैन की जीवनी) आदि
56akhilesh@gmail.com
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