विमल कुमार
राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान हिन्दी साहित्य की दुनिया में तीन तरह के लेखक हुए. पहली श्रेणी में वे लेखक हुए जिन्होने खुद सृजनात्मक साहित्य लिखकर अपनी रचनाओं में स्वतंत्रता के व्यापक अर्थों की मीमांसा की और मनुष्य की मुक्ति तथा सभ्यता विमर्श भी खडा किया. इनमे प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद, निराला, महादेवी वर्मा और हजारीप्रसाद दिवेदी जैसे लेखक हुए. इन सबका लेखकीय व्यक्तित्व अलग तो है ही. भाषा और शिल्प भी अलग है तथा वैचारिक भाव भूमि एवं रचनात्मक मनोदशा भी अलग फिर भी ये सब एक बड़े मानवीय मूल्यों के साथ एक दूसरे के के अभिन्न अंग भी हैं.
दूसरी श्रेणी के वे लेखक हुए जिन्होंने साहित्य सृजन तो किया ही, राजनीतिक सामाजिक आंदोलनों में खुल कर भाग लिया और आज़ादी की लड़ाई में भी हिस्सा लिया और वे जेल भी गये. इनमे माखनलाल चतुर्वेदी, गणेशशंकर विद्यार्थी, राहुल सांकृत्यायन, बालकृष्ण शर्मा “नवीन”, रामबृक्ष बेनीपुरी, सुभद्रा कुमारी चौहान जैसी लेखक लेखिकाएं शामिल हैं जो जेल गयीं.
तीसरे वे लेखक थे जो न तो जेल गये न ही उन्होंने प्रेमचंद, प्रसाद, निराला की तरह कोई बहुत बड़ी कृति लिखी लेकिन हिन्दी भाषा, साहित्य एवं समाज के निर्माण में ऐतिहासिक भूमिका निभायी और कई महती संस्थाओं को खड़ा किया, नई पीढी का निर्माण किया तथा साहित्य के वांग्मय को समृद्ध किया. इनमे महावीरप्रसाद द्विवेदी, श्यामसुन्दर दास, रायकृष्ण दास, रामचन्द्र वर्मा, वासुदेवशरण अग्रवाल, भगवतशरण उपाध्याय, बनारसीदास चतुर्वेदी, शिवपूजन सहाय, किशोरीदास वाजपेयी, जैसे अनेक लोग थे.
पहली श्रेणी के लेखकों की चर्चा साहित्य जगत और अकेडमिक जगत में अधिक हुई. एक श्रेणी उन लेखकों की है जिन्होंने राष्ट्रवादी साहित्य का निर्माण किया और राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी जिनमे मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, सोहनलाल दिवेदी जैसे लेखक भी थे. हिन्दी शिक्षा जगत एवं साहित्य जगत में पहली श्रेणी के लेखकों की चर्चा अधिक हुई. उन पर शोध कार्य हुए, उनपर किताबें अधिक लिखी गईं उन पर अधिक सेमीनार गोष्ठियां हुई, वे पाठ्यक्रमों में अधिक रहे जिसका नतीजा यह हुआ कि नई पीढी उन्हें जानती रही. उनको उसने अपना पथ प्रदर्शक बनाया लेकिन. दूसरी श्रेणी के लेखकों का समुचित मूल्यांकन नही हुआ. उनके अवदान की चर्चा कम हुई वे पाठ्यक्रमों में कम शामिल किये गये.
तीसरी श्रेणी के लेखकों को तो और भी कम तवज्जोह दी गयी, उनमे से कई का तो अभी मूल्यांकन ही नही हुआ. उनमे से कुछ की छवि दक्षिणपंथी बनाई गयी और उन्हें हिंदुत्व का पैरोकार भी बना दिया गया.
जिस तरह रामविलास शर्मा ने १९४१ में ही प्रेमचंद पर किताब लिखी और निराला की साहित्य साधना लिखी या अमृत राय ने कलम का सिपाही जैसी जीवनी प्रेमचन्द की लिखी वैसी कोई किताब दूसरी श्रेणी के लेखकों पर आज तक नही लिखी गयी जिससे बाद की पीढी को उनके बारे में सही जानकारी नही मिली और वास्तविक योगदान का पता नही रहा. जो माखनलाल चतुर्वेदी आजादी की लड़ाई में बारह बार जेल गये, जिनके घर पर ६३ बार पुलिस की तलाशी हुई, जिनके गाँव महात्मा गाँधी गये यह देखने के लिए कि आखिर किस तरह की मिट्टी ने माखनलाल जी को पैदा किया जो हिन्दी के श्रेष्ठ वक्ताओं में से एक माने गये. उन पर आज तक एक अच्छी जीवनी नही, यहाँ तक की विद्यर्थी जी की कोई अच्छी जीवनी नही है.
जिस बेनीपुरी ने जयप्रकाश, मार्क्स और रोजा ल्क्जमवर्ग की जीवनी लिखी उनकी भी आज तक जीवनी नही. अगर उनकी रचनावली न छपी होती तो उनके विशाल योगदान के बारे में लोगों को नही पता चलता. रामविलास शर्मा ने उसे पढने के बाद लिखा कि हिन्दी पट्टी में जिन तीन लेखकों ने युवकों में क्रांतिकारी चेतना फैलाई उनमे विद्यार्थी जी और माखनलाल जी के बाद बेनीपुरी ही थे. लेकिन शिवदान सिंह चौहान से लेकर चन्द्रबली सिंह, शिवकुमार मिश्र नामवर सिंह तक किसी वामपंथी आलोचकों ने दूसरी श्रेणी के लेखकों के योगदान पर कलम नही चलाई. उनका मूल्यांकन नहीं किया.
राहुल जी की चर्चा भी उनकी जन्मशती के बाद शुरू हुई. वे इस से पहले एक यायावर और यात्रा संस्मरणकार के रूप में ही जाने जाते रहे. लेकिन उनका जितना विशद योगदान है उसे देखते हुए उन पर अभी अधिक शोध कार्यों की जरुरत है.
सुभद्रा कुमारी चौहान को अब तक “झांसी की रानी” कविता के लिए ही जाना जाता रहा लेकिन उन्होंने अन्य विधाओं में लिखा इसकी चर्चा कम हुई तथा एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उनकी भूमिका की चर्चा भी बहुत कम हुई. अब जाकर रूपा गुप्ता ने सुभद्रा जी की रचनाओं के खंड निकाले तो उनकी तरफ ध्यान गया पर लेकिन एक अच्छी जीवनी या मूल्यांकन परक किताब आज तक सुभद्रा जी पर नही है.
उनकी पुत्री एवं अमृत राय की लेखिका पत्नी सुधा चौहान ने एक विनिबंध उन पर जरुर लिखा और साहित्य अकेडमी ने उसे प्रकाशित किया अन्यथा उनका पर्याप्त मूल्यांकन होना अभी बाकी है. उनका जीवन कम रोमांचकारी और संघर्ष पूर्ण नही. निराला के संघर्ष की बहुत चर्चा हुई लेकिन सुभद्रा जी ने अपना लेखन भी जारी रखा, जेल की यात्रायें की और परिवार भी संभाला. यह कम बड़ी बात नही लेकिन हिन्दी समाज ने उनकी चर्चा कम हुई.
तीसरी श्रेणी के लेखकों की तो एक तरह से उपेक्षा हुई या उनके कार्यों पर कम ध्यान गया. उन पर कम ही सेमिनार गोष्ठियां हुईं और पाठ्यक्रमों में कम स्थान दिया गया. उनपर किताबें बहुत कम निकली. आलम यह है कि अगर भारत यायावर नही होते तो महावीरप्रसाद दिवेदी की रचनावली नही निकलती जबकि उनसे पहले रामकुमार भ्रमर तक की रचनावलियां निकाल गईं. उनकी १५० वीं जयन्ती चुपचाप निकल गयी पर हिन्दी समाज सोया रहा. जिस दिवेदी जी ने हिन्दी को खड़ा किया बीस साल तक दौलत पुर में रहते हुए ‘सरस्वती’ निकाली उसका हाल यह है. तब दौलत पुर में बिजली, टेलीफोन की सुविधा नही थी लेकिन दिवेदी जी हिन्दी की सेवा के लिए रेलवे की सरकारी नौकरी छोड़कर सरस्वती के संपादक बने थे.
मैथिलीशरण गुप्त, प्रेमचंद, पन्त, निराला, प्रसाद को प्रकाशित कर उन्हें स्थापित किया. उनकी भी आज तक जीवनी नही और न कोई अच्छी मूल्यांकन परक किताब. रज़ा फाउंडेशन को पहले उनकी जीवनी निकालनी चाहिए थी उस जीवनी से पाठक साहित्य के इतिहास से परिचित होते. कमोबेश यही हाल शिवपूजन सहाय का रहा. जिस शिवपूजन बाबू ने अनेक लोगों पर अभिनंदन ग्रन्थ निकाले. अनेक लेखकों की कृतियों का सम्पादन किया, उनके संचयन निकाले उस शिवपूजन बाबू पर अब जाकर साहित्य अकेडमी ने संचयन निकाला जबकि राहुल जी पर एक संचयन तक नही निकला जबकि उनके दो शिष्य नागार्जुन और विद्यानिवास मिश्र पर संचयन बहुत पहले निकल चुके थे. हिन्दी में उन पर एक मोनोग्राफ तक नही है, फिल्म की बात तो छोड ही दीजिये, जबकि साहित्य अकेडमी ने धर्मवीर भारती पर फिल्म बनाई. नामवर सिंह और केदार जी ने अपने शिष्य से एन.सी.आर.टी. से अपने ऊपर फिल्म तक बनवाये लेकिन राहुल जी पर नही बनवाया.
किशोरीदास वाजपेयी को स्वाभीमानी होने का खामियाजा अपने जीवन काल में ही नही बाद में भी भुगतना पडा. हिन्दी भाषा में शब्दानुशासन जैसी किताब लिखने वाले इस अक्खड़ लेखक पर एक डाक टिकट तक नही निकल पाया जबकि अटल विहारी वाजपेयी तक ने इसकी मांग की. हमारे लेखक संगठनों ने भी इन लेखकों की याद में कोई ठोस कार्यक्रम नहीं किये. प्रगतिशील लेखक संघ ने राहुल जी की १२५ वीं जयंती मनाई लेकिन शिवपूजन सहाय की नही. वाम लेखक संगठनों के लिए ये हिन्दी सेवी अछूत लेखक हो गये. उनकी नज़र में राष्ट्रवादी लेखक हिंदुत्ववादी हैं. यहाँ तक कि प्रसाद भी दक्षिण पंथ के खाते में चले गये, उनके लिए बस प्रेमचंद, निराला और मुक्तिबोध ही प्रतीक पुरुष हैं. इसलिए वे भीष्म साहनी का उनकी जन्म शती के तीन साल बाद भी जन्मशती मनाएंगे पर अमृत लाल नगर का नही. उनके लिए यशपाल पूजनीय हैं लेकिन भगवती चरण वर्मा और इला चन्द्र जोशी अछूत लेखक हैं.
इस तरह वाम आलोचकों और संगठनों ने जनवाद के नाम पर साहित्य की संकीर्ण परिभाषा बनायी, रचना का सरलीकरण किया. उसने कुजात लेखक बनाये और हमारी विशाल प्रगतिशील परम्परा को छोटा बनाया. आज इस परम्परा को मजबूत बनाने की जरुरत है लेकिन इस संकीर्ण नजरिये के कारण हिंदुत्ववादियों ने हमारे लेखकों को भी अपनी और खींच कर अपना प्रतीक पुरुष बनाया. हाल ही में संघ से जुड़े लेखकों पत्रकारों ने शिवपूजन सहाय की पुस्तकों का लोकार्पण आयोजित करवाया जबकि वाम संगठन जन्म शती वर्ष में भी एक आयोजन नही कर सके.
दिनकर, मैथिलीशरण गुप्त को भी इन दक्षिणपंथियों ने अपना प्रतीक बनाया जबकि वाम प्रगतिशील आलोचना इन पर संदेह करती रही. प्रधानमंत्री मोदी ने कुछ वर्ष पूर्व विज्ञान भवन मे दिनकर पर एक कार्यक्रम को संबोधित किया और मन की बात में प्रेमचन्द का जिक्र किया. इस तरह वे प्रेमचन्द को भी अपने पाले में खींचने में लगे हैं. इससे सतर्क रहने की जरुरत है. लेकिन यह तब ही होगा जब हम अपनी प्रगतिशील परम्परा को समझें उसकी लोकतान्त्रिक व्याख्या करें और सरलीकरण न करें.
आज मैथिलीशरण गुप्त,
दिनकर,
बालकृष्ण शर्मा नवीन, सियारामशरण गुप्त जैसे अनेक लेखको को गैर वामपंथी मानकर वामपंथी संगठनों ने उन्हें आलोचना से दूर ठेल दिया है, आखिर उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में महात्मा गांधी से कंधा से कंधा मिलाकर लड़ा था तो क्या उनके भीतर गांधी के मूल्य और आदर्श नही थे और अगर थे तो वे किस तरह जनतंत्र विरोधी या प्रगतिशीलता के विरोधी हो गए. ये लेखक जेल गये, वहाँ उन्होंने साहित्यिक कृतियों की रचनाएं की,
हिंदी की सेवा कर राष्ट्र की सेवा की.
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