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समालोचन

Home » विष्णु खरे: प्रत्यूषा बनर्जी

विष्णु खरे: प्रत्यूषा बनर्जी

प्रत्यूषा बनर्जी की ‘आत्महत्या/हत्या’ ने चमक दमक से भरे सिने संसार के अँधेरे को फिर से बेपर्दा कर दिया है. इस अँधेरे में तमाम तरह की सामाजिक – आर्थिक संस्थाएं अपने नग्न और क्रूर रूप में हमारे सामने आ खड़ी हुई हैं. विष्णु खरे जब इस तरह की किसी मानवीय क्राइसिस पर लिखते हैं तब […]

by arun dev
April 24, 2016
in फ़िल्म
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प्रत्यूषा बनर्जी की ‘आत्महत्या/हत्या’ ने चमक दमक से भरे सिने संसार के अँधेरे को फिर से बेपर्दा कर दिया है. इस अँधेरे में तमाम तरह की सामाजिक – आर्थिक संस्थाएं अपने नग्न और क्रूर रूप में हमारे सामने आ खड़ी हुई हैं.
विष्णु खरे जब इस तरह की किसी मानवीय क्राइसिस पर लिखते हैं तब अजब एक काव्यात्मक ट्रेजिडी लिए हुए उसका विस्तार संस्कृति तक चला जाता है, वह मनुष्यता और मानवीयता के पक्ष में एक जिंदा बयाँ बन जाता है.
आप पढिये.     
चरम सफलता का ऐसा ग़ैर-आनंदी अंत                                    
विष्णु खरे 


अभी छः वर्ष पहले वह झारखण्ड के औद्योगिक नगर जमशेदपुर में सिर्फ एक सुसंस्कृत बंगाली परिवार की इकलौती मेये थी. किन्तु होनी को मंज़ूर यह था कि उसका चुनाव एक ऐसे टेलीविज़न सीरियल के शीर्षक रोल के लिए हो जाए जिस नाम पर बरसों पहले दो कमोबेश कामयाब फ़िल्में बन चुकी थीं – बाँग्ला में 1967 में और हिंदी में 1976 में. किन्तु नाम को छोड़कर फ़िल्मों और सीरियल ‘’बालिका ब(व)धू’’ में कोई समानता न थी. टेलीविज़न की सारी संस्कृति और नैतिकता पिछले 50-40 वर्षों में बदल चुकी थीं. धारावाहिक में यौनाकर्षण का सांकेतिक पुट उसे और उत्तेजक बनाता था. यह अकारण नहीं है कि हमारे टप्पों, दादरों, ठुमरियों, लोकगीतों और लोकप्रथाओं में अदालती जुर्म होते हुए भी बाल-विवाह तथा –सुहागरात अब भी पर्याप्त लोकप्रिय हैं.

प्रत्यूषा बनर्जी को सुंदर, भोली-भाली, उद्दीपक, अक्षतयोना आनंदी की भूमिका में जो ख्याति मिली वह बहुत कम छोटे और बड़े पर्दे की अभिनेत्रियों को नसीब होती है. हम यहाँ धारावाहिक ‘’बालिका वधू’’ की नैतिकता और कामोद्दीपन पर बहस नहीं कर रहे लेकिन प्रत्यूषा की ऐन्द्रिक उपस्थिति ने उसे लोकप्रिय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. वही उसका केंद्र थी. वह करोड़ों दर्शकों की चहेती बहू-बाला बन गई. मीडिया और विज्ञापनों  में उसे लाखों बार दिखाया गया, उसके बारे में असंख्य शब्द लिखे गए. कोई भी दर-दिल-दिमाग़ उसके लिए बंद न था. वह करोड़ों किशोरियों और भावी वधुओं का आदर्श बन गई. वैसे प्रियंका चोपड़ा, सिमोन सिंह, ईषिता दत्ता और तनुश्री दत्ता भी जमशेदपुर से हैं.

भारत में जो आस्था-अनास्था, भक्ति-एवं-घृणा-भाव सिनेमा और टी वी के अभिनेता-अभिनेत्रियों को लेकर है वह संसार में अन्यत्र कहीं नहीं है. इसके जो मानसिक, मनोवैज्ञानिक, नैतिक, सामाजिक, पारिवारिक, सांस्कृतिक, धार्मिक. कलात्मक, राजनीतिक, बौद्धिक  परिणाम हो रहे हैं इसका अहसास और चिंता और इसे लेकर कोई समुचित कार्रवाई कहीं दृष्टिगोचर नहीं है.

जब तक प्रत्यूषा बनर्जी आनंदी मानी जाती रही तब तक समाज में उसका स्थान किसी कुमारी किशोरी देवी से कम न था. वह कुछ भी शर्मनाक़ या आपत्तिजनक कर ही नहीं सकती थी. हिन्दू समाज का फ़ॉर्मूला मानवीय-दैवीय-दानवीय का है. उसे मनुष्य को देवदूत और देवदूत को राक्षस बनाने में न केवल देर नहीं लगती बल्कि उसे शायद ऐसा करते रहने में एक बीमार-सा आनंद मिलता प्रतीत होता है. लेकिन प्रत्यूषा और उसकी नियति ने जो आनंदी के साथ किया, उससे हिन्दू समाज थर्रा गया. क्षिप्रा के पोखर में कितने ही पाखंडी साधुओं-अखाड़ों  के करोड़ों की लागत के कौआ-स्नान भारतीय समाज की आत्मा पर लगे ऐसे दाग़ों को धो नहीं सकते.


अचानक मालूम पड़ता है कि आनंदी के जीवन में कोई आनंद न था. शायद उसका पेशेवर जीवन उतार पर था या/और  उसकी निजी ज़िंदगी सर्वनाश के गर्त में जा रही थी. पुरुषों से उसके सम्बन्ध बने और बिगड़े. हम नहीं जानते कि वह कारण क्या थे कि उसे ‘’बालिका वधू’’ जैसा लम्बा, अच्छे मुआवज़े वाला काम क्यों नहीं मिला. लेकिन आप इस बीच अपनी सीरियल के बाहर की ‘लाइफ़-स्टाइल’ के शिकार हो चुके होते हैं. आपको खुद को अपने सुनहरे दिनों की तरह ‘मेन्टेन’ करना पड़ता है. अभी आप सिर्फ 24-25 बरस की हैं. आपके नित नए फ्रेंड बनते-बिछड़ते जाते हैं. हर शाम आप लेट-नाइट पार्टियों में अपने प्रेमियों द्वारा ले जाई जाती हैं. आपको ड्रग्स और भारी ड्रिंकिंग की आदत हो जाती है या डाल दी जाती है. आप ‘थर्ड पेज’ पर आने के लिए सब कुछ लुटाने के लिए तैयार रहती हैं. आपके क्रेडिट कार्ड पर लाखों ड्यू हो जाते हैं जिनकी वसूली के लिए आपको गन्दी-से-गन्दी भाषा में घर आकर धमकियाँ दी जाती हैं. आपके प्रेमी आपके बैंक से लाखों रुपये खुर्दबुर्द कर देते हैं. वह आपके माँ-बाप को आपके घर से निकलवा देते हैं. यह भी मालूम पड़ता है कि आपके पिता ने जाने किसके हवाले से लाखों रुपया क़र्ज़ ले डाला है.

आपके जीवन का भयावहतम क्षण तब आता है जब आपको यह मालूम पड़ता है कि आप अपने उस नवीनतम प्रेमी के बच्चे की माँ बनने वाली हैं जो अभी आपको अपनी वधू नहीं बनाना चाहता. फिर आपको गर्भपात के लिए अस्पताल ले जाया जाता है. मालूम नहीं होता कि बाद में हमल डॉक्टर गिराती है या दवाओं के ज़रिए खुद आप और आपका प्रेमी. कहाँ ? यह खतरनाक कार्रवाई क़ानूनी है या ग़ैरक़ानूनी पता नहीं चलता. क्या वह आपकी पहली भ्रूणहत्या थी ? उसके कुछ दिन बाद आपके फ्लैट में एक पार्टी होती है जिसमें कहते हैं  कि आप ख़ूब शराब पी लेती हैं. आपको बेहोश छोड़कर जब आपका प्रेमी दवाएँ लेकर लौटता है तो बगल के घर से एक परिचित नौकर को आपकी खुली बालकनी से चढ़ाकर आपके बैडरूम में दाखिल करवाया जाता है क्योंकि फ्लैट का दरवाज़ा अन्दर से बंद होता है  जहाँ आपकी लाश सीलिंग-फैन से बंधी लटकी मिलती है और दरवाज़ा तोड़कर ही आपके प्रेमी को अन्दर आने दिया जाता है. सबसे पहली अफ़वाह तो यही फैलती है कि आपके इस प्रेमी ने ही आपकी हत्या की है. आपके माता-पिता भी कई पुरानी कहानियाँ सुनाते हुए इस इल्ज़ाम की ताईद करते हैं. अभी आपके बहुत सारे कागज़ात,फ़ोन-कॉल्स और ई-मेल वगैरह की जाँच बाक़ी है. लेकिन यदि गर्भपात अवैध है तो आप भी तो मुजरिम हैं न ?

कभी-कभी आरुषि तलवार हत्याकांड झलक जाता है. कल से अदालत में सुनवाई है और प्रत्यूषा ‘’आनंदी’’ बनर्जी ने ख़ुदकुशी की है या उसका क़त्ल हुआ है यह जानने में वक़्त लगेगा. लेकिन यह ‘कॉन्सपिरेसी थ्योरी’ का युग है क्योंकि आज लोगों का विश्वास सरकार, पुलिस, डॉक्टरों और अदालतों से उठ चुका है. इसमें कोई शक़ नहीं कि कई सनसनीखेज़ तथ्य सामने आएँगे जिनसे दुर्भाग्यवश प्रत्यूषा की  चाही-अनचाही  चरित्र-हत्या हो सकती है. यह तीसरी हत्या होगी क्योंकि एक अबोध भ्रूण को मारा जा चुका है और यदि प्रत्यूषा के जीवन में ऐसे हालात पैदा कर दिए गए थे कि उसे आत्महत्या के अलावा कोई मुक्ति दिखाई न दी तो वह भी हत्या ही कही जाएगी. मृत्यु के समय आनंदी न तो बालिका थी न वधू, वह बहू और माँ दोनों बनना चाहती थी. उसने अपने त्रासद जीवन में ऐसी स्थितियां निर्मित कर दीं कि वह कुछ न बन सकी – प्रत्यूषा बनर्जी भी नहीं.

आज से ढाई सौ वर्ष पहले,जब इंग्लैंड में भी यौन-संबंधों को लेकर वह लोक-लाज-कुल-की- मर्यादा-नियंत्रित नैतिकता थी जो आज भारत में हैं, सुविख्यात कवि ऑलिवर गोल्डस्मिथ ने यह अमर आठ पंक्तियाँ लिखी थीं (बाद में जिनका अद्भुत आधुनिक संशोधन टी एस एलियट ने ‘’दि वेस्ट लैंड’’ में किया है) :

When lovely woman stoops to folly
And finds too late that men betray,
What charm can soothe her melancholy,
What art can wash her guilt away ?
The only art her guilt to cover
To hide her shame from every eye,
To give repentance to her lover,
And wring his bosom – is to die
(‘’जब सुन्दर स्त्री पतित हो जाती है अपनी नादानी से
और देर बाद पाती है कि देते हैं दगा पुरुष
तब कौन सा मंतर-गंडा उसकी मायूसी को मरहम दे,
कौन-सी कला धो पाए उसके पाप का कलुष ?
अपना गुनाह ढँकने का है बस एक हुनर –
अपनी रुसवाई को हर निगाह से छिपाना
अपने प्रेमी को पशेमानी देकर
उसका मन मसोस डालना – खुद मर जाना’’.)

भारत में आज भी प्रति वर्ष सैकड़ों बालिकाएँ-वधुएँ यही करती हैं. जमशेदपुर की आनंदी को इसके लिए मुंबई की इस हत्यारी विश्वासघाती अँधेरी दुनिया में आकर खुद मर जाना पड़ा.
______________________

(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल)

विष्णु खरे 
vishnukhare@gmail.com / 9833256060
Tags: प्रत्यूषा बनर्जी
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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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