• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » विष्णु खरे : साहित्य अकादेमी का क्रांतिकारी संकल्प

विष्णु खरे : साहित्य अकादेमी का क्रांतिकारी संकल्प

२३/१०/२०१५ को साहित्य अकादेमी के कार्यकारी मंडल ने लेखकों – कलाकारों के विरोध प्रदर्शन के बीच अपना प्रस्ताव पारित किया. वरिष्ठ लेखक–आलोचक विष्णु खरे इस प्रस्ताव को अकादमी के इतिहास में ‘अभूतपूर्व’ बता रहे हैं और इसे लेखकों की ‘ऐतिहासिक उपलब्धि’ मान रहे हैं. यह आलेख खास समालोचन के लिए.  साहित्य अकादेमी का क्रांतिकारी संकल्प  […]

by arun dev
October 25, 2015
in आलेख, साहित्य
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें
२३/१०/२०१५ को साहित्य अकादेमी के कार्यकारी मंडल ने लेखकों – कलाकारों के विरोध प्रदर्शन के बीच अपना प्रस्ताव पारित किया. वरिष्ठ लेखक–आलोचक विष्णु खरे इस प्रस्ताव को अकादमी के इतिहास में ‘अभूतपूर्व’ बता रहे हैं और इसे लेखकों की ‘ऐतिहासिक उपलब्धि’ मान रहे हैं. यह आलेख खास समालोचन के लिए. 

साहित्य अकादेमी का क्रांतिकारी संकल्प                   

विष्णु खरे 

 

 

कहावत है कि शैतान को भी उसका देय चुकाया जाना चाहिए. यहाँ हमें दो शैतानों – एक व्यक्ति और एक संस्थान – को उनका भुगतान करना होगा. एक ज़माना था जब मैं उदय प्रकाश में महती संभावनाएँ देखता था. उनके पहले विदेशी,जर्मन,अनुवाद के लिए मुझे दोष दिया जा सकता है. उनकी प्रारंभिक रचनाएँ मैं अब भी प्रशंसा और अचम्भे से पढ़ता हूँ. हिंदी साहित्य में सभी जानते हैं कि फिर वह किस तरह अपनी ही जटिल मानसिकता,विडम्बनाओं और शहीदाना,लोकप्रिय,सफल तरकीबों के शिकार होते चले गए. इधर जिस तरह से सबसे पहले उन्होंने अपना साहित्य अकादेमी पुरस्कार ’’लौटाया’’ उसे भारतीय लेखन की सबसे बड़ी,लगभग विश्वस्तरीय, ‘कॉन्फ़िडेंस ट्रिक’ कहा जा सकता है. लेकिन उसके आश्चर्यजनक,कल्पनातीत राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय परिणाम हुए. कुछ भयातुर, शर्माहुज़ूर लेखकों का ज़मीर, देर से ही सही, लेकिन जागा. जिस भेड़चाल से लेखक-लेमिन्गों ने जौहर करने की शैली में ख़ुदरा अकादमियों के विभिन्न पद-पुरस्कार ‘’वापिस’’ किए उस पर एक उम्दा कॉमिक फिल्म बन सकती है. उदय प्रकाश हामेल्न के चितकबरे जर्मन पुंगीबाज़ की तरह हँसते हुए नए ईनामों के हाइवे पर हैं.

 
यदि हम साहित्य अकादेमी जैसे संस्थान को दूसरा शैतान मानें तो (डॉ नरेन्द्र दाभोलकर, कॉमरेड गोविन्द पानसरे और विशेषतः) उसके पुरस्कार-विजेता प्रो. एम.एम.कलबुर्गी की हत्या(ओं) पर उसकी कथित अकर्मण्यता, लापरवाही और उदासीनता को लेकर मीडिया में जो मुख्यतः सनसनी, चटख़ारों और खलसुख के लिए व्यापक विवाद उठाया गया उससे समाज की सांस्कृतिक मलाईदार परत में उसकी क्षयिष्णु प्रतिष्ठा और छवि को सीधा फ़ौरी नुक़सान ज़रूर हुआ लेकिन अप्रत्याशित सहजात लाभ (कोलैटरल बैनिफ़िट्स) भी मिले.
 
साहित्य अकादेमी के तत्कालीन, अब दिवंगत, उप-सचिवद्वय (डॉ) प्रभाकर माचवे और (डॉ) भारत भूषण अग्रवाल का अत्यंत कनिष्ठ कृपापात्र-मित्र होने के कारण, जो ‘’तार सप्तक’’ के सुपरिचित कवि और बहुविध लेखक भी थे, मैं इस संस्था को 1965 से जानता हूँ जब उसके संस्थापक-सचिव, रवीन्द्रनाथ ठाकुर के सगे दामाद और गाँधी-गुरुदेव के प्रतिष्ठित जीवनीकार, मंद्र-रोबीली अंग्रेज़ीदाँ शराफ़त के धनी कृष्ण कृपालाणीरिटायर होनेवाले थे. कुछ ऐसे विचित्र संयोग रहे कि उसके ग्यारह वर्ष बाद अकादेमी में तो स्वयं मेरी नियुक्ति, जिसका एक अवांतर किस्सा है, भारत भूषण अग्रवाल की त्रासद असामयिक मृत्यु के बाद उन्हीं के रिक्त पद ‘उप-सचिव (कार्यक्रम)’ पर हुई और अकादेमी की कार्य-प्रणाली को सहभागी के रूप में जानने का दुर्लभ अवसर मिला. यह मात्र एक तथ्य है कि उन दिनों यह अकादेमी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और संवेदनशील  ओहदा होता था क्योंकि पुरस्कारों तथा प्रकाशनों सहित सैकड़ों  साहित्यिक कार्यक्रम उसी के ज़िम्मे होते थे. सारी रिपोर्टें उसे तैयार करनी होती थीं, देश-भर के सैकड़ों लेखकों और साहित्यिक संस्थाओं के सतत् संपर्क में रहना होता था, केन्द्रीय शिक्षा मन्त्रालय जाना पड़ता था, पार्लियामेंट्री कमेटियों का सामना करना पड़ता था  और सत्र के प्रश्नोत्तर-काल में कभी-भी संसद में तलब होने के लिए प्रकम्पित-प्रस्वेदित तैयारी रखनी होती थी. लेखक तब छत्तीस बरस का था. यह सिलसिला आठ वर्ष ही चल पाया.इसका भी एक अवांतर क़िस्सा है.
 
आज़ादी के आठ वर्षों के भीतर ही नेहरू-युग की निर्मिति होने के कारण अकादेमी को 1964 के बाद संयोगवश कभी-कभी गतिशीलता, आधुनिकता और समाजोन्मुखता के दौरे पड़ते रहे हैं वर्ना वह कुल मिलाकर संभ्रांत, कुलीन, बूर्ज्वा, अवसरोचित गिरोह-गुट-ग्रस्त, प्रयोग-नावीन्य-शत्रु, कलावादी ‘सवर्ण’  और मूलतः (विशेषतः युवा) लेखक विरोधी ही रही चली आती है. अपनी शुतुर्मुर्गियत में उसे भारत की चतुर्मुख चतुर्दिक् दुर्दशा नज़र नहीं आती. प्रगतिशीलता, प्रतिबद्धता, जनधर्मिता, सामाजिक-आर्थिक बराबरी, वास्तविक वैश्विक आधुनिकता के मूल्यों आदि से वह बिदकती है और उन्हें ‘’साहित्येतर’’, यहाँ तक कि ‘’भारतीय-परंपरा-विरोधी’’ भी कह सकती है. उसकी भाषा, शैली, कार्य-पद्धति, रुझान, चिंतन  और चिन्ताएँ दकियानूस, प्रतिक्रियावादी, कंज़र्वेटिव, पश्चमुखी, लिहाज़ा मृदु हिंदुत्व के प्रति सहानुभूति के  आरोप को न्यौतनेवाले हैं.
 
इसलिए मुझे उस प्रस्ताव ने चकित और अवाक् कर दिया जो अकादेमी के सर्वोच्च प्राधिकरण, उसके एग्जीक्यूटिव बोर्ड (कार्यकारिणी), ने कल 23 अक्टूबर को अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी तथा उपाध्यक्ष चंद्रशेखर कम्बार के नेतृत्व में दिल्ली के अपने मुख्यालय में  ‘’सर्वसम्मति से’’ पारित किया है. अकादेमी के इतिहास में उसकी शब्दावली अभूतपूर्व है. उसमें न केवल प्रो. एम.एम.कलबुर्गी तथा अन्य बुद्धिजीवियों की दुःखद हत्याओं पर गहरा शोक प्रकट किया गया है बल्कि देश में कहीं भी किसी भी लेखक पर किए गए किसी भी अत्याचार और क्रूरता की कठोरतम निंदा की गयी है. बहुत महत्वपूर्ण यह है कि अकादेमी ने इस सन्दर्भ में केंद्र और राज्य सरकारों से अविलम्ब कार्रवाई करने  तथा लेखकों को सुरक्षा देने की माँग की है. प्रस्ताव भारतीय संस्कृति के बहुलतावाद के संरक्षण और सभी सरकारों द्वारा शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व बनाए रखने की बात करता है. जाति, धर्म, क्षेत्र तथा विचारधाराओं के भेद मिटाकर एकता और समरसता बनाए रखने के संकल्प को भी उसमें रेखांकित किया गया है. प्रो कलबुर्गी की हत्या की निंदा को प्रस्ताव दुहराता है. पहले भी लेखकों की हत्या और उनपर हुए अत्याचारों पर वह अकादेमी के गहरे दुःख को मुखरित करता है. किन्तु प्रस्ताव का शायद सबसे मार्मिक अंश वह है जिसमें विभिन्न जीवन-क्षेत्रों में कार्यरत सामान्य नागरिकों पर की जा रही हिंसा की, जिसे खुद लेखक अपने आन्दोलन में भूल चुके थे, साहित्य अकादेमी कठोरतम भर्त्सना करती है.

 

भारत जैसे देश में ऐसा कोई भी वक्तव्य सम्पूर्ण और रंध्रमुक्त नहीं हो सकता. सर्वसंशयवादी लेखक-बुद्धिजीवी इसे भी पाखंडी और धूर्ततापूर्ण कहकर खारिज़ कर देंगे. लेकिन बहुत याद करने पर भी मुझे स्मरण नहीं आता कि वामपंथी संगठनों को छोड़ कर स्वतंत्र भारत के इतिहास में किसी निजी, सरकारी या अर्ध-सरकारी संस्था ने इतना सुस्पष्ट, बेबाक़, प्रतिबद्ध, रैडिकल और दुस्साहसी वक्तव्य कभी पारित और सार्वजनिक किया हो. अशोक वाजपेयी ने कुछ महीने पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक पत्र लिखकर माँग की थी कि साहित्य अकादेमी की कथित स्वायत्तता को अविलम्ब समाप्त कर दिया जाए लेकिन अकादेमी के इस प्रस्ताव ने सिद्ध कर दिया कि संकट-काल में ही सही, यदि हिम्मत और संकल्प हो तो एक स्वायत्त संस्था क्या सन्देश दे सकती है.

लेखकगण अपने डंड-कमंडल कंठी-माला वापिस लेते हैं या नहीं इसमें मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है. यही हास्यास्पद है कि मीडिया के तमाम ‘स्पिन’ और ‘हाइप’ के बावजूद लगभग छः सौ अकादेमी पुरस्कार विजेताओं के जीवित होते हुए भी दस प्रतिशत भी लेखकों ने उसे नहीं लौटाया है. यदि बिहार में भाजपा हारती है, जिसकी प्रबल संभावना है, तो 2019 में उसका मरकज़ी तम्बू उखड़ना तय है, लेकिन इस विवाद को जो तूल दिया जा रहा था उससे यह लगता था कि साहित्य अकादेमी और मंत्रियों  की बेवकूफ़ियों की सेंध से घुसकर मरजीवड़े लेखक दीपावली तक मोदी-शाह सरकार गिरा ही डालेंगे. मैं तो लेखकों की यही ऐतिहासिक उपलब्धि मानता हूँ कि वह अकादेमी से ऐसा युगांतरकारी प्रस्ताव पारित करवाने में सफल रहे.

 
लेकिन लेखकों के एक वर्ग ने अनैतिकता का परिचय देते हुए यह तथ्य छिपाए कि अकादेमी अध्यक्ष ने कन्नड़ के विख्यात लेखक, अकादेमी पुरस्कार विजेता और कर्नाटक-निवासी अपने उपाध्यक्ष चंद्रशेखर कम्बार से अनुरोध किया था कि वह कलबुर्गी-परिवार से मिलें तथा संवेदना प्रकट करें. कम्बार इस सिलसिले में मुख्यमंत्री से भी मिले. अकादेमी ने बंगलूरु में एक उपस्थिति-बहुल सार्वजनिक शोक-सभा भी की. अकादेमी की कुछ अन्य भाषाओँ में भी ऐसी स्मारक-सभाएँ हुईं, वक्तव्य जारी किए गए. इस सब को प्रचार-प्रसार क्यों नहीं मिला यह समझना कठिन है और सरल भी. अब अचानक यह आत्यंतिक माँगें हो रही हैं कि अकादेमी को भंग कर दिया जाए या विश्वनाथ प्रसाद तिवारी बर्ख़ास्त हों, लेकिन किन तानाशाही नियमों के तहत ? अकादेमी को शायद संसद ही निरस्त कर सकती है लेकिन तब भी सुप्रीम कोर्ट के दरवाज़े बंद नहीं होंगे.उधर केवल अकादेमी की जनरल काउंसिल ही अपने द्वारा चुने गए अध्यक्ष पर महाभियोग (इम्पीचमेंट) लगा सकती है. सब कुछ अपने बाप की खेती नहीं है.फिर यदि वर्तमान सरकार किसी तरह अकादेमी को निलंबित या नेस्तनाबूद कर देती है तो बाक़ी ऐसे सान्स्कृतिक एवं शोध  संस्थान भी नहीं बचेंगे और उनका हश्र नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय जैसा होगा जहाँ को करि तर्क बढावहिं शाखा जैसा हो जाएगा. यह बात बिलकुल जुदा है कि इन बकरों की अम्माएँ कब तक दुआ मनाएँगी. प्रतिबन्ध बीफ़ पर है,गोट-मीट पर नहीं.
 
लेखकों ने पिछले दिनों अकादेमी पर जो आरोप लगाए हैं और उसे लेकर जो माँगें की हैं उनके औचित्य-अनौचित्य या ‘मेरिट्स’ पर न जाते हुए यही कहा जा सकता है कि वह ‘अवसरवादिता’, बौद्धिक आलस्य, अज्ञान, अधकचरेपन, शौर्य-प्रदर्शन और उपरोक्त भेड़चाल से ओतप्रोत हैं. अधिकांश ‘प्रदर्शनकारी’ जुलूसी न तो लेखक हैं और न साहित्य में उनका कुछ दाँव पर लगा हुआ है. स्वयं लेखक साहित्य अकादेमी के समूचे कार्य-कलाप को न तो जानते-समझते हैं न उसकी सम्पूर्ण व्याख्या और समीक्षा कर सकते हैं. अक्सर उनका एकमात्र मसला अकादेमी पुरस्कार होते हैं और इस बासी कढ़ी में वार्षिक उबाल आते रहते हैं. जिस तरह ‘’योनि-मात्र रह गई नारि’’, उसी तरह अकादेमी सिर्फ़ पुरस्कारों तक सिकोड़ कर रख दी गई है. लेखकों की इस ईर्ष्यालु, लोलुप अंध-मूर्खता पर अकादेमी का हर सदस्य एकांत में ठठाकर हँसता है.
 
साहित्य अकादेमी जैसी संस्थाओं को, वह काँग्रेस-काल में हों या भाजपा के अच्छे दिनों में, कभी भी लेखकों की सख्त निगरानी से दूर नहीं रखा जा सकता. उसकी समस्याएँ शोक-प्रस्तावों और पुरस्कारों तथा अन्य पारितोषिकों से कहीं जटिल हैं. उसकी जनरल काउंसिल और कार्यकारिणी के ‘’चुनावों’’ की प्रक्रिया दूषित और ‘रिग्ड’ है.वी.के. गोकाक की अध्यक्षता और इंद्रनाथ चौधरी के सचिवत्व में ही अकादेमी का पतन शुरू हो गया था. गोपीचंद नारंग के ज़माने से तो उसमें नासूर से भी अधिक सड़न आ गई. इस अस्तबल को  साफ़ करने के लिए मुक्तिबोध के शब्दों में एक नहीं, कई मेहतर चाहिए. वह भारतीय लेखक हो नहीं सकते. उदय प्रकाश ने उसके पुरस्कार को बेवजह कुत्ते की हड्डी नहीं कहा था. हमें अभी अकादेमी के इस प्रस्ताव का स्वागत, भले ही मजबूरन, शायद एक नई, ग़नीमती शुरूआत के रूप में करना चाहिए.
______________
vishnukhare@gmail.com 
9833256060
Tags: विष्णु खरेसाहित्य अकादेमी
ShareTweetSend
Previous Post

वीरेन डंगवाल : विष्णु खरे

Next Post

ख़ोर्ख़े लुई बोर्खेज़ गोल खंडहर: अनुवाद: सुशांत सुप्रिय

Related Posts

विष्णु खरे की आत्मकहानी : प्रकाश मनु
आत्म

विष्णु खरे की आत्मकहानी : प्रकाश मनु

विष्णु खरे: एक दुर्निवार बेचैनी: प्रकाश मनु
आलेख

विष्णु खरे: एक दुर्निवार बेचैनी: प्रकाश मनु

विष्णु खरे: सिनेमा का खरा व्याख्याता:  सुदीप सोहनी
फ़िल्म

विष्णु खरे: सिनेमा का खरा व्याख्याता: सुदीप सोहनी

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक