विष्णु खरे एक दुर्निवार बेचैनी प्रकाश मनु |
विष्णु खरे की कविताओं के साथ यात्रा करते मुझे कोई सैंतालीस बरस हो गए. सन् 1975 में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय शोध करने पहुँचा था. तब पहली बार अपने अनन्य मित्र भाई ब्रजेश कृष्ण से लेकर उनकी कविताओं का छोटा सा संग्रह पढ़ा था, ‘विष्णु खरे की कविताएँ’. कोई सोलह पन्नों का. अशोक वाजपेयी ने उन दिनों ‘पहचान’ सीरीज में कुछ कवियों की बेहतरीन कविताएँ छापी थीं. छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ थीं वे, पर बेहद सुरुचिपूर्ण. इन्हीं में एक पुस्तिका विष्णु खरे की कविताओं की भी थी. और पता नहीं क्या हुआ, विष्णु खरे मुझ पर छा गए. उनकी कविताओं का मुझ पर नशा सा हो गया.
तब से उनकी कविताएँ खोज-खोजकर पढ़ने का सिलसिला शुरू हुआ. और यही सिलसिला एक बार विष्णु खरे के पास भी ले गया. ‘नवभारत टाइम्स’ के दफ्तर में उनसे पहली यादगार मुलाकात हुई और फिर मुलाकातों का ऐसा अनवरत सिलसिला चल निकला, कि उनके बिना अपनी जिंदगी की कल्पना करना मुझे मुश्किल लगता है. निरर्थक भी. विष्णु जी से न मिला होता तो मैं कैसा होता, ठीक-ठीक बता देना मेरे लिए मुश्किल है. उन्होंने मुझे बदला. भीतर से बाहर तक बदला, जैसे विष्णु खरे की कविताएँ हमें बदलती हैं. उन्हें पढ़ने के बाद हम ठीक-ठीक वही नहीं रह जाते, जो पहले थे.
बेशक विष्णु जी की कविताओं के साथ यात्रा कठिन है. बहुत कठिन. बल्कि कभी-कभी तो वह असंभव सी भी लगने लगती है. वे इतने बेचैन कवि हैं और इतने तेज, लहूलुहान कर देने वाले सवालों के आगे आपको लाकर खड़ा कर देते हैं, कि उनकी कविताएँ बाज दफा हमें भीतर से बेधती हुई नजर आती हैं. पर यही तो उनका दुर्वह आकर्षण भी है. एक मायने में, असाधारण. अद्वितीय भी. आप एक बार उनके आकर्षण पाश में बँधे तो कभी छूट नहीं पाते. यों एक बार आप उनके हुए तो हमेशा-हमेशा के लिए हो जाते हैं.
शायद कुछ-कुछ वही मेरे साथ भी हुआ था. सन् 1975 में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के टैगोर हॉस्टल में. मैं ब्रजेश भाई के कमरे में बैठा था और ब्रजेश भाई ने विष्णु खरे के उसी संग्रह से उसकी ‘दोस्त’ कविता पढ़ी थी. एक पुलिस वाले के बारे में लिखी गई कविता. यों तो पुलिस के किसी आदमी पर लिखी गई कतनी कविताएँ हमारे यहाँ हैं? फिर वह तो अलग थी, एकदम अलग सी. इसलिए कि वह कविता पुलिस वाले पर नहीं थी. बल्कि उस पुलिस वाले के भीतर जो आदमी बैठा है, उस आदमी की कविता थी. उसे रोमांटिक गाने अच्छे लगते हैं. उसे दोस्तों के साथ गपशप अच्छी लगती है. और भी बहुत कुछ अच्छा लगता है, जो उस जैसे जवान लोगों की पसंद है-
एक नौजवान पुलिस सब-इंस्पेक्टर से दोस्ती करो.
तुम देखोगे कि यह कठिन नहीं है- अपने सिद्धांतों की रक्षा करते हुए भी
यह संभव है. तुम पाओगे कि तुम्हारी ही तरह
वह गेहुँआ और छरहरा है, उसे टोपी लगाना और वर्दी पहनना
पसंद नहीं है
और वह हॉस्टलों, पिकनिकों और बचपन के क़िस्से सुनाता है-
तुम्हें इसका भी पता चलेगा कि उसने सर्किल इंस्पेक्टर से कहकर
अपनी ड्यूटी वहाँ लगा ली है जहाँ लड़कियों के कॉलिज हैं
और हरचंद कोशिश करता है कि बुश्शर्ट पहनकर वहाँ जाए
और रोज़ संयोगवश बीच रास्ते में उसी स्पैशल को रुकवाकर बैठे
जिसमें नौजवान गर्म शरीर सुबह पढ़ने पहुँचते हैं. उससे हाथ मिलाने पर
तुम्हें उसकी क़रीब-क़रीब लड़कीनुमा कोमलता पर आश्चर्य होगा. जिला
सरहद पर
तैनात किए जाने से पहले एकाध बियर के बाद
जब वह अपनी किशोर आवाज़ में
दो आरजू में कट गए तो इंतज़ार में नुमा कोई चीज़ पढ़ेगा
तो तुम कहोगे-कुछ भी कहो, तुम इस लाइन में ग़लत फँस गए हो.
पर फिर समय के साथ-साथ वर्दी उस पर छा जाती है, वर्दी की अकड़ आ जाती है, जो बहुत कुछ दबाने लगती है और हमारे देखते ही देखते वह आदमी बदल जाता है. विष्णु जी की ‘दोस्त’ कविता उस पुलिस वाले के भीतर के आदमी को एकाएक वर्दी में बदलने के क्षण को इतनी खूबसूरती से पकड़ती है कि सुनते हुए, मैं लगभग अवाक ही रह गया था.
अलबत्ता, मेरी रुचि को देखते हुए ब्रजेश भाई ने ‘पहचान’ सीरीज की वे सभी पुस्तिकाएँ मुझे भेंट कर दीं. मेरे लिए वह अनमोल खजाना था. उनमें जितेंद्र कुमार थे, कमलेश थे, ज्ञानेंद्रपति थे. और भी कई कवि. पर उनमें विष्णु खरे भी तो थे. मैंने विष्णु जी को पढ़ा. बार-बार पढ़ा, और उनके साथ चल पड़ा.
और तभी से विष्णु जी की कविताओं को थाहने, समझने की कोशिश भी शायद चल पड़ी, जो आज तक भीतर चल रही है.
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यों विष्णु खरे हिंदी के दुर्जेय कवि हैं. अद्वितीय, और एक दुर्निवार बेचैनी के कवि, जिनके साथ यात्रा खासी असुविधाजनक हो सकती है. इसलिए भी कि विष्णु खरे सिर्फ कविता लिखते ही नहीं हैं, वे कविता के साथ-साथ बहुत कुछ तोड़ते और रचते हैं. कभी अनायास तो कभी सायास भी. और उनकी कविता कभी कविता होने की कोशिश नहीं करती. बल्कि जैसी वह है, कुछ खुरदरी, सख्त और दूर तक फैली-फैली सी-अपनी असाधारण रुक्षता के बावजूद वह कविता है-वही कविता है, इस धमक के साथ सामने आती है और देखते ही देखते एक पूरी आदमकद शख्सियत में हमारे सामने आ खड़ी होती है.
सच पूछिए तो विष्णु खरे की कविता केवल कविता नहीं. वह पूरी जिंदगी की जद्दोजहद, पूरी जिंदगी के महाभारत के बीच आपको ले जाती है, और आपसे कैफियत माँगती है, आप किन शर्तों पर जीते हैं और क्यों जीते हैं? आप कहाँ मरते-खपते, पिटते और लहूलुहान होते हैं? और नहीं होते तो आप क्यों हैं, कैसी जिंदगी आप जीते हैं और क्या उसे सचमुच जिंदगी कहा जा सकता है?
यों उनकी कविता हमारे भीतर एक जंग छेड़ देती है और हाथ पकड़कर कई कठिन मोरचों पर ले जाती है, जिसके लिए अगर हम तैयार न हों तो वह खाद-पानी देने काम भी करती है.
इसीलिए मुझे कई बार लगता है, विष्णु जी की लगभग सारी कविताएँ कविता को नेगेट करके ही कविता बनती हैं…या कि कविता बनना चाहती हैं. वे कविताई के ढंग पर चलकर कविता नहीं होना चाहतीं. बल्कि उनकी जिद है-बड़ी सख्त और अपूर्व जिद कि वे कविता के अभी तक बने-बनाए रास्ते के एकदम उलट चलकर ही खुद को कविता साबित करेंगी. आप अंदाजा लगा सकते हैं-यह कितनी कठिन और खतरनाक जिद है?
यह इतना खतरनाक है कि लगभग सारी उम्र उलटी धारा में तैरना है. यह कविता बनाते समय एकदम पसीना-पसीना होकर कविता बनाना है….या उम्र भर के लिए अर्जुन नहीं, कर्ण बनकर जीना है-और उम्र भर के लिए अर्जुन की-सी स्थिति नहीं, वरन् कर्ण की-सी अभिशप्त स्थितियाँ वरण करना है. इसमें कर्ण की-सी अभागी मृत्यु भी शामिल है…युद्ध के मैदान में जमीन के अंदर गड़ा पहिया निकालते समय मृत्यु! इतिहास की इतनी विकराल विडंबनाएँ बहुत कम लोगों को सहनी पड़ीं, जितनी कर्ण को, और युद्ध के मैदान में इतना विडंबनापूर्ण अंत बहुत कम लोगों का हुआ, जितना कर्ण का.
जाने क्यों, जब ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ तो विष्णु खरे और कर्ण…कर्ण और विष्णु खरे दोनों एकमेक हो गए हैं.
कर्ण माने…? मैं अपने आपसे पूछता हूँ. कर्ण माने जिद-एक भीषण और खतरनाक किस्म की जिद. कर्ण माने असाधारण चुनौती. कर्ण माने जिंदगी भर की उपेक्षा और अपमान. कर्ण माने जिंदगी भर मिसफिट रहने की दारुण पीड़ा. पर साथ ही कर्ण माने सवाल, सवाल और सवाल. बेहद असुविधाजनक और अंदर तक छीलते हुए सवाल.
विष्णु खरे की कविता भी ऐसे ही असाधारण सवाल उठाती है, जिन्हें कोई और नहीं उठाता. वह केवल वर्तमान को ही नहीं, इतिहास और जानी-मानी पुराकथाओं को भी प्रश्नांकित करती है और कुछ इस ढंग से कि उसे पढ़ते हुए हम कुछ अचकचा से जाते हैं. जिन्हें स्वयंसिद्ध और सर्व स्वीकार्य समझा जाता है, भला वहाँ भी सवाल?
जी, वहाँ भी सवाल. और विष्णु खरे की कविता जब यह करती है, तो उसे झेलना, सराहना कितना मुश्किल हो जाता है, इसे उनके पाठक अच्छे से जानते हैं.
इसे अगर नजदीक से महसूस करना हो तो महाभारत के कुछ खास प्रसंगों पर लिखी गई विष्णु जी की ‘सत्य’, ‘लापता’, ‘अज्ञातवास’, ‘अग्निरथोवाच’ और ‘द्रौपदी के विषय में कृष्ण’ सरीखी कविताएँ पढ़नी चाहिए, जिनमें कृष्ण और अर्जुन और युधिष्ठिर, द्रौपदी और विदुर और बहुत से और पात्र भी वही है, लेकिन बहुत कुछ नए-नए भी हैं और एकदम नए सवालों की रोशनी उनके चेहरों पर पड़ती है, तो बहुत कुछ एकाएक बदल जाता है.
लेकिन महाभारत और विष्णु खरे…?
जी हाँ, यह तो जानता हूँ-शुरू से ही जानता था कि महाभारत विष्णु खरे को इतना प्रिय है, लेकिन महाभारत में जाने क्यों मैं कर्ण के सिवा उन्हें कहीं और रखकर देख ही नहीं पाता. इतना बड़ा कौशल और इतना बड़ा अभिशाप, हमेशा नायक नहीं, अ-नायक रहने का या तो कर्ण को मिला था या फिर मौजूदा कवियों में विष्णु खरे को!…
ये पंक्तियाँ जब लिख रहा हूँ तो विष्णु खरे की कविताओं का मैदान और महाभारत का युद्ध का मैदान एकदम एक हो गए हैं. और अब मुझे सचमुच नजर आ रहा है कि महाभारत के मैदान में जमीन में गड़े पहिए को निकालते हुए विष्णु खरे पसीने-पसीने हो रहे हैं. एक हाथ से तमाम अस्त्रों और आक्रमणों का सामना करता, दूसरे हाथ से पहिए को जमीन से बाहर निकालता हुआ एक नितांत कातर महाबली- विष्णु खरे! उनमें मैं हमेशा एक नायक नहीं, अ-नायक ही देख पाता हूँ.
बात थोड़ी और साफ हो जाएगी, अगर आप विष्णु खरे की ‘कूकर’ कविता पढ़ें. और ‘कूकर’ कविता का कूकर कोई और नहीं, खुद विष्णु खरे हैं, मैं कहूँ तो आप बुरी तरह चौंकेंगे. मैं जानता हूँ यह बात. लेकिन विष्णु खरे खुद को कूकर क्यों कह रहे हैं और मैं उन्हें कर्ण क्यों कहता हूँ, दोनों सवालों के जवाब यह कविता पढ़कर ही मिलेंगे-
कभी-कभी सोचता हूँ क्या हमेशा झींकूँगा लड़ पाऊँगा इस तरह
कब तक बना रहूँगा संभ्रांत नज़रों में एक अवांछित कमीना या ख़तरनाक
विदूषक
कब तक ड्राइंग रूमों में मेरे घुसने पर लोग होते रहेंगे चुप और व्यस्त
कब तक मेरी आवाज़ सुनकर टेलीफ़ोन रखे जाते रहेंगे
सूचियों में मेरे नाम के आगे ग़लत या प्रश्न का निशान लगाया जाता रहेगासोचता हूँ कि क्या मैंने ठेका ले रखा है अपने दंभ की
आत्मकेंद्रीयता में
अपना जीवन सिर्फ़ अपनी शर्तों पर जीने का
जिसे मैं सही समझता हूँ मजमे में वही बात कह देने का
इस तरह से क्या बहुत बड़ा हासिल हो गया है मुझे अब तक
न पद न पैसा न यश न सुख
कुछ लोग यही पाने के लिए स्वाँग भरते हैं और आसानी से पा जाते हैं
यहाँ यह हाल है कि कोई शुभचिंतक मित्र भी पूरा अपना नहीं
मेरा ज़िक्र आने पर वे या तो चुप रहते हैं
या आधे दिल से बिहँसकर पैरवी करते हैं या बात बदलने का यत्ननहीं यह आत्मदया नहीं है और न पछतावा है
उद्दंडता या बेवकूफी या अहम्मन्यता इसे भले ही कह लिया जाए
मैं जैसा हूँ वैसा हूँ और वैसा ही पैदा हुआ होऊँगा
शरारत शुरू में ही कहीं हो चुकी थी मेरे साथ और अब लाचार हूँ
मैं जो कुछ करता रहा हूँ और करूँगा
उस पर सब कुछ सोचते हुए भी कोई वश मेरा नहीं हैजानते हुए कि अंत में यह सब अकारथ है और हास्यास्पद भी
और कविता की आखिरी पंक्तियों में सब ओर की दुर-दुर के बावजूद जब विष्णु खरे खुद को कबीर, निराला, मुक्तिबोध सरीखे बड़े कवियों की जूठन पर पला और उनके जूतों की निगरानी करने को अपनी जिंदगी का मकसद घोषित करते हैं, तो पता चल जाता है कि वे खुद को कूकर क्यों कह रहे हैं, वे और कवियों से इतने अलग क्यों हैं और मैं उन्हें महाभारत का कर्ण क्यों कहता हूँ!
और शायद इसीलिए विष्णु खरे की कविताओं से जो आपको मिलता है, उसे कविताई का आनंद नहीं कह सकते, यह अकविताई का आनंद है. यह कितना पीड़ामिश्रित, कितना उदात्त है…और कविता के सामान्य आनंद से कितना ऊपर उठा हुआ आनंद है, हम केवल उसका अनुमान भर लगा सकते हैं या उसके थोड़े आस-पास ही जा सकते हैं. उसे ठीक-ठीक पाना बहुत मुश्किल है, क्योंकि वह तो केवल विष्णु खरे के हिस्से की ही चीज है. यानी कि विष्णु खरे और उनकी कविताओं को सराहने के लिए भी आपको एक और विष्णु खरे होना पड़ता है.
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तो क्या इसी तर्ज पर विष्णु खरे की कविता को एंटी-पोएट्री कहें-यानी अकविता? मैं अपने आप से पूछता हूँ और अचकचा जाता हूँ.
अरे, यह तो सच में अजीब लगेगा. बड़ा ही अजीब. इसलिए कि हिंदी में अकविता के जो तमाम आंदोलन चले, उनसे विष्णु खरे की कविता एकदम अलग है. बल्कि कहें कि दूसरे छोर पर है. दूर-दूर तक उनसे विष्णु खरे का कोई रिश्ता नहीं बनता.
और वह जो अकविता का आंदोलन था, वह कुल मिलाकर था ही क्या? अकविता के नाम पर लगभग एक ही जैसी जो तमाम तनावहीन कविताएँ लिखी गईं, उनका बहुत-सा हिस्सा खासा सुविधाजनक था-यानी कविता में एक के बाद एक जुगुप्सा पैदा करने वाले सुरुचिभंजक दृश्य पिरो दो तो बन गई अकविता. तो अकविता का ज्यादातर हिस्सा ऊपर से चाहे जैसा भी असुविधाजनक लगे, पर वह कविता के खतरे उठाकर नहीं लिखा गया था. वह कविता का सरलीकरण था. एक राजकमल चौधरी को छोड़ दें तो अकविता में सचमुच खतरे उठाने वाले कितने थे, जबकि विष्णु खरे इस मानी में भी मुझे एंटी-पोएट या अकवि लगते हैं कि वे बड़ी से बड़ी सत्ता या राजनीतिक, सांप्रदायिक, फासिस्ट ताकतों के खिलाफ खतरनाक ढंग से कविताएँ लिखने वाले खतरनाक कवि हैं.
अकवि का अर्थ मेरी निगाह में यही है- यानी किसी पेड़ के तने सरीखा रूखा कवि. ऊबड़-खाबड़ कवि, जटिल कवि…अपने सौंदर्य-बोध के भीतर बहुत-सी अरूपताओं का आनंद लिए हुए बीहड़ कवि. बड़ी से बड़ी ताकतों को चुनौती देता हुआ शक्तिशाली और बेखौफ कवि. कुल मिलाकर रूखा, ऊबड़-खाबड़ और बीहड़ होते हुए भी बड़ा कवि, जिसकी कविताओं के शब्दों में और पंक्तियों के बीच कुछ-कुछ चट्टानी-सा कवि-व्यक्तित्व झाँक जाता है. तो यह होगा मेरी निगाहों में अकवि….मगर क्या वह प्रेम से, करुणा से, स्निग्धता से दूर होगा? सच तो यह है कि ऊपर से रूखा, ऊबड़-खाबड़, जटिल और बीहड़ होते हुए भी, अकवि के भीतर प्रेम और करुणा की जो तीव्रतर धारा बहती देखी जा सकती है, वह दर्जनों कवियाए हुए कवियों के भी बस की बात नहीं.
तो मुझे लगता है, अकविता की अगर सही और व्यापक परिभाषा की जाए तो हिंदी में विष्णु खरे और मुक्तिबोध दो ही ऐसे कवि हैं जो सचमुच अकवि कहलाने के हकदार हैं. असंख्य कविनुमा कवियों की मुलायम, कटी-तराशी कविताओं के बरक्स एक तरह की रुक्ष और चटियल कविता. ऊपर से बहुत सख्त, लेकिन भीतर से बहुत-बहुत आर्द्र और संवेदना से लबालब. विष्णु खरे हों या मुक्तिबोध, कुल मिलाकर दोनों की कविताओं की तासीर यही है.
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किसी ने मुक्तिबोध और विष्णु खरे की तुलना नहीं की, जबकि मुझे लगता है हिंदी में मुक्तिबोध के नजदीक कोई कवि है तो विष्णु खरे ही हैं.
एक तो दोनों की कविताएँ कविता के कटे-तराशे फ्रेम या आकारों को तोड़-फोड़कर अजस्र बहती लंबी कविताएँ हैं-बनाई हुई लंबी कविताएँ नहीं हैं, जैसी बाद में बहुत से नकलची कवियों ने लिखीं. बल्कि बहुत सहज स्फूर्त लंबी कविताएँ हैं. फिर दोनों की कविताएँ खासी गद्यात्मक या वर्णनात्मक होकर भी…गद्य के एकदम कठिन और अप्रयुक्त शब्दों का इस्तेमाल करते हुए भी, कविताएँ हैं-वे न सिर्फ अपना कविता होना साबित करती हैं बल्कि वे हमारे समय की सबसे ज्यादा प्रतिनिधि और शक्तिशाली कविताएँ भी हैं. यह चमत्कार कोई छोटा-मोटा चमत्कार नहीं है. मगर यह चमत्कार या तो हम मुक्तिबोध में देख पाते हैं या फिर विष्णु खरे में.
याद नहीं पड़ता, इतने लंबे, विस्तृत वर्णन और संदर्भ जैसे मुक्तिबोध या विष्णु खरे अपनी कविताओं में देते हैं, कोई और कवि दे पाया क्या? और एक विचित्र बात और कि मुक्तिबोध हों या विष्णु खरे, दोनों की कविताएँ अपने विषय में इतनी लीन हो जाती हैं कि कविता होने की भी परवाह नहीं करतीं. फिर भी वे हमारे समय की सबसे मूल्यवान कविताएँ हैं.
मुक्तिबोध और विष्णु खरे दोनों इस मानी में भी खतरे उठाने वाले कवि हैं कि वे अपने लिए कविता की ऐसी जमीन तोड़ते हैं जो हमारे लिए अभी तक अज्ञात थी. मुक्तिबोध की कविताओं से पहले हममें से कोई नहीं जानता था कि ‘अँधेरे में’ सरीखी रूखी, लंबी, अनगढ़ और महाकाव्यात्मक कविताएँ भी संभव हैं जिनमें हमारे समय और युग-सत्यों की इतनी विराट अभिव्यक्ति है. यही बात थोड़े भिन्न शब्दों में विष्णु खरे की रूखी, लंबी गद्यात्मक और घोर असुविधाजनक कविताओं के बारे में कही जा सकती है, जिनके बगैर हिंदी कविता का परिदृश्य पूरा नहीं होता, क्योंकि घोर गद्यात्मक होने के बावजूद, वे हमारे समय की सबसे तेज मार करने वाली, बेचैन कविताएँ हैं जिनमें युग-सत्यों की उपस्थिति ही नहीं, अपने समय का एक विराट महासमर भी देखा जा सकता है.
मुक्तिबोध सिर्फ एक कवि ही नहीं हैं. वे सही अर्थ में कवियों के कवि हैं. भला हमारे समय का कौन-सा कवि है जो रोशनी पाने के लिए उनके पास नहीं गया और जिसने उनसे कुछ न कुछ ग्रहण न किया हो! इसी तरह विष्णु खरे सिर्फ एक कवि नहीं, उनसे रोशनी लेने वाले या कहें कि रोशनी पाने की आकांक्षा में उनकी ओर एक बड़ी आस्था के साथ देखने वाले कवि, लेखक, समाजकर्मी बहुतेरे हैं. आश्चर्य, ‘काल और अवधि के दरमियान’ संग्रह में विष्णु खरे का यह लड़ाका रूप, जिसमें वे अन्यायी शक्तियों के खिलाफ एक बेचैन योद्धा की तरह मोर्चा ले रहे हैं-कहीं ज्यादा उभरकर आया है…और कभी-कभी तो मुझे भ्रम होता है कि कहीं मुक्तिबोध ही तो हमारे समय में आकर विष्णु खरे में नहीं बदल गए!
मुक्तिबोध और विष्णु खरे दोनों ही कवियों की एक खासियत यह है कि उनके यहाँ बीहड़ता या रुक्षता का सौंदर्य है. हालाँकि इस बीहड़ता या रुक्षता के भीतर बहुत गौर से देखें तो बहुत कोमलता भी छिपी नजर आ सकती है. मुक्तिबोध की कविताओं में प्रेम और सौंदर्य का बहुत खुला वर्णन नहीं है. लेकिन जहाँ-जहाँ भी वह आया है, भले ही सांकेतिक रूप में, दो-चार पंक्तियों में, तो उससे पूरी कविता मानो प्रकाशमान हो उठती है. मसलन याद करें, उनकी वह कविता जिसमें बहसों और वैचारिक लड़ाइयों में खोया कवि जब देर रात को घर लौटता है, तो दरवाजा खटखटाने पर भीतर से ‘आई…’ की आवाज सुनाई देती है और इसी से गृहस्थी के सौंदर्य का मानो एक आलोकित चित्र आँखों के खिंच जाता है. इसी तरह विष्णु खरे की कई कविताओं में पत्नी और गृहस्थी के सौंदर्य की अपूर्व छवियाँ हैं. ‘हमारी पत्नियाँ’ जैसी उनकी कविताएँ तो बेजोड़ हैं. ‘अनकहा’ शीर्षक से पत्नी के लिए लिखी गई कविता भी मुझे नहीं भूलती. हालाँकि यहाँ प्रेम और सुंदरता का बहुत खुला चित्रण नहीं है, पर संकेतों में…बल्कि कहना चाहिए कि कुछ लकीरों में ही एक बड़ी बात कह दी गई है.
आश्चर्य की बात यह है कि जो प्रेम और ऐंद्रिक अनुभवों में ही खोए रहने वाले कवि हैं, उनकी कविताओं में प्रेम बासी और पिटा हुआ लगता है, जबकि मुक्तिबोध या विष्णु खरे सरीखे रूखे समझे जाने वाले कवियों की कविताओं में जीवन-समर के बीच प्रेम और सुंदरता की ये जो सादा छवियाँ हैं, वे कभी नहीं भूलतीं और मन पर उनका कहीं ज्यादा गहरा असर पड़ता है.
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विष्णु खरे की प्रकृति को लेकर लिखी गई कविताओं पर कभी आपने गौर किया है? मुझे लगता है, विष्णु जी की कविताओं में जिस ढंग से प्रकृति आती है और वह जिस तरह से आत्मीयतापूर्वक हस्तक्षेप करती है, वैसा बहुत कम समकालीन कवियों के यहाँ हो पाता है.
हाँ, यह दीगर बात है कि विष्णु खरे का सौंदर्य-बोध दूसरे समकालीन कवियों से इस मानी में अलग है कि वहाँ तथाकथित सुंदर मान ली गई चीजों की सुंदरता ही नहीं है, बल्कि अपने तईं सुंदर को खोजने या ईजाद करने की बेचैनी भी है. यही वजह है कि उनके सौंदर्य-बोध की परिधि में दाखिल होकर गिद्ध, चमगादड़ और उल्लू भी कुरूप नहीं रह जाते. बल्कि वे एक भिन्न तरह की सुंदरता ओढ़ लेते हैं और फिर पेड़ों, वनस्पतियों, जंगलों, पहाड़ों, नदियों, झरनों तथा जंगली जीवों की सुंदरता का तो कहना ही क्या!
विष्णु जी की एक और बेजोड़ कविता ‘शाप’ में पेड़ों को जब काटा जाता है, तो वे मनुष्यों को शाप देते हैं. पेड़ पर बसेरा करने वाले पंछी पेड़ छोड़कर कोई दूसरा आसरा ढूँढ़ लेते हैं, मगर वे भी पेड़ छोड़कर कहीं और जाते वक्त मनुष्यों को शाप देते हैं. और फिर कभी सूखे और बाढ़ में आई आपदाओं से जो लोग असमय मरते हैं, उनकी मानो फटी हुई आँखें भी उन सभ्य मनुष्यों को शाप दे रही होती हैं जो विकास की अंधी दौड़ में जंगलों और वनस्पतियों को बर्बाद करते जा रहे हैं. विष्णु खरे की इस कविता में प्रकृति सीधे-सीधे भले ही न हो, लेकिन प्रकृति को लेकर जितनी तीखी तड़प उनकी इस कविता में दिखाई पड़ती है, वैसी इधर की कितनी कविताओं में नजर आती है?
समकालीन कविता की सबसे बड़ी दुर्घटनाओं में से एक यह भी है कि वह प्रकृति से बहुत दूर आ गई है. या तो अज्ञेय या कुछ अज्ञेयवादी कवियों में प्रकृति सिमट गई या फिर गीतकारों तक. पर अगर आप जरा गौर से देखें तो पाएंगे कि अज्ञेय के यहाँ भी सँभल-सँभलकर प्रकृति को छूने वाली नफासत है. ज्यादातर तो प्रकृति वहाँ एक सजावटी चीज है जिससे कवि का या फिर मध्यवर्गीय आदमी का रिश्ता दूर-दूर से देखने और लुब्ध होने का है.
इस लिहाज से विष्णु खरे की कविताओं में ज्यादा प्रकृति भले ही न हो, पर हमें नहीं भूलना चाहिए कि उनकी कविताओं के साथ प्रकृति फिर से लौटती है-हालाँकि शायद बड़े बेढब रूप में, जिसमें थोड़ी करुणा भी घुली-मिली है. और शायद एक किस्म का पछतावा भी कि आदमी ने प्रकृति के साथ क्या कर दिया है! विष्णु खरे की कविताओं में चिड़ियों की सुंदरता का छायावादी गायन तो नहीं है, लेकिन कभी उनकी आवाजों तो कभी उनकी स्मृतियों के ऐसे बिंब हैं जो मन में गहरे गड़ जाते हैं. उनके यहाँ ऐसे पक्षियों का वर्णन है जो अर्ध-रात्रि के सन्नाटे में या फिर सुबह-सुबह अपनी अजब-सी सुरीली बोली बोलकर आदमी के वहाँ पहुँचने से पहले ही उड़ जाते हैं और फिर कभी दिखाई नहीं देते. हाँ, उनकी वह सुनी गई अजब सुरीली आवाज स्मृतियों में लगातार पीछा करती है-
सुबह जब आँख ठीक से खुलती भी नहीं,
सिरहाने की छत पर एक ऐसे पक्षी की आवाज सुनता हूँ
जो अपरिचित है-पक्षी और आवाज दोनों
उसे देखने के लिए मुझे अपनी छत पर जाना होगा
किंतु ऐसे संकोची विरल परिंदों को
हमेशा मालूम पड़ जाता है कि कोई उन्हें देखने वाला है
इसलिए वे एक शरारती बच्चे जैसी किलकिलाहट
या बनावटी नाराजगी के साथ तुरंत उड़ जाते हैं-
आनंद निकेतन में भी बिल्कुल साफ आसमान में
अचानक कभी भी एक बडा पक्षी आता था
और पानी की टंकी के अहाते में लगे पेड़ों में से
सदा सिर्फ एक ही पर बैठता था
और उसकी भी सबसे ऊँची फुनगियों में छिपा रहता था
फिर तीन-चार बार अपनी विचित्र अनोखी बोली बोलकर
अगले बरस तक के लिए अदृश्य हो जाता था
क्या मैं कहूँ कि यह केवल सुरीली बोली बोलने वाले एक विरल किस्म के पक्षी का ब्योरा ही नहीं है, बल्कि यह असल में उसे प्यार करना है. और विष्णु खरे का प्यार करने का यही ढंग है कि जिसे तुम प्यार करते हो, उसे भीतर-बाहर से अधिक से अधिक जानो. और यह तो सिर्फ एक उदाहरण है. चिड़ियों से विष्णु खरे के रिश्ते इतने अजब और आत्मीय हैं कि आखिर चिड़ियाँ मरने के लिए कहाँ जाती होंगी-जैसे एकदम अलग सवाल हैं, जो हिंदी कविता की चौहद्दी में सिर्फ विष्णु खरे ही उठा पाते हैं.
और तो और गिद्ध, उल्लू और चमगादड़ों का विष्णु खरे की कविता में इस कदर पसारा है कि वह ऊपर से देखने में कुछ-कुछ सुरुचिभंजक लगने लगती है. या फिर आप कह सकते हैं, उन्हें सराहने के लिए एक बृहत्तर और उदात्त सौंदर्य-बोध या कि एक बहुत बड़ा दिल चाहिए. यह एक किस्म से, अरसे से कुरूपता के पाले में डाल दी गई चीजों की सुंदरता है. विष्णु खरे की कविताएँ इन्हें बिलकुल अलग ढंग से देखती-बरतती हैं और उनके भीतर के जीवन, जीवनी शक्ति, स्फूर्ति और एक अलग ही ढंग की जीवन-लय को जब वे देख लेते हैं तो उन्हें ठीक-ठीक उसी रूप में कविता में लाने के लिए बेसब्र हो उठते हैं. जरा ‘चमगादड़ें’ कविता में कतारबद्ध चमगादड़ों की मार्मिक उड़ान का यह विहंगम चित्र देखिए, जो दिल्ली में नहीं, छिंदवाड़ा में ही देखने को मिल सकता है-
उस दिन छिंदवाड़ा में सुरेंद्र के घर के आँगन से
शाम के आसमान में दर्जन भर चमगादड़ों की कतार देखकर ही याद आया
कि दिल्ली के आकाश में छब्बीस बरस से इन्हें कभी नहीं देखा
और यह भी कि कितनी मार्मिक लग सकती है उनकी उड़ान
बल्कि हमेशा ही वैसी रही है मेरे पहले पंद्रह बरस की शामों में
कविता की ये शुरुआती पंक्तियाँ हैं और पूरी कविता पढ़कर हैरानी होती है कि विष्णु खरे की दृष्टि कहाँ-कहाँ तक जाती है. लेकिन जरा ढूँढ़िए तो, चमगादड़ों के होने और उनकी दुनिया पर इतने अपनापे से लिखी गई कितनी कविताएँ हिंदी में हैं? इसी तरह ‘गूंगा’ कविता में एक छोटे कौए के लिए गूँगे लड़के का प्यार और रोना हमें द्रवित करता है. और अंत आते-आते पूरी कविता उसके आँसुओं में भीग जाती है.
मैं याद करता हूँ, विष्णु जी के लगभग हर कविता-संग्रह में गिद्ध, चील और चमगादड़ से जुड़ी कोई न कोई कविता या कविता-पंक्तियाँ जरूर मिलती हैं, जो ऊपर से देखने पर सुरुचिभंजक लगने पर भी, असल में हमारे सौंदर्यबोध और सुरुचि दोनों का विस्तार करने वाली कविताएँ हैं.
विष्णु खरे और उनकी कविता का होना क्या है, यह इस बात से भी पता चलता है.
अलबत्ता विष्णु खरे की ये कविताएँ पढ़कर समझ में आता है कि अगर आदमी का विजन बदल जाए या कि देखने वाली आँख बदल जाए, तो आदमी के भीतर-बाहर का बहुत-सा संसार बदल जाता है. मुझे याद पड़ता है, एक लंबे इंटरव्यू में विष्णु जी ने गिद्ध, चील और चमगादड़ों से जुड़ी अपनी कुछ पुरानी स्मृतियों को तो ताजा किया ही था-साथ ही इनमें उल्लू से तो रात-रात भर जागकर लिखने और स्मृतियों का पसारा करने वाले लेखक-कवि की ऐसी अपूर्व तुलना उन्होंने की थी, जिसे मैं आज तक भूल नहीं पाया. इसी तरह चील की सुंदरता, स्फूर्ति और शरीर की लयात्मकता का, और साथ ही उसकी अद्भुत उड़ानों का उन्होंने इतना आत्मविभोर होकर वर्णन किया था कि सुनकर मैं रोमांचित हो उठा था.
पर क्या मैं दोहराऊँ कि हिंदी के कवियों में अकेले विष्णु खरे ही हैं, जो ऐसा कर सकते थे. वे इस मामले में अलग हैं, सबसे अलग.
6 |
विष्णु खरे का व्यक्तित्व और उनकी कविता कुछ ऐसे समझ ली गई है-और सच मानिए तो वह ऊपर से कुछ-कुछ ऐसी दिखती भी है-कि वह भावुकता से बहुत दूर निकल आई है…या कि वह और चाहे कुछ भी हो, पर भावुक तो हो ही नहीं सकती.
पर मेरा यह कहना शायद बहुतों को बड़ा अजीब लगेगा कि विष्णु खरे को आप नजदीक से जानें, तो वे खासे भावुक व्यक्ति हैं. और उनकी कविता को भी नजदीक से देखें तो उसकी भावुकता से रू-ब-रू हुए बगैर हम नहीं रह पाते. बल्कि लगता है, बाकी कवि जीवन के जिन दृश्यों और स्थितियों को रूटीन मानकर नजरंदाज करने के आदी हैं, विष्णु खरे उनकी अंतर्हित करुणा तक जा पहुँचते हैं, और हम पाते हैं कि वे जाने-अनजाने हमारे भाव-संसार और संवेदना का विस्तार कर रहे हैं.
मुझे याद है, विष्णु जी से हुई एक लंबी अनौपचारिक बातचीत में उन्होंने रघुवीर सहाय और राजेंद्र माथुर का इतना भावुक होकर जिक्र किया था कि मैं प्रश्न पूछना भूलकर अवाक् उन्हें देखता रह गया था. राजेंद्र माथुर के अंतिम दिनों का स्मरण करते हुए उनकी आँखें आर्द्र और स्वर गीला-गीला-सा हो आया था. इसी तरह रघुवीर सहाय के एक प्रसंग का वे जिक्र करते हैं. हुआ यह था कि विष्णु जी ने रघुवीर सहाय की कविताओं के एक संग्रह पर लिखते समय कहीं यह टिप्पणी की कि ये कविताएँ सौ में से पंचानबे अंकों की हकदार हैं. बाद में रघुवीर सहाय विष्णु जी से साहित्य अकादेमी में मिले तो उन्होंने पूछा-आपने मेरे पाँच अंक क्यों काट लिए…? विष्णु जी इस प्रसंग का जिक्र कर रहे थे तो उनकी आँखें आँसुओं से लबालब थीं और उनके लिए आगे बोल पाना मुश्किल हो गया था.
जैसे विष्णु खरे के व्यक्तित्व में, वैसे ही उनकी कविता में भी ये बेहद भावुक, आर्द्र क्षण आते हैं और बीच-बीच में हमें भिगो जाते हैं. हाँ, उसकी ऊपरी रुक्षता के भीतर संवेदना के इन आर्द्र क्षणों को डिस्कवर करना पड़ता है. इसलिए कि विष्णु जी की तरह ही उनकी कविता भी भावुक जरूर है, पर वह उस भावुकता का अनावश्यक प्रदर्शन करना भद्दी चीज मानती है और खुद को सायास उससे दूर रखती है.
विष्णु जी के संग्रह ‘खुद अपनी आँख से’ की कई कविताएँ ऐसी हैं जिनमें कवि की रुक्षता के भीतर छिपी बेतरह भावुकता से मिलने के मौके आते हैं. खासकर ‘अकेला आदमी’ तो उनकी ऐसी कविता है जिसे कभी भूला ही नहीं जा सकता. ऊपर से खासे खुरदरे दिखाई देने वाले इस आदमी की अकेली और वीरान-सी जिंदगी के भीतर एक अंतर्धारा भी है- प्रेम और भावुकता की अंतर्धारा, जो इन रूखे, रसहीन दिनों में भी उसे जिलाए रखती हैं. यहाँ पत्नी, नन्ही दो बेटियों और एक अबोध बेटे की यादें हैं. पत्नी के पुराने खत और फोटो हैं और एक सपना है कि वह उन्हें अपने साथ रेलगाड़ी में बिठाकर वापस आ रहा है. शायद इससे वर्तमान का उजाड़ थोड़ा कम रूखा और सहनीय हो जाता है-
अकेला आदमी अपना आपा खो चुका है
खुद पर तरस खाने की हदों से लौट-लौट रहा है
उसे याद आने लगी है पाँचवीं क्लास की उस साँवली लड़की की
जो एक मीठी पावरोटी पर खुश
पैदल स्कूल जाती है निर्मम चौराहे पार करती हुई
याद आती है उससे छोटी की
जो उसे हाथ पर काटकर पिटी थी
और हमेशा ख़ुश उसकी जो अब चलना सीख रहा है
और अचानक थककर कहीं भी सो जाता है
अकेला आदमी छटपटाकर पाता है
कि वह उन सबसे बहुत प्यार करता है
बहुत-बहुत माफ़ी माँगता है
पूरे कपड़े पहने हुए सो जाता है
बिस्तर पर जिसमें उन सबकी गंध है
जिन्हें वह सपने में अपने साथ रेलगाड़ी में आते हुए देखता है
इन पंक्तियों में पत्नी और तीन छोटे-छोटे चंचल बच्चों की यादों के साथ-साथ इस खुरदरे आदमी के स्नेह से डब-डब करते जो अक्स हैं, उन्हें आप चाहेंगे भी तो भूल नहीं पाएंगे. मैंने जितनी बार इस कविता को पढ़ा है, आँखें भीग गई हैं. ऊपर से कुछ-कुछ रूखी और बेरस नजर आती इस कविता में कितनी भावुक तड़प और आर्द्रता है, इसे कहा नहीं, बस समझा ही जा सकता है.
इसी तरह ‘सबकी आवाज के पर्दे में’ संग्रह की ‘चौथे भाई के बारे में’, ‘दिल्ली में अपना फ्लैट बनवा लेने के बाद एक आदमी सोचता है’, ‘लालटेन जलाना’, ‘बेटी’, ‘मिट्टी, ‘जो टेंपो में घर बदलते हैं’ कविताएँ ऐसी हैं जो मानवीय और पारिवारिक रिश्तों की ऊष्मा में सीझी हुई हैं. ‘चौथे भाई के बारे में कविता’ का जिक्र आने पर तो विष्णु जी ने एक दफा खुद बताया था कि इस कविता को वे पिछले कोई बीस सालों से लिखना चाह रहे थे. वह उनके भीतर ही अटकी हुई थी, पर बन नहीं पा रही थी. कोई बीस साल बाद उसने ठीक-ठीक वही शक्ल ली, जिस रूप में विष्णु खरे इसे लिखना चाहते थे, तो वह उनके संग्रह में आ सकी. और यह कविता सचमुच गुजरे चौथे भाई की स्मृतियों से डब-डब करती कविता है. ऐसे ही ‘दिल्ली में अपना फ्लैट बनवा लेने के बाद एक आदमी सोचता है’ कविता में घोर आर्थिक तकलीफों में घर-परिवार के जो लोग गुजर गए, उन्हें स्मृतियों के साथ-साथ एक छोटे-से फ्लैट में बसाने की बड़ी मार्मिक कोशिश है-
इस तरह माता-पिता और बुआओं से और भर जाता घर
इस घर में और जीवित हो जाता एक घर बयालीस बरस पुराना
वह और उसकी पत्नी और बच्चे तब रहते
बचे हुए एक कमरे में
जिसमें बेटियों के लिए थोड़ी आड़ कर दी जाती
कितने प्राण आ जाते इन कमरों में चार और प्राणियों से
हालाँकि वह यह भी जानता है कि अब यह मुमकिन नहीं है. जो गुजरा है, वह गुजर गया और अब कभी वापस नहीं आएगा. लेकिन इसके बावजूद उस गुजरे हुए अतीत के साथ-साथ उन सबको आवाज लगाए बिना भी वह रह नहीं पाता, जिनके बिना उसकी घर की कल्पना कभी पूरी नहीं होती-
इसलिए वह सिर्फ बुला सकता है
पिता को माँ को छोटी बुआ बड़ी बुआ को
सिर्फ आवाज दे सकता है उस सारे बीते हुए को
पितृपक्ष अमावस्या की तरह सिर्फ पुकार सकता है आओ आओ
यहाँ रहो इसे बसाओ
अभी यह सिर्फ एक मकान है एक शहर की चीज एक फ्लैट
जिसमें ड्राइंग रूम डाइनिंग स्पेस बैडरूम किचन
जैसी अनबरती बेपहचानी गैर चीजें हैं
आओ और इन्हें उस घर में बदलो जिसमें यह नहीं थीं
फिर भी सब था और तुम्हारे पास मैं रहता था
जिसके सपने अब भी मुझे आते हैं
कुछ ऐसा करो कि इस नए घर के सपने पुराने होकर दिखें
और उनमें मुझे दिखो
बाबू भौजी बड़ी बुआ छोटी बुआ तुम
मुझे कहना चाहिए कि यह पुकार सचमुच मर्मभेदी है. और क्या यह किसी ऐसे व्यक्ति की पुकार हो सकती है, जो भावुक नहीं है? भला इधर की कविताओं में पारिवारिकता की इतनी विकल कर देने वाली उपस्थिति आपको और कहाँ मिलेगी? साथ ही ऐसी करुणा जो अंदर तक थरथरा देती है.
ऐसे ही ‘बेटी’ कविता में दफ्तर में नौकरी पाने के लिए आई महानगर की एक गरीब लड़की की पीड़ा है, जो कवि विष्णु खरे के मन में जैसे छप जाती है-
जाने से पहले उसने कहा
अपनी बेटी समझकर ही मुझे रख लीजिएवह सूखी साँवली लड़की
जिसके पसीने में बहुत पैदल चलने
कई बसें बदलने की बू थी
जिसके बहुत पहने कपड़ों से धूपहीन खोली के सीले गूद़ड़ों
और आम के पुराने अचार की गंझध उठती थीउसे मैं वह नौकरी दे न सका
बाद में मेरे वे नितांत अस्थायी अधिकार भी रहे नहींमैं उसे यह तो नहीं कह सका
कि वह कैसे उस नौकरी के लायक नहीं थी-
जैसे हर जगह लायक लोग ही बैठे हों-
लेकिन मन ही मन मैंने उसे बेटी जरूर कहा
पचास बरस की उम्र में यह पहली बार था
कि बाईस साल की किसी पराई लड़की को मैंने वैसा माना
‘मिट्टी’ भी ऐसी ही आर्द्र कर देने वाली कविता है, जिसमें छिंदवाड़ा की मिट्टी और चीजों की चप्पे-चप्पे में बसी यादें हैं…बल्कि कहना चाहिए कि यादों की ऐसी बारिश है कि उससे न भीगना नामुमकिन है. हालाँकि साथ ही बदले हुए समय के साथ लगातार छीजते गए छिंदवाड़ा की कुछ ऐसी करुण तस्वीरें भी, जिनका सामना करना कठिन है.
‘जो टेंपो में घर बदलते हैं’ कविता में बगैर किसी दिखावटी सहानुभूति के एक मध्यवर्गीय आदमी की डाँवाडोल जिंदगी की समूची तस्वीर उकेर दी गई है. जरा गौर करें तो पता चलेगा कि यह केवल टेंपो में घर बदलने की ही तस्वीर नहीं, बल्कि उस बेरंग जिंदगी की तस्वीर है, जिसके हिस्से बस भागमभाग ही आई है. विष्णु खरे अंदर तक धँसकर इसे देखते और लिखते हैं. पर यह क्या बगैर भावुक हुए संभव था? हालाँकि यह दीगर बात है कि न तो कविता में भावुकता का अनावश्यक प्रदर्शन है और न विष्णु खरे ही ऐसा चाहते हैं. उनकी भावुकता अकसर कई परतों के नीचे छिपी नजर आती है, इसलिए बहुतेरे लेखक और पाठक उसे नजरंदाज कर देते हैं और शायद ठीक-ठीक समझ भी नहीं पाते.
विष्णु जी के बहुचर्चित संग्रह ‘काल और अवधि के दरमियान’ में भी ऐसी कई कविताएँ हैं जिनमें थोड़ा-सा कुरेदते ही आप एक बेतरह भावुक आदमी से मिलते हैं. पत्नी के लिए लिखी गई अपने ढंग की ‘अनकहा’ कविता तो इसमें है ही, जिसमें एक स्त्री का होना है. अपनी समूची अस्मिता और गरिमा के साथ होना है. और एक अव्यक्त किस्म का प्रेम भी, जिसमें हिंदुस्तानी दांपत्य की एक मीठी झलक है-
मैं उसे छिपकर देखता हूँ कभी-कभी
अपने निहायत रोजमर्रा के कामों में तल्लीन
जब उसकी मौजूदगी की पुरसुकून चुप्पी छाई रहती है
उसकी हलकी से हलकी हरकत संपृक्त
ऐसा एक उम्र के अभ्यास से आता हैउसके दुबले हाथों को देखता हूँ मैं
कितनी वाजिब और किफायती गतियों में
अपने काम करते हैं वे
और उसका चेहरा जो अभी भी सुंदर है
इस तरह अपने में डूबा और भी सुंदर बल्कि उद्दाम
भले ही समय ने उस पर अपनी लकीरें बनाई हैं
और वह बीच-बीच में स्फुट कुछ कहती है
पता नहीं किससे किसके बारे में
स्त्री की सुंदरता को व्यक्त करने के जितने भी बने-बनाए ढंग है, यह कविता सबको नकारकर चलती है, और फिर भी अपनी बात इतने असरदार और पुरसुकून लहजे में कहती है, कि पढ़ते हुए कविता मन पर जैसे छप सी जाती है.
इसके अलावा ‘उपचार’ और ‘अमीन’ सरीखी कविताएँ भी हैं जिनमें विष्णु खरे एक ऐसे भावुक कवि के रूप में दिखाई देते हैं जिन्हें अपने रोगों के उपचार के लिए बार-बार जनता के बीच जाना पड़ता है. और एक कठोर अमीन को लगातार इस सवाल का जवाब देना होता है कि उन्होंने अब तक क्या किया या कि उनका हासिल क्या है! ‘गुंग महल’ और ‘शिविर में शिशु’ जैसी बड़े कैनवस की कविताएँ हों या ‘इग्ज़ाम’ जैसी एक छोटी और विलक्षण कविता या फिर हिंजड़ों पर लिखी गई ‘जिल्लत’ कविता, ‘विदा’ में एक निम्न मध्यवर्गीय प्रेम-विवाह का दृश्यांकन हो या फिर पूरी जिंदगी सपना देखने के बाद एक मध्यवर्गीय आदमी के हाथ आए खालीपन की विडंबना को दर्शाती कविताएँ, विष्णु खरे के भावुक कवि से कहीं न कहीं हमारी मुलाकात जरूर हो जाती है. हालाँकि वे ऐसे क्षणों में सतर्कता से हमसे आँख बचाते नजर आते हें. या खुद पर अनजाने ही कुछ और रुक्ष आवरण चढ़ा लेते हैं, ताकि ऐसे विकल और विह्वल क्षणों में वे पकड़े न जाएँ.
इनमें ‘गुंग महल’ तो बहुत विरल और असाधारण कविता है, जिसमें बादशाह अकबर से जुड़ी एक सच्ची घटना है. उसने यह जानने के लिए कि ईश्वर की बनाई हुई सबसे उम्दा पैदाइशी जुबान कौन सी है, जिसे खुद उसने बनाया है-एक बड़ा दारुण और दिल दहला देने वाला प्रयोग किया. कुछ बच्चों को आगरे में दूर नीम बियावान में बनवाए गए एक महल में रखा गया, जहाँ उन्हें कोई भाषा सुनाई नहीं पड़ सकती थी. यहाँ तक कि सेवकों से भी कहा गया कि वे मुँह से कोई शब्द न निकालें. पूरे अड़तालीस महीने बाद अकबर उस महल में यह देखने पहुँचा कि भला ये बच्चे कौन सी जुबान बोलते हैं. पर वहाँ जो कुछ उसने देखा, उससे वह भौचक्का सा रह गया-
अब बच्चों की आँखें निकल आई थीं
उनके काँपते बदन ऐंठ रहे थे वे मुँह से झाग निकालने लगे
कुछ ने दहशत में पेशाब और पाखाना कर दिया
फिर वे दीवार के सहारे दुबक गए एक कोने में पिल्लों की तरह
और उनके मुँह से ऐसी आवाजें निकलने लगीं
जो इनसानों ने कभी इनसान की औलाद से सुनी न थीं
इस पर अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए, कौतुक से भरकर यह नायाब किस्म का प्रयोग करने वाले अकबर की क्या हालत हुई, जरा यह भी देखें-
थर्रा गया था अकबर इसके मायने समझकर
कलेजा उसके मुँह में आ गया
वह यह तो कहता था कि दुनिया में पैगंबर अनपढ़ हुए हैं
चुनान्चे हर खानदान में एक लड़का उसी तरह उम्मी छोड़ा जा सकता है
लेकिन बच्चों को इस तरह गूँगा देखने का माद्दा उसमें न था
उसने चीखकर हुक्म दिया बोलना शुरू हो यहाँ बेखौफ और मनचाहा
सौंप दो इन बच्चों को इनके वाल्दैन सरपरस्तों को
फौरन खाली करो इस मनहूस महल को
आइंदा यहाँ ऐसा कुछ न हो
मुझे याद है, विष्णु जी से हुई एक लंबी बातचीत में उन्होंने कहा था कि कवि होने के नाते वे भावुकता को एकदम खारिज नहीं कर सकते और भावुक कवियों जैसा अति भावुकता का प्रदर्शन भी नहीं करना चाहते. यह उनकी एक अजब-सी लाचारी हैं. मैं समझता हूँ, विष्णु जी की तरह ही यह लाचारी या कहिए भावुक-अभावुक का द्वंद्व उनकी कविताओं में भी है. इसीलिए उनकी कविताओं में भावुकता यहाँ-वहाँ बिछी नहीं पड़ी, उसे डिस्कवर करना पड़ता है. पर यह भी तय है कि भावुकता विष्णु खरे की कविताओं की प्राण-शक्ति है जिसके बगैर न वे ‘गुंग महल’ और ‘शिविर में शिशु’ जैसे बड़ी उथल-पुथल वाली अति संवेदी कविताएँ लिख सकते थे और न ‘चौथे भाई के बारे में’, ‘1991 के एक दिन’, ‘दगा की’ और ‘कितना आदमी’ जैसी विलक्षण निजता वाली कविताएँ, जिनसे विष्णु खरे के कविता-संसार में एक आत्मीय रस आता है.
7 |
इसी तरह विष्णु खरे शायद हिंदी के उन विरले कवियों में से हैं जिनकी कविताओं में काफी ज्यादा आत्मकथा है. हो सकता है, कविता में इतनी आत्मकथा लिख पाने वाला कोई दूसरा कवि हमारे यहाँ हो ही नहीं. इसका जिक्र करना इसलिए जरूरी लगा कि कहानी में आत्मकथा लिखना तो आसान है. इसकी तुलना में कविता में आत्मकथा लिखना कठिन है-एक बहुत दुष्कर काम. पर विष्णु खरे बगैर कोई दावा किए-और यहाँ तक कि बगैर कोई दिखावा किए यह काम करते हैं.
कविता में निजी जिंदगी के अक्स यकीनन आते हैं-और निजी अहसास या अनुभूतियाँ आएंगी तो भला निजी जिंदगी कैसे बच रहेगी? तो भी कविता में निजी जिंदगी के कुछ इधर-उधर छिटके अक्स ही ज्यादातर दिखाई देते हैं. मानो समझ लिया गया हो कि कविता का पेटा इतने से ही भर जाता हो. जबकि विष्णु खरे की कविताओं में उनकी आत्मकथा ज्यादा खुलकर और अपने पूरे वर्णनात्मक विस्तार के साथ आती हैं. सच कहूँ तो उनकी कविताओं के एक पाठक के तौर पर मुझे यह बहुत अच्छा और सुखद लगता है. जिस नास्टेलजिया या कहूँ कि गहरी भावनात्मक तड़प के साथ वे अपने जीवन में आए या आवाजाही करते लोगों, घटनाओं और चीजों का जिक्र करते हैं, वह मुझे सचमुच उनकी कविताओं का एक मुग्ध कर देने वाला फिनोमिना लगता है. और कहीं-कहीं तो घटनाओं या हादसों के ठीक-ठीक सन् ही नहीं, दिन, तारीख और स्थानों के इतने सीधे-सीधे ब्योरे भी हैं कि उनकी कविताएँ ‘एक और आत्मकथा’ जान पड़ती हैं. कोई सतर्क लेखक या पाठक चाहे तो इन कविताओं में छिपी हुई आत्मकथा न सिर्फ डिस्कवर कर सकता है, बल्कि इनके आधार पर विष्णु खरे की एक अच्छी जीवनी भी लिखी जा सकती है.
विष्णु खरे के ‘खुद अपनी आँख से’ संग्रह में ऐसी कई कविताएँ हैं. खासकर ‘टेबिल’, ‘अव्यक्त’, ‘गरमियों की शाम’, ‘हँसी’, ‘प्रारंभ’, ‘अकेला आदमी’ काफी ब्योरों से भरी ऐसी कविताएँ हैं, जिनकी निजता पर ध्यान जाए बगैर नहीं रहता. इनमें हम एक किशोर को जो अपनी उम्र से ज्यादा समझदार और संवेदनशील है, धीरे-धीरे आगे बढ़ते और एक अलग सी शख्सियत हासिल करते देखते हैं. याद कीजिए, ‘हँसी’ कविता का वह बच्चा जो एक साथ तीन शील्ड जीतकर निस्तब्ध रात के सन्नाटे में पैदल घर लौट रहा है और एक शील्ड के अचानक गिर जाने पर पैदा हुई आवाज और रात गश्त लगाते सिपाही के सवालों से वह कुछ अचकचा गया था. फिर किस असाधारण आत्मविश्वास से वह सिपाही के सवालों का जवाब देने के बाद घर जाता है-
एक हाथ में तीन इनाम और दूसरे हाथ से
जेब में पड़ी मूँगफली और पेठे के टुकड़ों से
कशमकश करते हुए एक फील्ड फिसलीऔर ग्यारह बजे रात के सुनसान में धमाके की तरह गिरी
बंद होटल के पास घूरे पर से चौंका हुआ कुत्ता भौंकने लगा
पास के घर से ऊपर की खिड़की खुलीऔर एक भर्राई आवाज ने पूछा कौन है रे रामसरन
गश्त लगाता हुआ कानिस्टबिल टार्च फेंकता
साइकिल पर फुर्ती से उस तरफ आयाक्या मामला है उसने घबराए हुए रोब में पूछा
कुछ नहीं यह गिर पड़ी थी
क्या है ये सामान कहाँ लिए जा रहे हो
इनाम मिला है घर जा रहा हूँ
कैसा इनाम है ये क्या चाँदी जड़ी हुई है
नहीं चाँदी नहीं है शायद पीतल पर पालिश है
रहते कहाँ हो कहीं पढ़ते हो क्या
यहीं पास में रामेश्वर रोड पर गवर्नमेंट स्कूल में
उस लड़के के साफ और निर्भीक जवाबों से सिपाही थोड़ा अचकचाया और लड़का घर की ओर चल पड़ा. वहाँ पहुँचकर सावधानी से तीनों शील्ड को नीचे रखकर उसने ताला खोला. यह सोचते हुए कि कल किताबों के साथ-साथ इन्हें भी स्कूल ले जाना होगा, और वहाँ ये हेडमास्टर जी के कमरे में रखी जाएंगी. एक अकेले छोटे बच्चे का यह आत्मविश्वास और समझदारी दोनों ही चकित जरूर करते हैं. वह किशोरवय बच्चा उम्र से पहले ही बड़ा हो गया है और चीजों को समझने लगा है, यह भी पता चलता है.
इस संग्रह की ‘अव्यक्त’, ‘गरमियों की शाम’, ‘प्रारंभ’ और ‘दोस्त’ जैसी कविताओं में विष्णु खरे के बचपन, किशोरावस्था और तरुणाई के कुछ न भूलने वाले अक्स हैं. यहाँ तक कि इन कविताओं को पढ़ना विष्णु जी के बचपन, किशोर काल और तरुणाई के चेहरे को देख लेने की मानिंद है.
ऐसे ही ‘सबकी आवाज के पर्दे में’ संग्रह की ‘दिल्ली में अपना फ्लैट बनवा लेने के बाद एक आदमी सोचता है’, ‘चौथे भाई के बारे में’, ‘अपने आप’, ‘मंसूबा’, ‘स्कोर बुक’, ‘खामखयाल’ सरीखी कविताओं को जरा याद करें. आपको लगेगा, यह कविताओं में लिखी गई सीधी-सीधी आत्मकथा है और इनके साथ जुड़े पारिवारिक प्रसंगों, पात्रों और घटनाओं का दर्द या विडंबना इतनी गहरी है कि वह कविताओं को भी कहीं अधिक मार्मिकता दे देती है. ‘चौथे भाई के बारे में’ कविता की शुरुआत किसी औचक कथा की तरह होती है, जो धीरे-धीरे हमें अपने प्रभाव की गिरफ्त में ले लेती है-
यह शायद 1946 की बात है जब हम तीन भाई
घर में पड़े रामलीला के मुकुट पहनकर खेल रहे थे
तब अचानक विह्वल होकर हमें बताया गया
कि मेरे और मुझसे छोटे के बीच तुम भी थे
और यदि आज तुम होते तो हम चार होते
राम लक्ष्मण भरत शत्रुघन की तरहबतलाने के बाद माँ या बुआ सहम गई थीं
और कुछ न समझने के बावजूद हमारा खेल
मंद सा पड़ गया था लेकिन तब से लेकर आज का दिन है
कि मैं कई बार तुम्हारे बारे में सोचता हूँ.
और फिर पिछली बातों के स्मरण के साथ कविता दूर तक फैलती जाती है, जिसमें परिवार का वर्तमान और अतीत भी चला आता है और करुणा की एक गहरी गूँज हमें दूर तक सुनाई देती है-
मैं अब माता-पिता के फोटो और हम तीन भाइयों के चेहरों में
तुम्हारा चेहरा खोजता हूँ
बचपन से लेकर अब तक की हमारी तसवीरों से
मैंने कल्पना में तुम्हारे कई आइडेंटिकल हुलिए बनाए हैं
एक ऐसे शाश्वत गुमशुदा की अनंत तलाश में
जिसे ‘तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा’ के लाख आश्वासन
कभी लौटा नहीं लाएँगे
वे यहाँ तक कल्पना करते हैं कि कहीं असमय गुजरा उनका चौथा भाई ही उनकी दो बेटियों या बेटे के रूप में फिर से लौटकर तो नहीं आ गया.
इसी तरह ऐसी बहुतेरी कविताएँ हैं जिनमें विष्णु जी की माँ और पिता को लेकर स्मृतियों के कभी न भूलने वाले अक्स हैं. इनमें ‘1991 के एक दिन’ तो एकदम असाधारण कविता है. इसमें न सिर्फ माँ और पिता के गुजरने की तारीखें और ब्योरे हैं, बल्कि इस चीज को लेकर विष्णु जी का एक अजीब-सा अपराध-बोध सामने आता है कि उनकी उम्र माँ और पिता से अधिक हो गई है. यानी माँ जब गुजरी थीं, तब उनकी जो उम्र थी, उसे वे बरसों पीछे छोड़ आए हैं. इसी तरह पिता के गुजरने के समय उनकी जो उम्र थी, वह भी अब पीछे निकल गई है और कम से कम उम्र में वे अपनी माँ और पिता से बड़े हैं-
कल मैं अपने पिता के बराबर हुआ
आज मैं उनसे एक दिन बड़ा हूँ1968 के जिस दिन वे गुजरे थे
1991 के इस दिन मैं उसी उम्र का हूँ
यानी इक्यावन बरस और कुछ दिनआज से मैं उनसे बड़ा होता जाऊँगा
कब नहीं रहूँगा उनसे कितना बड़ा होकर गुजरूँगा
यह कौन बता सकता है
पर क्या वे सचमुच माँ और पिता से बड़े हैं? यह सवाल आते ही विष्णु जी के भीतर जिस तरह का भावनात्मक उद्वेलन शुरू होता है और माँ, पिता की स्मृतियों का जैसा अंधड़ उठता है, वह विचलित कर देने वाला है. लगता है, माँ-पिता को याद करते ही, फिर से वे अपने बचपन और किशोरावस्था में लौट गए हैं और उनकी उम्र घटकर कोई चार-पाँच वर्ष के शिशु या फिर बारह वर्ष के किशोर की-सी हो गई है.
‘दगा की’ कविता में पिता का बड़ी कशिश के साथ स्मरण है. इसी तरह एक कविता में विष्णु जी बचपन में ग्रामोफोन के अपने शौक का जिक्र करते हैं जिसमें रिकार्ड घूमने का रोमांच उन्हें मुग्ध करता था. ‘पृथक छत्तीसगढ़ राज्य’ भी एक ऐसी आत्मकथात्मक कविता है, जिसमें विष्णु जी बहते हैं तो बहते चले जाते हैं और बचपन की छोटी से छोटी स्मृतियाँ भी यहाँ दर्ज हो जाती हैं-
अब जब यह सब सोचने पर आ ही गया हूँ
तो याद आता है अपने जिला छिंदवाड़ा का भी नक्शा
मेरे प्राइमरी स्कूल के दिनों के बरसों बाद तक
सिवनी दुबारा जिला नहीं बना था उसी छिंदवाड़ा जिले में था
जिसे मैं अभी भी कागज पर खींच सकता हूँ
उसी तरह ठीक-ठाक पहचानने लायक
जैसे 1956 के पहले के मध्यप्रदेश को 1947 के पहले के भारत में
जिसमें वह लगभग बीचोंबीच बैठे हुए नंदी की तरह लगता था
विष्णु जी की बेहद सख्त किस्म की कविताओं के बीच इन भावुक प्रसंगों को पढ़ना मानो पाठक के लिए अपनी-अपनी आत्मकथाओं के बंद द्वार खोल देता है और उनका अपना बचपन या किशोरावस्था भी कहीं साथ ही साथ दस्तक देने लगती है. इसी से समझा जा सकता है कि विष्णु जी अपनी कोशिश में कितने सफल हुए हैं या कि कविता में आई उनके आत्म की अनुभूतियाँ-दूसरे शब्दों में आत्मकथा के ये पन्ने कितने मार्मिक हैं.
8 |
कवियों के लिए कविताएँ लिखने वाले हिंदी में बहुतेरे कवि हैं, पर इनमें विष्णु खरे नहीं हैं. हाँ, पर इस ढंग की उनकी दो ऐसी कविताएँ हैं जिन्हें मैं भूल नहीं सकता. एक तो ‘कूकर’ शीर्षक से लिखी गई कविता जिसमें उन्होंने खुद को कबीर, निराला, मुक्तिबोध सरीखे कवियों के चरणों में बैठा कूकर बताया है. कविता अपनी लड़ाइयों से शुरू होती है और होते-होते अंत में कबीर, निराला और मुक्तिबोध से जुड़कर हिंदी साहित्य की एक बड़ी विद्रोही परंपरा का हिस्सा बनती है-
मैं अपने नियमों से अपना खेल अकेले ही खेल लूँगा
इस उम्मीद में कि दिमाग में जो एक कील सी गड़ी हुई है
और दिल में जो कड़वाहट है वह वैसी ही रहेगी अंत तक
कबीर निराला मुक्तिबोध के नाम का जाप आजकल शातिरों और जाहिलों
में जारी है
उन पागल संतों के कहीं भी निकट न आता हुआ सिर्फ उनकी जूठन पर
पला
छोटे मुँह इस बड़ी बात पर भी उनसे क्षमा माँगता हुआ
मैं हूँ उनके जूतों की निगरानी करने को अपने खून में
अपना धर्म समझता हुआ भूँकता हुआ
मुझे याद नहीं पड़ता कि कबीर, निराला, मुक्तिबोध पर ऐसी थरथरा देने वाली पंक्तियाँ किसी और ने भी लिखी हैं. यह उन दर्जनों कविताओं से अलग है जिनमें एक सुरक्षित घेरे में बैठकर, दूर-दूर से इन बड़े कवियों की महिमा का स्तुति गायन है. पर विष्णु खरे ऐसा नहीं करते. वे सिर से लेकर पैर तक उन लड़ाइयों में शामिल हैं, जिनके बगैर कबीर, निराला, मुक्तिबोध की बात ही नहीं की जा सकती.
और दूसरी ऐसी ही एक मार्मिक संवेदना से निकली कविता रघुवीर सहाय पर है. एक तरह से खून को ठंडा कर देने वाली, अकथ दुख से सीझी कविता ‘अपने आप और बेकार’. इस कविता में रघुवीर सहाय और अज्ञेय की एक मुलाकात का जिक्र है. अज्ञेय के बारे में रघुवीर सहाय की एक बातचीत विष्णु नागर द्वारा संपादित पुस्तक ‘रघुवीर सहाय’ में है. इस कविता का संदर्भ वही है. ‘दिनमान’ के संपादक पद से हटाए जाने या कहिए कि पदावनति के बाद ‘नवभारत टाइम्स’ में भेजे जाने पर रघुवीर सहाय उद्विग्न हैं और अपना वही दुख अज्ञेय को बताने वे उनके निवास पर गए हैं.
विष्णु खरे ने इस कविता में रघुवीर सहाय की तब की मन: स्थिति का इतना सच्चा, इतना मार्मिक चित्र खींचा है, मानो वे खुद सूक्ष्म रूप में वहाँ मौजूद हों और सब कुछ देख-सुन रहे हों. अज्ञेय और रघुवीर सहाय के अलग-अलग व्यक्तित्व, मूड्स और स्थितियाँ यहाँ काबिलेगौर हैं तो रघुवीर सहाय की वह विवशता भी है, जो उन्हें अपने साथ हुए अपमान को किसी तरह खून के घूँट की तरह पी लेने को विवश करती है. और यह दुख, क्रोध, अपमान और बेबसी एक साथ उनके पूरे व्यक्तित्व में फैलकर छा जाती है-
क्या अपनी किसी मार्मिक कविता की शैली में कहा होगा
रघुवीर सहाय ने
कि मुझे दिनमान में अपमानित किया जा रहा है
मुझे डिमोट करके नवभारत टाइम्स में भेज रहे हैं
या फिर अपने किसी निबंध या कहानी के रूप मेंलेकिन यह जरूर साफ कहा होगा उन्होंने
कि आप बोलिए आप कुछ कहिए उनसे कि यह क्या बदतमीजी है
मैं नौकरी करने को तैयार हूँ
उसकी जो शर्तें हैं उन्हें मानता हूँलेकिन आप कहिए उनसे कि इस अपमान का मतलब क्या है
और कुछ देर बाद इस मुलाकात के लगभग आखिरी पल में रघुवीर सहाय की अकथनीय विकलता भी विष्णु खरे की कविता में आ गई है-
कई-कई बार कहा रघुवीर सहाय ने
देखिए मेरे साथ अन्याय हो रहा है
दुर्व्यवहार हो रहा है मेरे साथकिंतु मौन रहे वात्स्यायन लाचारी अपरोध बोध या खीज में पता नहीं
इस कविता की आखिरी पंक्तियाँ भी मैं उद्धृत किए बिना नहीं रह सकता. इसलिए कि ये सिर्फ रघुवीर सहाय पर लिखी गई पंक्तियाँ नहीं हैं, बल्कि हमारे समाज में लेखक की क्या जगह है, यह भी इससे पता चल जाती है-
अचानक पहचानी होगी फिर से
रघुवीर सहाय ने अपनी ही कविता इस समाज में
अपने मानव होने का एक और अर्थ
और वह दर्पहीन लड़ने की एक अलग तरह की उदास करुणा बनकर
आया होगा उनमेंजैसे पहचानता सा लगता हूँ मैं
जब मैं कल्पना करता हूँ अपनी अकथ विवशता में अपनी बैठक में मौन
अकेले वात्स्यायन को उनके अज्ञात विचारों के साथ छोड़
और गेट तक विदा देने आईं इला डालमिया को नमस्कार कर
सिर झुकाए रघुवीर सहाय के धीरे-धीरे सड़क पर आने की
कुल मिलाकर हमारे समाज में एक बड़े कवि की स्थिति या उसके साथ घटित हुई क्रूर विडंबना का भीतर तक स्तब्ध कर देने वाला चित्र इस कविता में है. एक बड़े सरोकारों से जुड़ा बड़ा कवि, जो सबके दुख, सबके साथ ही हो रहे अत्याचारों पर लिखता है, खुद अपने दुख, निराशा में वह कितना अकेला हो जाता है-यह इस कविता को पढ़कर जाना जा सकता है.
फिर एक और बात. मुझे जाने क्यों लगता है, इस कविता में रघुवीर सहाय के दुख और बेबसी के साथ-साथ कहीं न कहीं विष्णु खरे का अपना दुख भी शामिल है. या उसकी एक मद्धिम छाया जरूर है कविता में, जिसने इस कविता को इतना अधिक करुण, मार्मिक और स्मरणीय बना दिया है.
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हिंदी कविता में राजनीति का शोर बहुत सुना जा सकता है. एक खास विचारधारा के हिसाब से लिखी गई ढर्रे की कविताएँ भी बहुत नजर आ जाती हैं. पर हिंदी में सच्ची राजनीतिक कविताएँ
कितनी हैं? यह खोज का विषय है.
इस लिहाज से देखें तो विष्णु खरे हिंदी में राजनीतिक कविताएँ लिखने वाले अन्यतम कवि हैं. न तो इतनी अधिक राजनीतिक कविताएँ किसी और ने लिखीं और न इतनी प्रभावशाली राजनीतिक कविताएँ कोई और लिख सका. और एक चकित करने वाली बात यह है कि अपने बाद के संग्रहों में, जब ज्यादातर कवि उम्र ढलान पर आते ही आत्मबद्ध होते जाते हैं, विष्णु खरे के यहाँ राजनीतिक रुझान वाली कविताएँ न सिर्फ बढ़ी हैं बल्कि वे सही मोर्चे पर तैनात एक सजग प्रहरी जैसी लगती हैं.
विष्णु खरे के संग्रह ‘काल और अवधि के दरमियान’ में ऐसी कई तीखी और असरदार राजनीतिक कविताएँ हैं. इनमें ‘नेहरू-गाँधी परिवार के साथ मेरे रिश्ते’, ‘फर्द’, ‘जुर्म’, ‘आपसे एक सलाह लेनी है’, ‘गुंग महल’, ‘शिविर में शिशु’, ‘पृथक छत्तीसगढ़ राज्य’, ‘हिटलर की वापसी’, ‘न हन्यते’, ‘स्वर्ण जयंती वर्ष में एक स्मृति’, ‘जर्मनी में एक भारतीय कंप्यूटर विशेषज्ञ की हत्या’ पर जैसी कविताएँ खासकर समय में देर तक टिकने और बार-बार याद आने वाली कविताएँ हैं. खास बात यह है कि विष्णु जी की राजनीतिक कविताओं में नारेबाजी कहीं नहीं है और उनके विचार उनके आत्मकथात्मक प्रसंगों के साथ कुछ इस तरह से घुले-मिले से आते हैं कि वे कविताएँ अपने ढंग की अद्वितीय, मर्मभेद कविताएँ लगती हैं. मसलन ‘शिविर में शिशु’ पढ़ने पर गुजरात का पूरा हत्याकांड हमारी आँखों के सामने आ जाता है तो ‘पृथक छत्तीसगढ़ राज्य’ और ‘नेहरू-गाँधी के परिवार के साथ मेरे रिश्ते’ पढ़कर विष्णु खरे के कवि की अपनी जमीन, बचपन, किशोरावस्था और आगे के विकास को समझा जा सकता है. ऐसे ही विष्णु जी की कई राजनीतिक कविताओँ में जाने-माने राजनेताओं की उपस्थिति और उन्हें निशाने पर लेने का कवि साहस हमें कुछ चकित और हैरान तो करता ही है.
‘गुंग महल’ भी एक भिन्न किस्म की राजनीतिक कविता ही है, जिसमें अकबर के एक प्रयोग के जरिए कविता के अंत में विष्णु खरे जिस विचार को सामने लाते हैं, वह संप्रदायवादियों के खिलाफ धर्म-निरपेक्षता का एक बड़ा हथियार हो सकता है. इस कविता में अपने प्रयोग की असफलता पर अकबर का उत्ताप और पश्चात्ताप द्रवित करने वाला है.
मुझे लगता है कि विष्णु खरे की कविताएँ सिर्फ राजनीति की ही बात नहीं करतीं, बल्कि केवल राजनीति तक महदूद रहने के बजाय, वे समाज, संस्कृति और पारिवारिकता के साथ मानो एकमेक होकर चलती हैं. इसीलिए उनमें इस कदर अद्वितीयता है और वे इतनी सघन संवेदना से से निकलकर आई हैं कि वे देर तक हमारे भीतर बजती रहती है.
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विष्णु खरे की कविताएँ जुझारू कविताएँ हैं, यह बार-बार कहा गया है. लेकिन जहाँ तक उनकी कविताओं के बाहरी कलेवर या विन्यास की बात है, ऊपर से देखने पर वे बहुत ज्यादा लड़ाका कविताएँ नहीं लगतीं. यानी वे लड़ाका और जुझारू मुद्राओं वाली कविताएँ नहीं हैं और ऐसा होने का कोई दिखावा भी नहीं करतीं. बल्कि ऐसी कविताओं के बने-बनाए तरीके ही विष्णु खरे को स्वीकार्य नहीं. इसके बजाय वे एक मर्मांतक सच्चाई के साथ सीधे-सीधे जीवन-स्थितियों को सामने रखने वाले कवि हैं. लेकिन बेहद सजग, सावधान और चौकन्ने कवि, जो कई बार खतरनाक सच कहकर हमें भीतर तक थरथरा देते हैं. बहुतों के लिए यह किसी अप्रत्याशित धक्के की तरह है. वे चौंककर देखने लगते है, भला यह कैसा कवि है! यहाँ तक कि कभी-कभी तो उनके साथ चलने वाले बहुत से लोग भी छिटककर दूर खड़े हो जाते हैं.
पर विष्णु खरे जानते हैं कि हर सत्य की यह एक आवश्यक कसौटी है. लोगों को खुश करना न उन्हें आता है और न वे सीखना चाहते हैं. क्योंकि वे जानते हैं कि सच हमेशा हमारे धैर्य की परीक्षा लेता है कि भला कौन, कितनी दूर तक मेरे साथ चल सकता है-
जब हम सत्य को पुकारते हैं
तब वह हमसे हटता जाता है
जैसे गुहारते हुए युधिष्ठिर के सामने से
भागे थे विदुर और भी घने जंगलों मेंसत्य शायद जानना चाहता है
कि उनके पीछे हम कितनी दूर तक भटक सकते हैंकभी दिखता है सत्य
और कभी ओझल हो जाता है
और हम कहते रह जाते हैं कि रुको यह हम हैं
जैसे धर्मराज के बार-बार दुहाई देने पर
कि ठहरिए स्वामी विदुर
यह मैं हूँ आपका सेवक कुंतीनंदन युधिष्ठिर
वे नहीं ठिठकतेयदि हम किसी तरह युधिष्ठिर जैसा संकल्प पा जाते हैं
तो एक दिन पता नहीं क्या सोचकर रुक ही जाता है सत्य
लेकिन पलटकर खड़ा ही रहता है वह दृढ़निश्चयी
अपनी कहीं और देखती दृष्टि से हमारी आँखों में देखता हुआ
अंतिम बार देखता-सा लगता है वह हमें
और उसमें से उसी का हल्का-सा प्रकाश जैसा आकार
समा जाता है हममें
जैसे शमी वृक्ष के तने से टिककर
न पहचानने में पहचानते हुए विदुर ने धर्मराज को
निर्निमेष देखा था अंतिम बार
और उनमें से उनका आलोक धीरे-धीरे आगे बढ़कर
मिल गया था युधिष्ठिर में
यह वही सत्य है, ‘हमारी आत्मा में जो कभी-कभी दमक उठता है’, मगर हम हमेशा ऊहापोह या द्वंद्व में रहते हैं कि क्या सचमुच हमने उसे हासिल कर लिया है! यही उसे कुछ-कुछ अबूझ, अप्राप्य और रहस्यपूर्ण भी बनाता है. हम उसे हासिल करके भी कभी हासिल नहीं कर पाते. या उसे कभी पा नहीं पाते.
पता नहीं क्यों मुझे लगता है, विष्णु खरे जब यह कविता लिख रहे थे, तो सत्य से ज्यादा शायद अपनी कविताओं के बारे में लिख रहे थे, जो कुछ-कुछ आज भी हमारे लिए अबूझ, दुस्सह और अप्राप्य हैं, पर लगातार हमें पास आने की चुनौती भी देती हैं.
अलबत्ता, जब वे अपने निजी अनुभवों की आँच और वैचारिकता की भट्ठी में तपाकर इन दुस्तर जीवन स्थितियों को अपनी कविता की शक्ल में सामने रख रहे होते हैं तो उनमें बार-बार एक संवेदनशील और धर्मनिरपेक्ष समाज का चेहरा सामने आता है, जो अन्यायों के प्रति सजग है और उनसे किसी न किसी रूप में उसकी लड़ाई भी चलती रहती है. लिहाजा विष्णु खरे की कविताएँ सच्चाई के लिए हर तरह का खतरा उठाने वाली कविताएँ हैं, तो साथ ही उम्मीद जगाने वाली कविताएँ भी हैं. वे नित्य प्रति की पराजय, टूटन, अपमान और घोर यंत्रणा जैसी जीवन की दारुण स्थितियों के बारे में कहती हैं तो इस उम्मीद से कि इन्हें समझा जाएगा और यों इन दुख, यंत्रणा और अन्यायों से लड़ने की जुझारू वृत्ति के साथ-साथ समाज में उसके लिए एक उर्वर जमीन भी तैयार होगी.
यों विष्णु जी की कविताएँ फावड़ा, गेंती से रूखी, ऊबड़-खाबड़ जमीन को खोदकर उसे अधिक उर्वर और समतल बनाने के काम में जुटी हैं, और अभी बरसों बरस तक जुटी रहेंगी-यह उम्मीद की जा सकती है. विष्णु जी के जाने के बाद इसमें कोई फर्क आया हो, ऐसा नहीं लगता. बल्कि उनका कद और बढ़ा है, महत्त्व भी. और जरूरत भी. इस लिहाज से ये कविताएँ एक अलग तरह से प्रगतिशीलता के मोर्चे पर जुटी, जुझारू प्रगतिशील शक्तियों का साथ देती सच्ची जन पक्षधर कविताएँ हैं. हाँ, वे इस ओर भी इशारा करना भी नहीं भूलतीं कि एक अच्छी जन पक्षधर कविता को नारा नहीं होना चाहिए.
नारे और अति-सरलीकरणों से बचते हुए, आज के समय में एक लंबी प्रगतिशील कविता कैसे लिखी जाए, इसकी एक अन्यतम मिसाल विष्णु खरे हैं जिनकी कविताओं पर, मैं समझता हूँ, इस ढंग से कुछ अधिक गौर किए जाने की जरूरत है.
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अंत में एक बात और. विष्णु जी की लगभग सभी कविताएँ न जाने किस अव्यक्त जादू से मुझे एक लंबी, बहुत लंबी महाकाव्यात्मक कविता में पिरोई जान पड़ती हैं, जिसके अनंत दरवाजे और खिड़कियाँ हैं, जिनमें से किसी में भी आप अंदर दाखिल हो सकते हैं, पर जब बाहर आएंगे, तो एक समूचे विष्णु खरे से मिलकर आएंगे-जो अपने जाने के बाद भी लगभग वैसे ही हैं-एक शक्तिशाली और दुर्जेय कवि, और उनकी कविताओं के जरिए उनसे मिलना इतना रोमांचक है कि आप जिंदगी भर के लिए उनके हो जाते हैं.
बल्कि इतना ही नहीं, विष्णु खरे की कविताओं से मिलना थोड़ा-थोड़ा विष्णु खरे हो जाना है-एक पाठक के तौर पर यह मैंने बार-बार महसूस किया है. यह क्यों है, कैसे होता है, और यह कैसी उनकी कविताओं की ताकत है, यह शायद मैं ठीक-ठीक न समझा पाऊँ. पर लेख के अंत में अपना यह अनुभव दर्ज करना पता नहीं क्यों मुझे जरूरी जान पड़ता है.
प्रकाश मनु
545 सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008, |
विष्णु खरे की कविता को गहराई से समझने में सहायक इस आलेख की बड़ी खूबी आलोचना में प्रचलित शब्दावली और पैटर्न से इसका अलग होना है.
प्रकाश जी को साधुवाद.
आलेख में अज्ञेय की प्रकृति विषयक कविताओं पर टिप्पणी बहसतलब है.
हिंदी में रचित प्रकृति विषयक कविताओं को क़ायदे से समझने में अज्ञेय द्वारा सम्पादित ‘रूपाम्बरा’ की भूमिका मील का पत्थर है.
बहुत विस्तार से लिखा है प्रकाश मनु ने विष्णु खरे पर जो निश्चित ही एक बीहड़ और बहसतलब कवि और व्यक्ति रहे हैं।ऊपरी सतह पर विष्णु जी एक ऊबड़ खाबड़ कवि थे,व्यक्ति भी।गैरजिम्मेदार वक्तव्य के धनी।लेकिन उनकी कुछ कविताएं वास्तव में हमे हिला देती हैं।इस लंबे आलेख से पता चलता है की केवल कवि नहीं पाठक भी कवि के प्रेम में पड़ सकता है।इसी के साथ मुझे व्योमेष शुक्ल की विष्णु खरे पर लिखी किताब,”तुम्हे खोजने का खेल खेलते हुए”का ध्यान आया।प्रकाश मनु की गतिशील शैली यह लंबा आलेख झट से पढ़वा ले गई।
विष्णु खरे की कविता पूरी ज़िंदगी की जद्दोजहद है. विष्णु खरे जब पिपरिया आये थे तो दो दिनों तक साथ रहे, वे युवा थे तो पढ़ने के दौरान भी वे पिपरिया आये तब मैं कविता जगत में नहीं था, देवताले जी के साथ वे अक्सर रहे.
पहचान श्रृंखला में उनकी कविताएँ पहली बार मैं ने भी पढ़ी, “तनाव”के प्रति वे हमेशा तत्पर रहते थे, जब उनके अनुवाद पर ( रादनोति)एक अंक प्रकाशित हुआ तो पूरा खर्चा पोलिश दूतावास से दिलवाया.
अपने इस विशद आलेख में उनकी कविताओं को लेकर गंभीरता से विवेचना की है. कविता में बसे अर्थ की नदी को अनगढ़ ज़मीन पर आपने जतन के साथ भगीरथी प्रयास किया .
महाभारत के पात्रों को नई दृष्टि से गढ़ना-जीना विष्णु खरे का ही कमाल है , महाभारत की वैसे सभी कविताएँ बेहतर है अज्ञातवास, द्रौपदी कविता तो अद्भुत है.
सौन्दर्य बोध तो अनंत है विष्णु जी का सौन्दर्य बोध “ की परिधि में दाखिल होकर गिद्ध, चमगादड़ और उल्लू भी कुरूप नहीं रह जाते. बल्कि वे एक भिन्न तरह की सुंदरता ओढ़ लेते हैं “
विष्णु जी को आपने बेहतर ( भाव-प्रवण ) जाना और जनवाया है.
आपको व अरुणोदय जी के प्रति आभार.
वंशी माहेश्वरी
Bahut achchhi vyakhya aur aakulan hai.Bahu samajh,sumvedana and adhyvsay se Prakash Manu ne likha hai.ashok vajpeyi
बहुत सुंदर और सहेजने योग्य आलेख है। विष्णु जी हिंदी के उन कवियों में हैं जिन्हें पढ़ कर भी पढ़ा जाना शेष रहता है। मैंने तो उन्हें अभी समग्रता में पढ़ा भी नहीं है। एक पत्रकार, गद्यकार, आलोचक, कवि और अनुवादक का डाइमेंशन्स समेटे किसी व्यक्ति की रचनात्मक दुनिया कितनी विराट रही होगी ! उनके चिंतन की आंतरिकता उनकी कविताओं में कितनी मुखर है ! ‘दोस्त’ कविता की गद्यात्मकता को तह में छुपी कविता स्तब्ध करती है। यह आलेख एक साथ संस्मरण भी है और व्यक्तित्व और रचना का अन्वेषण भी। बहुत गहन और विस्तार से इसे लिखने के लिए प्रकाश मनु जी का और इसे पढ़वाने के लिए अरूण देव जी का आभार।
यह संस्मरण हो सकता है लेकिन कविता का निकटस्थ पाठ नहीं है. विष्णु खरे और “विष्णु खरे – एक दुर्जेय मेधा” के लेखक, दोनों की ही प्रतिभा से यह आलेख न्याय नहीं करता. जो है, उस से बेहतर चाहिए.
प्रकाश मनु कमाल करते हैं। वाकई। दिल से और बड़ी मेहनत से लिखा गया है। मुझे लगता है कि विष्णु खरे जी का मूल्यांकन हुआ ही नहीं है। वह यथार्थ और भाव सौन्दर्य के साथ इस दुनिया के और दुनिया के लिए कवि है। इस आलेख को पढ़ने-समझने और गुनने के लिए भी धैर्य चाहिए।
विष्णु खरे पर यह अविस्मरणीय आलेख है। उनके व्यक्तित्व और लेखन को एकमएक करता और उसे नये औजारों से विश्लेषित करता हुआ। मुक्तिबोध के क्रम में विष्णु जी को देखने की कोशिश उल्लेखनीय है। प्रकाश मनु जी को, अरुण देव को इस प्रस्तुति के लिए धन्यवाद। कुछ संपन्नता मिली और प्रसन्नता। विष्णु जी की याद ने भी घेर लिया है।
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बहुत दिनों बाद कवि विष्णु खरे पर इतनी गहरी समझ के साथ लिखा गया कोई आलेख पढ़ने को मिला। प्रकाश मनु किसी के बारे में लिखते हैं तो डूबकर लिखते हैं। उन्हें जब तक पूरी तसल्ली नहीं हो जाती , तब तक लिखते हैं। वैसे भी कवि विष्णु खरे का जीवन सपाट कभी नहीं रहा और न समझौतापरस्त कि थोड़े से लिखे पर काम चल जाता। मुझे अक्सर उनका लड़ाकू व्यक्तित्व बहुत पसंद आता था। उनका जुझारूपन बहुत आकर्षित करता था। वे आम लोगों की लड़ाई में हमेशा शरीक रहते। मुक्तिबोध के बरक्स उनके काव्य जीवन की अगर तुलना की है लेखक ने तो बहुत सही किया है। वे जनवादी लेखन के मूल वसूलों से जुड़े रहे और अपने साथी लेखकों तथा कवियों के संघर्ष में शामिल रहे। यह सही है कि बाहर से वे जितने रूक्ष दिखाई देते थे, उतने ही वे अपने व्यवहार में भावुक और संवेदनशील थे।
प्रकाश मनु जी ने उनके संपूर्ण कार्यक्षेत्र पर पहुंचकर उनके भीतर की मनुष्यता तथा उनकी काव्य विराटता को रेखांकित किया है। वे सही माने में महाभारत के कर्ण थे, जो सत्ता को चुनौती देते रहे। उनकी अनेक कविताओं का उद्दरण देते हुए लेखक ने उनके सही मनुष्य होने के सामर्थ्य को उद्घाटित किया है।
अपने अंतिम समय के जीवन संघर्ष को यादकर रूह कांप उठती है। उन्होंने एक सार्वजनिक सभा में द्रोण की तरह हाथ उठाकर कहा था कि कभी हत्यारों का साथ नहीं देना। मनुष्यता के दुशमनों का साथ नहीं देना।
कुछ ही दिनों बाद वे अचानक मौन हो गए। एक गहरी चुप्पी में चले गए। वह कंठ तक रुला देनेवाला दृश्य था। जीबी पंत अस्पताल में उनके अंतिम दर्शन की घड़ियां कभी भूलती नहीं।
भाई प्रकाश मनु का आभार कि उन्होंने कवि विष्णु खरे को सदैव याद रखने के लिए अपने इस आलेख को बहुत बड़ा माध्यम बना दिया।
अग्नि की लपटों पर बैठे कवि की वाणी
विष्णु खरे पर जिस गंभीरता और सूक्ष्मता से प्रकाश मनु जी ने लिखा है, इससे यह सहज ही समझा जा सकता है कि इन्होंने कितनी गहराई से विष्णु खरे के जीवन और उनके सृजन महासमुद्र की यात्रा की है। विष्णु खरे समकालीन कविता का केवल एक बड़ा नाम ही नहीं बल्कि बेचैन और धधकता प्रश्न भी है। उबड़-खाबड़ राह पर चलने वाले एक दुर्जेय योद्धा का नाम है, विष्णु खरे। मनु जी अपने लेख की शुरुआत विष्णु खरे जी के व्यक्तित्व, उसके परिवेश, जिजीविषा, सपने, चिंताओं और सरोकारों पर व्यवस्थित ढंग से करते हैं। फिर धीरे-धीरे विस्तार पाता हुआ लेख अंत तक विष्णु खरे जी की कविताओं की समग्रता पर केंद्रित हो जाता है।
खरे जी को एक दुर्जेय कवि, एक दुर्निवार बेचैनी, कर्ण आदि विशेषण और उपमाएँ देना केवल कागजी नहीं, बल्कि इन्हें सिद्ध किया है। कर्ण क्या है? कर्ण…अपनी खुद की अस्मिता और अधिकार रहित महान योद्धा, जो जीवनभर अपनी ईमानदारी और निष्ठाओं से बंधा रहा, संघर्ष करता रहा और मानो अभिशप्त स्थितियों में जीना ही उसके जीवन की परिणति है। वास्तव में विष्णु खरे की कविताएँ अग्नि की लपटों पर बैठे कवि की वाणी है। और मनु जी ने अग्नि की लपटों पर बैठे जलते-झुलसते कवि की वाणी को, उसकी आँच, ताप और उसकी पावकता को बड़ी शिद्दत से महसूस किया है। विष्णु खरे की कविताओं को महाभारत के युद्ध का मैदान और स्वयं विष्णु खरे का कर्ण में एकमेव हो जाना उनके अदम्य साहस और जिजीविषा को दिखाता है। उनकी कविताएँ संघर्ष करते हुए, विडम्बना पूर्ण स्थिति में जीने को विवश और खोए अधिकार को माँगने वाले लोगों की चीखें हैं, जिसके वे अधिकारी हैं। महाबली नायक होते हुए भी उन्हें उपेक्षित ही समझा गया।
इनकी कविताओं में घर-परिवार, बच्चे, भाई प्रेम, लोक संस्कार, संस्कृति, समाज, राजनीति आदि सबकुछ आए हैं पर, परंपरागत ढर्रे से बिल्कुल अलग ढंग से आए हैं। भावों में कोमलता, सरसता, भावुकता और संवेदना समायी तो है लेकिन वह बाहरी तौर से दिखाई नहीं देती। इन सबका आस्वादन करने के लिए विष्णु खरे जैसा खरा होना पड़ता है। विष्णु खरे और प्रकाश मनुजी दोनों को ही की झूठ पर पलना और चलना पसंद नहीं है। ये दोनों ही जीवन और साहित्य के क्षेत्रों में अपनी मौलिक उदभावनाएँ और सृजन करते हैं। इसलिए ये कर्ण हैं। मनु जी इस लेख में कविताओ की केवल समीक्षा ही नहीं करते बल्कि उस समय को और उनके समकालीनों को भी तराजू में खड़ा करते हैं।
विष्णु खरे को अकवि कहकर, उस अकवि की संवेदना और उसके भीतर रस के सोते को विस्तार दिया है। खरे की कविताओं की शैली, तासीर और प्रभाव मुक्तिबोध के समान है। इनकी कविताओं में बीहड़ता और रुक्षता का सौन्दर्य और कोमलता है। मनु जी द्वारा इनमें तुलना करते हुए समता सिद्ध करना बड़ी बात है। मनु जी के अनुसार इन दोनों महाकवियों को अपने समय से वैचारिक संघर्ष करना पड़ा है।
मनु जी ने विष्णु खरे की कविताओं के भीतर छुपे भावों को बाहर निकालने का दुसाध्य कार्य ठीक वैसे ही है। जैसे अति सख्त और कुरूप नारियल को तोड़कर अंदर के सरस पेय को निकाला हो। मनु जी ने इनकी कविताओं में छुपे सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष को, मानसिक द्वंद्व को, प्रकृति के राग और कुरूपता को और अभावजन्य पीड़ा को पाठकों तक लाने का बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य किया है। खरे जी के काव्य भाषा और शैली के अनुकूल ही मनु जी की समीक्षा शैली भी गंभीर एवं उदात्त है। जिस गहन संवेदना और अनुभूति से मनु जी ने लिखा है, वह सामान्य बात नहीं है। खरे जी के जीवन और रचना कर्म के एक-एक बिंदु को जिस तात्विक विस्तार, संवेदना और अनुभूति से लिखा है, इससे न केवल लेख की गरिमा बढ़ जाती है बल्कि विष्णु खरे का कद भी बड़ा हो जाता है। यहाँ तक कि इतने सुंदर और सुव्यवस्थित लेख को पढ़ने वाले पाठक भी गौरवान्वित महसूस करते हैं। ऐसे लेख ऐतिहासिक शिलालेख की तरह होते हैं। हर रोज पत्र-पत्रिकाओं में लाखों टन कागज पर बड़े-बड़े हस्ताक्षर छपते हैं, पर ऐसे सारगर्भित लेख कभी कभार ही नजर आते हैं।