विष्णु खरेसिनेमा का खरा व्याख्याता सुदीप सोहनी
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‘हर कलाकृति जितनी वह पढ़ी जाती है, सुनाई या दिखाई देती है उससे कहीं ज़्यादा होती है और फ़िल्म को लेकर शायद यह कुछ अधिक सत्य है’. विष्णु खरे का यह कथन अपने आप में साहित्य, कला और सिनेमा के प्रति उनके प्रेम और गहरी समझ का परिचायक है. सिनेमा जितनी कलात्मक विधा है उतनी ही तकनीक आधारित भी. हमारे देश में समस्त तकनीकी शिक्षा की सर्वमान्य भाषा अंग्रेज़ी रही है. ऐसे में तकनीक की चर्चा हिन्दी में होना कुछ मुश्किल ज़रूर है. सिनेमा को अब भी कहानी, संवाद, पटकथा, छायांकन, सम्पादन, कला निर्देशन जैसे महत्त्वपूर्ण विभागों की चर्चा के बग़ैर अभिनेता, निर्देशक, संगीत अथवा गायक या मोटे अर्थों में उसके मनोरंजन या ‘रस’ के अर्थों में ही ग्रहण किया जाता है. कला के जितने भी वाद चित्रकला में हुए सिनेमा ने उन सबको ग्रहण किया. यूँ भी नाटक की तरह सिनेमा सम्पूर्ण कला मानी जाती है.
केवल 125 सालों पहले की विधा को भारत में स्वीकार्यता के पीछे यहाँ की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति में देखना ज़रूरी है. पोस्टर या अन्य प्रचार माध्यमों के अलावा पर्दे पर अभिनेता की उपस्थिति, रेडियो तथा विज्ञापन, प्रचार माध्यम में लाउडस्पीकर के ज़रिये ध्वनि, तथा अखबार सहित मौखिक अथवा वाचिक परंपरा में कहानी के प्रभाव (कुछ हद तक संवाद भी) और किरदार की चर्चा ही हमारे देश में सिनेमा का कुल जमा असर था. और यह स्थिति बोलती फ़िल्मों (उससे पहले से भी) से लेकर लगभग आज तक भी कमोबेश बनी हुई है. विष्णु खरे इसी समयकाल का प्रतिनिधित्व करते हैं. मगर सिनेमा में उनका हस्तक्षेप बतौर दर्शक, आलोचक, पत्रकार और साहित्यकार बना रहा. साथ ही वे हिन्दी के ऐसे समीक्षक के रूप में भी स्वीकार्य किए गए जिन्हें दुनिया के महत्त्वपूर्ण फ़िल्म फ़ेस्टिवल्स ने मान्यता दी. ऐसे में विष्णु खरे के सिनेमा लेखन के अवदान के पहले उनके सिनेमा प्रेम और समाज में सिनेमा की स्वीकार्यता को जानना दिलचस्प होगा.
बोलती फ़िल्मों के बाद बीती सदी के मध्य से दरअसल सिनेमा की हमारी शुरुआती ‘ट्रेनिंग’ रेडियो से रही, जिसे भद्र लोक और मध्यम से लेकर निम्न वर्ग तक सभी ने बेहद रुचि और तल्लीनता से सुना. सिनेमा देखना और उसमें काम करना भारतीयों के लिए हिकारत की चीज़ रही. लिहाज़ा, वर्ग और उम्र विशेष तक उसकी पहुँच रही जिसमें या तो पढे-लिखे, नाटक करने वाले, अंग्रेज़ीदा कुलीन, या स्कूल-कॉलेज में पढ़ने वाले तथाकथित आवारा युवक ही सिनेमा के दर्शक रहे. हॉलीवुड की फ़िल्मेंतो ‘फैंटेसी’ ही रहीं. मगर जिस तरह का व्यापक सरोकार संगीत और साहित्य का भारतीय जनमानस के साथ था, वह सिनेमा को नसीब नहीं था. टेलीविज़न आने के बाद भी उसकी पहुँच हर घर में थी नहीं. मनोरंजन तब हमारे देश में एक तरह के गुनाह के समान ही था. घर-परिवार के दायित्व, नौकरी, पढ़ाई के अतिरिक्त साहित्य और विचार की हर घर में क़द्र थी. ज़ाहिर है ऐसे में अख़बार या पत्रिकाएँ मनोरंजन का एकमात्र स्वीकार्य और मानक विकल्प थे. हर घर में पत्रिकाएँ आती ही थीं. न भी हों तो दोस्तों अथवा शहर के वाचनालायों में जाना लगभग अनिवार्य जैसा ही था.
अगर बीती सदी के नब्बे के दशक तक भी मोटे-मोटे तौर पर उत्तर भारत की इस सामाजिक व्यवस्था को हम मान लें तब भी सिनेमा हमारे घर-परिवार में दूर की कौड़ी था. दूसरी अहम बात भाषा की है. मराठी, बंगाली या अंग्रेज़ी बोलने-पढ़ने वाला समाज तो तब भी विदेशी फ़िल्में देख रहा था जिसके कारण उनकी दिलचस्पी और बात-बहस के आयाम उन्हें सुलभ थे मगर हिन्दी भाषी समाज के लिए हिन्दी में सिनेमा की विधागत चर्चा के कितने पाठक होंगे, यह तब क्या आज भी अपने आप में एक सवाल बना हुआ है.
विष्णु खरे अपने सिनेमा के प्रति आकर्षण की पहली-पहली घटना 50 के दशक में छिंदवाड़ा में घर के पास की टॉकीज का होना बताते हैं. ‘गुफ़्तगू’ में सैयद मोहम्मद इरफ़ान के साथ अपने एक साक्षात्कार में वे कहते हैं कि पाटनी पिक्चर हॉल उनके घर के इतनी पास था कि सिनेमा की आवाज़ उनके घर तक आती थी. इतना ही नहीं वे कहते हैं कि उन्होंने अपने बचपन में कई सारी फ़िल्में पहले इस तरह सुनी और फिर देखीं. सिनेमा इस तरह से उनके अवचेतन में बैठ गया. जिसने निश्चित ही उनके देखने-सुनने-समझने के असर को साहित्य सहित ज़िंदगी के कई हादसों और अनुभवों के साथ समृद्ध किया. दूसरा, बचपन के अपने घर का ज़िक्र करते हुए तब के परिवेश में साहित्यिक पुस्तकों, पत्रिकाओं की उपस्थिति के वातावरण में अपने क़स्बे में ‘स्क्रीन’ पत्रिका को देखना (‘सिनेमा समय’– पेज 31 एक छपे रिसाले के लिए विलंबित मर्सिया) और उसे ख़रीदने, पढ़ने की ललक का जिस अंदाज़ में वे ज़िक्र करते हैं, वह भी एक बिन्दु है जिसने सिनेमा देखने के इतर सिनेमा के बारे में लिखे जाने की ओर पहली बार उनका ध्यान आकर्षित किया.
और तीसरी महत्त्वपूर्ण बात उसी 50-60 के दशक में जब नेहरू जी की अगुआई में शुरू हुए फ़िल्म फ़ेस्टिवल (भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म फ़ेस्टिवल या ईफ़ी जो आजकल गोवा में होता है, उसकी शुरुआत 1952 में पं. जवाहर लाल नेहरू ने की थी और नेहरू जी के आग्रह पर जिसमें विदेश की चुनिन्दा फ़िल्में देश भर में दिखाई गई थीं और इसी के तहत छिंदवाड़ा में भी प्रदर्शित हुईं. खरे ने तब इटैलियन फ़िल्म ‘बाइसिकल थीव्स’, जापानी फ़िल्म ‘यूकी वारिसू’, रशियन फ़िल्म ‘द क्रेन्स आर फ्लाइंग’ जैसी फ़िल्में देख ली थीं) ने किशोर उम्र में ही विश्वस्तरीय सिनेमा की राह विष्णु खरे के लिए खोल दीं. उसके बाद साहित्य के इतर सिनेमा पर लिखने का काम पत्रकारिता की नौकरियों से शुरू हो कर देश-विदेश के महत्त्वपूर्ण फ़िल्म फ़ेस्टिवल्स और बाद में अखबार, पत्रिकाओं आदि में उनके हस्तक्षेप तक चलता रहा.
ऐसा भी नहीं कि खरे से पहले सिनेमा पत्रकारिता नहीं थी मगर अहम बात यह कि खरे विशुद्ध रूप से केवल पत्रकार नहीं थे और हिन्दी कवि, अनुवादक और अध्यापक बतौर उनकी ख्याति और स्थापना ज़्यादा मजबूत रही है. समग्र रूप से सिनेमा के गुण-दोषों और आग्रहों के साथ देशी-विदेशी सहित हिन्दी के सिनेमा पर स्तरीय व सामयिक चिंतन और उसके सामाजिक सरोकारों का साफ़गोई से विवेचन विष्णु खरे के सिनेमा आलोचना में योगदान को रेखांकित करता है. जिस तरह अच्छे साहित्य की पहचान पढ़ने से होती है या संगीत की पहचान सुनने से उसी तरह सिनेमा को समझने की शुरुआत सिनेमा देखने से होती है. धीरे-धीरे और समय के साथ आप किसी भी कला में अपने आस्वाद का परिष्कार करने लग जाते हैं. यहाँ यह जानना दिलचस्प है कि 1962 में इंदौर से निकलने वाले अखबार ‘सिनेमा एक्स्प्रेस’ से उनकी सिने पत्रकारिता का सिलसिला शुरू हुआ जो शुरुआती समय में फ़िल्मों के कथानक, साक्षात्कार आदि पर केन्द्रित होता था. बाद के वर्षों में महत्त्वपूर्ण हिन्दी व अँग्रेजी अखबार हिंदुस्तान टाइम्स, पायोनियर, नवभारत टाइम्स, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, अमर उजाला, नई दुनिया व पत्रिकाओं दिनमान, हंस, कथादेश, और अंत में वेब पत्रिका ‘समालोचन’ तक चलता रहा.
हालाँकि स्वयं विष्णु खरे के हवाले से साहित्य-पत्रकारिता-सिनेमा की कड़ी बतौर रघुवीर सहाय, कुँवर नारायण, प्रयाग शुक्ल, विनोद भारद्वाज, मंगलेश डबराल जैसे नाम ही मिलते हैं और बाकी जगहों पर विष्णु खरे लिखने के इतर अपने समवर्ती या पूर्ववर्ती साहित्यकारों पर प्रश्नचिन्ह ही लगाते हैं जो सिनेमा को मनोरंजन से अधिक कुछ नहीं समझते. मगर कुल मिलकर यह भी हिन्दी में सिनेमा आलोचना की स्थिति के रुचिगत व कलात्मक परिष्कार का सीमित दायरा बताता है. हिन्दी में तब भी ब्रजेश्वर मदान, नेत्र सिंह रावत, प्रह्लाद अग्रवाल, मनमोहन चड्ढा, जयप्रकाश चौकसे जैसे नाम सक्रिय रहे जो साहित्य-पत्रकारिता-सिनेमा के बीच की कड़ी बने रहे. विष्णु खरे यहाँ परंपरागत सिनेमा आलोचक से कुछ अलग हो जाते हैं जिसके कई सारे कारण भी हैं.
पहला, उनकी नौकरीगत सक्रियता जो अध्यापन, सम्पादन व पत्रकारिता तथा साहित्यिक लेखन, राजनीतिक हस्तक्षेप व कड़े वामपंथी रुझान के कारण मुख्य रूप से कलात्मक पक्ष को नहीं साधती.
दूसरा, सिनेमा की उनकी ट्रेनिंग या प्रशिक्षण मुख्यतः आस्वाद तक ही केन्द्रित रहा जिसके कारण तकनीकी पक्षों पर उन्होंने कम लिखा. इसका मतलब यह भी नहीं कि वे तकनीकी पक्षों से अनभिज्ञ रहे बल्कि समय-समय पर अपने सिनेमा लेखन में उन्होंने भारतीय पाठकों के लिए सचेत होकर इन पक्षों पर अपनी बात भी रखी. तीसरा और मुख्य कारण पाठकों से भी जुड़ता है जब केवल लिखना उतना ज़रूरी नहीं जितना कि उसका पढ़ा जाना भी. विष्णु खरे साहित्यिक सोच के साथ हिन्दी सिनेमा पर अखबार में लिखते थे. ज़ाहिर है वे अक्सर टिप्पणियों की शक्लें इख्तियार करती रहीं जिनमें विचारधारा बहुत महत्त्वपूर्ण बिन्दु होता जबकि उनकी सक्रियता के वर्षों खासकर 80 के मध्य से लेकर 90 के मध्य हिन्दी सिनेमा सतही और कारोबारी ज़्यादा हो गया था. इन सबका विष्णु खरे के सिनेमा आलोचक को नुकसान ही हुआ.
खरे के सिनेमा लेखन मुख्य पक्ष है कथानक के बहाने अपने समय का राजनीतिक विश्लेषण. ऑस्कर से लेकर कान फ़िल्म फ़ेस्टिवल सहित दुनिया भर के समारोहों में पुरस्कृत फ़िल्मों और ख़ासकर हिन्दी फ़िल्मों की राजनीतिक व्याख्या और सामाजिक संदर्भों में विश्लेषण उनके लेखन का अनिवार्य और प्रमुख तत्त्व बना रहा. मसलन फ्रेंच फ़िल्म ‘दीपन’ के बारे में जब वे बात करते हैं तो भारत-श्रीलंका के बहाने फ़्रांस में तमिल समुदाय की उपस्थिति और कथानक के नायक का श्रीलंका से संबंध जोड़ते हैं और इस तरह एक नज़र में वैश्विक हालात दिखाई दे जाते हैं.
तमिल-सिंहल गृह युद्ध और शरणार्थियों के जीवन के इस कथानक के बहाने वे विश्व सिनेमा की राजनैतिक परिस्थितियों पर भी सवाल खड़े करते हैं. वहीं, अपने भीतर के एक्टिविस्ट को जब वे किशोर साहू और ख्वाजा अहमद अब्बास की याद करने और अनदेखी होने पर बाहर लाते हैं तो राज कपूर और अमिताभ बच्चन से लेकर सरकार और तंत्र तक को नहीं बख़्शते.
‘पीके’ फ़िल्म की ज़बर्दस्त व्यावसायिक सफलता को भी एक हद तक स्वीकार करते हुए वह सिनेमा की जादुई शक्ति और बतौर निर्देशक राजू हीरानी के कमाल को स्वीकार करते हैं मगर कथानक में तार्किकता की कमी की ज़बरदस्त विवेचना करते हैं. वहीं स्टेनली कुब्रिक की असाधारण फ़िल्म ‘2001 स्पेस ओडिसी’ की गहन विवेचना और ‘स्टार वार्स’ से लेकर ‘इंटर्स्टेलर’ तक के समीकरणों का जुड़ाव निश्चित ही उनकी सिनेमा माध्यम की गहन समझ को दर्शाती है. अपने मशहूर और पाठ्यक्रमों में शामिल आलेख ‘चार्ली चैप्लिन यानी हम सब’ में रस की व्याख्या करते विष्णु खरे जिस तरह गहरे में जाते हैं, वह सिनेमा के साथ कला और सांस्कृतिक आदान-प्रदान की अनूठी विवेचना है-
‘भारतीय कला और सौंदर्यशास्त्र को कई रसों का पता है, उनमें से कुछ रसों का किसी कलाकृति में साथ-साथ पाया जाना श्रेयस्कर भी माना गया है, जीवन में हर्ष और विषाद आते रहते हैं यह संसार की सारी सांस्कृतिक परंपराओं को मालूम है, लेकिन करुणा का हास्य में बदल जाना एक ऐसे रस-सिद्धान्त की माँग करता है जो भारतीय परंपराओं में नहीं मिलता. ‘रामायण’ तथा ‘महाभारत’ में जो हास्य है वह ‘दूसरों’ पर है और अधिकांशतः वह परसंताप से प्रेरित है. जो करुणा है वह अकसर सद् व्यक्तियों के लिए और कभी-कभार दुष्टों के लिए है. संस्कृत नाटकों में जो विदूषक है वह राज व्यक्तियों से कुछ बदतमीजियाँ अवश्य करता है, किंतु करुणा और हास्य का सामंजस्य उसमें भी नहीं है. अपने ऊपर हँसने और दूसरों में भी वैसा ही माद्दा पैदा करने की शक्ति भारतीय विदूषक में कुछ कम ही नज़र आती है’.
चैप्लिन के सिनेमाई दर्शन के बहाने खरे का यह विवेचन भारतीय कला और उसमें निहित तत्त्वों का बहुत बड़ा चिंतन है. ख़ासकर ‘महाभारत’ के विषय में जिसमें अद्भुत रूप से यह अवलोकन उन्होंने प्रस्तावित किया.
साहित्य और सिनेमा के अंतर-संबंधों पर विमर्श विष्णु खरे के सिनेमाई लेखन का महत्त्वपूर्ण पक्ष है. कई साहित्यिक कृतियों की व्याख्या वे सिनेमा बनाए जाने के लिए करते हैं. मसलन भीष्म साहनी का ‘तमस’ जिसका निर्देशन गोविंद निहलानी ने किया. धर्मवीर भारती का ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ जिसका निर्देशन श्याम बेनेगल ने किया. इन दोनों कृतियों के सिनेमाई रूपान्तरण को विष्णु खरे ने ख़ास माना है. वहीं ‘मोहनजोदाड़ो’ के लिए अपने स्तंभों में आशुतोष गोवारीकर को अपनी रवानगी और अंदाज़ में फटकार लगाई है जिसमें वे फ़िल्म के लेखक से आग्रह करते हैं कि उसे रांगेय राघव का ‘मुर्दों का टीला’ ज़रूर पढ़ना चाहिए था जिसका अर्थ मुएँ जो दाड़ो के लिए बिलकुल सटीक था. यहीं लगभग फटकार की मुद्रा में वे समाज से भी कहते हैं कि अब पढ़ने की सलाहियत हमारे समाज में नहीं है.
हरि मृदुल के साथ साक्षात्कार में किस कृति पर बेहतर फ़िल्म बन सकती है, का जवाब अपने अंदाज़ में वे देते हैं कि धर्मवीर भारती के ‘गुनाहों का देवता’ पर फ़िल्म दरअसल सबसे पहले उसे ‘साहित्य’ कहने पर ही संकुचित करता है. अपने स्वभाव के अनुरूप उन्होंने मणि कौल जैसे फ़िल्मकार की धज्जियाँ उड़ाई यह कह कर कि मुक्तिबोध के निबंधों पर आधारित कौल की फ़िल्म ‘सतह से उठता आदमी’ दरअसल सिनेमा से रागात्मक रिश्ता ख़त्म करती है. उन्होंने कहा कि इसके मुक़ाबले विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास पर आधारित ‘नौकर की कमीज़’ कौल की कहीं बेहतर फ़िल्म है.
एक बात जिससे मैं इत्तिफ़ाक़ नहीं रखता मगर दिलचस्प है, वह है खरे का अँग्रेजी फ़िल्मों के नामों का हिन्दी अनुवाद कर देना, मसलन- अब्बास किआरोस्तामी की फ़िल्म ‘द ट्रेवलर’ को मुसाफ़िर, ‘अ वेडिंग सूट’ को शादी का सूट, ‘व्हेअर इस द फ्रेंड्स होम’ को दोस्त का घर कहाँ है, ‘विंड विल कैरी अस’ को हवा हमें बहा ले जाएगी, फोल्केर श्लोंडोर्फ की ‘द टिन ड्रम’ को टीन का ढोल या पुरस्कारों के लिए ‘गोल्डन पाम’ को स्वर्ण ताड़पत्र जैसे हिन्दी तर्जुमें कर देना उनकी अपनी सोच रही है. हालांकि अँग्रेज़ी के नाम दुनिया भर में प्रसिद्धि और मानक की तरह ही इस्तेमाल होते हैं मगर इस मामले में खरे की सोच अलहदा रही. लेकिन वहीं दूसरी ओर जर्मन, फ़्रेंच, चेक आदि नामों का ख़ास उच्चारण भी उनके लेखन में दिखता है, मसलन- अब्बास किआरुस्तमी (Abbas Kiarostami), लेओनार्दो दा विंची (Leonardo Da Vinci), वेर्नर हेत्सोग (Werner Herzog), क्वेंतीन तारांतीनों (Quentin Tarantino), मोहजिन मखमलबाफ (Mohsen Makhmalbaf) आदि.
एक आलेख में वे बाकायदा गिनेस बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड के संदर्भ को लिखते हुए कोष्ठक में जोड़ते हैं – “जिसे जाहिल ‘गिनीज’ लिखते हैं’’. इस बात के पीछे खरे का तर्क वही था जो उनके बचपन के साहित्यिक प्रशिक्षण से आया था. वे मानते थे कि सही भाषा और वर्तनी सहित व्याकरण लिखना न केवल भाषा की सलाहियत का संस्कार है बल्कि वही आपके विचारों को भी परिष्कृत करती है और जिसके अभाव में आपके विचार भी कमजोर होते हैं और इस तरह मनुष्य के भीतर से कमजोर लेखक ही बाहर आता है. यह अपने आप में जितना भाषा विज्ञान के निकट है उतना ही मनोविज्ञान के भी. खरे इस चिंता को कितनी दूर तक ले जाते हैं, यह सचमुच आश्चर्यजनक लगता है. सच तो यह है कि उनके जितना उद्भट विद्वान जो कई भाषाएँ जानता था, अनुवाद, आलोचना, साहित्य, सिनेमा और पत्रकारिता कर्म मे रत था उसके पासंग भी कोई नहीं. शायद इसलिये भी वे साफ़गोई पसंद रहे और अपनी टिप्पणियों के लिए लगभग कुख्यात भी.
न केवल सिनेमा बल्कि गीतों की समझ भी उनकी गहरी थी और उनके मित्रों सहित जानने वाले उनकी इस ख़ासियत का ज़िक्र करते हैं. बीबीसी में कुन्दन लाल सहगल पर छपे अपने लेख में खरे किस तरह से सहगल को याद करते हैं उसकी बानगी देखिये–
“वे पंकज मलिक, केसी डे या अपने के बाद के मोहम्मद रफ़ी की तरह पूरे और ऊँचे गले के गायक नहीं थे लेकिन वे खरज और मध्यम सुर तथा मूल रुप से ठुमरी और छोटे ख़याल की गायन शैली में लाजवाब थे. उनके पहले रिकॉर्ड किए गए गीत ‘झुलना-झुलाओ’ में ‘अंबवा की डारी पे’ शब्दों में ‘पे’ को उन्होंने जिस तरह खरज में माधुर्य दिया है और इसी गीत में कोयल की कूक को जो लगभग वैसा ही स्वर दिया है वह इस बात की चेतावनी थी कि दक्षिण एशियाई लोकप्रिय गायकी में एक महान प्रतिभा आ चुकी है. कुछ गीतों में सहगल शब्दों का अति-उच्चारण करते हैं, पंक्ति के अंतिम शब्दों को कुछ दूर तक आलाप में ले जाते हैं. गलेबाज़ी के कमाल दिखाते हैं. अति माधुर्य लाने के लिए नासिका दोष से भी परहेज़ नहीं करते और इन सब वजहों से कभी-कभी उनकी पैरोडी भी की गई है. लेकिन ‘इक बंगला बने न्यारा’, ‘सो जा राजकुमारी’, ‘राधेरानी दे डारो न’, ‘मैं क्या जानूँ क्या’, ‘बाबूल मोरा’, ‘करुँ क्या’, ‘ग़म दिए मुस्तकिल’, ‘दो नैना मतवारे तिहारे’ जैसे गीत सिर्फ़ वे ही गा सकते थे’’.
मजरूह सुल्तानपुरी के बारे में अपने अँग्रेजी आलेख ‘अ रोमांटिक लिरिसिस्ट’ में वे लिखते हैं (जिसका तर्जुमा ये है), – ‘नौशाद से अलग होने के बाद ओ पी नैयर के लिए मजरूह ने रम्य, मस्ती भरे, सरल, पैरों को थिरकने और उँगलियों को फड़कने वाले गाने दिये’. वहीं आशीष राजाध्यक्ष की मानक कृति ‘एनसाइक्लोपीडिया ऑफ इंडियन सिनेमा’ में मजरूह के विषय में छपी जानकारी को दुरुस्त करते हैं कि शायरों के बारे में प्रचलित शहरों के नाम से बने तख़ल्लुस उनकी वास्तविक पैदाइश नहीं होते. सटीक जानकारियों बाबत यह अपने आप में खरे की विलक्षणता को भी दर्शाता है. मुझे लगता है कि खरे को अपनी इस विलक्षणता का समुचित प्रयोग करते हुआ हिन्दी सिनेमा का इतिहास ज़रूर लिखना चाहिए था जो अपने आप में प्रामाणिकता की नज़ीर होता. इन सबके बीच खरे जैसा आदमी जो मणि कौल जैसे विलक्षण फ़िल्मकार को नहीं बख़्शता वो एक जगह चौंकाता और लगभग विस्मित करता है. अभिनेता इरफ़ान जब जीवन और मृत्यु के बीच झूल रहे थे तब खरे ने अपने सिनेमाई कॉलम में इरफ़ान के नाम जो पत्र लिखा उसकी पंक्तियाँ यूँ है,
‘तुम लिखते हो कि तुम ब्रह्मांड की अकूत शक्ति और बुद्धिमत्ता के विराट प्रभाव को पहचान गए हो. उसने तुम्हें कहां स्थित कर दिया है. तुम जिंदगी के समंदर पर तिरता अदना कॉर्क नहीं हो, लेकिन मुझे तुम्हारी अगली फ़िल्म का इंतजार है. मुझे मालूम है कि उसमें तुम सराहे जाओगे. मुझे एक दैवी चमत्कार की भी प्रतीक्षा है, जिसे अभी कहने में भी डर लगता है’.
विष्णु खरे का सिनेमा लेखन तब भी महत्त्वपूर्ण इसलिए हो जाता है क्योंकि उनके जैसा विकट विद्वान जो कई भाषाएँ जानता था और अपनी मेधा और वाक क्षमता के जरिये हिन्दी का अनूठा सर्जक रहा, उसने सिनेमा की जनमानस के साथ रिश्तों की अहमियत को पहचाना. खरे ने यह भाँप लिया था कि परोक्ष रूप से सिनेमा का असर समाज और संस्कृति पर चेतन-अवचेतन दोनों तरीकों से होता है. इसलिए वे लोकप्रिय अखबारों के अपने सिनेमाई स्तंभों में विचारधारा के बहाने सिनेमा की कहानियों, चरित्रों पर प्रहार करते रहे. उनका लेखक भी हमेशा सजग रहता जो चुन-चुनकर वह शब्द या पंक्ति लिखता जिसका असर तीव्र हो. यही आह्वान वे साहित्यकारों से करते थे. उनका मानना रहा कि एक लेखक को पत्रकारिता में सेंध ज़रूर लगानी चाहिए ताकि वह लोकप्रियता को भी इस्तेमाल कर सके. उनकी सिनेमाई आलोचना मुख्यतः विचारधारा के आसपास रही जिसमें करंट अफेयर्स के ज़रिये मुद्दे, और विमर्श ही आधार रहे. ‘सिनेमा समय’ पुस्तक में संकलित उनके स्तम्भों की तात्कालिक टिप्पणियाँ यही ताकीद करती हैं. हालाँकि, अपने सिनेमा लेखन में वे आलोचक से कहीं अलग ‘एक्टिविस्ट’ नज़र आते हैं.
मुझे लगता है कि अपनी कविता से इतर कथानकों और समय-समाज के प्रति तल्ख टिप्पणियाँ सिनेमा के प्रति उनके अवचेतन में बसे प्रेम का सूचक हैं. चाहे भारत हो या विदेश के समारोह या अपने प्रवास, वे बाक़ायदा फ़िल्म क्लबों के सदस्य बनकर अनगिनत फ़िल्मों को देख डालने का अपना शौक़ पूरा करते रहे. साथ ही जब तब सिनेमा का कर्ज़ उतारना अपना दायित्व ही समझते रहे. जर्मन विद्वान लोथार लुत्से के संस्मरण और उनकी सिनेमाई पुस्तक ‘The Hindi Film: Agent and Reagent of Cultural Change’ तक वे अपना काम ईमानदारी से करते रहे. पश्चात अपनी कम सक्रियता के बावजूद सिनेमा की किताबों, नए लेखकों और पत्रिकाओं में अपनी सिनेमाई समझ को साझा करते रहे. यह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं कि उनकी आस्वाद की पैनी नज़र, कथानकों की ग्राह्यता और सिनेमाई असर के बावजूद सिनेमा आलोचना में केवल मनपूर्वक बिना किसी अभीष्ट की चाह के लिखते रहना अपने समय के हिन्दी के लेखक का समर्पण ही दर्शाता है. शायद इसी कारण से उनका सिनेमा आलोचक तटस्थ रहकर भी एकाकी खड़ा दिखता है.
सुदीप सोहनी भारतीय फिल्म एवं टेलीविज़न संस्थान, पुणे के वर्ष 2013-14 के छात्र. कवि, पटकथा लेखक, निर्देशक, परिकल्पक व सलाहकार के रूप में सुदीप का कार्यक्षेत्र सिनेमा, रंगमंच, साहित्य, व संस्कृतिकर्म तक फैला है. नीहसो – उपनाम से कविता लेखन. इन दिनों स्वतंत्र फ़िल्म निर्माण में संलग्न. विगत वर्षों से देश की प्रमुख पत्रिकाओं, ब्लॉग, वेबसाइट्स आदि पर सिनेमा संबन्धित आलेख, कविता व गद्य का नियमित प्रकाशन. सिनेमा पर श्रेष्ठ लेखन के लिए म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन का ‘पुनर्नवा सम्मान’. रबीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय भोपाल द्वारा जूनियर टैगोर फ़ेलोशिप. सिने समालोचना के लिए प्रथम विष्णु खरे स्मृति सम्मान के लिए चयनित.
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सिनेमा पर विष्णुजी को पढ़कर हमलोग वह फ़़िल्म ढूँढ़कर देखा किए। उनके देखने को हमलोग अपनी आँखों पर चस्पाँ कर लिए करते थे. जबरदस्त प्रतिभाशाली विष्णु खरे कवि के साथ फ़िल्म क्रिटिक के रूप में हमेशा याद आते रहेंगे. सुदीप सोहनी को इस लेख के लिए, विष्णुजी से जुड़े सम्मान के लिए बधाई और शुभकामनायें….
विष्णु की स्मृति में आज संध्या ६:३० बजे पर फेसबुक लाइव कार्यक्रम इस लिंक पर होगा https://www.facebook.com/events/620097575734745
बहुत बढ़िया, सुदीप।
करुणा और हास्य…इन रसों को मिलाकर विष्णु जी को बतौर अक़ीदत आप एक नाम अर्पित करने का प्रयास करेंगे?
बहुत सुंदर और विचारोत्तेजक आलेख।
टॉकीज की आवाज़ घर पर आती थी…इससे बचपन की कोई एकदम भूली हुई स्मृति लौट आयी।
पैसा नहीं होता था फ़िल्म देखने के लिए। कभी कोई सम्पन्न रिश्तेदार एकाध फ़िल्म दिखला जाता था। बाकी गुज़ारा उसी आवाज़ से होता आया।
आज कसर पूरी कर रहे हैं। कभी विष्णु जी की स्मृति में एक फ़िल्म फेस्टिवल भोपाल में आयोजित करें?
यह आलेख विष्णु खरे की दृष्टि एवं सोच को समझने में सहायक है विशेषकर भारतीय सिनेमा के संदर्भ में। वे साहित्य एवं सिनेमा के पारखी अध्येता थे। हिन्दी के अकेले तो नहीं पर चंद विरल कवियों में रहे हैं जिनकी बहुत गहरी समझ एवं पैठ वैश्विक सिनेमा में भी रही है। इस आलेख के लिए सुदीप जी एवं समालोचन को बधाई !