\’संजुक्ता दासगुप्ता अंग्रेज़ी की प्रतिष्ठित कवयित्री हैं. उनके छह कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं— Snapshots (1996), Dilemma (2002), First Language (2005), More Light (2008), Lakshmi Unbound (2017) और Sita’s Sisters (2019). उदात्त की तलाश में उनकी कविता, अनेक तत्त्वों को साथ ले आती है. अपनी कविताओं में उन्होंने मिथक और दर्शन का सृजनात्मक प्रयोग किया है. अतीत में आवाजाही करते हुए ये कविताएँ समकालीन संवेदना की सघन अभिव्यक्ति हैं. ‘सीता की बहनें’ इसका विलक्षण उदाहरण है.
कवि होने के साथ-साथ संजुक्ता दासगुप्ता कलकता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर तथा अंग्रेजी विभाग की अध्यक्ष रही हैं. वे सफल अनुवादक एवं आलोचक भी हैं. उनकी आलोचकीय रचनाओं में प्रमुख हैं—The Novels of Huxley and Hemingway: A Study in Two Planes of Reality, Responses : Selected Essays, Media, Gender and Popular Culture in India: Tracking Change and Continuity. उन्हें अनेक राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कारों से सम्मानित किया गया है.\’
रेखा सेठी
संजुक्ता दासगुप्ता की कुछ कविताएँ
(अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद रेखा सेठी)
(अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद रेखा सेठी)
सीता की बहनें
सीता की बहन अच्छी औरत थी
वह केवल एक ही आदमी की हुई
ब्याह, सिंदूर–
चूड़ियाँ खनकती थीं उसकी कोमल कलाइयों में
उसका पति था उसका परमेश्वर
उसका मालिक और स्वामी
साँसें उसकी घुटी-घुटी थीं, होंठ बंद
वह शेर खूँखार था और यह भीगी बिल्ली
आँख मिलाना था एकदम वर्जित
\”मेरी तरफ देखने की हिम्मत कैसे की\” वह चिल्लाता
\”मैं तुम्हारी आँखें निकाल लूँगा, बेशर्म औरत\”
सीता की हैं असंख्य बहनें—क्या नाम हैं उनके
रीता, मीता, अर्पिता, सुमिता, रिनीता
लोलिता, बोनिता, अनीता, सुनीता, सुचेता…
हज़ारों-हज़ार सीता की बहनें
रटंतु तोतों-सी, दयनीय कठपुतलियाँ
रिमोट से चलती रोबोट जैसीं
सीता की बहनें देखती हैं नि:शब्द
सीता की बहनें हैं गूंगी और बहरी
सीता की बहनें जब करती हैं बंद आँखें
आँखों की जगह होते हैं खाली गड्ढे
सीता की बहनें पुकारती हैं माँ धरती को
“याद रखना माँ, हमारी बहन सीता की आत्महत्या,
बेगुनाह सीता की यातनापूर्ण परीक्षा
हे माँ, बचाना हमें
बचाया था जैसे सीता को, तुमने”
लेकिन हाय सीता की बहनों के लिए धरती की छाती नहीं फटी
सीता की उदास बहनों की लगातार उठती असहनीय चीखों ने
धरती माँ को संवेदनहीन पत्थर में बदल दिया!
एक सोये हुए गाँव की दास्तान
एक सोये हुए गाँव ने तमंचे उगाये
अचानक एक सोये हुए गाँव पर
कई रंग के झंडों ने चढ़ाई कर दी थी
उस साल खेतों में तमंचे उगे
किसानों ने देखे सपने अविनाशी उपग्रह शहर के
पटरियाँ सोने की और झंकार स्टील की
आलीशान एक चेतावनी
गहरी नींद में डूबा रहा
एक सोया हुआ गाँव
नहीं पकड़ पाया संदिग्ध बातों के द्विअर्थी मायने
हाय एक सोया हुआ गाँव
चंचल वायदों की लोरियों के बहकावे में
छला गया लच्छेदार बातों के पेचोखम में
सीधे-सादे गाँव वालों ने तमंचे उगाये उस वर्ष
बंदूकों के घोड़े दबाना सीखा
जबकि हलों पर जमती रही धूल
एक सोये हुए गाँव ने
मृत्यु देखी उस वर्ष
कर उठे चीत्कार, \”अकेला छोड़ दो हमें\”
जो सच को झूठ की तरह बरतते हैं
उनके झाँसे में आ गए
सपनों के बदले पाए दु:स्वप्न
शैतानी चंगुल की गिरफ़्त में छटपटाये
एक सोया हुआ गाँव
डूब गया लहू और आँसुओं में
तीन फसलें उगाई–बंदूकों, गोलियाँ और बम
चालाक अजनबियों की शहद भरी बातों के
नशे में डूबे शब्दों के जाल में उलझे
एक ही रात में निवासी से शरणार्थी हुए
ताक़त का खेल चलता रहा
डर पीछा करता रहा उनका
बम विस्फोट का धमाका और मौत की ख़ामोशी
संज्ञाहीन संदेशवाहक लड़के-लड़कियाँ, बंधक मनुष्य
मूर्छित थी हिम्मतताई उस मैदानी गाँव में
ब्रेश्ट और गोर्की की माएँ फँस गयी थीं
कठपुतली नचाने वालों के जाल में.
एक रात अचानक गायब हो गया
यह सोया हुआ गाँव
अपने लोगों, मिटटी और खंदकों के साथ
उड़न-तश्तरी सा
यह सोया हुआ गाँव
फिर सो गया गहरी नींद
सुख की साँस लिए
जागना उनके लिए दुखद और भयावह रहा
पतझड़
बसंत को अब मैं बहुत पीछे छोड़ आई हूँ
मेरे झुर्रियों भरे हाथों को
थामता है पतझड़, कोमलता से
पतझड़ के आलिंगन में
मैं जानती हूँ अब
यदि पतझड़ आया है
तो बहुत दूर नहीं होगा शिशिर
बसंत अचानक ले आता खुशियाँ और ग़म
और जादुई बरसात, घावों को भर कर
मुलायम कर देती
अब, अनचाहे ही खूब ख्याल रखने पर भी
बालों में सफेदी चाँदी-सी चमकती है
पतझड़ मेरी आँखों में है
मोतियाबिंद और झरते आँसुओं में
घिर आता धारा-प्रवाह, जबकि रोती नहीं मैं अब
उल्लास से भरा वसंत
झूठ लगता है अब
संवेदना जगाता पतझड़
करता है तैयार चिर शीत-निद्रा के लिए
पीछे से आ रही शिशिर के कदमों की आहट
दुर्गा
ओ महिमामयी देवी भगवती
पाप नाशिनी दुर्गा
निरीह दुर्बलों की माँ
नर-पिशाच असुर मर्दिनी
देवी चंडी, उठाये शस्त्र
करती निरस्त्र शंका के दानव
स्त्री होकर उठाये शस्त्र
करने पार दुखों का सागर
माँ दुर्गा की कैसी वापसी
आसपास उसकी संतानें
अस्त्रों-शस्त्रों से सजी-धजी
चमकती शमशीर, भयंकर त्रिशूल
जंगल के राजा पर होकर सवार
अमंगल के हृदय में गड़ाए
अपना अचूक शूल
दुर्गा का बजाया शंख
सदियों से गूँज रहा
धरती की छाती में
सोये बीज जगाने को
निर्भय करती उसकी पुकार
नन्हें अंकुर को शीश उठाने को
बालक-सी असहाय धरती को
बाहों का झूला देती
माँ-रूपा देवी है दुर्गा !
मेरी माँ का हारमोनियम
हमारे चलते हुए गलियारे के कोने में
हारमोनियम पड़ा है चुपचाप
एक गहरे रंग के बक्से में
बड़े पत्थर की तरह
\”मेरे पाँच साल के बेटे को
हरमोनियम का बहुत शौक है
मेज़ पर कंघी बजाते हुए
वह मन ही मन हारमोनियम बजाता है\”
हम भूल ही चुके थे कि
मेरी माँ का हारमोनियम
पड़ा है गलियारे के कोने में
शांत और अचल
जब-जब सफाई अभियान चलाते
हम परछत्ती पर ढूँढते
माँ का हरमोनियम
किसी ने उसे दे तो नहीं दिया
कहीं कबाड़ी के साथ तो नहीं चला गया
मेरे मन में एक टीस-सी चुभती है
फिर अचानक
इक कौंध की तरह
मन के परदे पर कौंधता है
उस लंबी गलियारे में
उपेक्षित पत्थर-सा पड़ा
मेरी माँ का हारमोनियम
बरसों बाद बक्से से निकाला जाता है
वैसा ही शांत, मुस्कुराता है
जैसा वह हुआ करता था
ज़र्द पीली पड़ चुकी है सुरों की सफेदी
हारमोनियम का गहरा रंग
घुल गया ताज़ी हवा में
बरसों से गहरे रंग के लकड़ी के बक्से में जकड़ा
मेरी माँ का हारमोनियम पुनः प्रकट होकर
कल एक नई यात्रा शुरू करेगा
पहुँचेगा जब
वह पाँच साल के बच्चे के घर
लेकिन आज की रात मैं उस पुराने हारमोनियम पर
उंगलियाँ फिराकर बजाऊँगी कुछ पुरानी धुनें
जो मैं और मेरी माँ साथ-साथ गाते थे
कभी यह हारमोनियम
कई कार्यक्रमों में बड़े-बड़े सभागारों की यात्रा करता था
हमेशा गाते हुए, मेरी माँ को
अपना ही हारमोनियम बजाना अच्छा लगता
या मेरी संगत करना
जब गाऊँ मैं अकेली या उनके साथ
उस आखिरी बार भी हमने ऐसा ही किया था
जब साथ थे हम
अंतिम यात्रा पर उनके जाने से पहले
कल मेरी माँ बनेंगी गुरु
पाँच साल की उन नन्हीं उंगलियों की
जो बजाएँगी मेरी माँ का हारमोनियम
ठीक वैसे ही जैसे उन्होंने कभी
उँगलियाँ साधना सिखाया था अपनी बेटी को
जब थी वह सिर्फ़ पाँच साल की
फिलहाल मैं विदा गीत गाऊँगी
बजाकर अपनी माँ का हारमोनियम
लोभ
हर रोज़ मेरा लोभ बढ़ता जा रहा
हर नयी सुबह
बंगाल की खाड़ी से
उगते सूरज को देखते रहने का लोभ
फूलों और कलियों से खेलने का लोभ
अपने अदृश्य गुप्त बगीचे में
फूलों के खिलने और बिखरने की नि:शब्द सिम्फनी
बारिश की शाम में
बकुल और कामिनी की सुगंध का लोभ
जब फुहार से भीग रहा होगा मेरा प्यासा रोम-रोम
शहद में डूबे फलों का लोभ
गर्मी के सूरज की छुअन से सुनहरा रंगा
गले से नीचे उतरता आमरस
लोभ, मेरे आसपास फैले ब्रह्माण्ड
और मेरे भीतर बसे ब्रह्माण्ड के
स्पर्श, गंध, स्वाद, दृश्य और ध्वनि का
लोभ है, निपट लोभ, ऐसा निर्लज्ज लोभ
उस ब्रह्माण्ड का, जिसे मैं आलिंगन में लिए हूँ
बिना किसी अधिकार की जकड़न के
उस लुभावने संपूर्ण का हिस्सा होने का लोभ
करुणा (एक)
करोन्, ज्योति-चक्र हुआ करता था
सूरज और चाँद को घेरे रोशनी का घेरा
लेकिन अब यह
प्रकाशहीन, क्रूर और निर्दयी कोरोना
अदृश्य, मौन, अस्पृश्य
जब तक कि
हम में से किसी को छू न दे
क्या यह नींद से जगाने की घंटी है
सुस्त हो चुकी संवेदनाओं के बारे में
या फिर संसार के चक्र से मुक्ति का संकेत
क्या यह मुक्ति है, निर्वाण सरीखी
करुणा, करुणा, करुणा
संवेदना, सहानुभूति, क्षमा
संसार से निर्वाण तक
ज्योति के चक्र में कोमल उठान
_______
_______
रेखा सेठीदिल्ली विश्वविद्यालय के इन्द्रप्रस्थ कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर होने के साथ-साथ लेखक, आलोचक, संपादक और अनुवादक हैं. उनका लेखन मूलत: समकालीन हिन्दी कविता तथा कहानी के विशेष आलोचनात्मक अध्ययन पर केन्द्रित है. रचना के मर्म तक पहुँचकर उसके संवेदनात्मक आयामों की पहचान करना उनकी आलोचना का उद्देश्य है. उनके द्वारा अनूदित सुकृता पॉल कुमार की अंग्रेज़ी कविताओं का हिंदी अनुवाद समय की कसक शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ है.
लेखक और संपादक के रूप में उनकी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं, जिनमें प्रमुख हैं––स्त्री-कविता: पक्ष और परिप्रेक्ष्य, स्त्री-कविता: पहचान और द्वंद्व, विज्ञापन डॉट कॉम आदि. उनके लिखे लेख व पुस्तक समीक्षाएँ पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे हैं. उन्होंने अमरीका के रट्गर्स विश्वविद्यालय, लंदन के इम्पीरियल कॉलेज तथा लिस्बन विश्वविद्यालय, पुर्तगाल में हुए अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में शोध-पत्र प्रस्तुत किये हैं.
reksethi@gmail.com
9810985759