आशुतोष भारद्वाज
सोलह फरवरी, दो हजार तेरह. सुबह सवा सात. बीजापुर जिले का छोटा काकलेर गाँव.
कब तक मैं इस ख़ौफ़नाक से दिखते सात आठ झोंपड़ियों वाले वीरान गाँव में बंधक बना रहूँगा? जो खाट इन्होंने मुझे दी है क्या उस पर कभी कोई दूसरा भोपाल पटनम गया होगा? खाट गयी होगी तो उसके साथ एक बकरी भी घिसटती गयी होगी. दोनों में से कोई एक ही बच पाया होगा- खाट का इंसान या बकरी? या कोई भी नहीं? खाट की जेवड़ी पर उँगलियाँ फिराते हुए मैंने चारों तरफ़ निगाह घुमाई. बकरी तो नहीं लेकिन झोंपड़ी के पीछे से निकलती आती कुछ जंगली मुर्ग़ियाँ ज़रूर कुदक रहीं थीं. आज कौन बचेगा- मैं या मुर्ग़ियाँ?
कल शाम चार क़रीब यहाँ से मोटरसाइकल पर गुज़र रहा था कि कई गाँव वालों ने रास्ता रोक लिया. उन्हें शक था मैं पुलिस मुखबिर हूँ. मैंने अख़बार का आईकार्ड दिखाया, उन्हें यक़ीन नहीं हुआ. मैं अक्सर ऐसे मौक़ों के लिए अपनी ख़बरों की ढेर सारी कतरनें लेकर चलता हूँ. लेकिन वे अंग्रेज़ी में थीं, उन्हें समझ नहीं आ रहीं थीं. शायद हिंदी भी वे नहीं समझ पाते. क़रीब दसेक लोग मुझे घेरे खड़े थे, मुझसे कहा बाइक यहीं खड़ी कर दो. मुझे किनारे हो जाने को कहा, बाइक पर टंगे मेरे बैग को टटोलने लगे- कपड़े, बिस्कुट, काम भर की दवाइयाँ. थोड़ी देर बाद कई गाँववाले और आ गए, उनके पास धनुष, कुल्हाड़ी, भरमार बंदूक़ जैसे छोटे हथियार थे.
आप चाहें तो अपने दादा लोगों से पूछ सकते हैं, वे मुझे जानते हैं. मैंने उन नक्सली नेताओं के नाम गिनाए जिनसे पहले मिल चुका था. लेकिन वे बस्तर के दूसरे जंगलों में घूमा करते थे, इस गाँव के निवासी उन्हें नहीं जानते थे. बीहड़ जंगल में मुझे पुलिस मुखबिर समझ पहले भी कई बार रोका गया है, हर बार बच निकलने के बाद तय किया है अगली बार चेहरे पर भय की बूँद तक नहीं गिरने दूँगा. हर बार की तरह इस बार भी पूरी तरह सहज नहीं था, लेकिन नहीं चाहता था उन्हें इसका आभास हो. वे लोग मेरी बाइक को भी टटोल रहे थे. उस पर नम्बर प्लेट नहीं थी, क्या इससे उन्हें कुछ शक होगा? बस्तर में बिना नम्बरप्लेट की बाइक अमूमन पुलिसवाले ही चलाते हैं. क्या मुझे नम्बर प्लेट वाली बाइक लानी चाहिए थे? क्या इस बाइक पर पुलिस का कोई निशान बचा रह गया है? बाइक ले निकलते वक्त मुझे इसके हरेक अंग को ख़ुद ही पूरी तरह टटोल लेना चाहिए था, मेरी ही ग़लती थी.
इन दिनों इस इलाक़े में कौन से नक्सली हैं, मैंने उनसे पूछा, आप ये कतरनें और मेरा ख़त उन तक पहुँचा दें.
मैंने अपने बारे में बतलाते हुए एक ख़त लिख उन्हें दे दिया. वे राज़ी हो गए, दो-तीन लोग आगे रवाना हो गए. जब तक आगे से हरी झंडी नहीं मिलती मुझे यहीं रुकना था.
मुझे एक झोंपड़ी में ले जाया गया. शुरुआत में वे काफ़ी रूखे और कठोर थे, थोड़े खूंखार और डरावने भी, या शायद मैंने ही अपने भीतर का डर उन पर आरोपित कर दिया था. लेकिन रात तक वे सहज हो गए. कोई मेरे लिए एक खाट ले आया. “नहीं तो आप कहोगे कि ज़मीन पर सुला दिया.”
परसों रात बेबसी और खतरे के बीच मैंने दंडकारण्य के दो अखंड नियम तय किये थे, उनमें से एक अगली यानि कल सुबह ही तोड़ दिया, जिसकी वजह से इस वक़्त यहाँ था.
कभी ऐसे जंगल में मोटरसाइकिल लेकर मत जाओ जहाँ रत्ती भर पगडण्डी न हो, रास्ते में नदियाँ और पहाड़ियाँ, धरती पर नुकीले पत्थर और पेड़ों की बीहड़ जड़ें उभरी हों, इसलिए नहीं कि अगर गाड़ी फिसली तो हड्डियाँ चटक जाएँगी, यह भी नहीं कि गाड़ी पंचर हो गयी तो ढोनी पड़ेगी क्योंकि कई बार खींच कर बहुत दूर तक ले गया हूँ, बल्कि इसलिए कि अगर गाड़ी बुरी तरह टूट गयी तो खिंचेगी भी नहीं, अंजर पंजर हालत में उसे वहीं छोड़ कर आने का मन भी आसानी से नहीं बना पाओगे.
दूसरा:
जंगल में एकदम खुले में रात मत बिताओ, भले कितनी देर चलना पड़े लेकिन किसी छत, कच्ची और टूटी ही सही, के नीचे पहुँच जाओ.
परसों सुबह बीजापुर से निकला, दिन भर बाइक चला कर शाम को फरसेगढ़ पहुंचा. उससे पिछली सुबह दंतेवाड़ा से निकला, जंगलों में घूमता शाम को बीजापुर पहुँचा था. ख़बर मिली थी कि सेंड्रा में गडचिरोली सीमा पर कोई बड़ी भारी बैठक होने वाली है माओवादियों की. फरसेगढ़ पर सलाह दी गयी थी आगे बाइक का रास्ता एकदम नहीं है, सेंड्रा तक सिर्फ़ जंगल बिखरा है, कच्ची पगडंडी भी नहीं मिलेगी. ऐसी सलाह लेकिन कब और कहाँ मानी जाती हैं. दिन की रोशनी ख़त्म होने में अभी देर थी. हाहाकर मचाते वृक्षों औरझाड़ियों के बीच कभी हिनहिनाती कभी मिमियाती गाड़ी घंटे भर घसीटने के बाद एक गंजी नदी आयी जिसकी चांद शायद बचपन में ही सफ़ाचट कर दी गयी थी. जंगल में एक घाटीनुमा खायी के बीच फैला रेत का दरिया.
बाइक नीचे उतर तो गयी, लेकिन ऊपर चढ़ने में बालू में फ़ंस गयी. चढ़ाई और बालू इतनी घातक कि पहले गेयर में पूरी स्पीड देने पर भी गाड़ी रत्ती भर न हिले, वहीं फ़ंसी हुई हिनहिनाए. चढ़ायी तीखी थी, पूरी जान लगा दी, एक हाथ बाइक खिंच पाती, फिर नीचे ढुलक जाती.फ़रवरी की सर्दी, लेकिन आधे घंटे में क़मीज़ तर हो गयी.ख़ुद को कोसा — ये कब समझ आएगा कि जंगल का जहाज़ मोटरसाइकल नहीं साइकल होती है.
रोशनी कम हो रही थी, लगा इसे यहीं छोड़ रात कहीं रुकने का ठौर खोजा जाये.इसे कोई ले तो नहीं जाएगा? जिससे माँग कर लाया था उसे क्या कहूँगा?
बाइक की चौकीदारी करते हुए वहीं किसी पेड़ के नीचे पसर गया. लेकिन जंगली जानवर का ख़तरा, नींद कैसे आएगी. दो-ढाई घंटे बाद साढ़े आठ क़रीब शुरू से ही भीतर बुदबुदाता विचार पुख़्ता हुआ कि यहाँ रात बिताना महाकाव्यात्मक मूर्खता है. जहाँ दूर तक कोई इंसान न हो कौन इस आफ़त को लेने आएगा, इस ख़याल की पीठ पर बाइक को वहींछोड़ बैग पीठ पर टाँग चलना शुरू किया, कई रास्ते खो देने और पा लेने के बीच क़रीब ढाई घंटे में फरसेगढ़ के सरकारी स्कूल पर पहुँचा.अगली सुबह स्कूल के चौकीदार मनोज मंडावी और दो विद्यार्थियों को साथ लेकर गंजी नदी तक आया, बाइक को खींच कर निकाला. मैंने ग़लत रास्ता लिया था, मनोज ने बताया, यह रास्ता सेंड्रा नहीं जाता.
क़ायदे से मुझे अब वापस लौट जाना चाहिए था. यह जंगल बाइक के लिए नहीं था लेकिन रात का सबक़ अगर सुबह होते ही भुला न दिया जाए तो जीवन में नमक कैसे आएगा.
सेंड्रा हो आया, माओवादी बैठक नहीं मिली, इस वक़्त सेंड्रा के पास छोटा काकलेर में रिहाई के संदेसे के इंतज़ार में हूँ.
कई लोग मेरी फ़िक्र कर रहे होंगे. जया जी (जया जादवानी) के बेटे की शादी कल है, मुझे वहाँ होना था.उस पुलिसवाले की बाइक जो मैं सिर्फ़ एक दिन के लिए कहकर लेकर आया था.और दंतेवाड़ा के सर्किट हाउस का केयरटेकर — पिछले तीन दिनों से मेरा कमरा बंद है, चाभी मेरे पास. मेरा लैपटॉप कमरे में.
जंगल के अप्रत्याशित जोखिम के सामने शहर का सुरक्षित जीवन मरियल, मुर्दार और मुरझाया हुआ लगता है. जंगल एक जानदार चीता. शहर एक पिलपिला केंचुआ.
पिछली चार रातें चार जगहों पर — दंतेवाड़ा, बीजापुर, फरसेगढ़ और छोटा काकलेर. आख़िरी तीन अप्रत्याशित. आख़िरी दो तो रात गिरने से ठीक पहले तय हुईं.
परसों देर रात जब फरसेगढ़ के प्राथमिक स्कूल आदर्श बालक आश्रम पहुँचा तो मनोज महुए में धुत पड़ा था. आँखें जल रहीं थीं. लेकिन उसे इतना होश था कि जब मैंने अपना आईकार्ड दिखाते हुए रात भर रुकने की जगह माँगी तो उसने तुरंत कहा — एक शर्त है. आप रायपुर में लोगों को जानते होंगे. इस स्कूल में सौ बच्चे हैं, एक भी बाथरूम नहीं. आपको यहाँ बाथरूम बनवाना पड़ेगा. वह सिर्फ़ बाथरूम की कहता था, जबकि बच्चों की क्लास टीन की चादर के नीचे चलती थी. कोई कमरा नहीं.
छोटा काकलेर फरसेगढ़ से क़रीब बीसेक किलोमीटर अंदर जंगल में है. फरसेगढ़ में पुलिस का आख़िरी थाना, सीआरपीएफ की आख़िरी चौकी. यह स्कूल भारत सरकार का आख़िरी निशान. इसके बाद वह इलाक़ा शुरू होता है जहाँ अनेक सालों से सत्ता का कोई चिन्ह नहीं.
छोटा काकलेर के जिन युवकों ने मुझे रोक रखा है, वे लगभग निरक्षर हैं. सैकड़ों वर्ग किलोमीटर तक फैले इलाक़े में कोई स्कूल, चिकित्सा केंद्र, नरेगा की स्कीम नहीं. तेंदू पत्ता पर सरकारी बोनस भी नहीं. वारंगल से आन्ध्र के व्यापारी तेंदू पत्ता के दिनों में आते हैं, एक सौ बीस रुपए पर तेंदू पत्ता की एक गड्डी तेंदू पत्ता और महुए से सात-आठ लोगों के एक परिवार की सालाना आमदनी छ हज़ार रुपया.
ये युवक साल में दो-तीन महीने आन्ध्र जाते हैं. दिहाड़ी मज़दूर बतौर काम करते हैं — छह हज़ार रुपए महीना, एक कोठरी में रहने, खाने और निबटने की जगह. हफ़्ते में एक बार मुर्ग़ा.
अब ये युवक मुझसे खुलने लगे हैं. सत्यम ख़ुर्राम मेरे एक प्रश्न पर मुझे एक कथा सुनाते हैं.
अगर किसी को आकस्मिक चिकित्सा की ज़रूरत पड़े तो आप क्या करते हो?
अमूमन तो सोच लेते हैं कि हो गया काम ख़त्म, यहीं मर जाने देते हैं लेकिन कभी लगता है कि बचाना ज़रूरी है तो एक खाट तैयार करते हैं और एक हट्टी- कट्टी बकरी.
बकरी? खाट पर?
नहीं, खाट पर मरीज को लिटाते हैं, बकरी के गले में रस्सी बाँध उसे ले चलते हैं. पूरा दिन चल जंगल पार कर भोपालपटनम आता है. बकरी तंदरुस्त हुई तो छह हज़ार मिल जाते हैं, इलाज हो जाता है.
और अगर मरीज की हालत बहुत ख़राब हुई, इतने लम्बे रास्ते में कुछ हो गया, या भोपालपटनम के उस मरियल से सरकारी स्वास्थ्य केंद्र में ही आदमी खेल गया तो?
फिर क्या, एक दूसरा युवक जवाब देता है. बकरी तो फिर भी बिकेगी. ख़ूब सारी शराब आ जाती है.
सेंड्रा आज बीहड़ ‘लिबरेटेड जोन’ है, लेकिन फरसेगढ़ स्कूल के मास्टरजी टी कंटैय्या ने मुझे बताया था “कभी सेंड्रा शहर की तरह हुआ करता था”. मैं यहाँ के लिए निकलने से पहले इसे टटोल रहा था तो सरकारी काग़ज़ों में सेंड्रा में एक फ़ॉरेस्ट रेस्टहाउस होना दर्ज था, यानिअधिकारी इतनी दूर जाते थे, वहाँ रुका करते थे. लेकिन ये अंग्रेज़ हुकूमत और मध्य प्रदेश सरकार के चिन्ह हैं, छत्तीसगढ़ सरकार अभी तक यहाँ नहीं पहुँची. मैं सेंड्रा तक गया लेकिन रेस्टहाउस नहीं मिला.
इस राज्य को बने तेरह साल हो गए, लेकिन जंग लगे सरकारी फट्टों पर पर अभी भी ‘मध्य प्रदेश’ लिखा है. सागमेट्टा गाँव के क़रीब इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान के एक फट्टे पर ‘मध्य प्रदेश वनविभाग’ दर्ज है. सागमेट्टा के निवासी दुर्गम मल्लाया बताते हैं कि यहाँ के लोग दूर आन्ध्र और हैदराबाद चले जाते हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ के नज़दीकी शहरों में उनके क़दम नहीं पड़ते. किसी निवासी का अपने राज्य पर इतना घनघोर अविश्वास एक अद्भुत घटना है.
मल्लाया म्हार हैं, अम्बेडकर की जाति.उन्हें याद नहीं उनके पूर्वज महाराष्ट्र से यहाँ कब, कैसे आए.
सत्ता की इनकी एकमात्र स्मृति सलवा ज़ुडुम की है जब जुडुम नेताओं के साथ पुलिस यहाँ आयी थी, भीषण युद्ध शुरू हुआ था.फरसेगढ़ से थोड़ा पहले कुटरू है जहाँ ज़ुडुम के शुरुआती कारनामे दर्ज हुए थे. कुटरू थाने के ठीक सामने छत्तीसगढ़ में जुडुम का शायद सबसे पहला स्मारक है. “सलवा जुडुम शहीद स्मारक. शहीदों को शत् शत् नमन. स्थापना- ४जून, २००५.” इस स्मारक की तस्वीर लेते हुए मुझे गोटा चिन्ना की याद आयी. वे इसी इलाक़े के आरम्भिक जुडुम नेताओं में थे, पिछले दिसम्बर माओवादियों ने उनकी हत्या कर दी.गाँव वालों को नक्सलियों से कोई ख़ास मुहब्बत नहीं लेकिन वे इस हत्या पर उछल पड़े.
इसी स्मारक के पास एक परचूने की छोटी सी दुकान है जहाँ सिर्फ़ एक पोस्टर लगा है- रामदेव का. पतंजलि का सामान यहाँ भी मिलता है. पोस्टर आह्वान करता है- जगदलपुर चलो. बाईस, तेईस, चौबीस फ़रवरी को जगदलपुर में ‘निशुल्क योग ज्ञान शिविर’. यह फ़रवरी दो हज़ार तेरह है. बस्तर की सबसे अंदरूनी जगहों पर यह व्यापारी बाबा पहुँच गया है, जबकि केंद्रमें इसकी पसंदीदा सरकार की इस वक़्त कोई आहट नहीं है. इतने कम समय में इस व्यापारी का इतना गहरा सांस्कृतिक-राजनैतिक प्रभाव एक विलक्षण समाजशास्त्रीय घटना है.
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(छोटा काकलेर गाँव में कोटेश्वरा राव का स्मारक.
लेखक आशुतोष भारद्वाज इसी स्मारक की तस्वीर ले रहे थे
जब गाँववालों ने उन्हें घेर लिया था.)
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कुटरू से पहले रानी बोदली जहाँ भारत के इतिहास में माओवादियों का दूसरा सबसे भीषण हमला हुआ था, २००७ में पचपन पुलिसवाले मारे गए थे. मैं आते वक़्त वहाँ रुका था. इस हमले की पुरानी तस्वीरें याद आयीं- जमीन पर लाश बिखरी हैं, कॉपी हाथ में लिए दो पुलिसवाले उनकी गिनती और उन्हें पहचानने की कोशिश कर रहे हैं. दंतेवाड़ा के साथी पत्रकार सुरेश महापात्रा ने कभी बताया था कि जब वह इन लाशों पर ख़बर करने यहाँ आएथे, सड़ चुकी अधजली लाशों की तस्वीरें लीं तो उन्हें लगा कि दुनिया में कुछ देखना नहीं बचा अब: “मुझे लगा कि हो गया बस.”
तब तक मैंने ख़बरनवीसी शुरू भी नहीं की थी, रत्ती भर अंदेशा नहीं था कभी मृत्यु मुझे बुलाएगी, मैं इस जगह आऊँगा.रानी बोदली पर देर तक खड़ा रहता हूँ. माओवादियों के दस्तावेज़ मेंकितने विस्तार से इस हमले का और अपने गुरिल्ला साथियों के बलिदान का ज़िक्र हुआ है.
सत्ता भी अपने बलिदान याद करती है. राज्य में चुनाव नवम्बर में हैं, क़वायद शुरू हो चुकी है. हाल ही बीजापुर में एक सभा में कांग्रेस के पोस्टर लहराते थे — “इंदिरा, राजीव का बलिदान याद रखेगा हिंदुस्तान.”
जंगल के निवासियों को इन बलिदानियों का नाम भी नहीं मालूम, यह भी नहीं कि इनके बलिदान का दंडकारण्य से क्या सम्बंध है. राजनीति और सत्ता का इनसे तलाक़ लगभग सम्पूर्ण है.
लेकिन बकरी?
(दो)
रानी बोदली अकेला नहीं है. बस्तर मृत्यु का अजायबघर है. पुलिस, माओवादी, नागरिक, जुडुम नेता — सबने अपनी मृत्यु को ईंट और पत्थर में दर्ज कर दिया है.छोटा काकलेर में मैं इसलिए ही फ़ंस गया था कि एक मृत्यु ने मुझे थाम लिया था. बाइक से गुज़रते में निगाह गयी थी —- पेड़ों के झुरमुट के बीच लाल रंग के दो स्मारक धूप में चमक रहे थे.उनकेचारों तरफ़ ताज़ा पुती ईंटों की क़तार बिछी हुईं थीं, मसलन वहाँ मेला सा लगता हो. यह स्मारक किसके होंगे? नज़दीक गया, बाइक खड़ी की. एक स्मारक
सीपीआई माओवादी की पोलितब्युरो के सदस्य मल्लोजुला कोटेश्वरा राव उर्फ़ किशनजी की याद में था जो सीआरपीएफ के साथ नवंबर ग्यारह की मुठभेड़ में मारे गए थे, दूसरा इंद्रावती नैशनल पार्क की एरिया कमेटी सदस्य कवासी गोविंद का जो मार्च बारह में ख़त्म हुए थे.
कई सारी तस्वीरें लीं. स्मारकों के चारों तरफ़ घूम कर देखा. उनके प्लेटफ़ॉर्म पर चढ़ा. मुझसे क़रीब ढाई गुना ऊँचे यानी क़रीब पंद्रह फ़ीट ऊँचे स्मारक. क़रीब दसेक मिनट उन्हें छूता-टटोलता रहा. इस बीच किसी ग्रामीण की निगाह मुझ पर पड़ गयी. जल्द ही कई सारे लोग इकट्ठे हो गए, मुझे घेर लिया.
माओवादियों का सबसे महाकाय स्मारक सुकमा ज़िले के भीषण जंगल में है. दो हज़ार बारह की जनवरी में उस जंगल को साइकल से कुरेदते हुए अचानक एक लाल क़ुतुबमीनार सामने आ गयी थी. माओवादी क्रान्ति के इतिहास में ताड़मेटला सबसे दुर्दांत हमला. सुरक्षा बल के छिहत्तर सिपाही लील गया. उसमें मारे गए आठ गुरिल्ला लड़ाकों के नाम इस स्मारक परलिखे हुए थे. माओवादी दस्तावेज़ बताते हैं इस हमले में २१ एके-४७, ४२ इंसास रायफल, छः लाइट मशीन गन, सात एसएलआर रायफल, एक नौ एमएम स्टेनगन, ३१२२ कारतूस, ३९ ग्रेनेडसमेत तमाम चीज़ें गुरिल्ला लड़ाकों ने मुर्दा ख़ाकीधारियों से छीन लीं थीं.
अरसा बाद मुझे किसी आईएएस अधिकारी ने बताया कि एक बार जब वे उस जगह का हवाई दौरा कर रहे थे तो हैलिकॉप्टर से दिखती उस मीनार को देख भौंचक थे कि इस जंगल में जहाँ सबसे नज़दीकी परचूने की दुकान भी कई घंटे दूर है, ईंट और गारे लाने के लिए तो दिन भर का रास्ता होगा, लेकिन लाया किस रास्ते से जाएगा? चारों तरफ़ तो पुलिस लगी है.
पुलिस ने भी अपने साथियों की याद में भरपेट स्मारक बनाए हैं. सुकमा जिले में एर्राबोर थाने के पास करीब दर्जन भर मूर्तियाँ लगी हैं पुलिसवालों की. एक सीधी लकीर में वर्दीधारी मूर्तियाँ. हाथ में रायफल.
मूर्तियाँ दिन भर धूप में चमकती रहती हैं. सभी के चेहरे एक जैसे लगते हैं.क्या मृत्यु सिर्फ़ एक ही होती है, उसके बाद सिर्फ़ उसे दोहराया जाता है? इन सभी मूर्तियों की कलाई पर घड़ी बंधी है. इन घड़ियों की सुइयां भी एक ही जगह टिकी हैं. क्या मृत्यु अपना वक्त चुनने में भेदभाव नहीं करती?
(तीन)
मृत्यु को पत्थर पर सहेज रखना बस्तर की परम्परा, शायद व्यसन भी है. पूरे बस्तर में स्मृति-स्तम्भ लगे हुए हैं, पत्थर और लकड़ी के. जंगल के निवासी अपने मृतकों की याद में उनकी क़ब्र पर लगा देते हैं. उन पर अद्भुत चित्रकारी करते हैं. मृतक के जीवन को बतलाते चित्र.इन चित्रों के चेहरे भी अक्सर एक जैसे दिखते हैं. मसलन नरसू मंडावी और लच्छू कश्यप डेढ़ सौ मील की दूरी पर दफ़न हुए, लेकिन उनके स्मृति पत्थरों पर दर्ज चेहरे एक जैसे ही हैं. क्या बस्तर का मृत्यु-चित्रकार सिर्फ़ एक ही चेहरा उकेरना जानता है या उसे मृत्यु का चेहराहमेशा एक सा ही दिखता है? या मृत्यु का चेहरा होता ही एक है, दोहराया भले कई जगह जाता है.
हर जगह ये स्तम्भ दिखते हैं, लेकिन कभी उनका कोई प्रियजन वहाँ बैठा उन्हें याद करता, उनके मृत्यु दिन पर वहाँ आता, फूल चढ़ाता नहीं दिखाई देता. मृत्यु का शृंगार कर उसे वहाँ बसा कर चित्रकार भूल गया है, मृत्यु ख़ुद ही पलती-पनपती रहती है.
मृत्यु-पत्थर का सबसे विकट चेहरा महेंद्र कर्मा के पुश्तैनी गाँव फरसपाल से बाहर निकलते ही दिखता है. कर्मा के घर के बाहर उनकी विशाल मूर्ति है, करीब सौ हाथ ऊँची जिस पर सूख चुके फूलों की माला झूलती रहती है. थोड़ा आगे जा सड़क के दोनों तरफ उनके परिवार के दर्जनों स्तम्भ लगे हुए हैं. न मालूम कितनों का खून यहाँ दर्ज है.
क्या बस्तर के माओवादी इतिहास को, मृत्यु के अजायबघर को महेंद्र कर्मा के घर की छत से देखा जा सकता है? बस्तर में नक्सलियों के पनपने की अनेक वजहें हैं, लेकिन विचित्र विडम्बना है कि कर्मा जो आंध्र से आये गुरिल्ला लड़ाकों को को बस्तर से उखाड़ फेंकना चाहते थे वे ही उनके विस्तार की बहुत बड़ी वजह बने.
नब्बे के दशक में उन्होंने नक्सलियों के विरुद्ध जन जागरण अभियान चलाया, जिसके बाद गुरिल्ला गतिविधियों में तेज़ी आयी, फिर दो हज़ार पाँच में उन्होंने सलवा जुडुम शुरू किया और अब माओवादियों के दस्तों में चोट खाए जंगल के निवासी आ जुड़े, गुरिल्ला लड़ाके अविजित दिखाई देने लगे.
कर्मा का राजनैतिक जीवन दिलचस्प है. वे ख़ालिस आदिवासी नेता थे, जंगल के निवासी. बस्तर से बाहर न उनकी पहुँच थी, न उन्होंने बनानी चाही. लेकिन बस्तर के आकाश पर जहाँ भी निगाह जाये वे एक विराट औपन्यासिक किरदार की तरह दिखाई दे जाते हैं.
कभी कट्टर कम्युनिस्ट रहे उन्होंने अपना राजनैतिक जीवन १९८० के दशक में बतौर सीपीआई एमएलए शुरू किया था. अगला चुनाव उन्होंने अपने कांग्रेसी बड़े भाई लक्ष्मण कर्मा के विरुद्ध हारा. बाद में वे कांग्रेस में शामिल हुए लेकिनदिलचस्प है कि एक ऐसे मसले पर पार्टी छोड़ दी जिससे बस्तर में आदिवासियों का जीवन काफ़ी स्वायत्त हो जाता, बाहरीशक्तियों मसलन सरकार और व्यापार का हस्तक्षेप बहुत कम हो जाता. जब दिग्विजय सिंह की मध्य प्रदेश सरकार ने बस्तर को संविधान की छठी अनुसूची में लाने की बात की कि इससे उत्तरपूर्व भारत की तरह बस्तर के आदिवासियों को अधिक अधिकार मिल जाएँगे तो कर्मा ने इसका विरोध यह दिलचस्प तर्क देकर किया कि इससे नक्सलियों को फ़ायदा होगा.जब बस्तर में छठी अनुसूची के लिए ज़बरदस्त माहौल था, कर्मा ने कांग्रेस छोड़ी, बतौर निर्दलीय सिर्फ़ इसके विरोध पर १९९६ का लोक सभा चुनाव लड़ा और जीत भी गए, हालाँकि बाद में फिर कांग्रेस चले गए.
बस्तर में छठी अनुसूची के लिए लड़ाई आज भी जारी है.
दंतेवाड़ा और सुकमा कभी कर्मा के अभेद्य क़िले थे. यहाँ पर नक्सलियों के फैलते क़दमों को उखाड़ फेंकने के लिए उन्होंने लड़ाइयाँ लड़ीं, और यही इलाक़े गुरिल्ला लड़ाके का दुर्ग बनतेगए. इतिहास की द्वंद्वात्मकता मनुष्य के साथ दिलचस्प खेल खेलती है. कर्मा कमज़ोर पड़ते गए, माओवादी अजेय होते गए, और जहाँ राजनीति कभी कांग्रेस और सीपीआई के बीच हुआ करती थी, वहाँ भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आ गए. इस तरह बस्तर एक अद्भुत इलाक़ा बना जहाँ क्रांतिकारी वामपंथ और दक्षिणपंथ का उत्थान लगभग एक साथ हुआ.
भाजपा ने चुनाव में स्थानीय गुरिल्ला लड़ाकों की मदद ली, लड़ाकों को भी सबसे पहले अपने विकराल शत्रु कर्मा से निबटना था, उन्हें अपने कट्टर वैचारिक विरोधी भाजपा की सहायता करने में कोई संकोच नहीं हुआ. २००८ के विधान सभा चुनाव में बस्तर की बारह सीट में से ग्यारह भाजपा जीत गयी, एक ऐसे वक़्त जब माओवादी क्रांतिकारी अपने उत्कर्ष पर थे, उनकी हिंसा का कोई तोड़ नहीं दिखता था, वे लगभग जहाँ चाहे वहाँ भीषण हमला करने में सक्षम थे.
कर्मा २००८ का ऐतिहासिक चुनाव कर्मा अपने घर दंतेवाड़ा में बुरी तरह हारे, भाजपा और सीपीआई के बाद तीसरे स्थान पर रहे. यह चुनाव सलवा जुडुम की विकराल हिंसा की छाती परलड़ा गया था. जुडुम के दौरान भाजपा सरकार ने कांग्रेसी कर्मा को बेतहाशा समर्थन किया था, असलहे और धन दोनों से. अपनी ताक़त के नशीले महुए में डूबे कर्मा बस्तर टाइगर कहलाते थे, नक्सलियों के ख़िलाफ़ उन्मादे आदिवासी लड़ाकों की ख़ूँख़ार फ़ौज खड़ी कर रहे थे. कर्मा को रमन सिंह का तेरहवाँ मंत्री कहा जाने लगा था. लेकिन जब जुडुम की चौतरफा आलोचना होने लगी तो भाजपा ने कर्मा से पल्ला झाड़ा, सारा ठीकरा उनके सिर.
“पापा ने भाजपा से समर्थन ले ग़लत किया था. ये हम आदिवासियों की लड़ाई थी, हमें लड़नी थी. भाजपा ने पापा को यूज किया,”
कर्मा के बड़े बेटे दीपक ने बहुत बाद में मुझे बतलाया.
२००८ का दंतेवाड़ा चुनाव माओवादी जंग के फ़रेबी लहू का विराट मानचित्र बनाता है. कर्मा के समर्थक कई सालों से आरोप लगाते थे कि भाजपा नक्सली से गले मिल गयी, और दोनों ने मिल अपने दुश्मन को ध्वस्त किया. नवम्बर २०१३ के चुनाव से ठीक पहले माओवादी पुड़ियम लिंगा की भाजपा नेता शिव दयाल सिंह तोमर की हत्या के जुर्म में गिरफ़्तारी हुई, और उसने दंतेवाड़ा पुलिस कप्तान नरेन्द्र खरे और सीआरपीएफ अधिकारियों की उपस्थिति में मीडिया के सामने उस राज को खोला जिसे सभी अरसे से जानते थे कि उसने दंतेवाड़ा के भाजपा प्रत्याशी और अपने चाचा भीमा मंडावी को २००८ के चुनाव में मदद की थी. दिलचस्प है कि इस ख़बरनवीस के सामने मंडावी ने लिंगा की सहायता लेना तो नहीं स्वीकारा, लेकिन यह कहा कि लिंगा उनके गाँव तोयलंका का निवासी है और उसने २०११ के एक उपचुनाव में भाजपा के लिए काम किया था, जो भाजपा ने जीता भी था.
दंडकारण्य में क्रांति और राजनीति, वाम और दक्षिण की रेखाएँ धुँधला जाती हैं. शायद जंग फ़रेब की बुनियाद पर ही लड़ी जाती है, महाभारत का रचयिता बहुत पहले ही बतला गया है.
(चार)
कर्मा के बग़ैर बस्तर का माओवादी विद्रोह क्या आकार लेता इसका सिर्फ़ क़यास ही लगाया जा सकता है. शायद क़यास भी सम्भव भी नहीं.
मैं उनसे कई मर्तबा मिला था, जुडुम की ज़्यादतियों का ज़िक्र होते ही हर बार वे कहते थे- ये हमारा, हम आदिवासियों का बस्तर है. नक्सली हमारी ज़मीन पर क्यों आए?
उनके किरदार की विलक्षण औपन्यासिकता का एहसास मुझे उनकी हत्या के कुछ महीने बाद यानी नवम्बर दो हजार तेरह के विधान सभा चुनाव के दौरान हुआ. उनकी पत्नी देवती दंतेवाड़ा से चुनाव लड़ रही थीं जहाँ से कभी कर्मा विधायक रहे थे. सिर्फ गोंडी बोलने वाली देवती की राजनीति या अपने शौहर के कारनामों में कभी कोई दिलचस्पी नहीं थी. बरसों पहले जब उनके शौहर और बेटे दक्षिण बस्तर के जंगलों में रायफलें लेकर माओवाद को बस्तर से खत्म कर देने के नाम पर क्या कुछ नहीं उजाड़ रहे थे, वे अपने घर में बेखबर रही आती थीं.
क्या उन्होंने सोचा था कि एक दिन वे कर्मा की सीट दंतेवाड़ा पर नामांकन का अपना पर्चा दाख़िल करने कलक्टर कार्यालय जाएँगी? आकाश पर स्याह बादल. चारों तरफ़ से एके-४७धारी पुलिसवालों से घिरी कलफ़ लगी सफेद साड़ी के पल्लू को सम्भालती एक दुबली औरत कार्यालय से निकलती आ रही है. उनके दबंग बेटे काले चश्मे पहने, महँगे मोबाइल फ़ोनकान से लगाये उनके साथ चल रहे हैं. दंतेवाड़ा में चर्चा में है कि अगर वे जीतीं तो यहाँ से पाँच विधायक होंगे.
कर्मा के चारों बेटे —- दीपक, छविंद्र, देवराज और आशीष —- और देवकी के पास ज़ेड प्लस सुरक्षा है. उन सबके नाम नक्सलियों का फरमान है, सब घोषित तौर पर नक्सलियों की हिटलिस्ट में हैं. हिंदुस्तान का शायद अकेला ऐसा परिवार जिसके पाँच सदस्यों के पास ज़ेड प्लस सुरक्षा है. दो बेटियाँ भी हैं, सुलोचना और तूलिका.
पिता की ही तरह संतान हैं. मृत्यु का खौफ पेट से ही लेकर नहीं आये. पूरा परिवार दशकों से रायफलों के साथ जीता आया है. सिवाय आशीष के. कर्मा ने अपने तीसरे और पढाई में सबसेहोशियार बेटे को जल्दी ही दिल्ली भेज दिया था, वह दिल्ली पब्लिक स्कूल में पढ़े, फिर दिल्ली यूनिवर्सिटी में. कुछ महीने पहले तक वह सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, परिवार का सपना था एक बेटा कलक्टर बनेगा. कर्मा की मई में हत्या हो गयी, आशीष दंतेवाड़ा लौट आए. “क्या होगा? मारे ही तो जायेंगे. हमारे भीतर का डर मर चुका है. यह हमारी जमीन है. हमें यह वापस चाहिए,” आशीषकी कसी हुई टी-शर्ट में मांसपेशियां चमकती हैं.
मैं नवम्बर की एक दोपहर दीपक के साथ चुनाव प्रचार में दंतेवाड़ा घूम रहा हूँ. हम स्कोर्पियो में हैं, हमारी गाड़ी में छः एके -४७ धारी जवान बैठे हैं. बंदूकधारी जवानों की एक गाड़ी हमारे पीछे है, एक आगे. पूरे रास्ते हरेक तीन-चार सौ मीटर पर पुलिसवाले खड़े हैं. अचानक दीपक ड्राइवर को कच्ची सड़क पर उतार देने को कहते हैं. राइफ़लधारी लगभग घबरा कर पीछे मुड़ कर देखता है — उसकी निगाहों में प्रश्न है. यहाँ क्यों सर?
दीपक ड्राइवर से फिर कहते हैं — दाहिने मुड़ लो.
बॉस की बात माननी ही पड़ेगी. आगे बैठा पुलिसवाला माथे का पसीना पौंछता है, वाकी-टाकी से आगे चल रही हथियारबंद गाड़ी को फ़ोन करता है कि हमने रास्ता बदल लिया है, पीछे मुड़ कर आ जाओ.
सभी पुलिसवाले अचानक मुस्तैद हो गए हैं. कच्ची सड़क जंगल की तरफ जा रही है, अनजान रास्ते न मालूम क्या मिलेगा, बारूदी विस्फोट से गाड़ी उड़ भी सकती है. पुलिस की गाड़ी इसी तरह नक्सली हमले का शिकार बनती हैं जब वे अचानक से कोई नया रास्ता चुन लेते हैं. कर्मा परिवार जब दंतेवाड़ा से अपने गाँव फरसपाल जाता है, सबसे पहले पुलिस की रोड ओपनिंग पार्टी निकलती है, रास्ता साफ़ करती है, उसके बाद गाड़ी निकलती है.आज भी दीपक के चुनावी दौरे के लिए रूट तय था. रूट की जानकारी ज़िले के एसपी को पहले से दी जाती है, उसके बाद वो रास्ता साफ़ कराया जाता है. पुलिसवाले अक्सर शिकायत करते हैं कि कर्मा के लड़के बेवजह रास्ता बदलवाते हैं, किसी दिन कुछ हो गया तो सारा ठीकरा पुलिस के सिर फूटेगा कि उन्होंने बग़ैर रोड ओपनिंग हुई सड़क पर गाड़ी क्यों उतार दी.
लेकिन दीपक को कोई फ़िक्र नहीं. वे मुझे एक गाँव में ले जाना चाहते हैं, कुछ दिखाना चाहते हैं.
इसके डेढ़ साल बाद दो हज़ार पंद्रह की गरमियों में हवा उबल रही है कि जुडुम पार्ट-टू शुरू हो रहा है. ठीक दस साल पहले यानी २००५ की गरमियों में महेंद्र कर्मा थे, इस बार उनका दूसरा बेटा छविन्द्र है. पिछली बार बस्तर में आ रहे टाटा के लौह संयंत्र की चर्चा थी, इस बार ख़ुद प्रधानमंत्री एक लौह संयंत्र का उद्घाटन करने आए हैं. निजी कम्पनियों के साथ मिलकरक्या फिर से जंगल का सफ़ाया होना है?
बस्तर के तीन जिलों में कर्मा के तीन सेनापति थे जो जुडुम की लड़ाई लड़ रहे थे. सुकमा में सोयम मूका, दंतेवाड़ा में चैतराम अट्टामी, बीजापुर में महादेव राणा. राणा की हत्या बहुत पहले होगयी, चैतराम अपने गाँव से करीब एक दशक पहले उजड़ गए, उसके बाद सलवा जुडुम शरणार्थियों के कैंप में रहते हैं. मूका भी सलवा जुडुम के दौरान उजड़ गए थे.
हम मई की इस दोपहर जगदलपुर में बैठे हैं. मूका और छविंद्र में बहस हो रही है किसके घर में सबसे अधिक नक्सली हमले और हत्या हुई हैं. दंडकारण्य में मृत्यु एक तमग़ा है, लाश एक व्यसन.
मूका जोर देकर कहते हैं कि इस जंग में सबसे अधिक उनके रिश्तेदार मारे गये हैं. “अगर आपको भरोसा नहीं होता तो तहसील कार्यालय के कागज देख लीजिये,” उनकी आवाज डबडबाती है जब वे अपने मृत बड़े भाई सोयम मुकेश को याद करते हैं. मूका एक प्राथमिक स्कूल में शिक्षक थे, चैन से जी रहे थे कि उनके मामा महेंद्र कर्मा ने उन्हें बंदूक थमा दी कि नक्सलियों को ख़त्म करना है. ठीक दस साल बाद इन गर्मियों में कर्मा का बेटा उन्हें एक नया आन्दोलन शुरू करने के लिए उकसा रहा है, लेकिन मूका की बन्दूक ठंडी पड़ चुकी है.
“उनकी (कर्मा) हत्या के बाद मेरा भरोसा उठ गया. जब वे जिन्दा थे मुझे लगता था हम मौत को पछाड़ सकते हैं…कर्मा कहते थे कि जिन्दा रहना है तो दुश्मन की खबर और दुश्मन से दूरी दोनों जरुरी है.”
छविन्द्र उनके पास बैठे मुस्कुरा रहे हैं. वह मूका को चिढ़ाते हैं, जो छविन्द्र की दूर की बहन से ब्याहे हैं. “इन्हें कुछ नहीं होगा…ये इतने बेशर्म हैं कि इनका विकिट नहीं गिर रहा,” छविन्द्र अपने बहनोई को छेड़ते हैं. भाई को अपनी बहन के विधवा हो जाने की कतई फ़िक्र नहीं. सुनते हैं कुछ लोग मृत्यु को हथेली पर लेकर चलते हैं, बस्तर में मृत्यु इन्सान की पलकों पर टिकी रहती है.
मूका छविन्द्र के ताने सुन खिसियाते हैं. एक समय जुडुम के करीब सौ प्रमुख नेता हुआ करते थे. आज सिर्फ करीब पन्द्रह बचे हैं, इसके लगभग सभी संस्थापक नेता मारे जा चुके हैं.
एक अन्य वरिष्ठ नेता सत्तार अली कहते हैं उन्होंने करीब सौ दोस्त खो दिए हैं. एक बार नक्सलियों ने उनके घर पर हमला किया था. एक गोली उनकी पीठ में लगी, उनके कंधे को चीरती हुईपास खड़े भाई के भीतर घुस गयी. “आपको भरोसा न हो तो अपनी क़मीज़ उतार कर गोली का निशान दिखाऊँ?”
सत्तार कर्मा की गाड़ी में थे जब माओवादियों ने मई दो हजार तेरह में सुकमा से रायपुर लौटते कांग्रेस के काफिले पर भीषण हमला किया था (मुझे इस काफिले में होना था, कांग्रेस की सुकमा में चुनावी सभा पर रिपोर्टिंग करनी थी, लेकिन ऐन वक्त पर मुझे कोई दूसरा काम आ गया). दोनों तरफ से गोलियां चलीं, लेकिन माओवादियों ने चारों तरफ से घेर लिया था. सरकारी काफिले का असलहा ख़त्म हो रहा था, गुरिल्ला लड़ाकों का निशाना सिर्फ कर्मा थे लेकिन गोलियों के फव्वारे में एकदम निर्दोष कांग्रेसी नेता मर रहे थे. “हम दोनों जीप के पीछे दुबके थे. कर्मा चाहते तो बच कर निकलने की सोच सकते थे. लेकिन गोलियां चलीं, तो वे बाहर निकल आये. उन्होंने अपनी जान दे दी, हम सबको बचा दिया.”
चेतराम अट्टामी जिन पर पुलिस के साथ मिल जंगल के गाँव जलाने के तमाम आरोप हैं, आवेश में आकर कहते हैं:“आप पुलिस के क़हर की बात करते हो. आपको मालूम भी है नक्सलियों ने क्या किया था? अगर बेटा को मारना है तो सबके सामने उसके माँ और बाप को उसे पत्थर से मारने को बोलते थे…उनकी लड़ाई पूँजीपतियों से थी. उन्होंने ख़ुद ही क्यों नहीं उन्हें ख़त्म कर दिया? हम आदिवासी लोग दुनिया के बारे में कुछ नहीं जानते थे, उन्होंने हम लोगों से अपनी लड़ाई लड़वाई. ये जनवाद है?”
लेकिन छविन्द्र? वे कौन सी राजनीति कर रहे हैं? २०१४ के लोक सभा चुनाव में बड़े भाई दीपक को बस्तर लोक सभा की कांग्रेस टिकिट मिल गयी थी. दंतेवाड़ा विधान सभा पर माँ देवती का क़ब्ज़ा है. क्या जुडुम-दो छविंद्र का राजनैतिक पैंतरा है? मृत्यु की ज़मीन पर अपनी हसरतों का संधान है?
“मेरे पिता समेत मेरे परिवार के ९५ लोग मारे गए हैं. लोग कहते हैं मैं जुडुम फिर से शुरू कर राजनीति कर रहा हूँ. मैं सिर्फ इस इलाके को नक्सलियों से मुक्त कराने की अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी निभा रहा हूँ…मुझे मालूम है जब हम अन्दर जायेंगे वे हम पर हमला करेंगे. लेकिन इस लड़ाई में कुर्बानियां देनी ही पड़ेंगी. अगर गोली चलनी ही हैं, तो पहली गोली मेरी छाती पर आने दो,”
चौंतीस साल के छविन्द्र कहते हैं.
इस युद्ध में, शायद किसी भी अन्य युद्ध की तरह, सही और गलत का फर्क फ़क़त एक संयोग है. कर्मा की बस्तर पर राज करने की गहन राजनैतिक आकांक्षाएं थीं. वे दंतेवाड़ा को नक्सलियों से मुक्त कराना चाहते थे, लेकिन अपनी पसंद की निजी कम्पनियों के साथ उन्होंने जोड़-तोड़ की. न मालूम कितने ही जंगल के निवासियों को जो उनके ही भाई-बंधु थे जुडुम के दौरान कुचल डाला. इसके बावजूद जब फरसपाल के आकाश में चमकते में उनके कुनबे के विराट मृत्यु-स्तम्भ पर निगाह जाती है तो लगता है कर्मा की लड़ाई शायद अपनी जमीन पर कब्जे की लड़ाई भी थी.
जंगल के एक जमींदार की उसके इलाके में आ गए बाहरी लोगों से वर्चस्व की लड़ाई थी. बस्तर का जंगल उनका था. वे इसे बनाते-बिगाड़ते, संवारते या नष्ट करते लेकिन आन्ध्र से आए पढ़े-लिखे गुरिल्ला लड़ाकों का प्रभुत्व उन्हें बर्दाश्त नहीं हुआ. यह स्वाभिमान की लड़ाई थी, भले ही स्वार्थ और क्रूरता से संचालित होती थी. आखिर कौन खुद को, अपने परिवार को दांव पर लगा देगा? कोई व्यापारी या राजनेता तो शायद नहीं. व्यापार या राजनीति में डूबा इन्सान इस कदर मौत से बेख़ौफ़ होकर शायद नहीं जी सकता, अपने पूरे कुटुंब को एक-एक कर ख़ूनी मौत मरते नहीं देख सकता.
दीपक के फ़ोन पर अभी भी अपने पिता का नम्बर ‘बिग बॉस’ के नाम से सुरक्षित है. पिता की हत्या के बाद यह नम्बर उनकी माँ के पास आ गया है. जब भी वे बेटे को फ़ोन करती हैं बेटे की स्क्रीन पर ‘बिग बॉस कॉलिंग’ चमकता है. बेटे को अक्सर शुबहा हो जाता है कि कहीं पिता ने तो फ़ोन नहीं किया, बेटे के मुँह से कभी “हाँ, पापा” भी निकल जाता है.
(पांच)
मृत्यु का एक चेहरा और भी है जो मुझे दो हज़ार चौदह के अगस्त में पद्मा कुमारी ने दिखाया था. मैं उनके हैदराबाद के घर में बैठा हुआ था. पद्मा जेल में थीं जब उनके कामरेड पति सुरेश की पुलिस मुठभेड़ में मृत्यु हो गयी. “मैं उनकी लाश का चेहरा देखने नहीं गयी. मुझे मालूम था उनकी देह बुरी तरह से विकृत की जा चुकी है. मैं अपनी स्मृति में उनकी मुस्कान को जीवित रखना चाहती थी.”
“वे मेरे सिर्फ़ पति नहीं थे, वे मेरे नेता थे. मेरी पार्टी के नेता.”
सुरेश की मृत्यु के कुछ साल बाद पद्मा जेल से बाहर आयीं और २००७ में उन्होंने क्रांतिकारी लेखक संघ के एक पत्रकार सदस्य से दूसरी शादी कर ली. लेकिन सुरेश के चेहरे को वे नहीं भूलीं, ‘अमरुल्ला बंधु मित्रुला संघम’ से जुड़ गयीं. आन्ध्र और तेलंगाना में कार्यरत इस संस्था का गठन मुठभेड़ में मारे गए माओवादियों के रिश्तेदारों ने किया है जिनमें से कई ख़ुद भी लम्बी गुरिल्ला ज़िंदगी जी चुके हैं. इसकी लगभग नब्बे प्रतिशत सदस्य स्त्रियाँ हैं. यह लोग मुठभेड़ में मारे गए माओवादियों के शव दूसरे राज्यों से लेकर आते हैं, उनके रिश्तेदारों को सौंप देते हैं, सम्माजनक दाह संस्कार में मदद करते हैं. मृत्यु-वाहिनी के मृत्यु-वाहक. मित्रुला संघम हर साल अठारह जुलाई को तेलंगाना और आंध्र में वार्षिक दिन मनाता है, कई जगह कार्यक्रम होते हैं, लोग क्रांति की लड़ाई में मारे गए लड़ाकों को याद करते हैं. पिछले चालीस साल में आन्ध्र और तेलंगाना के क़रीब छः हज़ार लड़ाके मारे जा चुके हैं.
छत्तीसगढ़ में जंगल के निवासी गुरिल्ला लड़ाके के लिए ऐसी कोई संस्था नहीं है, जबकि पिछले दस-पंद्रह सालों सबसे अधिक मौत उनकी ही हुई हैं. वे मारे जाते हैं, कई बार शिनाख्त भी नहीं हो पाती, परिवार शव लेने कैसे आएगा? पुलिस इन सड़ते हुए शवों को इल्लत की तरह बरतती हुई दफ़ना देती है.
पद्मा की संस्था के मृत्यु-वाहक २०११ नवम्बर में पश्चिम बंगाल में मारे गए किशनजी का शव भी लेकर आये थे, करीमनगर ज़िले के पेदापल्ली इलाक़े में रहते उनके परिवार को सौंप दिया.
अगस्त दो हज़ार चौदह की रात बेहद उमस भरी है, लेकिन पेदापल्ली में अठासी साल की मधुरम्मा देर तक बात करती हैं. वे सिर्फ़ तेलुगु बोलती हैं, लेकिन जो ख़बरनवीस उनसे मिलने इतनी दूर से आया है वह तेलुगु नहीं समझ पाता. उनके पोते दिलीप अपनी दादी और ख़बरनवीस के बीच दुभाषिया बनते हैं. दिलीप किशनजी के भतीजे हैं, एक स्थानीय कॉलेज में मनोविज्ञान पढ़ाते हैं. हम उनके घर के अंदर बैठे हैं. सम्पन्न घर. एसी लगा है, ड्रॉइंग रूम में ढेर सारे अवार्ड. किसे मिले होंगे ये?
मधुरम्मा को अभी भी याद है नवम्बर का वह दिन जब पुलिस ने पेदापल्ली आने वाली सड़कों पर भारी पहरा बिठा दिया था, नाकाबंदी कर दी थी, लेकिन क़रीब सत्तर हज़ार की भीड़ उनके बेटे के लिए उमड़ आयी थी.
जब वे घर छोड़ कर जा रहे थे आपने रोका नहीं?
मैं कैसे रोकती? इंदिरा अम्मा ने इमरजेंसी लगा दी थी. उसे अंडरग्राउंड होना ही पड़ा.दुःख तो होता ही है, लेकिन मुझे उस पर गर्व है. उसका यहाँ बहुत सम्मान है.
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(मधुरम्मा अपने मृत बेटे कोटेश्वरा राव की तस्वीर के साथ
करीमनगर के अपने घर में. )
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मैं चौंकता हूँ कि नब्बे की होने जा रही मधुरम्मा इतने अधिकार से ‘इंदिरा अम्मा’ कैसे कह रही हैं. उनके कमरे में रखे अवार्ड देख पता चलता है कि किशनजी के पिता मल्लोजुला वेंकटैया स्वतंत्रता सेनानी थे. यह पंद्रह अगस्त उन्नीस सौ बहत्तर को, दिलीप एक अवार्ड की तरफ़ इशारा करते हैं, इंदिरा गांधी ने उन्हें दिया था. उनके दादा भी भारत की आज़ादी के लिए लड़े थे. किशनजी के छोटे भाई मल्लोजुला वेणुगोपाल राव भी सत्तर के दशक में अंडरग्राउंड हो गए थे. इस वक़्त सीपीआई माओवादी पोलितब्यूरो के सदस्य हैं, शीर्षस्थ क्रांतिकारियों में शुमार.
स्वतंत्रता सेनानी के पोते और बेटे देश के सबसे दुर्दाँत क्रांतिकारी बनते हैं, अपनी शिक्षा और जीवन क्रांति के सपने पर क़ुर्बान करते हैं, उनमें से एक मुठभेड़ में देश के सर्वोच्च सुरक्षा बल द्वारा मारा जाता है, एक ऐसी विवादास्पद मुठभेड़ जिसके बारे में अक्सर यह सुनने में आता है कि इसके पीछे एक स्त्री का हाथ था जो उस लड़ाके को धर दबोचने केलिए ही पुलिस द्वारा ‘प्लांट’ की गयी थी, जिसके बाद, माओवादी और उनके सहयोगी संगठन आरोप लगाते हैं और जैसाकि पोस्टमार्टम की तस्वीरें संकेत देती हैं, पुलिस ने किशनजी के शव के साथ बेइंतहा बेरहमी की. मुर्दे को तहस नहस कर दिया.
मुझे याद आता है कि दो हज़ार बारह की गरमियों में मैंने एक निहायत ही मासूम बच्चे की ताज़ा लाश पर उसी सुरक्षा बल द्वारा घोंपे गए ख़ंजर के निशान देखे थे, अपने भीतर मृत्यु को एक स्थायी घर बनाते महसूस किया था. यह भी याद आता है मई तेरह में जब क़रीब सौ नक्सलियों ने निहत्थे कर्मा को जंगल में घेर कर मारा था, वे अपने दुश्मन की ताज़ी लाश को पैरों से खूँदते रहे थे, उसे चाक़ू से गोदते हुए उस पर नाचते रहे थे. उनकी लाश पर उत्सव मनाया था.
वह कोई अपवाद नहीं था. शीर्षस्थ माओवादी नेता दुश्मन की लाश के साथ नृशंसता को एक मनोवैज्ञानिक ज़रूरत बतलाते रहे हैं कि दुश्मन को कुचलने से, उस दृश्य का वीडियो बनाने से,उसे बार-बार देखने से कामरेड का उत्साह बढ़ता है, दुश्मन के प्रति डर मिट जाता है. मैंने माओवादी कैंप में युवा लड़ाकों को मुठभेड़ के वीडियो देखते देखा है — गुरिल्ला लड़ाकों की आँखों में वहशी सुकून बरस आता है जब वे किसी पेड़ की मचान पर टिकी रात के अंधेरे में चमकती कम्प्यूटर स्क्रीन पर देखते हैं कि उनके साथियों ने किस तरह मरे हुए दुश्मन को नेस्तनाबूद कर दिया. रानी बोदली हत्याकांड में पुलिसवालों की लाश के साथ पाशविक बर्ताव को नक्सलियों ने अपने ख़ुफ़िया दस्तावेज़ों में इस तरह जायज़ ठहराया था: “कामरेड साथियों के परिवार सलवा जुडुम की वजह से तबाह हो गए थे. उनकी बहनों का बलात्कार हुआ था, उनके माता-पिता और भाई मारे गए थे. इसलिए उनकी घृणा असीम थी. इसी घृणा की वजह से कामरेड बहादुरी से लड़ सके. जुडुम के गुंडों को बोटियों में क़तर देना इसी घृणा की अभिव्यक्ति था.”
बस्तर में आख़िर शिकार इंसान का नहीं लाश का होता है.क्या माओवादी आंदोलन आज़ाद भारत का महाभारत है और दंडकारण्य कुरुक्षेत्र?
(अंग्रेजी में हार्पर कॉलिंस से शीघ्र प्रकाश्य )
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