पॉल गोमरा का स्कूटर उदय प्रकाश की लम्बी कहानी है जो हिंदी की कुछ बेहतरीन कहानियों में से एक है. इस कहानी को केंद्र में रखकर कथित भूमंडलीकरण और बाजारवाद के आम आदमी पर प्रभाव और उस आदमी के कायांतरण की चर्चा अपने इस आलेख में युवा लेखिका शिप्रा किरण कर रहीं हैं.
पॉल गोमरा का स्कूटर
बाज़ार से यूं ही गुज़र जाना आसान कहाँ
शिप्रा किरण
“बड़ी तेजी से दुनिया बनती जा रही है एक बड़ा गाँव
लोभ क्रोध ईर्ष्या द्वेष के लिए अब कहीं और नहीं जाना पड़ता
मनुष्यों के संबंध बहुत पतले तारों से बांध दिए गए हैं जो बात-बात में टूट जाते हैं
उन्हें जोड़ने के लिए फिर से जाना होता है बाज़ार
जहां तमाम स्वादिष्ट चीजें एक
बेस्वाद जीवन को घेरे हुए हैं…”
मंगलेश डबराल
उदय प्रकाश का साहित्य इसी बेस्वाद होते जा रहे जीवन और उसके कड़वाहट की वजहों के पड़ताल का साहित्य है. कड़वाहट से निजात दिलाने वाला नहीं सिर्फ उनकी तह तक पहुंचाने वाला साहित्य. यह उस बाज़ार की पोल खोलने वाला साहित्य है जिसने मनुष्य के अस्तित्व पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं. यह उस चकाचौंध की असलियत बताने वाला साहित्य है जिसमें दुनिया की आँखें चुंधियां सी गईं हैं. अस्मिताएं खतरे में हैं लेकिन अस्मिता पर मंडरा रहे खतरे को भाँपना आसान नहीं है. पता भी नहीं चलता कि कब ‘मोहनदास’ का नाम और उसकी पहचान उससे छिन जाती है. पता ही नहीं चलता और ‘राम गोपाल’ पॉल गोमरा बनने को विवश हो जाता है.
भूमंडलीकरण के दौर में बाज़ार एक ऐसी आंधी बन कर आया कि अपने साथ सब कुछ उड़ा ले चला. ये तय है कि इस आंधी में वही बचा रहेगा जो अपने पैर बाज़ार में टिकाए रखने के काबिल बनेगा. पॉल गोमरा को भी वर्तमान में टिके रहना मुश्किल लगता था क्योंकि-
‘‘इतिहास का उन्हें अपार ज्ञान था लेकिन वर्तमान उनकी समझ में नहीं आता था. बहुत प्रयत्नपूर्वक एकाग्रचित्त होकर वे कभी–कभार वर्तमान को समझने का प्रयत्न करते तब तक वह बदल जाता था.’’1
हर पल हो रहे इस बदलाव को समझने और काबिल बनने की होड़ में अंततः बाज़ार ही उसका आश्रय भी बनेगा. बाज़ार हर रोज एक नया सामान और उसके साथ साथ उसे साधने के लिए एक नई तकनीक पेश कर दे रहा है. एक स्किल सीखते-सीखते दूसरी, नई और पहले से भी बेहतर स्किल यहाँ आ जाती है और फिर बाज़ार ही लोगों को उसके लिए ‘स्किल्ड’ बनाने में बड़ी तत्परता से जुट जाता है. अर्थशास्त्री जोसफ शुंपीटर ने इसे ही पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत ‘सर्जनात्मक ध्वंस’ (Creative Destruction) कहा है –
“Whatever has been built is going to be destroyed by a better product or better method or a better organization or a better strategy” 2
इस सर्जनात्मक ध्वंस की चर्चा जोसफ शुंपीटर से पहले ही कम्युनिस्ट घोषणापत्र में मार्क्स-एंगेल्स भी कर चुके हैं. सीधे तौर पर तो नहीं पर आधुनिक पूंजीवादी समाज के सन्दर्भ में किए गए कुछ विश्लेषणों के दौरान –
“…in these crises a great part not only of the existing products, but also of the previously created productive forces,are periodically destroyed.”3
यह पूंजीवादी विनाश का एक बड़ा ही भ्रामक रूप है जिसमें विनाश, पहले से और बेहतर व उत्कृष्ट की सृष्टि कर के किया जाना है. लेकिन पूंजीवाद के इस सृजनात्मक ध्वंस का बड़ा फायदा अंततः बजार को ही मिलता है तभी तो इसका नतीजा यह रहा कि
‘‘बाज़ार अब सभी चीजों का विकल्प बन चुका था. शहर, गाँव, कस्बे बड़ी तेजी से बाज़ार में बदल रहे थे. हर घर दुकान में तब्दील हो रहा था. बाप अपने बेटे को इसलिए घर से निकाल कर भगा रहा था कि वह बाज़ार में कहीं फिट नहीं बैठ रहा था.’’4
बाज़ार अब सारे संबंधों के विकल्प के रूप में सामने है. और यहाँ जो मिसफिट है वह अपनी पहचान खोने को विवश है, वह आत्महत्याओं का विकल्प चुनने को विवश है. अपनी पहचान खोकर, बाज़ार और उसके इस भागम-भाग से थक कर खुद को अकेला ही पाता है. पूंजीवादी मौजूदा दौर में आर्थिक विषमताओं और क्रूर-अन्यायपूर्ण व्यवस्था से जूझते हुए उसे यही एक रास्ता दिखाई देता है-
‘‘सचमुच यह कैसा समाज है जहां कोई व्यक्ति लाखों की भीड़ में खुद को गहरे अकेलेपन में पाता है, जहां कोई व्यक्ति अपने को मार डालने की अदम्य इच्छा से अभिभूत हो जाता है और किसी को इसका पता तक नहीं चलता? यह समाज, समाज नहीं, बल्कि एक रेगिस्तान है जहां जंगली जानवर बसते हैं, जैसा कि रूसो ने कहा था.’’5
कहीं न कहीं ऐसी ही अदम्य इच्छा और ऐसी ही किसी आत्महत्या की आशंका से बचने के लिए ही पॉल गोमरा भी रामगोपाल से पॉल गोमरा बनता है. चूंकि वह हिन्दी साहित्य का विद्वान था तो अपनी योग्यता के अनुरूप ही नाम बदलने के विखंडनवादी तरीके को अपनाता है. इस नए यथार्थ से तालमेल बिठाने के लिए उसने-
‘‘अपने नाम राम गोपाल के ‘पाल’ को तोड़कर अलग निकाला और उसको हल्का सा डिसटॉर्ट करते हुए ‘पॉल’ बना दिया. इसके बाद बाकी बचे ‘रामगो’ को उल्टी तरफ से पढ़ दिया- ‘गोमरा’.’’6
निश्चय ही यह विखंडन बाज़ार के दबाव का ही परिणाम है और यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यह सिर्फ एक व्यक्ति के नाम का ही नहीं उसके पूरे व्यक्तित्व, उसकी पूरी अस्मिता का डिस्टॉर्शन है. यह बाज़ार से टक्कर लेने और उसे मात देने की होड़ से उपजी पद्धति है. यह ‘देरीदीय विखंडनवाद’ का भी विखंडन है. बाज़ार एक आम इंसान के भीतर ऐसी हीनता-ग्रंथि पैदा करता है कि वह उससे मुक्त होने के लिए छटपटाता फिरता है.
‘‘बाज़ार आप किसी वस्तु की आवश्यकता होने पर जाते हैं. बाज़ारवादी दौर में आप बाज़ार जाते नहीं. माल आपका पीछा करता है. आपकी असुविधा का ध्यान किए बिना आपके घर में घुस आता है. वह आपकी जीवनशैली और शक्ल का माखौल उड़ाकर तब तक आपको हीन भावना से भरता रहता है जब तक आप उस माल का उपयोग करना नहीं आरंभ कर देते.’’7
बाज़ार अपने साजो-समान के साथ उसकी हीनता बोध को भुनाने की फिराक में हर क्षण तैयार और चौकस रहता है. धीरे- धीरे यह बाज़ार उसकी जरूरत बन जाता है. और बाज़ार के मापदण्डों पर खरा उतरना इंसान की मजबूरी. डार्विन की survival of the fittest की थियरी का हवाला देता हुआ बाज़ार,इंसान को उसके दम घुट जाने की हद तक अपनी बाँहों में जकड़ता जाता है. पुरानी व्यवस्था और बने बनाए ढर्रे पर चलने वाला एक आदर्शवादी और नैतिक मूल्यों से भरा-पूरा व्यक्ति इन सबसे पहले तो घबरा सा जाता है. वह समझ ही नहीं पाता कि इस व्यवस्था की ताल से ताल मिलाई कैसे जाए. वह एक अजीब सी भ्रम की दुनिया में जीने लगता है. एक लंबी बेहोशी के बाद जागकर भौंचक्का सा रह जाता है जैसे. और जब जागता है तब उसे एहसास होता है कि-
‘‘लोग बाग मारुति, एस्टीम, सीएलो, जेन, सिएरा, सूमो, होंडा, कावासाकी, सुजुकी और पता नहीं किन-किन गाड़ियों में चलने लगे थे. कहाँ से कहाँ पहुँच गए थे. और पॉल गोमरा को साइकिल तक चलानी नहीं आती थी.’’8
हिन्दी का ही लेखक होने के नाते उन्हें इस बात का भी एहसास बार-बार होता था कि
‘‘वे समाज के आगे-आगे कबीर-प्रेमचंद की तरह मशाल लेकर चलने वाले अगुआ-अवांगार्द लेखक की बजाय, समय के पीछे-पीछे किसी तरह रेंगने-घिसटने वाले कानखजूरे, गोजरा, केंचुआ या घोंघा बनते जा रहे हैं.’’9
और तभी वह अपना नाम बदलने के बाद अब एक स्कूटर खरीदने के बारे में सोचते हैं. लेकिन उनके अवचेतन में कहीं न कहीं स्कूटर चलाना नहीं जानने का डर और एक तरह की ग्रंथि भी मौजूद रहती है, अपने पिछड़ जाने का डर भी रहता है तभी उन्हें अजीब-अजीब सपने आने लगते हैं-
‘‘उस रात पॉल गोमरा ने अपने टीवी सेट पर स्वप्न जैसा विज्ञापन देखा. बस्तर, अबूझमाड़, किरर या मयूरभंज जैसे किसी आदिवासी इलाके में अपने तीर धनुष लेकर निकले हुए आदिवासियों का एक झुंड अचानक जंगल में लोहे का एक जानवर देखता है. वे उस पर अपने जहर बुझे बान चलाने ही वाले होते हैं कि उन्हीं में से एक युवा आदिवासी, जो दुस्साहसी और नई चीजों के प्रति आदिम जिज्ञासा से भरपूर है. उन्हें रोककर उस जानवर के पास पहुँचता है और उसे निश्चल पाकर उसके ऊपर चढ़ जाता है और उसकी पीठ और पुट्ठों पर कूदने लगता है.’’10
नई चीजों और भौतिकता के प्रति इंसान की यही आदिम जिज्ञासा उसे कहीं न कहीं बाज़ार के करीब ले जाने का कारण बनती है. पॉल गोमरा के इस सपने के बारे में पढ़ते ही अंग्रेजी की प्रसिद्ध फिल्म ‘द गॉड्स मस्ट बी क्रेजी’ कावो दृश्य आँखों के आगे घूम जाता है, जब एक आदिवासी इलाके में अचानक कहीं से कोको-कोला की बोतल पा ली जाती है, वह बोतल उनके लिए बिल्कुल नई और निराली चीज होती है. पहले तो वह आदिवासी-बच्चों के कौतूहल का कारण बनती है फिर पूरे आदिवासी समाज की हैरानी का. धीरे-धीरे उस बोतल का आकर्षण इतना बढ़ जाता है कि उसपर अधिकार पाने के लिए उन आदिवासी समूहों में झगड़े और टकराव की स्थिति आ जाती है. यह पहला अवसर होता है जब उस समाज में आपसी कड़वाहट की शुरुआत होती है.
आदिवासी समाज का मुखिया उसी बोतल को झगड़े की जड़ मानता है तथा उससे छुटकारा पाने के लिए बोतल को जमीन में गाड़ आता है. लेकिन उस बोतल के आकर्षण से भरा हुआ एक दूसरा आदिवासी उसे वापस निकाल लाता है. इस तरह एक भोले-भाले और निश्छल समाज में वर्चस्व की लड़ाई और शक्ति प्रदर्शन की शुरूआत होती है. वह बोतल भी इसी बाज़ार का प्रतिनिधित्व कर रही होती है. इंसान को पागल कर देने वाले बाज़ार का ही एक हथियार है- विज्ञापन. जो उसके अवचेतन तक में प्रवेश कर चुका है. उदय प्रकाश के यहाँ विज्ञापन के असर और उसके असर से बेखबर इन्सानों और उन स्थितियों को बखूबी देखा जा सकता है. ये स्थितियाँ ही हमें अपने आसपास के परिवेश का जायजा लेने को विवश करती हैं. यह बाज़ार और विज्ञापन का प्रभाव ही है कि
‘‘यथार्थ मशीन युग से निकलकर इलेक्ट्रॉनिक और उसके आगे के युग में जा रहा था.’’11
और बच्चे –
‘‘बच्चे जादुओं, परी कथाओं और डायनासोर जैसे प्रागैतिहासिक जंतुओं के साथ गिल्ली-डंडा या बेसबॉल खेल रहे थे. वे हनुमान जी, भीष्म पितामह और कृष्ण जी को कैडबरीज के चॉकलेट खिला रहे थे और मैकडॉवेल सोडा पिला रहे थे.’’12
नई पीढ़ी न जाने किस अंधीदौड़ में और कौन सी दिशा में भाग रही है कुछ पता नहीं चल पा रहा. जिस आठ साल के बेटे मंटू के पैर में मोच आ जाने पर पॉल गोमरा उसे नूरानी तेल की मालिश किया करते, जिसे भुने जौ और चने का सत्तू खिलाया करते वही बाज़ार के और उसके तमाम हथियारों का शिकार बन-
‘‘कमरे के बीचोंबीच स्टीरियो डेक में मैडोना का कैसेट चलाकर डांस कर रहा था.’’13
ये नई जेनेरेशन के शौक थे. यही वह जेनेरेशन गैप था जिसकी खाई पाटते-पाटते व्यक्ति कब स्वयं भी इस बाज़ार का शिकार होता जाता है, उसे खुद ही इसका एहसास नहीं होता. और पॉल गोमरा भी एक दिन-
‘‘जब कवि नगर के अपने एल.आई.जी. फ्लैट तक पहुँच कर उन्होंने कॉलबेल बजाई और दरवाजा खुला तो वे गिरते-गिरते बचे. उनके घर का दरवाजा उनकी पत्नी स्नेहलता सक्सेना ने नहीं, मशहूर मॉडल मेहर जेस्सिया ने खोला था. रोलर और कंडीशनर से घुंघराले हो गए बाल, जिन्हें ड्रायर से सुखाकर चमकीला बना दिया गया था, भूरे और कत्थई होकर पंखे की हवा में काँप रहे थे. साँवला रंग बदलकर हल्का हरा और आसमानी हो गया था. पलकों में सुनहरा शैडो. शरीर में मौंट्रियल की प्रसिद्ध यू डि कोलन शैंटिली की खुशबू आ रही थी. उसने हल्के गुलाबी और सलेटी रंग की जो लिंगरी पहन रखी थी, उसकी मूल डिजाइन की परिकल्पना पेरिस के फैशन डिजाइनर रोम्याँ कार्तियें ने की थी.’’14
विज्ञापन किसी भी व्यक्ति या वस्तु को इतना सजा सँवारकर प्रस्तुत करता है कि वह अपनी एक गहरी छाप छोड़ जाता है. यह स्वाभाविक ही है कि एक अदृश्य वस्तु के प्रति हमारा आकर्षण जितना ही तीव्र होता है, उसे पाने की लालसा भी उतनी ही प्रबल होती जाती है. ऐसा ही वास्तविक जो असल में वास्तविक है नहीं, को इटालियन विचारक-दार्शनिक उम्बर्तो एको ने The authentic fake कहा.
‘‘पूंजीवादी बाज़ार में रची गई छवियाँ और उनका मायाजाल मनुष्य के मन के एक अनियंत्रित और आदिम संवेग को तो व्यक्त करता ही है, वह उसकी वास्तविक आंतरिक अतृप्त आकांक्षाओं और अधूरे रह गए सपनों को भी ध्वनित करता है.’’15
आज सिनेमा और टेलीविजन द्वारा ऐसी ही न जाने कितनी मेहर जेस्सिया की छवियाँ व्यक्ति के मन-मस्तिष्क पर गढ़ी जा रही हैं. ऐसी ही छवियाँ हमें अपनी स्मृतियों, अपनी वास्तविकताओं से दूर कर एक अजनबी दुनिया में लिए जा रही हैं. बाज़ार और विज्ञापनों द्वारा गढ़े जा रहे गैर-वास्तविक को ही हमने वास्तविक और मूल मान लिया है. बाज़ार विज्ञापनों के सहारे उपभोग की इन वस्तुओं का ऐसा प्रभामंडल तैयार करता है कि व्यक्ति स्वाभाविक स्मृतियों और कल्पनाओं को नहीं बल्कि उसी आभासी दुनिया की फंतासियों को सच मानने लगता है. ज्यां बोद्रिला ने इसे ही ‘हाइपर रियलिटी (Hyperreality)’ कहा है, और इसकी परिभाषा देते हुए इसे A real without origin orreality कहा है अर्थात बिना वास्तविकता का वास्तविक. हाइपर रियलिटी के ही सन्दर्भ में उम्बर्तो ने The authentic fake वाली बात कही है, जिसका जिक्र ऊपर किया गया है. विजय कुमार ने अपनी किताब में इसकी व्याख्या कुछ इस तरह की है –
‘‘वास्तविकता मूल से कहीं अधिक वास्तविक है. भयावह मूल से कहीं अधिक भयावह है. सेक्स मूल से कहीं अधिक सेक्सी है. पोर्नोग्राफी कामुकता के मूल से कहीं अधिक कामुक है, युद्ध अपने मूल से कहीं अधिक नाटकीय है.’’16
निश्चित तौर पर ‘अति’ कभी वास्तविक नहीं हो सकता. मंगलेश डबराल अपनी एक कविता
‘यथार्थ इन दिनों’ में लिखते हैं –
‘यथार्थ इन दिनों बहुत ज़्यादा यथार्थ है
उसे समझना कठिन है सहन करना और भी कठिन”17
यह बाज़ार का ही कमाल था कि अपनी पत्नी स्नेहलता सक्सेना में उसे टेलीविजन द्वारा बनाई गई एक छवि मशहूर मॉडल मेहर जेस्सिया दिखाई देती है. और पॉल गोमरा बाज़ार के ही एक उपकरण मेहर जेस्सिया के बनावटी और उपभोक्तावादी सौन्दर्य में बहुत देर तक डूबता-उतराता रहता है. क्योंकि जाने-अन्जाने ही बाज़ार उसकी चेतना में प्रविष्ट हो चुका है और यह सारी घटनाएँ उसी के परिणामस्वरूप घटित हो रही हैं. आज मनुष्य भी वही देखना चाहता है जो उसे दिखाया जा रहा है. अपने आसपास की कठोर सच्चाईयों से भागकर वह बाज़ार की शरण में जाता है. वह खुद भी भ्रम और छलनाओं की दुनिया में जीना चाहता है, उसे अपने सपनों को खोने का भी डर नहीं रह गया है. जबकि वह भागकर जिस दुनिया में जा रहा है वहाँ मृगमरीचिका और रहस्य के अलावा कुछ भी हाथ नहीं आने वाला. पूंजीवादी व्यवस्थाएं साजिशन लोगों की स्मृतियों का सफाया कर वहाँ घुसपैठ करती हैं.
‘‘लोगों की स्मृति उस कैसेट की तरह थी, जिसमें हर रोज नई छवियाँ और नई आवाजें टेप की जातीं और रात में उन्हें पोंछ दिया जाता. सुबह वे सब के सब स्मृतिहीन होकर उठते. उन्हें पिछला कुछ याद नहीं रहता था.’’17
ये शक्तियाँ सबकी स्मृतियों के साथ खिलवाड़ करती हैं. अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने के बाद उन्हें धो-पोंछ कर मिटा देती हैं.
‘‘खुद पॉल गोमरा की स्मृति भी दगा देने लगती. हालाँकि वे उसे बचाए रखने के कठिन संघर्ष में जूझते रहते.’’18
लेकिन अपनी स्मृतियों को बचा पाना असंभव सा है इस दौर में इसलिए आज व्यक्ति अपनी जड़ों से कटकर अकेला हुआ जा रहा है. शहरों यहाँ तक कि अब कस्बों, घरों तक फैले बाज़ार ने उसे एक-दूसरे से अजनबी ही बनाया है. इस कृत्रिम जीवन ने एक भयानक एलियनेशन को जन्म दिया है.
‘‘दिल्ली एक ऐसा शहर था, जहां लोग सिर्फ काम पड़ने पर ही मिलते थे. यों ही मिल लेने से लोगों के मन में उस व्यक्ति के प्रति धारणायें खराब हो जाती थीं.’’19
दिल्ली तो महज प्रतिनिधित्व करती है शहरी अजनबीपन का, यही हाल देश के सभी बड़े शहरों का था. मशहूर शायर बशीर बद्र ने यूं ही नहीं लिखा था कि
‘‘कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिजाज का शहर है जरा फासले से मिला करो.’’20
शीत युद्ध की समाप्ति से पहले जो विश्व दो महाशक्तियों- सोवियत रूस और अमरीका, के दौर में दो ध़ुवों में बंटा हुआ था. शीत युद्ध की समाप्ति के बाद एकधु़वीय हो गया. इस शक्ति संतुलन के टूटते ही अब अमरीका का लगभग पूरी दुनिया पर एकाधिकार कायम हुआ. इसी के साथ पूरा विश्व एक नए तरह के उपनिवेशवाद का शिकार हुआ. बाज़ार के माध्यम से अमरीका ने इस नवउपनिवेशवाद का प्रसार आरंभ किया, खासकर विकासशील देशों के बाज़ार पर उसकी खास नजर रही. यही तीसरी दुनिया के देशों के बाज़ार उसका लक्ष्य रहे. भारत भी अमरीका का ऐसा ही एक बाज़ार बना. इन देशों को अपना बाज़ार बनाने की प्रक्रिया तो लगातार चलती ही रही लेकिन यह तब और पुख्ता हो गई जब भारत में 1991 में नई आर्थिक नीतियाँ लागू हुईं. इस नई आर्थिक नीति के तीन प्रमुख तत्वों- उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण ने मिलकर पूरे भारतीय समाज को आर्थिक स्तर पर तो प्रभावित किया ही सामाजिक, सांस्कृतिक स्तरों पर भी उतना ही प्रभावित किया. अब इन देशों के बाज़ार पूरी तरह मुक्त कर दिए गए. सभी व्यापारिक सीमाओं को समाप्त कर ‘ग्लोबल विलेज’ की अवधारणा सामने आई.
पहले विदेशी कंपनियों पर व्यापारिक नीतियों के अंतर्गत लाइसेन्स, कोटा आदि के जो लगाम लगे हुए थे उनमें पूरी ढील दे दी गई. भारत में भी विदेशी कंपनियों व बड़े उद्योगपतियों ने खुलकर पूंजी लगाई. जिसका परिणाम यह हुआ कि बड़े स्तर पर बेरोजगारी तो बढ़ी ही लघु उद्योग व घरेलू उद्योगों का भी तेजी से ह्रास हुआ. किसान, दस्तकार जैसे छोटे व्यापारियों के लिए असुरक्षा का माहौल बढ़ता गया. एक तरफ जहां आम आदमी पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष करों का बोझ बढ़ा वहीं दूसरी तरफ कॉर्पोरेट व उद्योगों को खरबों रुपये की रियायत दी गई. इस तरह पूरा भारतीय समाज आर्थिक विषमता के मकड़जाल में फँसता गया.
‘‘एक के बाद दूसरी सरकारों की वह आर्थिक नीति, जो देश के महानगरों को अमेरिका बना रही थी, वही देश के गावों और पिछड़े इलाकों को कंगाल बनाकर इथियोपिया, रवांडा और घाना पैदा कर रही थी.’’21
इसी तरह एफडीआई, सेज जैसे सरकारी कवायदों ने किसानों, छोटे व्यापारी समूहों की हालत दिन-ब-दिन खराब ही की.
‘‘महँगाई बढ़ने का एक कारण किसानों का संकट में होना भी है. किसान कर्ज के बोझ तले ही नहीं दबा है उसे कई और संकटों से जूझना पड़ रहा है. वह कर्ज के कारण उदासी, विषाद और निराशा का शिकार हो रहा हो रहा है. वह आत्महत्या कर रहा है.’’22
महंगाई को कम करने के लिए भी जो रास्ते अख्तियार किए जा रहे हैं वह भी उनके शोषण पर ही टिके हैं-
‘‘महंगाई रोकने के लिए विदेशों से गेंहू, आलू, प्याज मंगवाया जाता है. लेकिन देश में पैदा होने वाले अनाज, फल, सब्जियों आदि की समुचित मूल्य पर खरीद और संरक्षण आदि को लेकर कभी गंभीरता नहीं दिखाई जाती. अपने किसान की समस्याएं दूर करने की चिंता सरकारों को नहीं है.’’23
मोहनदास का बिसेसर किसान ऐसी ही सरकारी लापरवाही का शिकार होता है-
‘‘खेत में पैदा होने वाले अनाज और दूसरी फसलों की कीमत ही बाज़ार में नहीं रह गई थी. पास के गाँव बलबहरा का बिसेसर, जिसने ग्रामीण बैंक से कर्ज लेकर सोयाबीन की खेती की थी, दो महीना पहले अपने खेत की नीलामी से बचने के लिए बिजली के खंभे पर चढ़कर नंगी तार से चिपक कर मर गया था.’’24
इसलिए रोजगार के लिए शहरों की ओर पलायन करना किसानों और ग्रामीण मजदूरों की मजबूरी हो गई-
‘‘छोटे किसान और मजदूर गाँव छोड़-छोड़कर शहर भाग रहे थे.’’25
लेकिन वहाँ भी स्थितियाँ बेहतर नहीं थीं. नई संभावनाओं की तलाश में वह पलायन तो करता पर अपनी जड़ों से उखड़कर वह कहीं का नहीं रहता. न उसके गाँव में उसके कोई निशान बाकी रह जाते हैं और न ही शहर उसे कभी स्वीकार करता. ‘भाई का सत्याग्रह’ के मुन्ना की भी यही हालत होती है-
‘‘सात साल पहले जब वह विष्णुपुर गया तो उसे बताया गया कि ग्राम पंचायत के वार्ड नंबर 12 से, जहां उसका घर था, अब उसका नाम कट गया है. …वह अचानक बेघरबार और निर्वासित हो गया था. दिल्ली में उसका कोई घर नहीं था. गाँव से उसके निशान मिटाए जा रहे थे.’’26
अपनी जड़ों से दूर जाता, अपनी पहचान, अस्मिता और अस्तित्व के संकटों से जूझता, अपने ही गाँव-समाज और परिवार के बीच अजनबी बना आज का हर इंसान कहीं न कहीं काफ्का के ‘मेटामॉर्फोसिस’ का वही ‘ग्रेगोर साम्सा’ है जिसका इन संकटपूर्ण स्थितियों को देखते और झेलते हुए कायांतरण हो जाता है. किन्तु कष्ट और पीड़ा से उसे तब भी मुक्ति नहीं मिलती. पॉल गोमरा और मोहन दास आदि का कायांतरण तो हो जाता है पर कायांतरण की विवशता और उसकी पीड़ा उन का पीछा कभी नहीं छोड़ती.
रामगोपाल पॉल गोमरा में बदल जाने की कोशिश के बावजूद अंततः रामगोपाल ही रहता है. मोहनदास अपना नाम बदल जाने और अपनी पहचान खो जाने के बाद भी अपनी स्मृतियों और अपने अस्तित्व को नहीं खो पता. सारे संघर्ष और नाउम्मीदीयों के बावजूद उनकी अस्मिताएं उनके भीतर बनी रहती है. क्योंकि तमाम निराशाओं के बीच भी उन्होंने उम्मीदें बचा कर रखी हैं. देरीदा ने लिखा है-
‘‘चरम निराशा की अवस्था में किसी उम्मीद की आकांक्षा समय के साथ हमारे रिश्ते का एक अभिन्न अंग है. नाउम्मीदी इसलिए है, क्योंकि हमें उम्मीद है कि कुछ और सुंदर घटित होगा.’’ 27
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संदर्भ
1. पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 36
2. Rediscovering Schumpeter: The power of capitalism by Sean Silverthron: hbswk-hbs-edu
3. Manifesto of the communist party : Marx-Engles – LeftWord Books, New Delhi, pg. no. 24
4. पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 37
5. प्यूचे: आत्महत्या के बारे में- कार्ल मार्क्स (अनुवाद : ज्ञानेन्द्र) गार्गी प्रकाशन, सहारनपुर, पृ॰ सं॰ 03
6. पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 45
7. समकालीन भारतीय साहित्य (जुलाई-अगस्त 2011) संपादक मण्डल : सुनील गंगोपाध्याय, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, अग्रहार कृष्णमूर्ति, साहित्य अकादेमी, दिल्ली, पृ॰ सं॰ 67
8. पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 48
9. पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 48
10. पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 50
11. पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 38
12. पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 38
13. पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 40
14. पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 40
15. अंधेरे समय में विचार- विजय कुमार, संवाद प्रकाशन, मेरठ, पृ॰ सं॰ 45
16. अंधेरे समय में विचार- विजय कुमार, संवाद प्रकाशन, मेरठ, पृ॰ सं॰ 244
18. पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 61
19. पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 61
20. पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 65
22. मोहन दास- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 65
23. जनसत्ता–(16/10/2015) संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित धर्मेन्द्रपाल सिंह का ‘विदेशी निवेश में कितनी हकीकत’ शीर्षक आलेख
24. जनसत्ता–(16/10/2015)संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित धर्मेन्द्रपाल सिंह का ‘विदेशी निवेश में कितनी हकीकत’ शीर्षक आलेख
25. मोहन दास- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 46-47
26. मोहन दास- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 47
27. पॉल गोमरा का स्कूटर (कहानी संग्रह)- उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 83
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शिप्रा किरण
युवा लेखिका और अनुवादक