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Home » मुकेश मानस की कविताएँ

मुकेश मानस की कविताएँ

मुकेश मानस :१५ अगस्त १९७३,बुलंदशहर (उत्तर-प्रदेश) दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में Ph.D. दो कविता संग्रह – पतंग और चरखड़ी (२००१), कागज एक पेड़ (२०१०) उन्नीस सौ चौरासी (2005) शीर्षक से कहानी संग्रह कंचा इलैया के Why I am not a hindu और ऍम एन राय के India in Transition का हिंदी में अनुवाद मीडिया लेखन […]

by arun dev
January 8, 2011
in कविता
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मुकेश मानस :१५ अगस्त १९७३,बुलंदशहर (उत्तर-प्रदेश)

दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में Ph.D.
दो कविता संग्रह – पतंग और चरखड़ी (२००१), कागज एक पेड़ (२०१०)
उन्नीस सौ चौरासी (2005) शीर्षक से कहानी संग्रह
कंचा इलैया के Why I am not a hindu और ऍम एन राय के India in Transition का हिंदी में अनुवाद
मीडिया लेखन : सिद्धांत और प्रयोग प्रकाशित
हिंदी कविता की तीसरी धारा शीघ्र प्रकाश्य  
सत्यवती कालेज में सहायक प्रोफेसर
·         ई-पता: mukeshmaanas@gmail.com

म  मुकेश मानस हिंदी कविता के उस धारा के कवि हैं जहां यथार्थ कला का मुखापेक्षी नहीं है. सामाजिक-विडम्बना और सांस्कृतिक विद्रूप अपने खुले रूप में खुल कर सामने आते हैं. यूँ ही कवि लोक-शैली नहीं अपनाता, उसके सरोकार उस जन से है जो अब भी जीवन की गति और कविता की लय में आस्था रखता है. इन कविताओं में संवेदना की हरी दूब दूर तक फैली हुई है.


आंखें


तेरी आंखें चंदा जैसी
मेरी आंखें काली रात

तेरी आंखों में हैं फूल
मेरी आंखों में सब धूल

तेरी आंखें दुनिया देखें
मेरी आंखें घूरा नापें

तेरी आंखें है हरषाई
मेरी आंखें हैं पथराई

तेरी आंखें पुन्य जमीन
मेरी आंखें नीच कमीन

तेरी आंखें वेद पुरान
मेरी आंखें शापित जान

तेरी आंखें तेरा जाप
मेरी आंखें मेरा पाप

तेरी आंखें पुण्य प्रसूत
मेरी आंखें बड़ी अछूत



भेड़िये

भ्रम मत पालो
कि वेद पुरान पढ़कर
भेड़िये सभ्य हो जायेंगे

भ्रम मत पालो
कि सभ्य भेड़ियों के नाखून
अपनी आदत भूल जायेंगे

भ्रम मत पालो
कि भेड़िये तुम्हारी व्यथा सुनकर
पिघल जायेंगे

भ्रम मत पालो
कि विकास के क्रम में
भेड़िये ख़त्म हो जायेंगे

सच यही है
कि भेड़िये कभी ख़त्म नही होते
भेड़िये हर समय और हर जगह होते हैं
और सभी भेड़िये हिंस्र होते हैं

बस उन्हें रहता है
सही वक्त और मौके का इंतज़ार



प्रार्थना

मैं एक पत्ता हूँ
न जाने किस शाख का
टूटा हुआ पत्ता हूँ
     मैं उस शाख में जुड़ जाना चाहता हूँ

मैं एक लहर हूँ
न जाने किस सागर की
छूटी हुई लहर हूँ
     मैं उस सागर में घुल जाना चाहता हूँ

मैं एक पत्थर हूँ
न जाने किस पहाड़ का
उखड़ा हुआ पत्थर हूँ
     मैं उस पहाड़ में समा जाना चाहता हूँ

मैं एक झोंका हूँ
न जाने किस बयार का
भटका हुआ झोंका हूँ
     मैं उस बयार में मिल जाना चाहता हूँ

मैं एक ज़र्रा हूँ
न जाने किस भूमि का
बिछ्ड़ा हुआ ज़र्रा हूँ
     मैं उस भूमि में रम जाना चाहता हूँ

मैं एक धड़कन हूँ
न जाने किस दिल की
खोई हुई धड़कन हूँ
     मैं उस दिल में बस जाना चाहता हूँ.


     
विजय दशमी

राम ने पुतलों में आग लगाई
अन्याय पर न्याय ने विजय पाई
आयोजकों ने दी बधई
लोगों ने खुशी मनाई

इस धरा पर
जलाए गए रावण
कित्ते बड़े-बड़े
और हंसते रहे अन्यायी
जीवित खड़े-खड़े.



बेटी का आगमन


जैसे अनन्त पतझड़ के बाद
पहला-पहला फूल खिला हो

और किसी निर्जल पहाड़ से   
फूट पड़ा हो कोई झरना

जैसे वसुंधरा आलोकित करता
सूरज उदित हुआ हो

चीड़ वनों में गूँज उठा हो
चिड़ियों का कलरव

जैसे चमक उठा हो इन्द्र्धनुष
अम्बर को सतरंगी करता

और किसी अनजान गंध से
महक उठी हो
जैसे कोई ढलती सांझ

ऐसे आई हो
तुम मेरे जीवन मे 

सागर की उत्तुँग लहरों पर सवार
जैसे तटों तक पहुँचती है हवा

गहन वन में चलते-चलते
जैसे दिख जाए कोई ताल

सदियों से सूखे दरख्त पर
जैसे आ जायें फिर से पत्ते

पतझर से ऊबे पलाश में
जैसे आता है वसंत
फूल बनकर

ऐसे आई हो
तुम मेरे जीवन में

आओ तुम्हारा स्वागत है.

Tags: कविताएँ
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