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Home » सहजि सहजि गुन रमैं : शिव कुमार गाँधी

सहजि सहजि गुन रमैं : शिव कुमार गाँधी

शिव कुमार गाँधी स्व-प्रशिक्षित चित्रकार हैं. उनकी चित्र- प्रदर्शनियाँ देश- विदेश में नुमायाँ हुई हैं. बच्चों में चित्रकला को बढ़ावा देने के मुहीम में लगे हैं. BETWEEN A FEW MILLES नाम से एक फ़िल्म का भी निर्माण किया है और कविता  लिखते हैं. शिव की कविताएँ एक पेंटर की कविताएँ हैं. दृश्य हैं, गति है, […]

by arun dev
June 24, 2014
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शिव कुमार गाँधी स्व-प्रशिक्षित चित्रकार हैं. उनकी चित्र- प्रदर्शनियाँ देश- विदेश में नुमायाँ हुई हैं. बच्चों में चित्रकला को बढ़ावा देने के मुहीम में लगे हैं. BETWEEN A FEW MILLES नाम से एक फ़िल्म का भी निर्माण किया है और कविता  लिखते हैं.

शिव की कविताएँ एक पेंटर की कविताएँ हैं. दृश्य हैं, गति है, रंग हैं. परम्परागत तौर पर लिखी जा रही और समझी रही कविताओं से ये कविताएँ अलहदा है. ऐसा नहीं है कि इन कविताओं का कोई पूर्वज नहीं है पर यह धारा अभी भी उपधारा ही है,  इसमें ताजगी और नवोन्मेष है. यह अनुभव के उन क्षेत्रों तक जाती हैं जो अछूती रही है. शिव की कविताएँ शब्दों के सृजन का एक नया आलोक- वृत्त रचती  है.    

_____



कविता लिखना

मेरे हाथों जिसकि हत्या हुई वह कला थी तुम नहीं

1

पूरे दृश्य से बाहर मन सिर्फ नीले में रंगा हुआ गरदन एक ओर झुकाए खुद की ओर देखता हुआ लगता था दृश्य के अन्दर उसके नहीं होने से दृश्य पर खास फर्क नहीं पड़ता था लेकिन इस तरह से दृश्य के अन्दर अनेक दृश्यों के उपस्थित होने का भ्रम भी नहीं होता था
और इस विभ्रम में जीना काफी सुविधाजनक था
सारी नैतिकताओं के दृश्यों में मन फिर अपने स्थगन में  किसी ओर तरह ‘गिरा’ दिखने लगा, जो गिरना ‘नैतिक’ में अनुपस्थित था, और यह सरंचना लोगो के लिए काफी असुविधाजनक थी
2
वहां अनेक घर होते हैं  शहर की उम्र चारसौ बरस थी इतिहास कई पीढ़ीयों में बंटा हुआ था शहर में पहाड़ भी है जिसके पीछे से सूरज नहीं उगता है लोग पहाड़ को शहर का सिर कहते है शहर के सिर पर पहाड़ बाहर से आने वाले लोगों को अजीब लगता है लेकिन जल्द ही इसकी आदत पड़ जाती थी क्योंकि जिन शहरों से बाहर के लोग आते हैं उन शहरों में कुछ ऐसी ही अजीब बाते पाई जाती है जैसे कि शहर में खुब पेड़ है जो कि शहर के हाथ हैं बाद की पीढ़ीयों में शहर के हाथ काटे देखे जाते थे तो यह बात और भी ज्यादा अजीब  लगती थी मार्मिक नहीं इसलिए यथास्थिति बनी रहती थी
इतिहास के दृश्य में शहर कुछ ओर था शहर के दृश्य में इतिहास की परवाह करने वाली पीढ़ीयां इतिहास निर्मित किन्हीं और दृश्यों को बनाने में व्यस्त थी पहाड़ का दृश्य वैसा ही उपस्थित था बस स्कूली बच्चें पहाड़ के बीच से नदी निकाल दिया करते थे और पीछे से सूरज और नदी के दोनों और झोंपड़ी व पेड़ यह जादू बड़ो को कम आता था अव्वल तो नदी थी ही नहीं होती तो भी वे उसके दोनों ओर बहुत सारे घर बनाते
3
उसने हाथों को पीला रंगा हुआ है आंखे नीली हो चुकी है वह अपने हाथों से अपनी गरदन को दबाये जा रही है
शहर को कविता की आदत नहीं थी नहीं तो वे पीले हाथों को देख पाते गरदन दबाये जाने के दृश्य को शहर के विशाल दृश्य से सादृश्य कर पाते
इस तरह यूं वो पीले हाथ लिए अपनी नीली आंखों से नीले मन को देखती रहती थी
उसकी टेबल पर कुछ फलों के साथ उसके उलझे हुए बाल फैले ही रहते हैं वह आईने में देखती जाती थी रंगीन पेंसिलों से अपनी देह में नई आकृतियां बनाती जाती है और देह से निकालती जाती थी अस्पष्ट आकृतियां
जो कि उसकी टेबल से होती हुई उसकी आलमारियों में जमा होती जाती थी गंध उसकी धीरे धीरे उठती हुई शहर की गलियों में फैलने  लगती थी
लोग करवटे बदले हुए नाक पकड़ निकलते जाते हैं पेड़ो से हवा आनी रूक जाती थी चीलें तक अपना रास्ता बदल देती थी शहर की गलियों में दिन रात सन्नाटा सांय सांय में समय गुजार देता था
शहर की गलियां बनी तो होती है मन की गलियों की तरह लेकिन वो लोगों को अपने मन की तरह नहीं लगती थी यूं वे मन के दृश्यों से भिन्न हो जाती थी
दरवाजों से लोग गुजरते थे खिड़कियों से बाहर देखते थे ये रोज की आदत में बदला हुआ काम था जो किसी भी शहर के लोग आसानी से कर पा सकते थे
मन के दृश्य शहर की गलियों की तुलना में इतने तेजी से बदलते थे कि लोगों को भ्रम होता था कि ये इंसान का मन नहीं शैतान का है फिर लोग भी इंसान से शैतान बन जाते थे नैतिक दृश्यों में विन्यस्त और मन वहां से अपने स्थगन में अवस्थित
यूं शहर के इतिहास का एक रंग था जो नीले से अलग था वो नीला जो उसके मन का था
4
यह काला जादू है दृश्यों के अलग हो जाने का
मैं अब मेरी इस मुस्कुराहट को कैसे लिखूं?


बुखार     

श्रृगांर करने को एक बुखार है काया में
वो धरती है गमक के पांव इधर से उधर सारा श्रृगांर झरता है काया में, बुखार में चमकीली हुई आंखो से देखती है इधर और उधर भर लेती है सब कुछ अपनी काया में
पूरे प्रेम से रच बस जाता है बुखार पूरी काया में
काया की परछाई में अधर झुके होते हैं काया में
कि दोपहर कितनी तो लम्बी है -दिवार पर पड़ रही परछाई एक टहनी की, घूमकर आती है पूरी दीवार पर जा मिलती है वापस उसी टहनी में,
दोपहरे लम्बी और शामें अन्तहीन-बुखार का कोई सिरा नहीं
श्रृगांर है कि चुकता ही नहीं
काया का मोह कि मरता मिटता ही नहीं
काया में एक बुखार है श्रृगांर का
श्रृगांर है कि लौट लौट आता है धूप की तरह काया में बुखार को और तपाता हुआ,
इस तरह मृत्यु का कुछ बायस सा


नमक कमबख्त

मोहल्ले में फूलों वाले पेड़  नहीं हुआ करते थे सिर्फ पीपल या नीम होते हैं घर के बीच में खड़े बस पुरखों से
लीला जब शादी करके दूसरे शहर गई थी उसका नया घर नई तरह की कालोनी में था जहां घरों में कुछ लोग फूलों वाले पौधे भी सजा कर रखा करते थे
लीला के घर के थोड़ी दूरी पर एक गुलमोहर भी था जिसे वो अक्सर चोंक चोंक कर देखती रहती थी लेकिन कोलोनी नई थी और सारे घर एक जैसे थे ये बात उसे बहुत अजीब लगती थी
वहां लोग ना तो दिवारों पर ब्लैक एण्ड व्हाईट फोटो लगा कर रखते थे ना ही पीतल के बर्तनों को सजा कर रखते थे बस लीला की क्रोशीए से बनाई एक डिजाईन शादी के बाद कई दिनों तक  एक कमरें में लगी रही थी
लीला का चचेरा भाई  जो कि लीला से प्यार करता था लीला के शहर  जब वह कोई परीक्षा  देने गया था लीला के घर जाकर खूब रोया लीला जब उसके लिए चाय बिस्किट लेने गई थी बसंत इतनी जोर से रोया था कि पड़ौस की आंटी आ गई थी क्या हुआ क्या हुआ करके
फिर तो ये मजाक हो गया लीला का चचेरा भाई आया था जो कि इतना जवान होकर बिना बात दहाडे़ मारकर रो रहा था
बसंत जो कमबख्त नमक लीला की शादी  के दो दिन पहले दोनो ने एक दूसरे के होठों पर लगाया था अपने आंसुओं में बहा आया
बसंत ने देखा था लीला की दांयी आंख के पास वाले दो तिल शादी के बाद और ज्यादा निखर आये हैं
और परीक्षा में बिन्दू की परिभाषा लिखते हुए जो उसके दिमाग में जो कौंधा था वो लीला के घर में फैल गया.
बसंत वापस जाते हुए जब वो ठीक गुलमोहर के नीचे से गुजर रहा था लीला ने चुपके से अपनी खिड़की में से वो दृश्य अपने हॉट शॉट  कैमरे में रख लिया.
तेरह साल हो गये वो रील अभी तक धुली नहीं है.
अलबता ये जरूर हुआ कि बसंत के घर के बीच में जो पीपल था वो उसने कटवा दिया पुरखों की जडे़ पूरे घर में जो फैल रहीं थीं.


ब्लैकबोर्ड

मुझे कभी फिर से प्रदीप नहीं मिला रितु नहीं मिली प्रकाश, लीलाराम भी नहीं
और ना मैं कभी उस पाठशाला उस शहर लौट कर गया
जो निकले वहां से कभी लौटकर नहीं गये
सभी छोड़कर निकले हुए
बाहर कभी मिले भी तो पहचाने नहीं
पहचान अगर कोई खुशबू  होती
बिछडे़ हुए भी हम साथ ही होते और साथ में एक पीढ़ी कहे जाते
पहचान के रंग का सम्बन्ध ब्लैकबोर्ड के कालेपन से था
हम रंग के क्षेत्र में पहले कमनजर फिर रतौंधी  फिर अंधेपन के शिकार  थे
ब्लैकबोर्ड एक पहाड़ था
उस पर लिखने और मिटाने और फिर से लिखने की इतनी प्रक्रियाएं हम देख चुके थे कि उसका द्विआयाम हमें त्रिआयाम का आभास देता था
बोर्ड के आगे खड़ा शिक्षक  उस त्रिआयाम का पक्का सबूत था
उस पहाड़ के पास से जो नदी हम तक आती थी उसमें हम सभी महीन धागों के सहारे डूबे हुए थे
बाद के दिनों में उनमें जंगलो को डूब जाना था हमारे धागों को आपस में उलझ जाना था
हम डूबे हुए अपने खाने के डिब्बों में अचार और रोटी के सहारे हंस रहे थे
हंसते हुए हमें अपने पहाड़ बनाने थे जिसके बीच में उगते सूरज के पास से नदी बहनी थी
हम नदी में डूबे हुए नदीयां बनाते हुए सूखे दौड़ आते थे हम चोट खाकर गिरते पहाड़ के नीचे कुछ और धंस जाते थे
धंसे हुए ही हमें आइस पाईस, छुपमछुपाई खेलनी थी जेबों में रखे कंचो को खनखनाना था
लीलाराम को गुदगुदी करना था रितु को मुस्कुराता देख खो जाना था नवरत्न को थप्पड़ मार खुद ही रो देना था
सबके अपने ग्रहों पर घूम कर आना था
और अनंतकाल तक घंटी बजने की प्रतीक्षा करना था
जिनकी जुराबों में ज्यादा रोंए होते थे. उनके डिब्बों में अचार भी अक्सर एक ही होता था.
कक्षा की खिड़किया जिन गलियों की और खुलती थी उन गलियों की खिड़किया भी हमारी आंखो की आवाजों को धातु में बदल देती थी ऐसी धातु जिसे त्रिआयामी ब्लैकबोर्ड खूब ठोकबजाकर देखता था और हमारी नीली लाइनों वाली कापियों में अक्षर वजन से इतने फीके पड़ जाते थे कि रात के सपनों में पेंसिले हमारी आंखो में खुब जाती थी इतनी खुबन के बाद हमारे दूसरे किस्म के सपनें हम भूल जाते थे लीलाराम एक भेड़ हो जाता था प्रकाष उस भेड़ का गोस्त  रितु उस गोस्त की टंगड़ी जिससे कि इधर उधर टकरा कर औंधे कोई ना कोई ब्लैकबोर्ड के नीचे मृत पाया जाता था.  और पास में फैंटम और जादूगर मैंडिंरिक हंस रहे होते थे.
यह भेड़े अपना किरदार रोज बदलती थी बस अभिनय की कच्ची थी.

अहमदाबाद


1
आउट आफ फोकस
पीले रंग पांव वाली चिडि़या वहां साइकिल के हैंडल पर आ बैठी थी हैंडल पर के छोटे गोल शीशे  में उसकी पीली चोंच दिखती थी, पीछे के हल्के से आसमान के नीले से भरी,
शीशे के पास हैंडल को थामे वह हाथ था जो स्थिर था कि ‘बैठी है चिडि़या यहां जाने किस अन्जाने में’

हाथ में की गुलाबी नीली नब्ज शीराओं से होती हुई दिल की धड़कन को धीमें किए हुए थी, गुलाबी दिल जिस पर उम्रदराज सफेद रोएं झांकते थे उपर ओढ़ी हुई खादी में, चेहरा बहुत मुलायम था काले रंग के गोल चश्में  के भीतर की आंखे एकटक चिडि़या के पावं और चोंच में भरे आसमान दोनों को एक साथ देखती सी दिखती थी, अंगूठे वाली चप्पल में का मिटटी से भरा अंगूठा अपनी जगह से थोड़ा उठा था चलने और रूक जाने की बिल्कुल ठीक मध्य अवस्था में लेकिन अविचलित धुंधला सा, इस तरह दृश्य में वह साइकिल के पिछले पहिए के कोने में ठीक ऐसे दिखता था जैसे कि पहिए का चक्र अंगूठे के इशारे से घूमता हो,

चेहरे के ठीक उपर पतझड़ के पत्ते गिरते हुए स्थिर थे जैसे कि कुदरत ने अभी अभी अपने सारे काम स्लोमोशन  में करना तय किया हो,  हवा कम थी नहीं तो पत्तें सीढ़ीयों से उतरते हुए से दिखते,

न साइकिल का कोई नाम था ना उनका नाम हम जानते थे जो आकर ठहरी हुइ चिडि़या के इस सारे दृश्य में अपनी साइकिल और नब्ज को  थामे खड़े थे
और अब इससे आगे क्या कहें जिसे कहने में जाने कितने दिन लग गए, या यह एक इतफाक था, या एक फोटाग्राफिक दुर्घटना.

वह जो कि कुछ इस तरह हुई
साइकिल के ऐन उपर लगे विज्ञापन बोर्ड जिसका कि फोटो लेने फोटोग्राफर मुस्तैदी से अपना कैमरा सम्हाले फोकस कर रहे थे कि जाने कहां से एक नन्हीं सी गिलहरी उनके पांव पर से गुजरी, फिर क्या था कैमरा थोड़ा नीचे की ओर झुका और हड़बड़ाहट में आटोफोकस के साथ क्लिक कर गया.

जो फोटो में नहीं था और विज्ञापन बोर्ड पर था वह लिजलिजा दृष्य नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री  और उसके सहयोगियों का था जो अपने हाथ उठाए आसमान की ओर उंगलिया दिखाते हंसोड़ शैली में अपने द्विआयाम में सपाट थे.

अब जाने यह इतफाक था या कमबख्त गिलहरी, चिडि़या व उनके दिल के धड़कने का कोई अन्दरूनी रिश्ता था. न जाने. जो हुआ मेरे माने भला हुआ यह आउट आफ फोकस.

2
कुछ विषयगत सूचनाएं
उन्होंने नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री को वोट नहीं दिया था.

दृश्य में जहां ठीक उपर फोटो से बाहर गुजरते हवाई जहाज की आवाज गूंज रही थी उसी समय एक दिन पहले उनके दोनों बेटे हमेशा  के लिए विदेश  जा चुके थे. जिनमें कि छोटे बेटे से उन्होंने उस दिन चेहरे पर वह बेहोश  कर देने वाला थप्पड़ खाया था जब दंगो के दिनों में दरवाजे पर किसी मुस्लिम दोस्त की तेज दस्तक पर उन्होंने दरवाजा खोला था.

वे मुझे अंतिम बार शाम  के धुंधलके  में मिले थे जब पार्क में शाम  की सैर का उस दिन आधा चक्कर ही लगाकार अपनी छड़ी हाथ में लिए पार्क के हर पेड़ हर पौधे हर बेंच को छड़ी छुआकर जा रहे थे गेट के ठीक पास वाली बेंच पर आकर छड़ी उन्होंने मेरी ललाट पर लगाई मुस्कुराए और चल दिये कहते हुए जैसे कि अंतिम बार विदा.
_______
सभी चित्र शिवकुमार गाँधी के हैं.

शिवकुमार गाँधी की कुछ कविताएँ यहाँ भी पढ़ें
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