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Home » सहजि सहजि गुन रमैं : शिव कुमार गाँधी

सहजि सहजि गुन रमैं : शिव कुमार गाँधी

शिव कुमार गांधी : १८ जून १९७३, जयपुर चित्रकार,कवि चित्र – प्रदर्शनियां देश भर में एकल चित्र प्रदर्शनी मेलबोर्न आस्ट्रेलिया में भी बच्चों के लिए एक किताब मेरी किताब प्रकाशित फ़िल्म :  BETWEEN A FEW MILES – 2003, (31 minute) का निर्माण राजस्थान ललित कला अकादेमी से कई बार सम्मानित फिलहाल अहमदाबाद में रह रहे […]

by arun dev
April 11, 2011
in कविता
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शिव कुमार गांधी : १८ जून १९७३, जयपुर
चित्रकार,कवि
चित्र – प्रदर्शनियां देश भर में
एकल चित्र प्रदर्शनी मेलबोर्न आस्ट्रेलिया में भी
बच्चों के लिए एक किताब मेरी किताब प्रकाशित
फ़िल्म :  BETWEEN A FEW MILES – 2003, (31 minute) का निर्माण
राजस्थान ललित कला अकादेमी से कई बार सम्मानित
फिलहाल अहमदाबाद में रह रहे हैं.
ई पता : shivkumargandhi@gmail.com
शिव कुमार के संवेद, दृश्य – स्थितियों को शब्दों में रूपांतरित करते हैं. दृश्य को शब्दों में बदलने की प्रक्रिया विवरण और रंगों के पुन:संयोजन की प्रक्रिया है. ये कविताएँ बहु आयामी हैं. मनस्थिति का पहले चित्र–बिम्बों में अमूर्तन और फिर शब्दों में उसका पुनर्वास. इस तरह यहाँ एक  नई काव्य भाषा और अलहदा शिल्प की संभावना हमेशा रहती है. किसी चित्रशाला में जैसे देखते-देखते सुन रहे हों आप. हिंदी कविता के परिदृश्य की समकालीनता से परे अनुभव और अंदाजे–बयाँ का एक अलग उर्वर –प्रदेश.

लिली

nadine labaki    की फिल्म caramel  के पात्र लिली से प्रेरित
वान गाग के लिए

कहानी के एक चौराहे पर मैं उसके लिए अपना कान काटकर कागज में लपेट रहा था. सूरजमुखी अब तक विरह में जल चुके थे और आसमान जलकर काला. चौराहे पर पेड़ से उसने एक पोटली लटका ली थी. गुजरते लोगों के लिए डाले जाएं उसमें वे पत्र जो वे कभी लिखना चाहते थे और पहुंचा नहीं पाते थे सही पते पर.
लो मैंने अपनी आंखो में घोंप लिया है छुरा. उस पत्र की लिपि अब छुअन की थी जो उन पत्रों से पिघलकर बस यूंही लोगो के आगे से गुजरकर आर्तनाद में नहीं एक खलिश में हरी बेंच पर बैठी मोह के भ्रम का शिल्प बना रही थी.
उसके हाथों ने जीवन का पहला शिल्प उदासी को सम्हालने का सीखा.
चाशनी का स्वाद पाना उसके बस में नहीं था. 
उसके दो छोटे बूढ़े हाथों की गहरी नीली आंखे थी जिन पर सफेद काजल कभी ना थकता था. 
एक हाथ शहर के दांयी से और दूसरा शहर के बांयी ओर से उन सारे पत्रों को बीन लाता था जो शायद उसे लिखे जाने थे. 
प्रेमपत्र जो कि पंतगों से आसमान में फैले हुए थे, पंतगों की परछाईयां थी, उसके हिस्से, हर परछाई को पकड़ना उसका शगल था, दिन था न रात. शाम के धुंधलके उसके लिए बटोर कर लाते थे प्रेमियों के प्रेमपत्रों को जिससे कि सारा शहर जगमगाता था और देता था कई कथाओं को जन्म.  
ठीक मेरे सामने से गुजर रही है वह आश्वस्त कि सारे शहर को उसने अपनी गुप्त अलमारी बना लिया है और सम्हला कर रख दिया है सारे पत्रों को. 
दुनिया के सारे प्रेमियों को एक सुर्ख गर्म चुबंन देने को वो खुद को सजाती ही जाती थी. क्यों इतना काजल भर लेती हो आंखो में लिली ? 
आन्टी रोज़ तुम चली जाओ वहां नहीं तो वो तुम्हारी बनाई हुई पेंट ही बचे हुए जीवन भर पहनने वाला है. कितने सालों बाद तो तुमने अपने बालों को रंगा है, लगाई है लिपिस्टिक और ये तुम्हारी बैंगनी सी आंखे ..
लिली के पास बहुत से काम है. पढ़ने हैं उसे सारे पत्र. कल सुबह ‘धरती फिर उसकी और झुकेगी’ फिर से ढ़ेर से पत्र उसकी और लुढ़कते हुए चले आयेगें.
और वह आईने के सामने बैठी अपनी पीठ पर चमकते सूरज की रोशनी में खुद को सजाती रहेगी. खूब से बुलावे आयें है उसके लिए.

महाविद्यालय
हां बतखें तो बिल्कुल भी नहीं थी वहां और मोर भी  कुछ पेड़ थे शायद, रेगिस्तान देखने की आदत थी सो खिड़कियों के बाहर वे पेड़ जैसे दिखते नहीं थे.
और शाम आती थी पूरी आती थी परछाईंया अलग से मालूम नहीं होती थी.
पेड़ के सहारे कोई खड़ा भी  नहीं होता था. अधेड़ होने के बाद कोई जाए वहां तो वे पेड़ शायद अब कोई सहारा दे. उस समय वहां कोई अधेड़ नहीं खड़ा होता था क्योंकि महाविद्यालय नया था.
हिन्दी विभाग में कोई कवि नहीं था. भौतिकी विभाग में भी नहीं सो वे सभी स्टाफरूम में ही रहते थे. सो पेड़ बिल्कुल ही नकारा से थे वहां सम्भवत: पेड़ो के आस पास का पूरा जीवन भी .
कला विभाग में पढ़ने वाली एक अनिता थी जो कुछ पत्तियों सी चित्र बनाती थी लेकिन उसकी ओर कोई ध्यान नहीं देता था क्योंकि रसायन विभाग और दर्शन विभाग की संगीता वर्मा और शालिनी चौहान ने सारा ध्यान अपनी ओर लिए हुए थे जबकि वे जो कुर्ते पहनती थी उन पर पत्तियां भी बनी होती थी और रंग हरे और पीले नारंगी भी होते थे.
लेकिन नए महाविद्यालय  में कविता अपनी बंजर भूमि में थोड़ी देर से पल्लवित हुई सो सभी फिलहाल कविताविहीन तरीके से कविता भी पढ़ रहे थे और संगीता और शालिनी के कुर्ते भी, और संगीता शालिनी आभा वीणा छाया दूसरों की आंखो को .
अब हिन्दी विभाग में तो वे दोनों ही नहीं पढ़ती थी सो हम दिन भर भक्तिकाल और रीतिकाल अजीबों – अजीब तरीकों से पढ़ते थे और शाम होते – न – होते एक भयानक उब लेकर निकलते थे बिना बात आसमान में बतखों और मोरों को उड़ाते हुए.
वहां अध्यापक अध्यापिकाएं एक ही तरह के थे. लड़किया कई तरह की थी. लड़के दो तरह के हुआ करते थे. एक वो जिनको अपनी नियति के बारें में कोई शक शुबहा नहीं था. दूसरे वे थे जो अपनी नियति से अनभिज्ञ थे. हां नियति जरूर तय थी और वो तो हिन्दी विभागाध्यक्ष की आंखो में भी दिखती जो कि कला विभाग की एक अध्यापिका को अपने स्कूटर पर बिठाकर लाया करते थे.
लड़कियां नियति के बारें में क्या सोचती थी यह जानने के हमारे पास अवसर नहीं थे महाविद्यालय  कि जिस कैंटिन में हम कभी कभार चाय पीते थे उस पर बैठा लड़का हमें बोलता था तुम सब चूतिये हो, फर्स्टइयर का प्यारामोहन एक दिन पी.टी.आई को बुलाकर लाया कि ये कैंटिनवाला हमें गाली देता है उस कैंटिनवाले लड़के ने पी.टी.आई को बोला कि तुम चूतिया सरदार हो और वहां से भाग गया. महाविद्यालय  का ये पाठ उस समय प्यारेमोहन को समझ नहीं आया था क्योंकि संगीता शालीनी उसे एक अच्छा बच्चा मानती थी जिन्हें ये पाठ अभी तक समझ नहीं आया वे सब पी.टी.आई बन गए हैं 
गुण्ड़ागर्दी की बस इतनी सी हवा थी कि दीपचन्द कभी कभार किसी को डांट देता था सुरेश ने शहर के हिन्दी दैनिक में सम्पादक को पत्र लिखा कि महाविद्यालय  में बहुत बदमाशी बढ़ गई है दीपचन्द ने सुरेश को एक चाबी का छल्ला गिफ्ट किया जिसमें कि प्लास्टिक की सुलगती सिगरेट बनी हुई थी
उमाशंकर निशांत जब यह कहते हुए कक्षा में घुसते थे कि प्रात:स्मरणीय तुलसी ने यह कहा है तो हम सोचते थे कि आज प्रात: हमने किसका स्मरण किया है और शर्मिन्दगी होती थी.  उमाशंकर निशांत की ओजस्वी वाणी भाषा हमें तुलसी की बातें मनवाकर ही छोड़ती, प्रश्न की कोई गुंजाइश आजमाइश थी ही नहीं. शालिनी संगीता काश तुम दोनो भी तुलसी पढ़ती कमबख्त उमाशंकर निशांत कभी तुलसी के आगे से बढ़े ही नहीं निरूपमा दत तुम हमें इस महाविद्यालय  के बाहर ही मिलने वाली थी.
घटनाएं भी देखिए कैसे महीनों चलती थी सुनने सुनाने के लिए कि इतिहास के शिक्षक एक शाम मेडिकल स्टोर से कंडोम खरीद रहे थे और उनके स्कूटर के पास खड़ी महिला निश्चित रूप से उनकी पत्नी ही थी लेकिन जिस लड़के ने उन्हें देखा सुना था उसके अंदाजे बयां ने इस घटना को महाविद्यालय  में चर्चित बना दिया. उस सुभाष नाम के लड़के ने पूरी कोशिश की थी कि लड़कियां भी इस किस्से को सुने और जाने कि कंडोम क्या होता है तो इस बारें में और चर्चाएं आगे चले. तो किस्सों का अकाल कुछ ऐसा ही था. ना शालिनी संगीता कोई बड़ा किस्सा गढ़ सकी ना ही अनिता की वे पत्तियां जिन्हें उसने थर्डइयर में कालेज के हाल में लगाई अपनी चित्रप्रदर्शनी  में प्रदर्शित  किया था
सुभाष पूरे साल उसी किस्से को सुनाता रहा. घनश्याम पासबुक पढ़ता-पढ़ता वही सब सुनता रहा छायाराजवंशी, सुमनशेखावत, वीणात्यागी ऐसे ही हिन्दी की कक्षाओं के बाद समाजशास्त्र की कक्षाओं में पढ़-पढ़ कर घर जाती रही अपने नए दुपटटे बदलती रही उमेश ने सिर्फ अपनी साइकिल बदली सुखविन्दर ने एन.सी.सी में खूब मार खाई और पढ़ाई बीच में छोड़ लाइट हाउस की दुकान में काम किया.  बहुत बाद में जब एक प्रिसिमल की लड़की की शादी में बारात वहां महाविद्यालय में ठहरी थी और फेरे भी वहीं हुए थे उस सारे आयोजन में लाइटिंग सुखविन्दर के ही जिम्मे थी जिसका बिल अभी भी महाविद्यालय पर बकाया है .


इतना बचा


वह ऐसा समय था जब
अनेक छवियां थी मेरे जीवन में
जो अनेक बार मुझे बचाती थीं

मैं छवियों से बेहद भरा था
उनकी उदात्त आंच ने मेरे पल-पल को
वह संस्कार दिया जो
उस ऐसे समय में मैं बचा रहा लगातार

कि मैं लगातार इतना बचा
कि मुझे अब सुई के छेद में
पिरो सकते हैं आप
लगा सकते हैं अपनी पैंट का बटन ऐसे
जिसके लिए आप बने ही न थे.


1.

पूरी शाम में नारंगी की ढेरी कैसी हुई जाती है
लड़का देखता है बार-बार जल्दी-जल्दी बेकाबू सा इधर-उधर

एक पहाड़ गुजरता है
उसके पीछे उगता हुआ सूरज उस पूरी शाम में आयल पेंट किया हुआ
ट्रक के पीछे के पहाड़ के पीछे जाता हुआ उधर,
जहां पहाड़ दिख रहे हैं पूरी शाम में बहुत गहरे भूरे

गहरी नारंगी सी नारंगी
गहरा तांबई जिस पर आकाश की गहरी नीली परछाईं,
जो देखता है इस बार
उस गुजरते ट्रक के पीछे के पहाड़ के पीछे बने सूरज को

जाती है ट्रक की आवाज धीरे गहरे भूरे पहाड़ में धंसती हुई

मैं अभी सूरज जैसी नारंगी में उलझा हुआ
हूं इस पूरी शाम में.

  
२.

उसने कहा मुझसे ले चलो अपने शहर
जो कहोगे वही करूगां
फिर पकडाई चाय जो गैस के
चूल्हे पर बनी थी
मैंने कहा मजाक में-
जगह बदल लेते हैं हम
और फिर वैसे भी शहर खुद ही तो आ रहा है
तुम तक

उसने कहा वहां छत पर बैठना शाम में
अच्छा लगता है रोशनिओं के बीच और फिर हवा तो आती ही है
एक कारखानें में काम करता था उसका भतीजा
जिसके साथ किसी छत पर बैठा था वह एक दिन
इस शहर में रोशनिओं के  बीच
और उस दिन भी हवा तो आयी ही थी

तालाब किनारे चांद को देखता लेटा हुआ
शाम में मैं खुद कितने दिन काट लूगां यहां
तालाब अभी भरा है फिर खाली होगा
और फिर भरेगा व खाली होगा
अगली बार
पता नहीं भरे कि नहीं

और मैं कहूंगा किसी से ले चलो अब तो मुझे
अपने साथ
जो कहोगे वह कर ही लूंगा.
सभी चित्र शिवकुमार गाँधी के हैं.
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