17 वीं शताब्दी के महान मीमांसक, प्रत्यक्षवादी दर्शनिक स्पिनोज़ा (24 November 1632 – 21 February 1677) का प्रभाव १८ वीं सदी के यूरोपीय पुनर्जागरण पर रहा है. उनकी कृति \’नीतिशास्त्र\’ (1677) का हिंदी अनुवाद आप समालोचन पर नियमित पढ़ रहे हैं. इसके दूसरे खंड का पहला हिस्सा यहाँ प्रस्तुत है जो ‘चित्त की प्रकृति और उत्पत्ति के बारे में’ है. इस जटिल दार्शनिक ग्रन्थ का अनुवाद हिंदी के युवा प्रतिभाशाली लेखक-द्वय : प्रत्यूष पुष्कर, प्रचण्ड प्रवीर द्वारा किया जा रहा है.
Part II.
On the Nature and Origin of the Mind
Preface
I now pass on to explaining the results, which must necessarily follow from the essence of God, or of the eternal and infinite being; not, indeed, all of them (for we proved in Part i., Prop. xvi., that an infinite number must follow in an infinite number of ways), but only those which are able to lead us, as it were by the hand, to the knowledge of the human mind and its highest blessedness.
भाग २
चित्त की प्रकृति और उत्पत्ति के बारे में
भूमिका
अब मैं परिणामों की व्याख्या करना शुरू करता हूँ, जो या तो ईश के सार से अनिवार्यत: अभिसारित है, या उनके शाश्वत और अनंत अस्तित्व से, सभी परिणामों का नहीं (चूँकि भाग एक के प्रस्तावना १६ में हमने यह साबित किया कि वो अनंत तरीकों से अनंत तक अभिसारित हैं), लेकिन केवल उनको जो, मानो हमारा हाथ पकड़ के, मानव के चित्त के ज्ञान और सर्वोच्चधन्यता की ओर ले जायें.
अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
Mind = चित्त
Blessedness = धन्यता
{अनुवादक की टिप्पणी– Mind का अनुवाद मन या चेतना के बजाय ‘चित्त’ करना उचित होगा. मनुष्य के अंत: करण को कई भारतीय दर्शन में ‘चित्त’ कह कर विश्लेषित किया गया है. मन शब्द का प्रयोग विशेष अर्थ में चित्त के संकल्पात्मक अवस्था के लिये किया जाता है, इसलिये वह उचित नहीं होगा. अद्वैत दर्शनों में चैतन्य (consciousness) का अर्थ ‘चित् के भूमा रूप’ या‘समष्टि’ के संदर्भ में लिया जाता है.}
DEFINITION I.
By body I mean a mode which expresses in a certain determinate manner the essence of God, in so far as he is considered as an extended thing.
(See Pt. i., Prop. xxv. Coroll.)
परिभाषा १.
देह से मेरे तात्पर्य एक ऐसी प्रणाली से हैं जो एक निर्धारित रूप से ईश के सार को अभिव्यक्त करती है, जब तक कि वह एक विस्तार के तौर पर देखा जाए.
(भाग एक, प्रस्तावना २५, उपप्रमेय)
DEFINITION II.
I consider as belonging to the essence of a thing that, which being given, the thing is necessarily given also, and, which being removed, the thing is necessarily removed also; in other words, that without which the thing, and which itself without the thing, can neither be nor be conceived.
परिभाषा २.
मैं सम्बद्धता को एक चीज़ के सार से जोड़कर देखता हूँ, जो जब दी हुई है, तो उसके संग वह चीज़ भी दी हुई है, जो जब हटा ली जाती है जो वह चीज़ भी हटा ली जाती है, जो, दूसरे शब्दों में, जिसकी अनुपस्थिति में वह चीज़, और चीज़ की अनुपस्थिति में वह स्वयं, ना तो हो सकती है, ना ही उसकी संकल्पना ही की जा सकती है.
DEFINITION III.
By idea, I mean the mental conception which is formed by the mind as a thinking thing.
परिभाषा ३.
विचार से मेरा मतलब उस मानसिक अवधारणा से हैं, जो चित्त के द्वारा एक मनन योग्य चीज़ में बनाई जाती है.
Explanation. — I say conception rather than perception, because the word perception seems to imply that the mind is passive in respect to the object; whereas conception seems to express an activity of the mind.
व्याख्या: मैं धारणा या अवधारणा कहता हूँ ना कि ज्ञप्ति, क्यूंकि ज्ञप्ति का अर्थ एक ऐसे सन्दर्भ में लिया जाता है जहाँ चित्त कर्म के विपरीत निष्क्रिय है, जबकि धारणा चित्त के गतिविधि को अभिव्यक्त करता है.
DEFINITION IV.
By an adequate idea, I mean an idea which, in so far as it is considered in itself, without relation to the object, has all the properties or intrinsic marks of a true idea.
परिभाषा ४.
एक प्रत्यय से मेरा मतलब एक ऐसे विचार से हैं, जो स्वयं में माना गया और किसी वस्तु या कर्म के सम्बन्ध में मुक्त, जिसमें एक सत्य विचार के सभी गुण और अंतर्भूत चिन्ह निहित हैं.
Explanation. — I say intrinsic, in order to exclude that mark which is extrinsic, namely, the agreement between the idea and its object (ideatum).
व्याख्या:
मैं आतंरिक कहता हूँ, ताकि मैं बाह्य चिन्हों को बाहर कर सकूँ, अर्थात विचार और वस्तु/कर्म के बीच का सम्बन्ध.
अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
Idea= विचार
Adequate idea = प्रत्यय / समुचित विचार
Perception = ज्ञप्ति/ प्रत्यक्ष ज्ञान / अनुभूति
Object = वस्तु / कर्म
{अनुवादक की टिप्पणी – समकालीन भारतीय दार्शनिक, मुकुन्द लाठ और स्वर्गीय गोविन्द चंद्र पाण्डे, चेतना की तीन वृत्तियों को देखते हैं– भाव, कर्म, विचार या ज्ञान. भारतीय परम्परा में भाव भक्तियोग, कर्म कर्मयोग और विचार ज्ञानयोग की तरफ ले जाता है. हालांकि यह विचारणीय है कि ये वृत्तियाँ पूर्णत: स्वतंत्र न हो कर समावयवी हैं. स्पिनोज़ा यहाँ पर यूनानी दार्शनिक प्लेटो या अफलातून के ‘प्रत्यय के सिद्धांत’ (Theory of Forms or Theory of Ideas) की तरफ़ इंगित करते हुये आगे बढ़ रहे हैं, जिसमें प्लेटो का कहना था कि वास्तविकता (reality) केवल अभौतिक आरूप (non-physical Forms) या प्रत्यय ही है.
ठीक इन्हीं परिभाषाओं से स्पिनोज़ा यहीं अपने ज्ञानमीमांसा की नींव भी रख रहे हैं. हमें याद रखना चाहिये कि ज्ञानमीमांसा, प्रेक्षकत्व और प्रेक्ष्य, ज्ञाता और ज्ञेय के बीच की खाई को पाटने का उपक्रम है. वहीं तत्वमीमांसा सत् (being) और चित् (consciousness) के बीच चिरकालीन व्यवधान के निराकरण की स्थिति है.}
DEFINITION V.
Duration is the indefinite continuance of existing.
परिभाषा ५.
कालावधि अस्तित्व की अनिश्चित निरन्तरता है.
Explanation—I say indefinite, because it cannot be determined through the existence itself of the existing thing, or by its efficient cause, which necessarily gives the existence of the thing, but does not take it away.
व्याख्या– मैं अनिश्चित कहता हूँ, क्योंकि किसी वस्तु के अस्तित्व का निर्धारण उसके होने से निर्धारित नहीं किया जा सकता है, या इसके कुशल कारण से जो कि इसे निश्चित तौर पर अस्तित्व देता है, पर ले नहीं लेता है.
DEFINITION VI.
Reality and perfection I use as synonymous terms.
परिभाषा ६.
मैं ‘वास्तविकता’ और ‘उत्कृष्टता’ को पर्यायवाची पदों में प्रयोग करता हूँ.
{अनुवादक की टिप्पणी: हमें यहाँ समझना चाहिये कि इस विचार प्रणाली में उत्कृष्टता का अर्थ ‘भाव्यता’ में नहीं है. स्पिनोज़ा की दृष्टि में उत्कृष्टता यह नहीं है कि क्या होना चाहिये (भाव्यता), बल्कि जो कुछ भी वास्तविक रूप में है वही उत्कृष्ट ही है. भारतीय विचार परम्पराओं में भाव्यता बहुधा मूल्य के लिये प्रयोग की जाती है, तथ्य के लिये नहीं.
इसे समझने के लिये हम मोहन राकेश के नाटक “आषाढ़ का एक दिन” के दूसरे अंक के एक उद्धरण का सहारा ले सकते हैं जब दो अनुचर कालिदास की प्रेमिका मल्लिका के घर पहुँचते हैं –
अनुस्वार: देव मातृगुप्त के अनुचरों का अभिवादन स्वीकार कीजिए.
दोनों झुक कर अभिवादन करते हैं. मल्लिका भौचक्की-सी उन्हें देखती रहती है.
मल्लिका: देव मातृगुप्त? देव मातृगुप्त कौन हैं?
अनुस्वार: \’ऋतुसंहार\’, \’कुमारसंभव\’, \’मेघदूत\’ एवं \’रघुवंश\’ के प्रणेता कवींद्र, राजनीति-निष्णात आचार्य तथा काश्मीर के भावी शासक. देव मातृगुप्त की राजमहिषी गुप्तवंश-दुहिता परम विदुषी देवी प्रियंगुमंजरी आपके साक्षात्कार के लिए उत्सुक हैं और शीघ्र ही यहाँ आना चाहती हैं. हम उनके अनुचर आपको इसकी पूर्वसूचना देने के लिए उपस्थित हैं.
मल्लिका: \’ऋतुसंहार\’ और \’मेघदूत\’ आदि के प्रणेता तो कालिदास हैं और आप कह रहे हैं कि….
अनुस्वार: वे गुप्त राज्य की ओर से काश्मीर का शासन सँभालने जा रहे हैं. मातृगुप्त उन्हीं का नया नाम है.
मल्लिका: वे काश्मीर का शासन सँभालने जा रहे हैं? और…और उनकी राजमहिषी मुझसे मिलने के लिए आ रही हैं?
अनुस्वार: मुझे विश्वास है कि इस गौरवपूर्ण अवसर पर आप अपने उपवेश-गृह के वस्तु-विन्यास में कुछ परिवर्तन आवश्यक समझेंगी. इसे आपका आदेश समझते हुए हम यह कार्य अभी अपने हाथों संपन्न किए देते हैं. आओ, अनुनासिक.
दोनों प्रकोष्ठ में आ कर निरीक्षण करने की दृष्टि से सब वस्तुओं को देखने लगते हैं. मल्लिका एक ओर हट जाती है. अनुनासिक आसन के पास चला जाता है.
अनुनासिक: मैं समझता हूँ यह आसन द्वार के निकट होना चाहिए.
अनुस्वार: देवी द्वार से प्रवेश करेंगी और आसन द्वार के निकट होगा?
अनुनासिक: उस स्थिति में इसे इसकी वर्तमान स्थिति से सात अंगुल दक्षिण की ओर हटा देना चाहिए.
अनुस्वार: दक्षिण की ओर?
नकारात्मक भाव से सिर हिलाता है.
मैं समझता हूँ इसकी स्थिति पाँच अंगुल उत्तर की ओर होनी चाहिए. गवाक्ष से सूर्य की किरणें सीधी इस पर पड़ती हैं.
अनुनासिक: मैं तुमसे सहमत नहीं हूँ.
अनुस्वार: मैं तुमसे सहमत नहीं हूँ.
अनुनासिक: तो?
अनुस्वार: तो विवादास्पद विषय होने से आसन को यहीं रहने दिया जाए.
अनुनासिक: अच्छी बात है. इसे यहीं रहने दिया जाए. और ये कुंभ?
कुंभों के पास चला जाता है.
अनुस्वार: मैं समझता हूँ एक कुंभ इस कोने में और दूसरा उस कोने में होना चाहिए.
अनुनासिक: पर मैं समझता हूँ कि कुंभ यहाँ होने ही नहीं चाहिए.
अनुस्वार: क्यों?
अनुनासिक: क्यों का कोई उत्तर नहीं.
अनुस्वार: मैं तुमसे सहमत नहीं हूँ.
अनुनासिक: मैं तुमसे सहमत नहीं हूँ.
अनुस्वार: तो?
अनुनासिक: तो कुंभों को भी यहीं रहने दिया जाए.
दोनों उधर जाते हैं जिधर रस्सी पर वस्त्र सूखने के लिए फैलाए गए हैं. मल्लिका आसन के पास जा कर बिखरे पन्नों को समेटती है और उन्हें मोढ़े पर रख कर चुपचाप अंदर चली जाती है. अनुस्वार गीले वस्त्रों को छूता है.
अनुस्वार: ये वस्त्र?
अनुनासिक: वस्त्र अभी गीले हैं, इसलिए इन्हें नहीं हटाना चाहिए.
अनुस्वार: क्यों?
अनुनासिक: शास्त्रीय प्रमाण ऐसा है.
अनुस्वार: कौन-सा प्रमाण है?
अनुनासिक: यह तो मुझे याद नहीं.
अनुस्वार: यह याद है कि ऐसा प्रमाण है?
अनुनासिक: हाँ.
अनुस्वार: तो?
अनुनासिक: तो संदिग्ध विषय है.
अनुस्वार: हाँ, तब तो अवश्य संदिग्ध विषय है.
अनुनासिक: संदिग्ध विषय होने से वस्त्रों को भी रहने दिया जाए.
अनुस्वार: अच्छी बात है. वस्त्रों को भी रहने दिया जाए.
अनुनासिक: परंतु यह चूल्हा अवश्य यहाँ से हटा देना चाहिए.
अनुस्वार: चूल्हा हटाने का अर्थ होगा आस-पास की सब वस्तुओं को हटाया जाए. इसके लिए बहुत समय चाहिए.
अनुनासिक: समय के अतिरिक्त बहुत धैर्य चाहिए.
अनुस्वार: धैर्य के अतिरिक्त बहुत परिश्रम चाहिए.
अनुनासिक: मैं समझता हूँ कि भाजनों को हाथ लगाना हमारी स्थिति के अनुकूल नहीं है.
अनुस्वार: मैं भी यही समझता हूँ.
अनुनासिक: तो इस बात में हम दोनों सहमत हैं कि चूल्हे को न हटाया जाए?
अनुस्वार: मैं समझता हूँ हम दोनों सहमत हैं.
अनुनासिक चारों ओर देखता है.
अनुनासिक: और तो कुछ शेष नहीं?
अनुस्वार भी चारों ओर देखता है.
अनुस्वार: मेरे विचार में कुछ भी शेष नहीं.
अनुनासिक: नहीं, अभी शेष है.
अनुस्वार: क्या?
अनुनासिक: यह चौकी यहाँ रास्ते में पड़ी है. इसे यहाँ से हटा देना चाहिए.
अनुस्वार: मैं इससे सहमत हूँ.
अनुनासिक: तो?
अनुस्वार: तो?
अनुनासिक: तो इसे हटा देना चाहिए.
अनुस्वार: हाँ, अवश्य हटा देना चाहिए.
अनुनासिक: तो?
अनुस्वार: तो?
अनुनासिक: हटा दो.
अनुस्वार: मैं?
अनुनासिक: हाँ.
अनुस्वार: तुम नहीं?
अनुनासिक: नहीं.
अनुस्वार: क्यों?
अनुनासिक: क्यों का कोई उत्तर नहीं.
अनुस्वार: फिर भी?
अनुनासिक: पहले मैंने तुमसे कहा है.
अनुस्वार: परंतु चौकी देखी पहले तुमने है.
अनुनासिक: तो?
अनुस्वार: तो?
अनुनासिक: हटा दो.
अनुस्वार: तुम हटा दो.
अनुनासिक: तो रहने दो.
अनुस्वार: रहने दो.
अनुनासिक: अब?
अनुस्वार: हाँ, अब?
अनुनासिक: चारों ओर एक दृष्टि और डाल लें.
अनुस्वार: हाँ, चारों ओर एक दृष्टि और डाल लें.
मातुल उत्तेजित-सा बाहर से आता है.
मातुल: अधिकारी-वर्ग, आपका कार्य यहाँ पूरा हो गया.
अनुनासिक: क्यों अनुस्वार?
अनुस्वार: हाँ, पूरा हो गया. हो गया न? क्यों अनुनासिक?
अनुनासिक: हाँ, हो गया. केवल एक दृष्टि डालना शेष है.
अनुस्वार: हाँ, केवल एक दृष्टि डालना शेष है.
मातुल: तो वह दृष्टि अब रहने दीजिए. देवी प्रियंगुमंजरी बाहर पहुँच गई हैं.}
DEFINITION VII.
By particular things, I mean things which are finite and have a conditioned existence; but if several individual things concur in one action, so as to be all simultaneously the effect of one cause, I consider them all, so far, as one particular thing.
परिभाषा ७.
विशिष्ट चीजों से मेरा तात्पर्य है कि वे चीजें जो कि सीमित हैं और उनका अनुकूलित अस्तित्व है; पर यदि बहुत सी अलग-अलग चीजें एक ही क्रिया में एक साथ होती हैं, जैसे कि वे सभी एक ही कारण के कर्म हो, मैं सबों को एक विशिष्ट चीज ही मानता हूँ.
The essence of man does not involve necessary existence, that is, it may, in the order of nature, come to pass that this or that man does or does not exist.
स्वयंसिद्ध १: मनुष्य का सार (या भावरूप) के लिये उसका अस्तित्व अनिवार्य नहीं है, मतलब यह है कि, प्रकृति की क्रम से, यह भी हो सकता है कि मनुष्य हो या नहीं हो.
{अनुवादक की टिप्पणी: सम्भवतया इसी स्वयंसिद्ध से लेबनिज ने अपने मोनाड के सिद्धांत को बढ़ाया. बहरहाल, स्पिनोज़ा का आशय यह है कि मनुष्य का भावरूप (या सार) उसके होने की अनिवार्यता नहीं है. जैसे कि हम मर्यादा पुरुषोत्तम राम के उनके कर्मों से याद करते हैं, उसी तरह मनुष्य के भावरूप से उसकी उपस्थिति या अनुपस्थिति में भी समझा जा सकता है.
बृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य-आर्तभाग संवाद में एक श्लोक आता है, जो इस आशय को और सुस्पष्ट कर सकता है.
याज्ञवल्क्येति होवाच यत्रायं पुरुषो म्रियते किमेनं न जहातीति नामेत्यनन्तं वै नामानन्ता विश्वे देवा अनन्तमेव स तेन लोकं जायति ॥१२॥
बृहदारण्यकोपनिषद् – अध्याय ३, ब्राह्मण २
‘हे याज्ञवल्क्य!’ ऐसा आर्तभाग ने कहा, ‘जिस समय यह पुरुष मरता है, उस समय इसे क्या नहीं छोड़ता? [याज्ञवल्क्य -] ‘नाम नहीं छोड़ता, नाम अनन्त ही हैं, विश्वदेव भी अनन्त ही हैं, इस आनन्त्यदर्शन के द्वारा वह अनन्त लोक को ही जीत लेता है’.}
Man thinks.
स्वयंसिद्ध २ :
मनुष्य मनन करता है.
{अनुवादक की टिप्पणी: मनुष्य की निरुक्तिमूलक व्याख्या भी इसी प्रकार की है – मननात् मनुष्य: (निरुक्त ३/२/१) –}
Whenever there is a mental state such as love, desire, or anything else that can be called an ‘affect’ of the mind, the individual who has it must also have an idea of the thing that is loved, desired, etc. But the idea can occur without any other mental state, •and thus without any corresponding affect.
स्वयंसिद्ध ३:
जब भी कोई मानसिक स्थिति जैसे कि प्यार, इच्छा या कोई दूसरा संवेग, जो कि चित्त के लिये ‘प्रभाव’ कही जा सकती है, अपने आप नहीं होतीं जब तक कि उसी व्यष्टि में किसी चीज़ के प्यार किये जाने की, इच्छा किये जाने की, आदि के विचार पहले ही हों. पर यह विचार किसी दूसरी मानसिक स्थिति के उपस्थिति के बिना भी अस्तित्व में हो सकते हैं.
{अनुवादक की टिप्पणी: स्पिनोज़ा जिस अवधारणा के लिये ‘प्रभाव (affect)’ का प्रयोग कर रहे हैं, हमारा मानना है कि वह भारतीय विचार व्यवस्थाओं में बहुधा ‘भोगात्मक विषय’ के निकट पहुँचती है. जिसके बारे में श्रीमद्भागवदगीता में ‘विषय-आसक्ति’ कहा गया है, वह कुछ और नहीं बल्कि विषयों में भोगप्रवृत्ति या विषयिता कही जाती है. चेतना जो कुछ भी देखती है, वह उसका विषय है, जगत् है. जो कुछ भी जाना जाये वह चेतन का विषय हो जाता है. बहुत से विचार व्यवस्थाओं में जैसे कि काश्मीर शिवाद्वयवाद, साँख्य, वेदांत आदि में मानसिक स्थितियों के बीज रूप को ‘विषय’ कहते हैं. स्पिनोज़ा का आशय है कि विषय चित्त में बीजरूप में विद्यमान होते हैं. इच्छा निर्विषय नहीं हो सकती है, इसी आशय से काश्मीर शिवाद्वयवाद में इच्छा को चेतना की वह स्थिति कही जाती है जिसमें विषय अंतस्थ होता है.
हम आगे,भाग ३ में मनोभावों की परिभाषा में ,देखेंगे कि यहाँ स्पिनोज़ा इस स्वयंसिद्ध और इससे सम्बन्धित विभिन्न उपपत्तियों के सहारे इच्छा को किस तरह परिभाषित करते हैं. }
We perceive that a certain body is affected in many ways.
स्वयंसिद्ध ४:
हम यह महसूस करते हैं कि कोई एक देह बहुत तरीकों से प्रभावित होती है.
We neither feel nor perceive any particular things except bodies and modes of thought .N.B. The Postulates are given after the conclusion of Prop. xiii.
स्वयंसिद्ध ५:
हम किसी विशिष्ट चीजों का अनुभव नहीं करते बल्कि देह और विचार की प्रणालियों को ही अनुभूत करते हैं. इसके लिये प्रस्तावना १३ के निगमन के पश्चात दी गयी अभिधारणाओं दी गयीं हैं.
Thought is an attribute of God, or God is a thinking thing.
प्रस्तावना १.
विचार ईश का गुणधर्म है, ईश एक सोच (विचार) सकने वाली चीज़ है.
Proof. — Particular thoughts, or this and that thought, are modes which, in a certain conditioned manner, express the nature of God (Pt. i., Prop. xxv., Coroll.). God therefore possesses the attribute (Pt. i., Def. v.) of which the concept is involved in all particular thoughts, which latter are conceived thereby. Thought, therefore, is one of the infinite attributes of God, which express God’s eternal and infinite essence (Pt. i., Def. vi.). In other words, God is a thinking thing. Q.E.D.
तार्किक उपपत्ति- विशेष विचार या कोई भी विचार, ऐसी प्रणालियाँ है, जो एक विशेष अनुकूलित रूप में ईश की प्रकृति को व्यक्त करते हैं. (भाग १. प्रस्तावना २५, उप प्रमेय) अतैव वह ईश का गुणधर्म है (भाग१, परिभाषा ५) –ईश का वह गुणधर्म है, जिसकी संकल्पना, सभी विचारों में समावेशित है, जिससे ही दूसरे की संकल्पना भी है. विचार, इसीलिए, ईश के अनंत गुणधर्मों में से एक है, जो ईश के शाश्वत और अनंत अस्तित्व की अभिव्यक्ति करता है (भाग १, परिभाषा ६). दूसरे शब्दों में, ईश सोच सकने वाला है.
Note. — This proposition is also evident from the fact, that we are able to conceive an infinite thinking being. For, in proportion as a thinking being is conceived as thinking more thoughts, so is it conceived as containing more reality or perfection. Therefore a being, which can think an infinite number of things in an infinite number of ways, is, necessarily, in respect of thinking, infinite. As, therefore, from the consideration of thought alone, we conceive an infinite being, thought is necessarily (Pt. i., Deff. iv. and vi.) one of the infinite attributes of God, as we were desirous of showing.
टिप्पणी – यह प्रस्तावना इस बात से भी सुस्पष्ट है कि हम विचार कर सकने वाले असंख्य जीवों की कल्पना कर सकते है. हम जितना यह सोचते है कि सोच सकने वाला कोई जीव कितना सोच सकता है, कितने विचारों की संकल्पना कर सकता है, हम उतना उसे यथार्थ और पूर्णता के समीप पाते हैं. इसीलिए कोई, जो असंख्य चीज़ों के बारे में असंख्य रूपों में विचार कर सकता है, अनिवार्यत:, (विचारने के सम्बन्ध में) अनंत है. इसीलिए विचार के माध्यम से सोचने पर ही, हम ऐसे अनंत अस्तित्व की अवधारणा कर सकते है (भाग १, परिभाषा ४ और ६). विचार, ईश के अनंत गुणधर्मों में से एक, जिसे हम दिखाना चाहते थे.
{अनुवादक की टिप्पणी– यहाँ केनोपनिषदका प्रसिद्ध श्लोक उद्धृत करना आवश्यक जान पड़ता है.
यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम्.
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥५॥
केनोपनिषद् – खण्ड १
जो मन से मनन नहीं किया जाता, बल्कि जिससे मन मनन किया हुआ कहा जाता है, उसी को तू ब्रह्म जान. जिस इस (देशकालावच्छिन्न वस्तु) की लोक उपासना करता है, वह ब्रह्म नहीं है.}
Extension is an attribute of God, or God is an extended thing.
प्रस्तावना २.
विस्तार ईश का एक गुणधर्म है, या ईश एक विस्तृत चीज़ है
Proof. — The proof of this proposition is similar to that of the last.
तार्किक उपपत्ति.- इसका तार्किक उपपत्ति, पिछली प्रस्तावना के तार्किक उपपत्ति जैसी ही है.
{अनुवादक की टिप्पणी– यहाँ हमें नोट करना चाहिये कि स्पिनोज़ा विस्तार को ईश का गुणधर्म मानते हैं और इस तरह वे वस्तु की सत्ता को भी चित्त जितना ही स्वीकार करते हैं, जिसे अद्वैत वेदांत केवल प्रतिभासिक मानता है. आखिरी दो प्रस्तावनाओं से ही स्पिनोज़ा के दर्शन विशिष्ट हो जाता है, जो कि सांख्य-योग, वेदांत- मीमांसा, न्याय-वैशेषिका, माध्यमक-हीनयान आदि भारतीय दर्शनों से अलग हो जाता है.}
In God there is necessarily the idea not only of his essence, but also of all things which necessarily follow from his essence.
प्रस्तावना ३.
ईश में केवल उसके सार का ही विचार नहीं है, बल्कि उन सभी चीज़ों का विचार है जो उसके सार से अवधारित है.
Proof. —
God (by the first Prop. of this Part) can think an infinite number of things in infinite ways, or (what is the same thing, by Prop. xvi., Part i.) can form the idea of his essence, and of all things which necessarily follow therefrom. Now all that is in the power of God necessarily is (Pt. i., Prop. xxxv.). Therefore, such an idea as we are considering necessarily is, and in God alone. Q.E.D. (Part i., Prop. xv.)
तार्किक उपपत्ति. –
ईश (इस भाग के प्रथम प्रस्तावना से) अनंत चीज़ों के बारे में अनंत रूप से विचार कर सकता है (और जो वही चीज़ है, प्रस्तावना १६, भाग १), या अपने सार के विचारों का निर्माण कर सकता है, साथ ही उन सभी चीज़ों का भी जो उसके सार का अनुगमन करती है. अब सभी कुछ ईश की शक्ति में है (भाग १, प्रस्तावना ३५). अत:, जिस विचार को भी हम समझ रहे हैं वह अवश्य रूप से ईश में ही है (भाग १, प्रस्तावना १५)
The idea of God, from which an infinite number of things follow in infinite ways, can only be one.
प्रस्तावना ४.
ईश का विचार, जिससे अनंत चीज़ें अनुगत हैं, एक ही हो सकता है.
Proof. — Infinite intellect comprehends nothing save the attributes of God and his modifications (Part i., Prop. xxx.). Now God is one (Part i., Prop. xiv., Coroll.). Therefore the idea of God, wherefrom an infinite number of things follow in infinite ways, can only be one. Q.E.D.
तार्किक उपपत्ति: –
अनंत मति ईश के गुणधर्म और उसकी प्रणालियाँ के सिवाय कुछ नहीं समझती (भाग १.प्रस्तावना ३०). अब ईश एक है (भाग १.प्रस्तावना १४, उप प्रमेय). इसीलिए ईश का विचार, जिससे अनंत चीज़ें अनंत रूप में अनुगमन करती है, एक ही हो सकता है.
The actual being of ideas owns God as its cause, only in so far as he is considered as a thinking thing, not in so far as he is unfolded in any other attribute; that is, the ideas both of the attributes of God and of particular things do not own as their efficient cause their objects (ideata) or the things perceived, but God himself in so far as he is a thinking thing.
प्रस्तावना ५.
विचारों से परिणत सत्ता/अस्तित्व ईश को अपने कारण के रूप में मानता है, जब तक कि ईश एक सोचने वाली सत्ता के रूप में देखा जाए, तब नहीं जब उसकी व्याख्या उसके किसी दूसरे गुणधर्म के माध्यम से हो रही हो, अर्थ, ईश के गुणधर्म और किसी विशेष चीज़ का विचार, किसी दूसरी चीज़ को, और अवधारित चीज़ को अपना कारण नहीं मानती है, बल्कि ईश को मानती है, क्यूंकि वह स्वयं में एक विचार कर सकने वाली सत्ता है.
Proof. —
This proposition is evident from Prop. iii. of this Part. We there drew the conclusion, that God can form the idea of his essence, and of all things which follow necessarily therefrom, solely because he is a thinking thing, and not because he is the object of his own idea. Wherefore the actual being of ideas owns for cause God, in so far as he is a thinking thing.
It may be differently proved as follows: the actual being of ideas is (obviously) a mode of thought, that is (Part i., Prop. xxv., Coroll.) a mode which expresses in a certain manner the nature of God, in so far as he is a thinking thing, and therefore (Part i., Prop. x.) involves the conception of no other attribute of God, and consequently (by Part i., Ax. iv.) is not the effect of any attribute save thought.
Therefore the actual being of ideas owns God as its cause, in so far as he is considered as a thinking thing, &c. Q.E.D.
तार्किक उपपत्ति –
यह प्रस्तावना भाग २ के प्रस्तावना ३ से स्पष्ट है, हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि ईश अपने सार के विचारों का निर्माण स्वयं कर सकता है, साथ ही उन चीज़ों की भी जो उसके अस्तित्व से अनुगमन करती है, क्यूंकि वह स्वयं में एक विचार कर सकने वाली सत्ता है, इसलिए नहीं क्यूंकि वह अपने विचारों के लिये एक वस्तु है. विचारों की सत्ता रखने वाले का प्रभुत्व ‘कारण ईश’ में है, जबतक कि वह स्वयं एक विचार कर सकने वाली सत्ता है.
इसे दूसरे तरीके से भी प्रमाणित किया जा सकता है: विचारों की सत्ता रखने वाला भी स्वयं में विचार की एक प्रणाली है (भाग १, प्रस्ताव २५, उप प्रमेय), एक ऐसी प्रणाली जो स्वयं में ईश की प्रकृति को अभिव्यक्त करता है, जबतक कि वह सोचने वाली चीज है, और इसलिये(भाग १, प्रस्ताव १०) इससे ईश के किसी और गुणधर्म की अवधारणा का प्रयोग न हो रहा हो, और इस तरह विचार को छोड़ कर वहकिसी दूसरे गुणधर्म को प्रभावित न कर रहा हो (भाग १, स्वयंसिद्ध ४ से).
इसलिये विचारों के अस्तित्व में होने का ईश कारण हैं, जबतक कि वह स्वयं विचार कर सकने वाली सत्ता है.
PROP. VI.
The modes of any given attribute are caused by God, in so far as he is considered through the attribute of which they are modes, and not in so far as he is considered through any other attribute.
प्रस्तावना ६. किसी भी दिए हुए गुणधर्म की प्रणाली ईश के द्वारा संपन्न है, जबतक कि वहउन्हीं गुणधर्मों के माध्यम से मानी है, जिससे वे प्रणालियाँ है, ना कि किसी अन्य गुणधर्म के माध्यम से.
Proof. — Each attribute is conceived through itself, without any other (Part i., Prop. x.); wherefore the modes of each attribute involve the conception of that attribute, but not of any other. Thus (Part i., Ax. iv.) they are caused by God, only in so far as he is considered through the attribute whose modes they are, and not in so far as he is considered through any other. Q.E.D.
तार्किक उपपत्ति. – प्रत्येक गुणधर्म स्वयं के द्वारा संकल्पित है, बिना किसी दूसरे के (भाग १. प्रस्तावना१०) इसीलिए प्रत्येक गुणधर्म की प्रणाली, उस गुणधर्म के संकल्पना को स्वयं में समावेशित रखती है, किसी और के नहीं, इसीलिए (भाग १. स्वयं सिद्ध ४), वो ईश के द्वारा संपन्न हैं, जबतक कि वह उसी गुणधर्म के माध्यम से माना जा रहा है, जिसकी वह प्रणाली है, और किसी दूसरे गुणधर्म के माध्यम से नहीं.
Corollary. — Hence the actual being of things, which are not modes of thought, does not follow from the divine nature, because that nature has prior knowledge of the things. Things represented in ideas follow, and are derived from their particular attribute, in the same manner, and with the same necessity as ideas follow (according to what we have shown) from the attribute of thought.
उप प्रमेय. – इसीलिए विचारों की वो सत्ताएं जो विचार की प्रणालियाँ नहीं है, ईश की प्रकृतिका अनुगमन नहीं करती, क्यूंकि प्रकृति को चीज़ों का पूर्वज्ञान है. विचारों में व्यक्त चीज़ें, एक विशेष गुणधर्म से अवधारित है, ठीक वैसे ही जैसे विचार के गुणधर्म से अनिवार्यत: विचारों का अनुगमन है.
The order and connection of ideas is the same as the order and connection of things.
प्रस्तावना ७.
विचारों का क्रम और सम्बन्ध, चीज़ों के क्रम और सम्बन्ध के समान है.
Proof. —
This proposition is evident from Part i., Ax. iv. For the idea of everything that is caused depends on a knowledge of the cause, whereof it is an effect.
तार्किक उपपत्ति. –
यह प्रस्तावना भाग १ के स्वयंसिद्ध ४ से स्पष्ट है, क्योंकि उन सभी चीज़ों का विचार जो घटित है, उस घटना के कारण पर निर्भर करता है, जहाँ से वह फिर प्रभाव के रूप में विद्यमान है.
Corollary. — Hence God’s power of thinking is equal to his realized power of action-that is, whatsoever follows from the infinite nature of God in the world of extension (formaliter), follows without exception in the same order and connection from the idea of God in the world of thought (objective)
उप प्रमेय –
इसीलिए ईश के विचार कर सकने की क्षमता उसके कार्य कर सकने की क्षमता के बराबर ही है.वह सब कुछ को ईश के अनन्त अस्तित्व से विस्तृत संसार में अनुसारित है, बिना किसी अपवाद के विचार के संसार में भी उसी क्रम और सम्बन्ध से अनुसारित है.
Note. — Before going any further, I wish to recall to mind what has been pointed out above-namely, that whatsoever can be perceived by the infinite intellect as constituting the essence of substance, belongs altogether only to one substance: consequently, substance thinking and substance extended are one and the same substance, comprehended now through one attribute, now through the other.
So, also, a mode of extension and the idea of that mode are one and the same thing, though expressed in two ways. This truth seems to have been dimly recognized by those Jews who maintained that God, God’s intellect, and the things understood by God are identical.
For instance, a circle existing in nature, and the idea of a circle existing, which is also in God, are one and the same thing displayed through different attributes.
Thus, whether we conceive nature under the attribute of extension, or under the attribute of thought, or under any other attribute, we shall find the same order, or one and the same chain of causes-that is, the same things following in either case.
टिप्पणी : आगे बढ़ने से पहले, मैं पुन: स्मृति में वो सब लाता हूँ, जो हमने ऊपर चिन्हित की है, अर्थात, अनंत चित्त के द्वारा वो सभी चीज़ें जो संकल्पित की जा सकती है जिनसे सत्व के सार का निर्माण हुआ है, सम्मिलित रूप से एक ही सत्व से सम्बन्ध रखती है. परिणामत: विचार का सत्व और विस्तार का सत्व एक ही सत्व है, जिन्हें अब एक गुणधर्म के माध्यम से अवधारित किया जा रहा है, कभी दूसरे.
और इसीलिए, विस्तार की एक प्रणाली, और यह विचार की प्रणाली एक ही चीज़ है, जिसे दो तरीकों से अभिव्यक्त किया गया है. यह सत्य मुश्किल से ही, उन यहूदियों के द्वारा माना गया है, या अनुपालन किया गया है कि ईश, ईश का चित्त, और ईश के द्वारा समझी गयी चीज़े एक समान है.
उदाहरण के लिए, प्रकृति में एक वृत्त का अस्तित्व और यह विचार कि एक वृत्त सत्ता में या अस्तित्व में है, जो कि ईश में भी है, एक ही चीज़ है जिन्हें अलग अलग गुणधर्मों के द्वारा दिखाया गया है.
इसीलिए, चाहे हम प्रकृति को, गुणधर्म के विस्तार के रूप में देखें या विचार के गुणधर्म के रूप में, या किसी अन्य गुणधर्म के रूप में, हमें अंतत: एक ही क्रम मिलेगा, कारणों की एक ही शृंखला मिलेगी, अर्थात दोनों तरह से एक ही तरह की चीज़ों का अनुसरण होगा
I said that God is the cause of an idea-for instance, of the idea of a circle,-in so far as he is a thinking thing; and of a circle, in so far as he is an extended thing, simply because the actual being of the idea of a circle can only be perceived as a proximate cause through another mode of thinking, and that again through another, and so on to infinity;
so that, so long as we consider things as modes of thinking, we must explain the order of the whole of nature, or the whole chain of causes, through the attribute of thought only.
And, in so far as we consider things as modes of extension, we must explain the order of the whole of nature through the attributes of extension only; and so on, in the case of the other attributes. Wherefore of things as they are in themselves God is really the cause, inasmuch as he consists of infinite attributes. I cannot for the present explain my meaning more clearly.
मैंने कहा है कि ईश एक विचार का कारण है, उदाहरण के लिए, वृत्त का विचार, जबतक कि वह एक विचार कर सकने वाली सत्ता है, जबतक कि वह विस्तार कर सकने वाली या एक विस्तृत चीज़ है, क्योंकि, वृत्त का यथार्थ में अस्तित्व, किसी दूसरे विचार प्रणाली से ही सुनिश्चित किया जा सकता है, फिर वह सुनिश्चय किसी दूसरे से, आदि आदि…
इसीलिए, जबतक कि हम विचार की प्रणालियों को ध्यान में रखें, हमें सम्पूर्ण प्रकृति के क्रम की व्याख्या करनी होगी, या सभी कारणों के श्रृंखलाओं की, केवल विचार के गुणधर्म से ही.
और, जबतक कि चीज़ों को विस्तार की प्रणालियों के रूप में इंगित करें, तब हमें सम्पूर्ण प्रकृति के क्रम को विस्तार नामक गुणधर्म के द्वारा ही बताना पड़ेगा, ठीक उसी रूप में जैसे किसी अन्य गुणधर्म के द्वारा व्याख्या करने के दौरान. और चूँकि ईश के गुणधर्म अनंत है, और वह सभी चीज़ों का कारण है. मैं अपना मतलबऔर अधिक स्पष्ट तौर पर नहीं समझा सकता.
{अनुवादक की टिप्पणी- हमें यहाँ नोट करना चाहिये कि स्पिनोज़ा प्रकृति में विस्तार और विचार दो तरह की विशिष्ट प्रणालियों की बात कर रहे हैं, वहीं ईश में अनंत प्रणालियाँ और अनंत गुणधर्म हो सकते हैं. हमारे लौकिक व्यवहार के लिये प्रकृति की इन दो विशिष्ट प्रणालियों से ही नीतिगत चीजों का विश्लेषण किया जा सकता है.}
The ideas of particular things, or of modes, that do not exist, must be comprehended in the infinite idea of God, in the same way as the formal essences of particular things or modes are contained in the attributes of God.
प्रस्तावना ८.
कुछ विशेष चीज़ों का विचार, या प्रणालियों का, जो अस्तित्व में नहीं है, ईश के विचार में सम्मिलित की जा सकती है, ठीक उसी रूप में, जैसे विशेष चीज़ों की औपचारिक सार या प्रणालियाँ ईश के गुणधर्म में ही निहित हैं.
Proof. —
This proposition is evident from the last; it is understood more clearly from the preceding note.
तार्किक उपपत्ति. –
यह प्रस्तावना आखिरी प्रस्तावना से स्पष्ट है, और पिछले नोट से इसको समझना और भी आसान है.
Corollary. — Hence, so long as particular things do not exist, except in so far as they are comprehended in the attributes of God, their representations in thought or ideas do not exist, except in so far as the infinite idea of God exists; and when particular things are said to exist, not only in so far as they are involved in the attributes of God, but also in so far as they are said to continue, their ideas will also involve existence, through which they are said to continue.
उपप्रमेय. –
इसीलिये, जबतक कि कुछ चीज़ें अस्तित्व में नहीं हैं, औरकेवल ईश के गुणधर्म में समझी जातीं हैं, उनका प्रतिनिधित्व किसी विचार या सोच में नहीं हो सकता, तबतक नहीं जबतक कि ईश के असंख्य विचारों को ध्यान में ना रखा जाएँ; और जब कोई विशेष चीज़ अस्तित्व में कही जाती है, जो केवल ईश के गुणधर्म से ही अवधारित नहीं है बल्कि, उनकी निरंतरता में, उनके विचार में सत्ता का सम्मिलन भी आवश्यक है, जिसके द्वारा वो निरंतरता में है भी.
{अनुवादक की टिप्पणी: हम फिर से दोहरा सकते हैं कि स्पिनोज़ा वस्तु-सत् (empirical reality) को ही अस्तित्व के अर्थ में लेते हैं.}
Note. — If anyone desires an example to throw more light on this question, I shall, I fear, not be able to give him any, which adequately explains the thing of which I here speak, inasmuch as it is unique; however, I will endeavour to illustrate it as far as possible.
The nature of a circle is such that if any number of straight lines intersect within it, the rectangles formed by their segments will be equal to one another; thus, infinite equal rectangles are contained in a circle. Yet none of these rectangles can be said to exist, except in so far as the circle exists; nor can the idea of any of these rectangles be said to exist, except in so far as they are comprehended in the idea of the circle. Let us grant that, from this infinite number of rectangles, two only exist. The ideas of these two not only exist, in so far as they are contained in the idea of the circle, but also as they involve the existence of those rectangles; wherefore they are distinguished from the remaining ideas of the remaining rectangles.
टिप्पणी :
अगर कोई अन्य उदहारण चाहता हो, इस प्रश्न पर और प्रकाश डाल सकने के लिए, तो मुझे डर है कि मैं उन्हें कुछ और नहीं दे पाऊंगा, जो कि फिर उसी चीज़ की व्याख्या करता है जो मैं यहाँ कह रहा हूँ, उतना ही अद्वितीय है. फिर भी मैं समझाने की कोशिश करूँगा जितना मैं कर सकता हूँ.
वृत्त की प्रकृति ही ऐसी है कि अगर किसी भी संख्या में जब सीधी रेखाएं इसके भीतर एक दूसरे को काटेंगी तो उनके रेखाखंडों से जिन आयतों का निर्माण होगा, वो एक दूसरे के बराबर होंगी, इसीलिए असंख्य सामान आयतों का समागम एक वृत्त में है. लेकिन फिर भी ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि वो सभी आयत अस्तित्व में हैं ही, जबतक कि वृत्त ही अस्तित्व में नहीं हो, ना ही उन आयतों के विचार ही अस्तित्व में माना जा सकता है, जबतक कि उनका समावेश उस वृत्त के अस्तित्व में होने के विचार में ना हुआ हो. चलिए मानते है कि उन सभी आयतों में से केवल दो अस्तित्व में हैं,इन दोनों का विचार ही केवल अस्तित्व में है हैं, जबतक कि वह वृत्त के विचार में सम्मिलित ना हो, साथ ही इसमें उनका अस्तित्व में सम्मिलित है, और इसीलिए वो बाकी आयतों से और बाकी आयतों के विचार से पृथक देखी भी जा सकती है.
The idea of an individual thing actually existing is caused by God, not in so far as he is infinite, but in so far as he is considered as affected by another idea of a thing actually existing, of which he is the cause, in so far as he is affected by a third idea, and so on to infinity.
प्रस्तावना ९.
एक व्यक्तिगत चीज़ के होने का कारण ईश ही है, इसलिये नहीं कि वे अनंत हैं किन्तु इसलिये जब उसे किसी दूसरे विचार से प्रभावित माना जाए, वह जो अस्तित्व में हैं, और जिसका कारण पुन: ईश ही है, फिर वह दूसरा कारण तीसरे कारण से…आदि..आदि.. अनंत तक.
Proof. —
The idea of an individual thing actually existing is an individual mode of thinkingand is distinct from other modes (by the Corollary and note to Prop. viii. of this part); thus (by Prop. vi. of this part) it is caused by God, in so far only as he is a thinking thing. But not (by Prop. xxviii. of Part i.) in so far as he is a thing thinking absolutely, only in so far as he is considered as affected by another mode of thinking; and he is the cause of this latter, as being affected by a third, and so on to infinity. Now, the order and connection of ideas is (by Prop. vii. of this book) the same as the order and connection of causes. Therefore of a given individual idea another individual idea, or God, in so far as he is considered as modified by that idea, is the cause; and of this second idea God is the cause, in so far as he is affected by another idea, and so on to infinity. Q.E.D.
तार्किक उपपत्ति –
किसी विशेष चीज़ के अस्तित्व में होने का विचार अपने आप में एक विशेष विचार प्रणाली है, जो बाकी प्रणालियों से भिन्न हैं (इस भाग के प्रस्तावना ८ के नोट और उप प्रमेय से) इसीलिए, (इस भाग के प्रस्तावना ६ से) वह ईश के द्वारा जन्य है, जबतक कि वह स्वयं एक विचार सकने वाली सत्ता है. तब नहीं (भाग १ के प्रस्ताव २८ से) जब वह ऐसी कोई चीज़ है जो पूर्णत: सोचती है, तबतक ही जब तक कि वह सोचने की बाकी प्रणालियों के द्वारा प्रभावित भी हैं, और फिर वह इन प्रणालियों का भी कारण है, जो फिर किसी तीसरे से प्रभावित है…आदि…आदि…अब, विचारों का यह क्रम और सम्बन्ध (भाग २ के प्रस्तावना ७ से) कारणों के क्रम और सम्बन्ध जैसा ही है. इसीलिए दिया हुये किसी विशेष विचार का, कोई दूसरा विचारया ईश, जबतक कि वह विचार से प्रभावित माना जाए, ही कारण है, और दूसरे का कारण ईश है, क्यूंकि वह किसी और से प्रभावित है… आदि…आदि..
The being of substance does not appertain to the essence of man—in other words, substance does not constitute the actual beingof man.
प्रस्तावना १०.
सत्त्व की सत्ता मनुष्य के सार (भावरूप) से सम्बन्धित नहीं है – दूसरे शब्दों में सत्त्व मनुष्य की वास्तविक सत्ता को नहीं बनाता है.
Proof—
The being of substance involves necessary existence (Part i., Prop. vii.). If, therefore, the being of substance appertains to the essence of man, substance being granted, man would necessarily be granted also (II.Def.ii.), and, consequently, man would necessarily exist, which is absurd (II.Ax.i.). Therefore, &c. Q.E.D.
तार्किक उपपत्ति –
सत्त्व की सत्ता निश्चित तौर पर अस्तित्व समावेशित करती है (भाग १ के प्रस्ताव ७ से). यदि, इस तरह से, सत्त्व की सत्ता मनुष्य के सार से सम्बन्धित हो जाय, जो जब सत्त्व हमेशा मौजूद होगा तब तो मनुष्य भी हमेशा मौजूद होगा (भाग २, परिभाषा २ से) और इस तरह से मनुष्य भी हमेशा अस्तित्व में रहेगा, जो कि अनर्थक बात है (भाग २, स्वयंसिद्ध १ से). अत: यह सिद्ध है.
Note—This proposition may also be proved from I.v., in which it is shown that there cannot be two substances of the same nature ; for as there may be many men, the being of substance is not that which constitutes the actual being of man. Again, the proposition is evident from the other properties of substance—namely, that substance is in its nature infinite, immutable, indivisible, &c., as anyone may see for himself.
टिप्पणी– यह प्रस्तावना भाग १ के प्रस्ताव ५ से भी सिद्ध हो सकता है, जिसमें यह दिखाया गया है कि एक ही प्रकृति के दो सत्त्व नहीं हो सकते हैं; अब यदि बहुत से तरह के मनुष्य हैं, और सत्त्व की सत्ता मनुष्य की सत्ता का निर्माण नहीं करती. फिर से, यह प्रस्ताव सत्त्व के दूसरे गुणधर्मों से भी सुस्पष्ट है – जैसे कि सत्त्व अपनी प्रकृति में अनंत, अविभाज्य, अपरिवर्तनीय है, जैसा कोई भी देख सकता है.
Corollary.— Hence it follows, that the essence of man is constituted by certain modifications of the attributes of God. For (by the last Prop.) the being of substance does not belong to the essence of man. That essence therefore (by i. 15) is something which is in God, and which without God can neither be nor be conceived, whether it be a modification (i. 25. Coroll.), or a mode which expresses God\’s nature in a certain conditioned manner.
उपप्रमेय– अत: यह अनुसरित होता है कि मनुष्य का सार (भाव-रूप) ईश के कुछ गुणधर्मों के उपांतरों से निर्मित होता है. सत्त्व की सत्ता (पिछले प्रस्ताव से) मनुष्य के सार से सम्बन्धित नहीं है. वह सार इसलिये (भाग १ प्रस्ताव १५ से) जो कुछ है ईश में है और बिना ईश के ना हो सकता न ही अवधारित किया जा सकता है, चाहे वह एक उपांतर हो (भाग १, प्रस्ताव २५ – उप प्रमेय से) या किसी प्रणाली में ईश की प्रकृति की किसी अनुकूलित तरीक से की गयी अभिव्यक्ति.
Note —Everyone must surely admit, that nothing can be or be conceived without God. All men agree that God is the one and only cause of all things, both of their essence and of their existence ; that is, God is not only the cause of things in respect to their being made (secundumfieri), but also in respect to their being (secundumesse).
At the same time many assert, that that, without which a thing cannot be nor be conceived, belongs to the essence of that thing ; wherefore they believe that either the nature of God appertains to the essence of created things, or else that created things can be or be conceived without God ; or else, as is more probably the case, they hold inconsistent doctrines. I think the cause for such confusion is mainly, that they do not keep to the proper order of philosophic thinking. The nature of God, which should be reflected on first, inasmuch as it is prior both in the order of knowledge and the order of nature, they have taken to be last in the order of knowledge, and have put into the first place what they call the objects of sensation ; hence, while they are considering natural phenomena, they give no attention at all to the divine nature, and, when afterwards they apply their mind to the study of the divine nature, they are quite unable to bear in mind the first hypotheses, with which they have overlaid the knowledge of natural phenomena, inasmuch as such hypotheses are no help towards understanding the divine nature. So that it is hardly to be wondered at, that these persons contradict themselves freely.
However, I pass over this point. My intention here was only to give a reason for not saying, that that, without which a thing cannot be or be conceived, belongs to the essence of that thing : individual things cannot be or be conceived without God, yet God does not appertain to their essence. I said that \”I considered as belonging to the essence of a thing that, which being given, the thing is necessarily given also, and which being removed, the thing is necessarily removed also ; or that without which the thing, and which itself without the thing can neither be nor be conceived.\” (II. Def. ii.)
टिप्पणी – हर कोई यह अवश्य ही स्वीकार करेगा कि कुछ बिना ईश के अवधारित नहीं किया जा सकता. सभी मनुष्य इस बात पर सहमत होंगे कि ईश एक ही हैं और सभी चीजों का एकमात्र कारण हैं, उनके सार और अस्तित्व दोनों का; मतलब यह है कि ईश न केवल चीजों के निर्माण के कारण हैं, बल्कि उनके अस्तित्व के भी कारण भी हैं.
साथ ही बहुत से लोग यह भी कहेंगे, यह वह, जिसके बिना कोई चीज न हो सकती हे न ही अवधारित की जा सकती है, किसी चीज के सार से सम्बन्धित है, जहाँ वे यह मानेंगे कि या तो ईश की प्रकृति सृष्ट चीजों के सार से सम्बन्धित है या फिर सारी सृष्ट चीजें बिना इश के हो सकती हैं या अवधारित की जा सकती हें; या फिर, जैसा कि सबसे अधिक सम्भावना है, वे असंगत वादों पर भरोसा करेंगे. मैं समझता हूँ कि ऐसे भ्रम का प्रमुख कारण यह है कि वे दार्शनिक विचारों की सही व्यवस्था पर नहीं जाते. ईश की प्रकृति, सबसे पहले विचारी जानी चाहिये, जैसे कि यह ज्ञान की व्यवस्था और फिर प्रकृति की व्यवस्था के पहले हो. पर वह ज्ञान की व्यवस्था में सबसे अंत में रख दिया गया है ओर उससे पहले संवेदना की वस्तुओं को रख दिया, इसलिये जब वे प्राकृतिक घटनाओं विचार कर रहे होते हैं वे कभी दिव्य प्रकृति पर ध्यान नहीं देते, और जब इसके बाद वह दिव्य प्रकृति पर ध्यान देते हैं तब वे अपने चित्त में पहली अवधारणाओं के संगति में नहीं पाते जो कि प्राकृतिक घटनाओं से लदी हुयी हैं जो कि दिव्य प्रकृति को समझने में किसी तरह की सहायता नहीं देती. इसलिये यह देखना बहुत मुश्किल नहीं है कि अपनी बातों को खुद ही काटते हुये पाये जाते हैं.
हालांकि मैं इस बिंदु से आगे बढूँगा. मेरा इरादा यह केवल एक तर्क देना था, वह भी यह कि जिसके बिना कोई चीज़ न हो सकती है न ही अवधारित की जा सकती है, किसी चीज़ के सार से सम्बन्धित है: व्यष्टि (अकेली) चीजें बिना ईश के न हो सकती हैं न ही अवधारित की जा सकती हैं, तब भी ईश उनके सार से सम्बन्धित नहीं है. मैं कहा है कि (भाग २, परिभाषा २ से ) मैं सम्बद्धता को एक चीज़ के सार से जोड़कर देखता हूँ, जो जब दी हुई है, तो उसके संग वह चीज़ भी दी हुई है, जो जब हटा ली जाती है जो वह चीज़ भी हटा ली जाती है, जो, दूसरे शब्दों में, जिसकी अनुपस्थिति में वह चीज़, और चीज़ की अनुपस्थिति में वह स्वयं, ना तो हो सकती है, ना ही उसकी संकल्पना ही की जा सकती है.
The first element, which constitutes the actual being of the human mind, is the idea of some particular thing actually existing.
प्रस्तावना ११.
पहला तत्त्व, जो किसी चित्त की सत्ता का निर्माण करता है, वह किसी चीज का विचार है जो सचमुच में अस्तित्व में है.
Proof —
The essence of man (by the Coroll. of the last Prop.) is constituted by certain modes of the attributes of God, namely (by II. Ax. ii.), by the modes of thinking, of all which (by II. Ax. iii.) the idea is prior in nature, and, when the idea is given, the other modes (namely, those of which the idea is prior in nature) must be in the same individual (by the same Axiom). Therefore an idea is the first element constituting the human mind. But not the idea of a non-existent thing, for then (II. viii. Coroll.) the idea itself cannot be said to exist ; it must therefore be the idea of something actually existing. But not of an infinite thing. For an infinite thing (I.xxi., xxii.), must always necessarily exist ; this would (by II. Ax. i.) involve an absurdity. Therefore the first element, which constitutes the actual being of the human mind, is the idea of something actually existing. Q.E.D.
तार्किक उपपत्ति –
मनुष्य का सार (पिछले प्रस्ताव के उप-प्रमेय से) ईश के गुणधर्मों के किन्हीं प्रणाली से निर्मित है, (भाग २, स्वयंसिद्ध २ से) जिनमें सभी चिंतन प्रणालियाँ से (भाग २, स्वयंसिद्ध ३ से), जिन सभी में विचार अपनी प्रकृति से पहले से ही हैं, और जब कोई विचार दिया जाता है, दूसरी सभी प्रणालियाँ (वे सभी जिनमें विचार अपनी प्रकृति से पहले ही हैं) उसी व्यष्टि में हों (उसी स्वयंसिद्ध से). अत: एक विचार चित्त को निर्माण करने वाला पहला तत्त्व है. पर यह किसी अन-अस्तित्व वाली चीजें का नहीं (भाग २, प्रस्ताव ८ के उप प्रमेय) क्योंकि विचार अपने आप से अस्तित्व में नहीं कहा जा सकता है; अत: यह अवश्य ही किसी और चीज का विचार होगा हो पहले से अस्तित्व में हों. पर यह अनंत वस्तु का विचार नहीं हो सकता है. क्योंकि अनंत वस्तु (भाग १, प्रस्ताव २१, २२ से) को निश्चित तौर पर अस्तित्व में होना होगा, यह (भाग २, स्वयंसिद्ध १ से) अनर्थकता का समावेश करने जैसा होगा. अत: पहला तत्त्व, जो कि चित्त का निर्माण करता है, वह सचमुच किसी चीज के होने का विचार है.
Corollary.—Hence it follows, that the human mind is part of the infinite intellect of God ; thus when we say, that the human mind perceives this or that, we make the assertion, that God has this or that idea, not in so far as he is infinite, but in so far as he is displayed through the nature of the human mind, or in so far as he constitutes the essence of the human mind ; and when we say that God has this or that idea, not only in so far as he constitutes the essence of the human mind, but also in so far as he, simultaneously with the human mind, has the further idea of another thing, we assert that the human mind perceives a thing in part or inadequately.
उपप्रमेय –
अत: यह अनुसरित होता है कि मानव चित्त ईश के अनंत मति का अंश है, इसलिये जब हम कहते हैं यह कि चित्त यह या वह ज्ञप्ति करता है, हम यह कहते हैं कि ईश के पास यह या वह विचार है, इसलिये नहीं कि वे अनंत हैं बल्कि इसलिये कि वह चित्त की प्रकृति से प्रदर्शित होते हैं या जब तक कि वे चित्त के सार का निर्माण करते हैं, और जब हम कहते हैं कि ईश के पास यह या वह विचार है, तब वे न केवल चित्त के सार का निर्माण करते हैं, बल्कि वे चित्त के साथ कुछ दूसरी चीजों का विचार करते हैं, जिस हम कहते हैं कि चित्त ने किसी चीज को आंशिक या अपूर्ण रूप में महसूस किया है.
Note.—Here, I doubt not, readers will come to a stand, and will call to mind many things which will cause them to hesitate; I therefore beg them to accompany me slowly, step by step, and not to pronounce on my statements, till they have read to the end.
टिप्पणी – यहाँ पर, मुझे शंका नहीं है कि पाठक रुक जाएँगे और चित्त को वे बहुत सी चीजों से सम्बोधित करेंगे जो कि उन्हें हिचकिचायेगा, इसलिये मैं उनसे विनती करता हूँ कि मेरे साथ धीरे-धीरे, कदम-दर-कदम चलें और मेरी प्रस्तावनाओं पर प्रतिवाद न करें जब तक वे अंत तक ना पहुँच जायें.