अक्सर लोग बातचीत में यह कहते पाये जाते हैं कि इस देश में सैनिक शासन लागू कर देना चाहिए. ऐसा कहते समय वे यह भूल जाते हैं कि उनके पड़ोसी देशों में यह सब होता रहा है और इसने उन देशों का जहाँ पीछे किया है वहीं लोगों के जीवन को भी संकट में जब-तब डाल दिया है. जिस देश ने अपने इतिहास का सबसे महान और बड़ा संघर्ष अहिंसा, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता जैसे विराट मानवीय मूल्यों से जीता हो. वहां हिटलर की बढ़ती लोकप्रियता चिंतित करती है.
क्यों हम हिटलर को पसंद करने लग गयें हैं, क्यों हम किसी तानाशाह की प्रतीक्षा कर रहें हैं ? जबकि यह भारत और मानवजाति के लिए किसी विभीषिका से कम नहीं होगा.
प्रसिद्ध लेखक और विचारक सुभाष गाताडे का यह लेख शोध के साथ गम्भीरतापूर्वक और गहराई से इस सवाल का उत्तर तलाशता है.
यह वैचारिक आलेख प्रस्तुत है.
हमको डिक्टेटर मांगता!
सुभाष गाताडे
“History teaches, but it has no pupils.”
Antonio Gramsci, (१)
एक भारतीय प्रकाशक को इस मसले पर वर्ष 2018 में आलोचना का शिकार होना पड़ा जब बच्चों के लिए तैयार की गयी एक किताब जिसका फोकस विश्व के नेताओं पर था ‘जिन्होंने अपने मुल्क और अपनी जनता की बेहतरी के लिए जिंदगी दी’ उसमें हिटलर को भी उसने शामिल किया.
जानकार लोग बता सकते हैं कि ऐसी घटनाएँ- कम–से–कम यहां अपवाद नहीं हैं. अपनी मौत के लगभग 75 साल बाद हिटलर भारत में बार-बार ‘नमूदार’ होता रहता है.
एक स्पैनिश फिल्म निर्माता अल्फ्रेडो डे ब्रागान्जा- जो एक स्वतंत्र फिल्म निर्माता रहे हैं- और जिन्होंने कुछ साल पहले भारत में रह कर काम किया था, उन्होंने भारत में हिटलर की अलग किस्म की ‘मौजूदगी’ को लेकर एक फोटो निबंध तैयार किया था जिसमें बहुत कम लिखित सामग्री थी. वह हिटलर की उपस्थिति को लेकर इस कदर विचलित थे कि अपने इस निबंध की शुरूआत में उन्होंने पूछ ही डाला:
‘भारत हिटलर-प्रेम के गिरफ्त में है. हालांकि आबादी का बड़ा हिस्सा यह नहीं जानता कि आखिर ऐसा क्यों हैं, वे अपने निजी एवं पेशागत चिन्ताओं से परे सोचना भी नहीं चाहते कि क्यों भारत हिटलर से प्रेम करता है? क्या किसी लॉबी का हित इसके पीछे है.’ (2)
आज भारत में आलम यह है कि यहूदी विरोधी हिटलर की चर्चित रचना ‘माईन काम्फ’ (मेरा संघर्ष) को आप किसी किताब की दुकान में ‘डायरी ऑफ़ एन फ्रांक- जो उस यहूदी लड़की की आत्मकथा है जो खुद हिटलर की यहूदी विरोध की नीतियों का शिकार हुई थी, के बगल में देख सकते हैं.
हिटलर ने भारतीयों के बारे में काफी अपमानजनक टिप्पणियां की थीं और उसने भारत की आज़ादी के संग्राम का कतई समर्थन नहीं किया था. ‘डिअर हिटलर’ इस फिल्म पर- जिसमें यह दावा किया गया था कि ‘हिटलर भारत का दोस्त रहा है’ अपनी प्रतिक्रिया देते हुए एक लेखक ने हिटलर के चित्रांकन पर आश्चर्य प्रकट करते हुए तथा निराशा जताते हुए लिखा था :
“हिटलर ने कभी भी भारतीय स्वशासन की हिमायत नहीं की. उसने ब्रिटिश राजनेताओं को सलाह दी कि गांधी और आज़ादी के आन्दोलन के सैकड़ों नेताओं को वह गोली से उड़ा दे. बार-बार उसने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रति अपना समर्थन दोहराया. वह यही सोचता था कि वह (ब्रिटिश शासन) उतना सख्त नहीं रहा है. ‘अगर हम भारत पर कब्जा जमा लेते हैं’ उसने कभी धमकाया था, तब भारतीय लोग ‘अंग्रेजी शासन के अच्छे दिनों को याद करते फिरेंगे.’ (3)
लोकप्रिय रहा सीरियल हिटलर दीदी- जो बिना किसी बाधा के दो साल तक चलता रहा- वह तब मुद्दा बना, जब उसने ‘एंटी डिफेमेशन लीग’ नाम से अमेरिका में बसे एक अंतर-राष्ट्रीय यहूदी गैरसरकारी संगठन को उकसाया. दरअसल हुआ यह कि बढ़ती शोहरत के चलते निर्माताओं ने इस सीरियल को अरेबिक भाषा में डब किया और अरब दुनिया में उसे दिखाया जाने लगा.
2
‘मैं फलां की प्रशंसा इसलिए करता हूं’
कभी-कभी मासूम से दिखने वाले सवाल भी विचलित करने वाले जवाबों को जन्म देते हैं.
मुंबई के एक प्राइवेट स्कूल में फ्रेंच के अध्यापक को इस बात का कतई अहसास नहीं रहा होगा जब उसने अपने छात्रों को एक अभ्यास दिया कि वह बताएं कि वह किसे महान ऐतिहासिक शख्सियत या नायक मानते हैं और उसकी हिमायत में कुछ लिखें, तो बच्चे क्या जवाब देंगे.
लेखक और पत्रकार दिलीप डिसोजा, जिन्होंने कई किताबें लिखी हैं और जो सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर भी लिखते हैं, उन्होंने उनकी पत्नी का यह अनुभव किसी चर्चा के दौरान साझा किया. उनके मुताबिक उनकी पत्नी को यह उम्मीद थी कि लोग गांधी या भगत सिंह या आज़ादी के आन्दोलन के किसी अन्य कर्णधार का नामोल्लख करेंगे, मगर उनका एक भी अनुमान सही साबित नहीं हुआ. वहां सिर्फ एक छात्रा थी जिसने महात्मा गांधी को चुना था, लेकिन पचीस में से नौ छात्रों ने हिटलर को हीरो के तौर पर या एक बड़ी शख्सियत के तौर पर पेश किया था.
अपनी इस पसंदगी पर बात करते हुए दसवीं कक्षा के एक छात्र ने हिटलर की ‘जबरदस्त भाषणशैली’ की तारीफ की, उसने बताया कि किस तरह वह अपने मुल्क से प्रेम करता था, किस तरह वह एक ‘बड़ा देशभक्त’ था और किस तरह उसने प्रथम विश्वयुद्ध में अपने मुल्क की हार के बाद उसे ‘अपना स्वाभिमान’ लौटा दिया. जिन लाखों लोगों को हिटलर ने मरवाया, उसके बारे में उसकी कोई सहानुभूति नहीं थी; उसने बस इन मौतों को यह कहते हुए वाजिब ठहराने की कोशिश की कि ‘उनमें से कुछ देशद्रोही थे.’ (4)
पत्रकार प्रफुल्ल बिदवई ने लिखा था कि किस तरह हिटलर के प्रशंसक आधुनिक शहरी प्रबुद्ध-वर्ग में भी मिलते हैं तथा ऐसे लोगों में भी मिलते हैं जो कार्पोरेट जॉब करते हैं, कहीं प्रशासन में काम करते हैं या अच्छी तनखावाले पेशों में हैं. फिर उन्होंने हिटलर के बारे में युवकों की जिस राय को साझा किया उसे पूरी तरह उद्धृत करना ही बेहतर है :
‘मिसाल के तौर पर, देश के अग्रणी कालेज, दिल्ली के सेन्ट स्टीफन्स कॉलेज में, आखिरी साक्षात्कार में जब प्रत्याशियों से पूछा जाता है कि उनका हीरो या रोल मॉडल कौन है तो ‘‘लगभग 60 फीसदी प्रत्याशी हिटलर का नाम लेते हैं’’, प्रिन्सिपल ने आईपीएस को बताया था.
यह आंकड़ा निश्चित ही विचलित करने वाला है. अधिकतर छात्र उनके इस चयन के पीछे यही कारण बताते हैं कि हिटलर उग्र राष्ट्रवादी था: उसने जर्मनी को ‘‘आत्माभिमान’’ दिया, वर्साय संधि के बाद देश पर लादे गए अपमानजनक समझौतों से उसे उबारा; उसके द्वारा साठ लाख यहूदियों का मारा जाना ‘‘आनुषंगिक क्षति’’ भर (collateral damage) है.’ (5)
अपने आलेख ‘hitlers-hindus-indias-nazi-loving-nationalists-on-the-rise’ के लेखक जो डिजिटल उद्यमी हैं, भारत के आज़ादी के आन्दोलन में स्थापित अहिंसा के सिद्धांत के बरअक्स मौजूदा भारत में हिटलर ब्राण्ड फासीवाद के भारतीय स्वरूप ग्रहण करते जाने, जिसमें नस्लीय नफरत और हिन्दू राष्ट्रवाद का घोल मिला हो, की चर्चा करते हैं.(6)
सोशल मीडिया की पड़ताल करते हुए वे इस बात को उद्घाटित करते हैं कि किस तरह- ‘‘भारतीय हिंदू नात्सियों का एक बड़ा और विकासमान समुदाय वजूद में आया है, जो दुनिया के अन्य हिस्सों में सक्रिय नव-नात्सी समूहों से जुड़ा हुआ हैं.”
न्यूजएक्स- जो भारत का एक 24 घंटे चलनेवाला टेलीविजन चैनल है- उसके द्वारा संचालित यूटयूब चैनल पर कोई लिखता है.
“मैंने यह भी पाया कि भारत में आधारित कई वॉटसअप समूह हिटलर के ‘‘सकारात्मक योगदानों’’ की चर्चा कर रहे हैं. उन्होंने जर्मनी के महान नेता, एक ‘‘देशभक्त राष्ट्रवादी’’ जिसने ‘‘देशद्रोहियों’’ को दंडित किया, इस अन्दाज में उसका चित्रण करते हैं.” (वही)
यह दावा किया जा सकता है कि दुनिया में भारतीय लोग एकमात्र नहीं हैं जो हिटलर की तारीफ करते हैं. किसी एक भाषण में फिलिपीन्स के राष्ट्रपति डुटेर्टे ने अपनी तुलना हिटलर से की थी और दावा किया था कि वह नशीली दवा लेने वाले और उसके व्यापार में लगे तीस लाख लोगों का सफाया करके ‘‘बहुत खुश होंगे.’’
महज दो साल पहले जापान के तत्कालीन प्रधानमंत्री त्शिंत्जो अबे की अगुआई में चल रही सरकार के कैबिनेट ने यह तय किया कि हिटलर की आत्मकथा ‘माईन काम्फ’ अर्थात मेरा संघर्ष बहुत शैक्षिक मूल्यों वाली किताब है और उसे देश की कक्षाओं में इस्तेमाल किया जा सकता है. (7)
संयुक्त राज्य अमेरिका से प्रकाशित जर्नल ‘‘फॉरेन पॉलिसी’ ने एक स्टोरी प्रकाशित की थी जिसका फोकस था गैर-पश्चिमी दुनिया में हिटलर को लेकर ‘सकारात्मक परिप्रेक्ष्य’. इसमें बताया गया था कि पश्चिमी दुनिया में हिटलर की जो इमेज व्याप्त है, जिसके तहत जहां वह हत्यारा और नस्लीय धर्मांध हैं- जो दुनिया पर वर्चस्व कायम करना चाहता था- वहीं गैर पश्चिमी देशों में उसे ‘‘Anglo-French-American-Zionist domination.” के खिलाफ’ उसके राष्ट्रवादी संघर्ष के चलते ‘‘साम्राज्यवाद विरोधी विद्रोही के तौर पर भी देखा जाता है.(8)
वैसे इसमें कोई दो राय नहीं कि हिटलर के प्रति हिन्दोस्तानियों के प्रेम का दुनिया में कोई सानी नहीं है. इसकी ओर लंदन से प्रकाशित ‘डेली टेलीग्राफ’ ने एक आलेख में पश्चिमी जगत का ध्यान आकर्षित करवाया था: ‘इंडियन बिजनेस स्टुडेंटस स्नैप अप कॉपीज आफ माईन काम्फ’
सवाल उठता है कि आखिर भारत में हिटलर इतना ‘लोकप्रिय’ क्यों हैं- खासकर मध्य और उच्च मध्यवर्गीय युवाओं में और पेशेवरों में ?
इजरायल से निकलने वाले एक अख़बार जेरूसलेम पोस्ट में प्रकाशित आलेख ‘व्हाय एडॉल्फ हिटलर इज पॉप्युलर इन इंडिया’ में लेखक ने भारतीयों के इस हिटलर प्रेम को एक अलग कोण से इसे देखने की कोशिश की है.(9)
‘‘भारत में हिटलर की विरासत पश्चिम से बिल्कुल अलग दिखती है. दूसरे विश्वयुद्ध की महा-तबाही से बिल्कुल दूर खड़े और नस्लीय जनसंहार की हक़ीकत के प्रति भी लगभग अपरिचित, भारत के लोगों का हिटलर-प्रेम ऐसे समाजों में मुमकिन ही नहीं है जहां जंग लड़े सैनिक हों या जनसंहार से बचे लोग हों या जहां युद्ध एवं उसकी विरासत में बारे में शिक्षा के जरिए या अन्य साधनों से लगातार बताया जाता रहता हो.’
आलेख इस बात की भी चर्चा करता है है कि-
“ऐतिहासिक वैश्विक घटनाओं और भारतीयों के बीच भावनात्मक दूरी को लेकर ऊपरी तौर पर एक अन्तर-विरोध दिखता है. भारतीय शिक्षा ऐसी वैश्विक घटनाओं को लेकर बहुत कम ध्यान देती है, जिनका फोकस राष्ट्रवाद या स्वतंत्रता संघर्षों पर न हो. दूसरे विश्वयुद्ध की स्कूलों के पाठ्यक्रमों में बहुत सतही चर्चा की जाती है. वे आडम्बर और हिटलर की सेलेब्रिटी छवि पर सम्मोहित होते हैं.’’
“एक ऐसे मुल्क में जहां तमाम भारतीय इस बात पर यकीन करते हैं कि एक मजबूत नेता समाज को बेहतर ढंग से रूपांतरित कर सकता है, वहां जब वह इस बात को देखते हैं कि हजारों हजार जर्मन हिटलर के समक्ष सावधान मुद्रा में खड़े हैं, वह छवि उन्हें आकर्षित करती है, भले ही ऐसी रैलियों ने तमाम तबाही को जन्म दिया हो.’’
हम लोग चाहें तो कुछ साल पहले दिवंगत हुए पत्रकार प्रफुल्ल बिदवई द्वारा लिखे उस आलेख की तरफ फिर से लौट सकते हैं. जानेमाने राजनीतिक सिद्धांतकार राजीव भार्गव को उद्धृत करते हुए उन्होंने बताया था कि हिटलर के प्रति प्रशंसा का यह भाव ‘‘दरअसल भारतीय अभिजात्य में मौजूद अधिनायकवादी चिन्तन की गवाही देता है, या कम-से-कम शासन की गैर जनतांत्रिक पद्धतियों के प्रति उनके सम्मोहन या प्रशंसा को ही उजागर करता है.’’
उसमें उन्होंने यह भी जोड़ा था कि
‘‘कई ऊंचे तबके के भारतीय मानते हैं कि भारत के सामने खड़ी बहुविध समस्याओं का समाधान एक तानाशाह ही कर सकता है.’’
भारत में अधिनायकवादी चिन्तन के इस रुझान को लेकर समाज-विज्ञानी मानते हैं कि-
‘‘इसका ताल्लुक भारत के अभिजात-वर्ग की अत्यधिक सोपानक्रम पर टिकी जाति व्यवस्था में दिखता है. तमाम ऊंची जाति, ऊंचे तबके के भारतीय अभी भी जनतंत्र के साथ अपना पूरा सामंजस्य कायम नहीं कर पाए हैं, जिसमें यह विचार भी शामिल है कि ड्राइवर और बावर्ची को भी उन्हीं की तरह समान वोट का अधिकार होना चाहिए.’’
इस विश्लेषण में नवउदारवादी आर्थिक नीतियों का प्रश्न भी जुड़ता है जहां वह प्रोफेसर कमल मित्र चेनॉय को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि किस तरह यह ‘‘किसी भी सूरत में पैसा कमाने की’’ की यह प्रवृत्ति इन नीतियों के तहत बढ़ रही है और इसका मतलब है ‘‘सार्वजनिक हित के मामले में फासीवादी किस्म की बेरुखी का विस्तार’’
3
होलोकॉस्ट (Holocaust) को हम दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान नात्सी जर्मनी और उसके सहयोगियों द्वारा सुनियोजित तरीके से राज्य द्वारा प्रायोजित यहूदी पुरुष, स्त्रियों और बच्चों और कई लाखों अन्य के कत्लेआम के तौर पर समझते हैं. आधिकारिक तौर पर उसमें 60 लाख से अधिक यूरोपीय यहूदियों की हत्या कर दी गयी जिसका मतलब था यूरोप से लगभग दो तिहाई यहूदी इस दौरान मार दिए गए. मालूम हो कि जर्मनों ने इस जन संहार को यहूदी प्रश्न का ‘अंतिम समाधान’ (final solution) के तौर पर संबोधित किया था.
विगत कुछ सालों में एक मिश्रित धारा वजूद में आयी है- जिन्हें होलोकॉस्ट को न माननेवाले कहा जा सकता है, जो यूरोप में तथा चन्द मुस्लिम बहुल देशों में फैले हैं, जो इस बात से भी इनकार करते हैं कि दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान यहूदियों की नस्लीय सफाये का अभियान चला था और यह कि यहूदियों को समाप्त करने की नात्सी जर्मनी की कोई योजना थी या वास्तविक तौर पर जितने यहूदी मारे गए उनकी संख्या काफी कम थी. इस समझदारी का ‘आधार’ इतिहास की नस्लीय समझदारी में है या उस चिन्तन में है जहां यहूदियों को दोयम दर्जे के नागरिक के तौर पर या मनुष्य से कमतर पेश किया जाता है.
क्या भारतीयों को ‘होलोकॉस्ट’ से इनकार करने वाली बिरादरी में शामिल किया जा सकता है?
निश्चित ही नहीं.
अगर उनसे साफ-साफ पूछा जाए कि क्या यहूदियों के नस्लीय सफाये का अभियान चला या नहीं, उन्हें इस बात का स्वीकार करने से कोई गुरेज नहीं होगा न ही इसकी भर्त्सना करने में वह संकोच करेंगे.
यहां यह बात भी थोड़ी आश्चर्यजनक लग सकती है कि यहूदियों को यहां किसी भेदभाव का सामना करना नहीं पड़ा, दुनिया के दूसरे हिस्से में उनका नस्लीय सफाया यहां कोई मुद्दा नहीं बन सका. सवाल उठता है कि क्या यह मौन अपवाद स्वरूप था या वह भारतीयों के आम व्यवहार का ही हिस्सा था?
अगर हम ठंडे दिमाग से सोचने की शुरूआत करें तो हम देख सकते हैं कि दुनिया के ऐसे प्रसंगों पर भारतीयों ने अक्सर एक उदासीनता का परिचय दिया है- यहां तक कि अपने अतीत को लेकर भी वे इसी तरह बेरुखी का परिचय देते हैं. हम यह भी कह सकते हैं कि हमारे समाज में हिंसा इस कदर रचीबसी है कि लगभग सामान्यीकृत हो गयी है. प्राचीन भारत पर केन्द्रित साहित्य का अध्ययन करें आप तो इस हिंसा की व्याप्ति और व्यापकता को खुद देख सकते हैं. डॉ. अम्बेडकर जैसों ने इस हिंसा पर विस्तार से लिखा है और इस बात को भी बेपर्द किया है कि किस तरह समूचा समाज या उसके मुखर लोगों ने उसे दृश्य से गायब करने में कितना जतन किया है. हम चाहें तो उनकी किताब ‘द अनटचेबल्स एंड द पॅक्स ब्रिटानिका’ को पलट सकते हैं ताकि यह जान सकें कि उस दौर में किस-किस किस्म की बर्बर प्रथाएं मौजूद थीं.(10)
प्रोफेसर उपींदर सिंह, जानीमानी इतिहासकार, अपनी किताब ‘पोलिटिकल वायोलन्स इन एन्शन्ट इंडिया’ में प्राचीन भारतीय ग्रंथों में हिंसा के विवरण पेश करती हैं. वह बताती हैं कि किस तरह-
“प्राचीन भारतीय ग्रंथों में विभिन्न किस्म की हिंसा के विवरण भरे पड़े हैं. मुझे कुछ उदाहरण प्रस्तुत करने दें. ऋग्वेद में युद्ध की काफी चर्चा है. अश्वमेध जैसे यज्ञ- वह पुरुषों और जानवरों के खिलाफ हिंसा से भरे हैं. महाभारत में 18 दिन के ऐसे युद्ध का वर्णन है जिसमें हर रोज दोनों तरफ से हजारों सैनिक मारे गए थे और अंत में पांडवों के तरफ महज सात लोग बचे थे और कौरवों की तरफ महज तीन लोग बचे थे. कुरुक्षेत्र पर हुए युद्ध का विवरण हम बिल्कुल शब्दशः नहीं लेना चाहिए लेकिन हम अच्छी तरह जानते हैं कि प्राचीन भारत के राजा निरंतर हिंसक, खूनी युद्धों में उलझे रहते थे. जंगल की जनजातियों के साथ संघर्ष बहुत आम था. (11)
अपने हालिया इतिहास का एक उदाहरण यहां लेना अधिक समीचीन होगा.
अगर दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान माने गए यहूदियों की तादाद 60 लाख के करीब थी तो मुल्क के बंटवारे के वक्त भी जितने निरपराध लोग मारे गए थे उनकी संख्या भी उसी दायरे में थी. अनुमान यह लगाया जाता है कि इस दौरान दो लाख से बीस लाख लोग मारे गए.(12)
आखिर इन हत्याओं के बाद क्या हुआ? क्या इन घटनाओं की कोई जांच-पड़ताल हुई, क्या किसी को सज़ा दिलायी जा सकी. कुछ भी नहीं हुआ. हक़ीकत यही है कि यह हत्याएं हमारी याददाश्त से भी पूरी तरह निकल गयीं.
और न केवल बंटवारे के वक्त हुए दंगे, स्वाधीन भारत में हम लोग यहां हुए सांप्रदायिक दंगों में, दलितों-आदिवासियों के खिलाफ चली संगठित हिंसा में, या अन्य शोषित-पीड़ितों के खिलाफ जारी हिंसाचार में इसी तरह हजारों लोगों की जिन्दगियों को स्वाहा होते देखे हैं; लेकिन हम बार-बार यही पाते हैं कि भारतीय लोग चुनिन्दा स्मृति लोप के अपने कोश तक ही संतुष्ट बने रहते हैं. न केवल समाज संगठित हत्याओं की इन घटनाओं पर मौन रहता है बल्कि राज्य के विभिन्न अंग भी अक्सर- चुप्पी के इस षड्यंत्र में शामिल दिखते हैं.
भारत में ‘यहूदियों के सफाये’ को लेकर यह उदासीनता दरअसल इसी स्थिति का विस्तार जान पड़ती है कि इनसानियत के खिलाफ चले अपराधों को लेकर यहां दक्षिण एशिया में इसी किस्म का रूख अपनाया जाता रहता है, इसी तरह इन अपराधों को ‘अदृश्य‘ कर दिया जाता है या सुनियोजित तरीके से भुला दिया जाता है और इस तरह पीड़ित समुदायों, संगठनों, हिंसा-बरबादी का शिकार हुए व्यक्तियों के लिए न्याय का सवाल दफना दिया जाता है.
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इस पृष्ठभूमि में क्या यह कहा जा सकता है कि एक रोल मॉडल के तौर पर हिटलर की दस्तक या उसकी छवि के मानवीकरण की जड़ें, इस बात में छिपी हैं कि हमें किस तरह इतिहास सिखाया जाता है, किस तरह समाज विज्ञान की पाठ्य पुस्तकें छात्रों के बीच एक विश्लेषणात्मक नज़रिया विकसित कर पाने में असफल होती हैं.
हम अपने-अपने बचपन के दिनों या किशोरावस्था के दिनों को याद करके बता सकते हैं कि पाठय-पुस्तकें किस तरह चेतन या अचेतन तौर पर हमारे मन में जाति, जेण्डर, नस्लीय यहां तक कि साम्प्रदायिक रूढ़िबद्ध धारणाओं ठूंस देती थी, हमारे मानस को गढ़ती थी. और न केवल पाठय-पुस्तकें, बल्कि जिसे हम ‘बाल-साहित्य’ कहते हैं, वह भी ऐसे ही पूर्वाग्रहों से लैस रहता था. मिसाल के तौर पर ‘अमर चित्रकथा’ के नाम से जो बहुचर्चित कॉमिक सीरीज प्रकाशित होती रही है, जिसने कम से दो पीढ़ी के बच्चों को प्रभावित किया, उसकी चालीस साला यात्रा पर निगाह डालते हुए लेखिका ने जो निष्कर्ष निकालें हैं, वह बेहद चिन्तनीय हैं. अनुसंधानकर्ता के मुताबिक इस श्रृंखला ने:
‘‘रफ्ता-रफ्ता राष्ट्र के विचार के तौर पर धर्म को इस तरह स्थापित किया कि राष्ट्र दरअसल इलाका, स्थान, वर्ग, जेण्डर, जाति, सम्प्रदाय या धार्मिक समूह जैसी कोई विशिष्ट पहचान को लांघ गया और उसने सर्वसमावेशी राष्ट्रीय धर्म के विचार की स्थापना में योगदान दिया. इसके बावजूद धर्म के कथित तौर पर रूढ़िवादी और जडसूत्रावादी पहलुओं का प्रयोग भी साथ-साथ चलता रहा. एक पूरक कदम यह भी था कि, हिंदू धर्म- जो बहुसंख्यकों का धर्म था, उसे भी राष्ट्र के साथ पहचानना जरूरी था.’’(13)
महज पाठय-पुस्तकों के पन्नों को पलट कर एक बात स्पष्ट हो सकती है कि विद्यार्थियों के लिए आखिर इसके बारे में कुछ ठोस राय रखना क्यों मुश्किल जान पड़ता है मसलन जब उन्हें तानाशाही या जाति व्यवस्था के गुण दोषों की चर्चा करने के लिए कहा जाता है. अगर उन्हें मानवता के खिलाफ पहले हुए अपराधों के बारे में और उसके अंजाम कर्ताओं के बारे में न बताया जाए, अगर पाठयपुस्तकें ऐसे तमाम असुविधाजनक तथ्यों को छिपा दें या उनका साफ-सुथराकरण करके उन्हें पेश कर दें तो वे कैसे समझेंगे कि इतिहास महज तथ्यों का संकलन नहीं जिन्हें काल क्रमानुसार सूचीबद्ध किया गया है बल्कि और भी बहुत कुछ है.
अगर हम दूसरे विश्वयुद्ध के विवरणों की ओर मुड़ें तो हम ऐसे किताबों से शायद ही रूबरू होते हैं जहां इस जंग में मारे गए तमाम निरपराधों के बारे में विस्तृत बातें हों, हम उन यातना शिविरों के बारे में जान सकें, जिनका निर्माण हिटलर और उसके नात्सी सेनाओं ने किया था. आखिर कितने विद्यार्थी आशवित्ज के कान्स्टनेटेशन कैम्प के बारे में जानते हैं, जिसे मानवीय इतिहास में एक ही स्थान पर हुई अधिकतम जन-हत्याओं के लिए आज भी याद किया जाता है, जहां अधिकतर पीड़ितों को ऐसे गैस चैम्बरों में ढकेला जाता था जिसमें साइनाइड जैसी जहरीली गैस छोड़ी जाती थी और जिसमें वह तुरंत मर जाते थे.
इतिहास में वह क्रूर किस्म के ‘वैज्ञानिक’ प्रयोग भी दर्ज हैं जब डॉ. जोसेफ मेंगले जैसे नात्सी डॉक्टर गर्भनिरोधकों की नयी श्रृंखला का परीक्षण करने के लिए महिलाओं के शरीर में कॉस्टिक रसायनों का इंजेक्शन लगाते थे.
अगर हम इन विवरणों को भूल भी जाएं तब भी हम नहीं भूल सकते हैं कि यहां की पाठय-पुस्तकों में हिटलर की तारीफ पढ़ सकते हैं और गांधीजी की कमी निकालने वाले अध्याय भी देख सकते हैं.
देश के अलग-अलग राज्यों के कई बोर्ड आफ एजुकेशन में भी हम कभी-कभी हिटलर से मिलते हैं और नात्सीवाद की आंतरिक उपलब्धियों की बातें सुन सकते हैं. इन किताबों में फासीवाद और नात्सीवाद के बारे में ‘‘बेहद डरावने अलबत्ता अस्पष्ट तस्वीर’ मिल सकती है. हालांकि इन किताबों में इन दोनों परिघटनाओं द्वारा निर्मित मजबूत राष्ट्रीय भावना की बात होती थी, प्रशासन और नौकरशाही तंत्र में इससे निर्मित कार्य क्षमता की बात होती थी, लेकिन इसमें यहूदियों के कत्लेआम के बारे में या प्रवासी लोगों पर या टेड यूनियन कार्यकर्ताओं पर बरपा किए गए अत्याचारों का कोई जिक्र नहीं मिल सकता है. और यह परिघटना महज किसी खास सूबे तक या प्रांत तक सीमित नहीं दिखेगी. (14)
चीज़ों की पूर्वाग्रहों से पूर्ण तथा एक तरफा प्रस्तुति आज भी अबाधित जारी है जो महज हिटलर की छवि के साफसुथराकरण तक सीमित नहीं है.
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पाठ्य-पुस्तकों तथा अन्य लोकप्रिय या अभ्यास पूर्ण अध्ययन से जुड़ी इन बहसों का सबसे कम चर्चित पहलू रहा है अपने अतीत की तरफ आलोचनात्मक अंदाज़ में देखने की कमी, खासकर अतीत के उस हिस्से की तरफ जब लोगों को एक हिस्से ने- खासकर दक्षिणपंथी नेताओं द्वारा- मुसोलिनी एवं हिटलर के प्रति औपनिवेशकालीन दौर में प्रकट किया गया सम्मोहन.
इकोनोमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली के अपने एक महत्वपूर्ण आलेख में मार्जिया कसोलारी बताती हैं 🙁15)
“उनके लिए फासीवाद एक किस्म की रूढ़िवादी क्रांति का उदाहरण था. इतालवी हुकूमत के शुरुआती चरण से ही मराठी पत्र-पत्रिकाओं में इसके बारे में 1924 से 1935 लगातार लिखा जाता रहा.
दक्षिणपंथ के एक अहम नेता ने इटली की यात्रा की थी, मुसोलिनी से भी मुलाकात की थी और युवाओं में राष्ट्रवाद तथा अनुशासन की भावना को विकसित करने के लिए फासीवादी हुकूमत द्वारा स्थापित तमाम संस्थाओं से मुलाक़ात की थी और वह उनसे प्रभावित हुए थे और उन्होंने ऐसी संस्थाओं को भारत में भी बनाने की बात की थी- इनमें सबसे अग्रणी थी बलील्ला (Balilla) संस्था जिसका निर्माण मुसोलिनी ने ‘इटली के सैन्य पुनर्निर्माण के लिए किया था.”
दक्षिणपंथ के एक अन्य अग्रणी नेता ने नात्सियों के बारे में यह कहा था:
‘‘राष्ट्र और उसकी संस्कृति की शुद्धता को बनाए रखने के लिए, जर्मनी ने सामीवादी नस्ल को, यहुदियों को, निष्कासित करके दुनिया को चौंका दिया. वहां राष्ट्रीय अभिमान अपने चरम रूप में प्रगट हुआ है.”
क्या हिटलर की लोकप्रियता की जड़ें ‘भारतीय और जर्मन लोगों के बीच साझी आर्य कड़ियों में’ मिलती हैं जैसा कि 18 वीं सदी के उत्तरार्द्ध में सर विलियम जोन्स ने कहा था, जो बंगाल में सक्रिय एक ब्रिटिश न्यायाधीश थे और एक विद्वान भी थे. उनकी विद्वता को देखते हुए उन्हें दुभाषियों की मदद से हिन्दुओं और मुसलमानों के ग्रंथों का अध्ययन करने के लिए कहा गया था, लेकिन ‘मूल स्रोतों की तलाश’ में उन्होंने खुद ही उनका अध्ययन किया.
आर्य नस्ल लम्बी और पतली होती है. यह नस्ल संकरे चेहरे और संकरे कपाल की होती है, उनकी चमडी गौर वर्णीय होती है, उनके बाल मुलायम रहते हैं. (16)
या इसे हिटलर द्वारा प्रस्तुत आर्य नस्ल की श्रेष्ठता के सिद्धांत के प्रति भारतीयों के अनुराग में देखा जा सकता है, जिसे हिटलर ने पेश किया था. हिटलर का यह मानना था कि ‘आर्य नस्ल’ जिसके पास सबसे ‘शुद्ध रक्त’ है उसका ही यह कर्तव्य है कि दुनिया के लोगों पर नियंत्रण रखे. उसकी समग्र योजना में गैर-आर्यो को अशुद्ध और शैतानी कहा जाता था. आर्यों की ‘श्रेष्ठता’ को- यहूदियों, जिप्सियां और अश्वेत जैसे ‘कनिष्ठ’ लोगों से ख़तरा है, ऐसा कहा गया. हमें बताया जाता है कि अल्फ्रेड रोजेनबर्ग (1893-1946) जो एक अग्रणी नात्सी विचारक था- जिसे न्यूरेम्बर्ग मुकदमों के बाद फांसी दी गयी थी, जिसने नात्सी विचारधारा को निरूपित करते हुए एक चर्चित किताब लिखी थी, ‘द मिथ आफ टेवन्टीएथ सेन्चुरी’ (1930) – वह भारत को आर्यों के पैतृक मूल स्थान के तौर पर देखता था.
अंत में क्या हिटलर की यह चाहत- जिसे हम एक मजबूत नेता के सम्मोहन के तौर पर देख सकते हैं- इस वजह से भी उभरी है कि हम एक बेहद अनिश्चित समय में जी रहे हैं और एक स्थापित गलत धारणा है कि ऐसे नेता ही ‘सबसे कामयाब और प्रशंसनीय होते हैं.’
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शक्तिशाली नेता और अनिश्चित समय ?
मैं इस केन्द्रीय अवधारणा को बेपरदा करना चाहता हूं, वह यह कि नेताओं के पारंपरिक अन्दाज़ में जिन्हें शक्तिशाली नेता समझा जाता है, जो अपने सहयोगियों पर वर्चस्व कायम करने की स्थिति में होते हैं और समूची निर्णय-प्रक्रिया को अपने हाथ में केन्द्रित करते हैं, वही सबसे सफल और प्रशंसनीय होते हैं. हालांकि इस श्रेणी में शामिल कुछ नेता नकारात्मक की तुलना में अधिक सकारात्मक दिखते हैं, किसी भी नेता के हाथ में संकेंद्रित प्रचंड सत्ता भारी गलतियों और प्रचंड तबाही और खूनखराबे का सबब बन सकती है.’(17)’
लोग शक्तिशाली नेता को क्यों पसंद करते हैं?
दुनिया भर में अधिनायकवादी या शक्तिशाली नेताओं के उभार की परिघटना को हम देख सकते हैं. इस अनिश्चित दौर ने ऐसे नेताओं को सामने ला खड़ा किया है जो अनिश्चितता एवं नियंत्रण की कमी की मतदाताओं की चिन्ताओं को दूर करते हैं. हार्वर्ड बिजनेस रिव्यू में प्रकाशित एक पेपर में हेमन्त कक्कर और नीरो सिवानाथन ने इसी उदीयमान परिघटना का विश्लेषण करने की कोशिश की. (18)
‘इवोल्यूशनरी एण्ड सोशल साइकॉलोजी’ पर केन्द्रित अपने अनुसंधान के आधार पर, जो नेतृत्व के लिए वर्चस्व और प्रतिष्ठा जैसे दो वैकल्पिक रास्तों की बात करता है. पहले वह दोनों किस्म के नेतृत्व में फर्क करने की कोशिश करते हैं, जैसे, किस तरह ‘वर्चस्व’ पर आधारित नेतृत्व’ ज्यादा दावेदारी पेश करनेवाला होता है, आत्मविश्वास से परिपूर्ण होता है, नियंत्रित करनेवाला होता है, निर्णायक होता है तथा भयभीत करने वाला होता है’ जबकि प्रतिष्ठा के रास्ते’ पर चलनेवाला नेतृत्व ऐसे व्यक्तियों से सम्बधित होता है जो आदर के पात्र होते हैं, प्रशंसनीय होते हैं और बाकियों द्वारा तारीफ के काबिल होते हैं. उनके मुताबिक ‘एक वर्चस्वशाली नेता की अपील प्रतिष्ठा पर आधारित नेता से अधिक होती है ख़ासकर जब सामाजिक-आर्थिक वातावरण अनिश्चितता से भरा हो. जब यह अस्पष्ट हो कि भविष्य में क्या छिपा है, लोग व्यक्तिगत नियंत्रण नहीं रख पाते और उनमें यह बोध व्याप्त होता है कि वह नतीजों को प्रभावित नहीं कर सकते.’’ उनके मुताबिक
“अनिश्चित काल में वर्चस्वशाली नेता की हिमायत करना एक तरह से अपने निजी नियंत्रण के बोध को बहाल करने का जरिया है, कि वह सरकारों, खुदा और सोपानक्रमों पर भरोसा करें, जिनके पास कथित तौर पर अधिक कर्ता-शक्ति प्रतीत होती है.’
हालांकि, वह इस चेतावनी को रेखांकित करना नहीं भूले कि आर्थिक नियमनों और राजनीतिक नीतियों को लागू करने का प्राधिकार होने के बावजूद यह संभावना बनी रहती है कि उनके शासन में अधिक अराजकता और अनिश्चितता बढ़ेगी जो एक तरह से उनकी अपील को तथा सत्ता पर उनकी पकड़ की मजबूत ही करेगी.
अध्येताओं ने जो बात रखी है उसमें निश्चित ही दम है लेकिन हम देख सकते हैं कि एक मजबूत नेता के प्रति यह सम्मोहन एक तरह से मध्ययुगीन बंधनों से आधुनिक व्यक्ति की आज़ादी से जुड़ा है जहां उसके लिए यह आसान है कि वह बड़े नेता के आगे शीश झुका दे. एरिक फा्रॅम अपनी किताब में बताते हैं :
अपनी किताब ‘फियर आफ फ्रीडम’ में मैंने यह दिखाने की कोशिश की है कि सर्वसत्तावादी आन्दोलन एक तरह से आधुनिक जगत में मनुष्य ने जो आज़ादी हासिल की है उससे मुक्ति की गहरी तड़प को अपील करते हैं; एक तरह से आधुनिक मनुष्य, जो मध्ययुगीन बंधनों से मुक्त हो, वह तर्कशीलता और प्यार पर आधारित सार्थक जीवन की शुरूआत करने के लिए आज़ाद नहीं है, इसलिए वह किसी नेता, नस्ल या राज्य के सामने शरणागत होकर नयी सुरक्षा हासिल करना चाहता है.(19)
एक मजबूत नेता की तलाश को एक तरह से व्यक्ति द्वारा जो ऐसी ताकतों की दया पर निर्भर है जो उसके अपने नियंत्रण के बाहर हैं, जो उसे शक्तिहीन और तुच्छ बनाते हैं. एक नयी शरणगाह ढूंढने की कोशिशों के प्रतिबिम्बन के तौर पर भी देखा जा सकता है, जो उसे प्रणाली द्वारा बढ़ावा दिया गये पार्थक्य और साथ ही साथ समुदाय या सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं से दूरी उसे इस बात की तरफ ढकेलती है कि वह किसी मजबूत नेता की ओर मुड़े जो काम को अंजाम दे सके.
अगर भारत की बात करें तो मजबूत नेता के प्रति, एक डिक्टेटर के प्रति यह सम्मोहन हमेशा ही रहा है, खासकर ऊपरी तबके में, उन दिनों में भी जब समय उतना अनिश्चित नहीं था, उन दिनों में भी जब नव स्वाधीन मुल्क आत्मनिर्भरता और सभी के लिए प्रगति की दिशा में शुरूआत डग भर रहा था. ऐसे लोग जो ‘निर्णायक’, ‘मजबूत’ और ‘देशभक्त’ प्रतीत होना चाहते हैं उनके लिए हिटलर की ऐसी छवि मुफीद जान पड़ती है जिसकी भविष्य की रूपरेखा ‘मालिक प्रजाति’ और ‘‘अन्य’’ के सरल बायनरी पर आधारित थी.
सवाल यह उठता है कि डिक्टेटर की यह चाहत भारत में लोकतंत्र के भविष्य के बारे में क्या चेतावनी देती है?
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Notes and references:
1. Letter from Prison (21June 1919), translated by Hamish Henderson, Edinburgh University Student Publications
2. http://blogs.timesofisrael.com/india-loves-hitler/
3. https://www.theguardian.com/film/filmblog/2010/jun/11/bollywood-film-hitler
4. https://www.thedailybeast.com/hitlers-strange-afterlife-in-india
5. http://www.ipsnews.net/2006/08/culture-hitlers-cafe-serves-up-indias-ugly-side
6. https://www.haaretz.com/opinion/hitlers-hindus-indias-nazi-loving-nationalists-on-the-rise-1.5628532
7. https://www.theglobalist.com/japan-loves-hitler-education-shinzo-abe-hitler/This also keeps open the possibility.
8. https://foreignpolicy.com/2016/10/05/the-developing-world-thinks-hitler-is-underrated-duterte-world-war-ii-nazi-politics/
9. https://www.jpost.com/Opinion/Why-is-Adolf-Hitler-popular-in-India-376622
10. https://www.scribd.com/document/90554070/The-Untouchables-and-the-Pax-Britannica-Dr-B-R-ambedkar
11. https://www.firstpost.com/living/ancient-indias-political-history-is-based-on-violence-historian-upinder-singh-on-new-book-4181671.html
12. scholars like Paul R Brass discount the possibility that these killings were spontaneous which took place during the frenzy of partition, rather he emphasizes that they were also an example of existence of institutionalized riot systems in operation then as well
13. Page vii, Chandra Nandini, ‘The Classic Popular, Amar Chitra Katha, 1967-2007, Yoda Press, 2008
14. https://www.haaretz.com/opinion/hitlers-hindus-indias-nazi-loving-nationalists-on-the-rise-1.5628532
15 http://www.epw.in/journal/2000/04/special-articles/hindutvas-foreign-tie-1930s.html
16. Leaflet from Nazi Propaganda, 1929
17 . Brown, The Myth of a Strong Leader (2014
18. https://hbr.org/2017/08/why-we-prefer-dominant-leaders-in-uncertain-times
19. Page X, The Sane Society, Erich Fromm