युवा कवि आलोचक गिरिराज ने अपनी पसन्द के कहानीकारों पर लिखते रहने का वायदा किया है. शुरुआत प्रभात रंजन से. गिरिराज की समूची उपस्थिति ही साहित्य के लिए आह्लादकारी है. इस शुरुआत में अपने समकाल पर लिखने की जहां जरूरी पहल हुई हैं, वहीं प्रभात के कथा – रहस्य में गहराई से उतरने का आलोचकीय जोखिम भी लिया गया है.
इस रहस्य और कथा – रस को जानने के लिए यह लेख है . प्रभात को बधाई दी जानी चाहिए.
गिरिराज किराडू
प्रभात रंजन के दोनों कहानी संग्रहों – \’जानकीपुल\’ और \’बोलेरो क्लास\’ में – कहानी बार-बार सीतामढ़ी पहुँच जाती है. हर कहानी में राधाकृष्ण गोयनका महाविद्यालय होता है, कोई ना कोई लड़का नोट्स लेने देने के बहाने किसी लड़की से मिलना शुरू करता है, किसी ना किसी पात्र का सरनेम \’मंडल\’ होता है, और \’लिली\’ अगर किसी लड़की का नहीं तो \’वीडियो कोच\’ का नाम होता है और लड़की हो या \’वीडियो कोच\’ इस नाम से एक \’लिली कांड\’ ज़रूर होता है और हर कहानी में नेपाल से जिसके सूत्र जुड़े हों ऐसा \’ब्लू फिल्मों\’ और सेक्स रैकेट का स्कैंडल होता है कई कहानियाँ पढ़ते हुए आपको लगता है आप इस जगह या किरदार से पहले भी मिल चुके हैं. हर कहानी का नैरेटर दिल्ली में रह रहा होता है और उसका सीतामढ़ी -यथार्थ के साथ सम्बन्ध अक्सर अप्रत्यक्ष स्रोतों से रहता है – अखबार से, वहाँ के किसी दिल्ली आ गये परिचित से या अपनी छुट्टियों में होने वाली विजिट से. लेकिन कोई भी कहानी यह नैरेटर खुद पूरी नहीं कहता – वह अखबार/टीवी को और दूसरे किरदारों को भी नैरेटर नियुक्त कर देता है. अखबार/ टीवी को एक नैरेटर के रूप में इस्तेमाल करना प्रभात रंजन की कथा के उन कई नायाब आविष्कारों में से हैं जिन पर अभी तक ध्यान नहीं गया है. यहाँ कथा बिना अखबार/टीवी के नहीं बन सकती – हमारे समकालीन यथार्थ का एक ऐसा सच जिसे इस कथाकार ने बरसों पहले पहचान लिया था. पहचान इसने यह भी लिया था कि हर \’गौण कथा\’ उसके लिए एक मुख्य कथा है लेकिन जिस समाज में वह घटित होती है वह उसके इतने संस्करण निर्मित करता है कि जो एकवचन प्रतिरोध के लिए आवश्यक होता है उसे नष्ट करने का उसके पास सबसे कारगर तरीका यही है कि कथा को किसी एक सच में कहने योग्य ना रहने दो, उसे कई परस्पर विरोधी संस्करणों में बदल दो (यहाँ यह दिलचस्प है कि \’राशोमन इफेक्ट\’ जिसको लेकर पढ़े लिखे लोग इतना अभिभूत रहते आये, भारत जैसे गल्पप्रेमी समाज की अपनी एक युक्ति है किसी सच को न्याय-योग्य ना रहने देने का – क्यूंकि भंते कला/दर्शन के लिए यह इफेक्ट चाहे जितना आकर्षक हो, न्याय की अवधारणा के लिए भी, लेकिन न्याय-प्रणाली के लिए नहीं – न्याय-प्रक्रिया यथार्थ के एक न्यूनतम संभव, सत्य संस्करण के बिना संभव नहीं).
ऐसी बहुत-सी कहानियां हैं इन दो संग्रहों में जो मुझे याद रहती हैं लेकिन कोई भी \’फ्लैशबैक\’ से ज़्यादा नहीं. यह बांके भाई की कथा है जो कभी छात्र नेता हुआ करते थे और कथा के एक नैरेटर \’मैं\’ ने उनको अपना मेंटर समझ कर अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत की. \’मैं\’ का राजनैतिक जीवन एक छात्र आंदोलन के उपद्रव और लूटपाट में बदलने के एक सदमे से ही समाप्त हो जाता है और वह अपने परिवार की परंपरा के मुताबिक डाक्टर आदि ना बनने की भरपाई मैनेजमेंट पास करके एक वाइन कंपनी में नौकरी लगके करता है. यहाँ सब कहानियों की तरह यह नैरेटर भी दिल्ली (फरीदाबाद/गाज़ियाबाद) आ जाता है और यहाँ से कहानी दूसरे नैरेटर सुनाने लगते हैं. लोकप्रिय छात्र नेता बांके भाई उसी आंदोलन के मुख्य आरोपी से हाथ मिला लेते हैं, प्रदेश महामंत्री बन जाते हैं और बाद में वह आरोपी भी सांसद बन जाता है, बांके भाई इस्तीफा देकर जाति-उन्मूलन के लिए काम करने लगते हैं और अपने शिष्य सांसदों और स्टार नेताओं के साथ दुकानदारों के फोटो खिंचवाने का धंधा शुरू कर देते हैं. और नेरेटर को अंततः मिलते हैं उसके प्रिय राष्ट्रीय दैनिक की एक छोटी-से खबर बनके – अपने सांसद शिष्य का स्टिंग आपरेशन करने की असफल कोशिश में गिरफ्तार होते हुए. एक \’आदर्श\’ छात्र नेता से नेताओं को लड़कियां सप्लाई करने वाले बांके बिहारी की बची हुई कहानी हम दैनिक समेत तीन और आवाजों में सुनते हैं याने कुल चार नैरेटर.