(उदय प्रकाश से संतोष अर्श की बातचीत की अंतिम क़िस्त)
(‘दिल्ली की दीवार’में उदय प्रकाश लिखते हैं, ‘और स्थितियाँ ऐसी भी हैं कि पता नहीं कब मैं अपने समय से अचानक अनुपस्थित हो जाऊँ.…यहाँ ऐसा ही होता था. यह किसी नियम जैसा था. यहाँ हर रोज़ आने वाला आदमी अचानक ही एक दिन अनुपस्थित हो जाता और फिर भविष्य में कभी नज़र न आता.’अचानक अनुपस्थित हो जाने का यह भय कितना इंटेंस है. इस भय को भाषा में अभिव्यक्त करना कितना कठिन कार्य है. यह बिना समय को उसके शुद्ध यथार्थ के साथ रचे हुए किया जा सकता है क्या ? लेकिन इतने से ही नहीं, इसके लिए उदय प्रकाश भी होना पड़ता है. इस पूरी बातचीत में हमने उसी इंटेंसिटी के साथ लेखक को विचारवान पाया है.
बातचीत को क़िस्तों में प्रकाशित करने का प्रचलन संभवतः नहीं रहा है. प्रयोग किया गया. यह बातचीत लंबी थी और इसकी लंबाई को भी लोगों ने आलोचनात्मक निगाह से देखा. वे लेखक ही थे. तब मुझे यह कहना चाहिए कि हिंदी की साहित्यिक दुनिया में यह प्रवृत्ति तेज़ी से बढ़ी है कि जो प्रस्तुत किया गया है रचना के रूप में,वे समझते हैं, जैसे वह लेखकों के लिए ही है. हिंदी के लेखक इस अजगरी गुंजलक से निकलने की जगह इसमें और कसते चले जा रहे हैं. यह बातचीत केवल लेखकों के लिए नहीं है. यह उदय प्रकाश के पाठकों के लिए भी है और सामान्य पाठकों के लिए भी. और सबसे ज़्यादा तो हिंदी के उन विद्यार्थियों के लिए है जो पूरे देश के विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में (हिंदीय कुंठाओं के साथ) हिंदी पढ़ रहे हैं,उसमें शोध आदि कर रहे हैं. इसलिए इस बातचीत की भाषा और इसकी लंबाई पर आने वाले लेखकीय सुझावों को ख़ारिज़ किया जाता है. यह भी किसी तरह की अहमन्यता या दंभ के वशीभूत हो कर नहीं,इस बातचीत की हुई सराहना के बल पर कहा जा रहा है. और वास्तव में यह बातचीत कोई पतलून नहीं है जिसे अख़बारों और पत्रिकाओं की तरह क़तर-ब्योंत कर निक्कर बना दिया जाय,तर्क दे कर कि जो ढकना है,वो तो ढक ही जा रहा है. यह संवाद हरा पेड़ है और पेड़ को काट-छाँट कर पौधा नहीं बनाया जा सकता क्योंकि उसमें जीवन है. लेखक के विचारों में जीवन की दीप्ति होती है.
मेरी दृष्टि में यह बातचीत हिंदी साहित्येतिहास में एक कौंध की तरह होगी. क्योंकि यह उस समय की है,जब लेखक मारे जा रहे थे,या मर चुके थे. और बहुत कुछ ऐसा घट रहा था,जिसे हम,इस समय के लोग जानते हैं. अब इस बातचीत का अंत होता है,यद्यपि यह अंत नहीं है. और यह पूरी भी नहीं है,इसमें से कुछ मैंने बचा लिया है. ज़ाहिर है अपने लिए. इस युवा-वरिष्ठ संवाद में लोगों की रुचि देखते ही बनी. वास्तव में यह सारी प्रशंसा लेखक की ही है,उसका उसको अर्पण. रुचि लेने वालों में मेरे असाहित्यिक मित्र मुकेश जैसे व्यक्ति भी थे,जिन्होंने ग्वालियर से दिल्ली राजधानी परिक्षेत्र,मेरे निवास तक आ कर इस अंतिम क़िस्त का कुछ अंश टाइप भी किया. उनका आभार. तकनीकी सहयोग देने और इस बातचीत में अपना धैर्य दिखाने वाली पूर्णिमा कुमार का आभार. लेखक की पत्नी कुमकुम जी का आभार. संतोष अर्श का आभार कि उन्होंने अपनी टुच्ची व्यस्तताओं और माइल्ड बैक-पेन में भी इस बातचीत को अपने अधैर्य से टकराकर तैयार कर लिया,जिसमें साल भर की देर हो गई.- संतोष अर्श)
उदय प्रकाश : (पिछले उत्तर से आगे)…और मुझे लगता है कि गाँधी ने जिससे प्रेरणा ली…शायद आप जानते ही होंगे वो कौन था अमेरिकन ? एट्टीन्थ सेंचुरी का ? …बहुत प्रसिद्ध है. मैंने ख़ूब उसके बारे मे पढ़ा है….हु वाज़ द मेन….! जिससे ताल्सताय ने भी लिया. गाँधी ने भी लिया. सभी ने लिया. वो…आप सब जानते हैं ! मैं भी जानता हूँ.
संतोष अर्श : मुझे ऐसा कोई याद नहीं आ रहा !!
उदय प्रकाश :वो शहर छोड़ कर चला गया था. जंगल में रहने लगा था. बल्कि मैपोग्राफ़ी… पहली मैपिंग उसी ने शुरू की थी. अनशन उसने शुरू किया. सत्याग्रह उसने शुरू किया. सिविल डिसओबेडियन्स उसने शुरू किया. बहुत सारी चीज़ें हैं, वहाँ से,जो उसी की हैं. ताल्सताय उससे बहुत प्रभावित थे. और गाँधी भी थे. और दुनिया में काफ़ी लोगों पर असर रहा उसका. और उसका नाम…?(सोचते हुए, किन्तु याद नहीं आ रहा) (हेनरी डेविड थोरो) उसका बहुत बड़ा इम्पैक्ट है. तो फ़िलॉसफी पर ज़्यादा इम्पैक्ट है उसका. …और साहित्य जो है, फ़िलॉसफ़ी का एक बहुत क़रीबी हिस्सा है. बिना दर्शन के,बिना फ़िलॉसफ़ी के,बिना व्यूज़ के…जिसे आप वर्ड-व्यू कहते हैं,या उसका दूसरा नाम आइडियोलॉजी भी दिया गया है…तो बिना उसके साहित्य होता नहीं है. अगर हम रिड्यूस करके विचार कह देते हैं. लेकिन…विचार भी तो फ़िलॉसफ़ी है. और बिना दर्शन के, बड़ा मुश्किल है साहित्य रच पाना. तो जब आप एक थॉट सिस्टम बनाते हैं, तो फ़िलॉसफ़ी बनती है. वरना फिर तो वही फ़ेसबुक हो जाता है. यानी कुछ यहाँ से,कुछ इधर-उधर से…उससे थॉट सिस्टम बनता नहीं है. तो मेरे ख़याल से साहित्यकार में यह होता है (सोचते हुए) जैसे बीच में जो एब्सर्डिटी के मूवमेंट आए, अकविता आई या नंगी कविता आई,भूखी पीढ़ी आई. तो एब्सर्ड थे वो.
उससे कोई थॉट सिस्टम नहीं बन सका. अब जैसे स्त्री के बारे में है…अकविता का दौर बहुत भयानक दौर है. मतलब इतना ज़्यादा एंटी-वीमेन…है न ! वो नहीं पाएंगे आप. लेकिन उसी में राजकमल चौधरी भी हैं. उस समय कुछ ऐसे भी हैं जो उस समय की फ्यूडल एरिस्टोक्रेसी थी…उस समय का जो कुछ फ़्यूडल,सामंती, अभिजात था,उसको भी तोड़ा. तो दोहरी भूमिका उसकी रही. गिंसबर्ग जैसे !! गिंसबर्ग लेकिन उतने स्त्री-विरोधी नहीं थे. क्योंकि यूरोप में शिक्षा ज़्यादा बढ़ी और आधुनिकीकरण भी हुआ. यूरोप उतना स्त्री-विरोधी नहीं हुआ. जितना हमारे…ख़ास तौर पर जो सेमेटिक, इधर के…जो लोग थे,मध्य एशिया से लेकर के…हमारे इधर तक. यहाँ जितना स्त्री-विरोधी रहा, उतना वहाँ नहीं रहा. लेकिन वहाँ भी…! ट्रंप वहीं आया, ये भी आप देखिए. तो…मुझे क्या लगता है संतोष जी… कि कहते हैं न एक समन्वित….(सोचते हुए वाक्य अधूरा). मेरी एक कहानी है, आप ज़रूर पढ़िए. आप उसे ज़्यादा समझेंगे. पर्यावरण पर ही है,लेकिन वो लगेगा नहीं कि पर्यावरण पर है.
उदय प्रकाश :उसका नाम है छतरियाँ.
संतोष अर्श : हाँ पढ़ी है ! उसमें जंगल की बायो-डाइवर्सिटी जैसा है कुछ,और प्रेम है.
उदय प्रकाश :उसमें जो लड़की है और जो वो लड़का है, और वो जो जंगल है,जहाँ वो भटकते हुए जाते हैं. वहाँ पर तरह-तरह के कीड़े हैं. इसका अंत मैंने दो तरह से किया है. फिर वो जो लड़की है…, लड़की दरअसल नेचर यानी प्रकृति है. और उसके प्रति जो जिज्ञासा है,उस लड़की की, जो क्युरोसिटी है… वह अकिंचन है. और लड़की उस एज़ में है जो वुमेन नहीं बनी है. वो लगभग वयः संधि में है. और लड़का भी उसी एज़ का है. कहीं-न-कहीं अडोलोसेंस है. एक तरह की अबोधता दोनों में है. यानी दोनों के व्यूज़ नहीं बने हैं. और लड़की का जहाँ अंत होता है,जहाँ लड़का उसके हाथ में वह सबसे अनमोल कीड़ा,जो सबसे आश्चर्यजनक है,जिसको खोलते ही कई रंगों की रोशनियाँ फूटती हैं. तो वह सोचता है कि इससे बड़ा गिफ़्ट तो मैं लड़की को दे नहीं सकता. लड़की ने वो कभी देखा नहीं है,उसके अनुभव में वो है नहीं. लड़की अर्बन है. वो शहर से आई है. तो वह जो बहुत प्रिय है उस लड़के को…! वो उस कीड़े से डर जाती है. बज़ाय खुश होने के,वो उससे डर जाती है. भयभीत हो जाती है. तो कहीं-न-कहीं दोनों में एक बाइनरी है.
(बीच में बिज़नेस स्टैंडर्ड के पत्रकार सत्येंद्र पीएस का कॉल आया है,संतोष अर्श लेखक से क्षमा माँगते हुए सत्येंद्र से बात करते हैं. सत्येंद्र पीएस को कैंसर है और उन्हीं के साथ लेखक आज दिन भर किसी कैंसर अस्पताल में था,जिसका बातचीत के प्रारम्भ में उसने उल्लेख भी किया है. सत्येंद्र पीएस इस बातचीत में शामिल होना चाहते थे,किन्तु थक जाने के कारण नहीं आ सके.)
संतोष अर्श : क्या हिंदी समाज पर्यावरणवादी समाज नहीं है ?
उदय प्रकाश :इसका उत्तर आप अच्छे से दे पाएंगे.
संतोष अर्श : आप क्या कहेंगे ?
उदय प्रकाश :मुझे इधर-उधर जो बीच में लगता रहा,मैं कहता रहा. …कि जो प्रत्यक्ष संबंध है प्रकृति से,वो लगभग टूटता सा जा रहा है. और भले ही हमारे यहाँ परंपरा रही हो आरण्यक की और सुश्रुत की और तमाम…मेघदूतम् की. भरा पड़ा है साहित्य. यहाँ ये सोचिए आप कि,प्रकृति ही प्रकृति है. और पूरा-का-पूरा रीतिकाल जो है,उसमें बिना प्रकृति-वर्णन के कोई कविता पूरी ही नहीं होती थी. और छायावाद के समय में बहुत प्रगति है. लेकिन समस्या क्या है कि इतना सब होने के बाद भी सब उसी तरह से है, जैसे महान काल-चिंतन हो रहा है लेकिन इतिहास नहीं है. यानी आप की प्रकृति का जो नोमेनक्लेचर है,जो उसका वर्गीकरण है,उसकी जो वैज्ञानिक… एक तरह से शिनाख़्तगी है,वो किसने की ?हमने नहीं की ? पता लगा कि वो डच आए और आ करके उन्होंने बाक़ायदा बोटैनिकल स्टडीज़ शुरू की. फिर पूरा-का-पूरा आपकी बॉटनी का आपके पास इतना बड़ा आरण्यक है. इससे बड़ा ग्रंथ नहीं हो सकता है,कि कितने तरह के पौधे हैं,किसमें क्या-क्या औषधीय गुण हैं, कौन कहाँ से आया है, एक-एक फूल किस देवता को प्रिय है,सब मिल जाएगा. लेकिन फूल किस क्लासीफ़िकेशन में आता है ?किस परिवार का है ? तो ये आपको कहीं नहीं मिलेगा. तो जिसको वैज्ञानिक चिंतन कहते हैं,वह कितना है ? नोमेनक्लेचर कितना है ?
संतोष अर्श : (बीच में ही बोलते हुए) प्रकृति-प्रेम पर्यावरणवाद नहीं है !
उदय प्रकाश :आप सही कह रहे हैं. (हँसते हुए) अब जैसे आम ही है. तो मैं जहाँ का हूँ, अमरकंटक का… अमरकंटक जो है वो कालिदास के मेघदूतम् में आम्रकूट है. आम्रकूट ! कूट मतलब जंगल,वन. तमाम…आज भी आमों का जंगल है. वो होते थे बनैले आम. जंगली आम. छोटे-छोटे, खट्टे-मीठे. बंदर वहाँ ख़ूब रहते थे,लंगूर. लेकिन वे आम एक ख़ास ऋतु में होते थे और ख़त्म हो जाते थे. खाने लायक नहीं थे,बड़े नहीं थे. तो किसने उनको बड़ा किया ?क़लम के द्वारा, ग्राफ्टिंग के द्वारा…? ग्राफ्टिंग किसने की ? तो पता लगा कि जब मुग़ल आए तो उन्होंने ग्राफ्टिंग शुरू की. टेक्नीक वो लेकर आए. क़लमी आम जिसे कहते हैं,वो बाबर के समय में आया. फिर पता चलता है कि बाबर ने तोतों की पहचान की. कितने तरह के तोते हैं भारत में? (हँसते हुए) आप साहित्य पढ़ेंगे, तो एक ही तोता है. वही तोता हर जगह है,जबकि वास्तव मे आप देखेंगे तो कई तरह के तोते हैं.
संतोष अर्श : इस समय जहाँ मैं हूँ,वहाँ गागरोनी तोते हैं. जो गागरोन से उड़ कर आते हैं गाँधीनगर तक. ये छोटे होते हैं. हमारे अवध में इन्हें टुइयाँ कहा जाता है.
उदय प्रकाश : अच्छा हाँ ! हमारे यहाँ भी होते हैं. तो…इस तरह से स्टडीज़ करना…अब सालिम अली के पहले, बताइये हमारे यहाँ कोई पक्षी-विज्ञान था क्या ?कितना ज्ञान था चिड़ियों के बारे में?इस तरह से पक्षियों को लिस्ट करना असाधारण है. तो यह काम नहीं हो पाया. कुछ-न-कुछ…जैसे मैंने बताया न कि काल-चिंतन बहुत हुआ कि ब्रह्मा की एक पलक झपकने में कितने युग बीत जाते हैं. युग क्या है,संवत्सर क्या है ?(ठहाका लगाकर) ये ख़ूब हुआ है. लेकिन हिस्ट्री नहीं है.
संतोष अर्श : हम लोग पर्यावरणवाद से पूर्व ‘वारेन हेंस्टिंग्ज़ का साँड़’पर थे !
उदय प्रकाश:हाँ…हाँ ! अब जैसे भारत है. कहानी में मैंने लिखा भी है कि भारत एक अवधारणा थी. एक कान्सेप्ट था. आइडिया ऑफ इंडिया. इंडिया था कहाँ ?फिर अंग्रेज़ आए उन्होंने आके मैपिंग करवायी. मुग़लों ने भी करवायी थी लेकिन मुग़लों ने रेवेन्यू के हिसाब से परगनों में करवायी. देखिये एक पूरी पॉलिटिकल मैपिंग होती है. भारत में वो नहीं थी. वो उधर से पश्चिम से आए. उन्होंने बाक़ायदा नापा. बल्कि वो ‘चोखी’जो है, वो कहती है कि तुमने इसका नक़्शा बना लिया है मतलब तुम इसको नष्ट करोगे. क्योंकि उसके पहले हमारा कोई नक़्शा नहीं था. और हम बहुत बड़े थे. और वो उदाहरण भी देती है कि जो तांत्रिक होते हैं वो जब किसी को मारना होता है,तो उसका एक पुतला बनाते हैं,फिर मंत्र-वंत्र पढ़के उसको काटते जाते हैं. तो वो कहती है कि तुम यही करने जा रहे हो. तुमने इसका पुतला बना लिया है,अब तुम इसको काटोगे. चोखी फिर सुसाइड करती है. ‘वारेन हेंस्टिंग्ज़ का साँड़’ जो है, वो दरअसल कॉलोनियलाइज़ेशन के लिए है. इसकी पूरी जो प्रक्रिया है उसको समझने की कोशिश है. जैसे अभी मैं कह रहा हूँ कि हमेशा चाहे वो फ़ासिज़्म हो, चाहे कॉलोनियलाइज़ेशन हो,वो हमेशा कल्चर के थ्रू आते हैं. संस्कृति ही उनका दरवाज़ा होता है. तो ये बहुत संस्कृति से प्रेम करने वाले होते हैं. और जब कोई बहुत संस्कृति से प्रेम करे तब वो मामला संदेह वाला हो जाता है. और यह कहा है किसने..?मतलब हम लोग तो इसे अपने अनुभव से जानते हैं लेकिन आप उसको याद करिए, सैम्युल पी. हंटिंग्टन को ! ये उसकी किताब थी ‘क्लैशेज़ ऑफ सिविलाइज़ेशंस’! तो उसमें उसने कहा है,कि यह जो समय है,आने वाला, यह सभ्यताओं के टकराव का समय होगा. और संस्कृति ही उसका केंद्र होगी. और आज आप देख रहे हैं पूरा-का-पूरा सिविलाइज़ेशन कॉन्फ़्लिक्ट है. इसमें उसने लिस्ट बनाई है, पाँच,छह, सात जो ख़तरे हो सकते हैं अमेरिका के लिए… वो तो पेंटागन के लिए स्टडी कर रहा था. तो उसने एक जगह ये भी कहा है, जो सिनिक-इंडिक नेक्सस है,ये बहुत ख़तरनाक है.
सिनिक-इंडिक होता है,चाइना और इंडिया. उसका कहना है कि इनका दो हज़ार साल से अगर दो महीने छोड़ दिये जाएँ सन् बासठ के, कहीं कोई युद्ध नहीं हुआ है. ये कहीं एक हुए तो ये सबसे बड़ा ख़तरा है. वन ऑफ द बिगेस्ट डेंज़र. …ये न होने पाये. तो इसके लिए सारे एफ़र्ट्स हैं. जैसे इस्लाम के बारे में उसने लिखा है. तो…वह किताब संस्कृति को ही केंद्र में रखती है. और इस समय सबसे बड़ा इनवेस्टमेंट कल्चर में है. मतलब वार से ज़्यादा इन्वेस्टमेंट कल्चर में है. और ये फ़ाइंडिंग्स हैं,आप डाटा उठा कर देख लीजिए कि आर्म्स में जितना इन्वेस्टमेंट है,उससे कम इन्वेस्टमेंट ग्लैमर में नहीं है. यानी लगभग वही टेक्नॉलॉजी जो…जो सेटेलाइट टेक्नॉलॉजी है,जो अर्थ का सर्वे करती है,वही टेक्नॉलॉजी आपकी स्किन का सर्वे करती है. तो ब्यूटी में इस्तेमाल होती है. सेम टेक्नॉलॉजी. तो स्किन को कैसे टोन किया जाय,कैसे स्किन चमकदार बनाई जाय,कैसे क्या किया जाय,इसकी टेक्नॉलॉजी वही टेक्नॉलॉजी है जो अर्थ सर्फ़ेस कर रही है. तो ये बातें बहुत सही हैं. …
मैंने कहा न की नाइंटी में दोनों चीज़ें बदली हैं. कैपिटल बदला है, कैपिटल का रोल बदला और टेक्नॉलॉजी बदली. जब हम कहते हैं न कि आवारा पूँजी आई… क्यों कहते हैं ?इसलिए कहते हैं कि अस्सी प्रतिशत कैपिटल फ्री हो गया. मतलब बिलकुल मुक्त हो गया और मैंने आप से कहा था कि जो ‘दिल्ली की दीवार’ है,उसमें जो काला धन है,वो फ्री कैपिटल है. वो कहीं अकाउंटेड नहीं है. उसको आप जहाँ चाहे वहाँ उड़ा सकते हैं. क्योंकि वो कहीं नहीं है. उसका कहीं ज़िक्र नहीं है. तो यह जो मुक्त कैपिटल है,यह लोगों को पल भर में करोड़पति बना सकता है. लेकिन जो करोड़पति बनता है,उसकी ट्रेज़डी क्या है ?वो फॉलो नहीं करता उसको. बस वो दिखा देता है कि करोड़पति बन गए हैं. ये टकराहटें हैं दो तरह के विचारों की. एक हमारे अपने ही साहित्य के समाज के,मनुष्यता के विचार हैं और दूसरी तरफ़ वो हैं,जो ग्रोथ चाहते हैं,वैल्थ चाहते हैं. तो ये विचारो का संघर्ष है. आपको बताऊँ, आपने नहीं पढ़ा होगा लेकिन अगर आप पढ़ना चाहें तो बहुत पहले एक आदिवासी लेखक,नाटककार, अभी है वो, उसका नाम है टॉमसन हाइवे. उसने दो नाटक लिखे उस समय जब ये सब शुरू हो रहा था, अट्ठासी,नवासी वाला.
एक उसका था…‘रिज़ सिस्टर्स’और दूसरा था, ‘ड्राइ लिप्स ओटा मूव टु कापुज़केसिंग’तो वो मैंने पढ़ा था,क्योंकि वो मुझको उन्हीं रॉबर्ट ह्यूक्सटड ने दिये थे जिन्होंने मुद्राराक्षस के उपन्यास ‘दंडविधान’का अनुवाद किया था. उन्होंने कहा था कि आप इनको ज़रूर पढ़ें और मैंने दोनों को पढ़ा. वो फ़िल्दी लैंग्वेज़ में लिखा गया है. गाली-गलौज़ की भाषा में… स्लैंग में लिखा है. दोनों नाटक. और रिज़ मतलब रिज़र्व…जैसे हमारे यहाँ रिज़र्वेशन होता है वैसे ही कनाडा में भी, यूरोप में जो आदिवासी हैं. तेरह प्रतिशत आदिवासी हैं कनाडा में. तो वे रिज़ कहे जाते हैं. रिज़ सिस्टर्स…यानी की तीन बहनें…. तीन आदिवासी बहनें. उनकी कहानी है. तो आदिवासी बहनें जो हैं वो शहर में आ जाती हैं, न्यूयॉर्क के किसी स्लम में आ जाती हैं,तो करें क्या वो ? ऑड जॉब करती हैं. जैसे घर की सफ़ाई का काम, कभी अंडे बेच दिये,कभी थोड़ा प्रास्टीट्यूशन कर लिया. कभी चोरी कर ली,कभी किसी का मॉल उड़ा के ले गए….. इस तरह के काम वो तीनों सिस्टर्स करती रहती हैं. और उनका लक्ष्य होता है इसी इकोनॉमी का…कि हम अमीर बनें. तो न्यूयॉर्क में एक खेल होता है. …तंबोला ! उसे एक पर्व की तरह कुछ ख़ास दिन मनाया जाता है,पंद्रह दिन तक. सब लोग वहाँ आयें और तंबोला खेलें. वहाँ जो जीतेगा वो सिकंदर होगा.
हू विल बिकम मिलेनियर वाला…कौन बनेगा करोड़पति टाइप. वो बहनें जो साल भर इकट्ठा करती हैं…वो सिर्फ़ तीन बहनें नहीं हैं. बहुत सी औरतें हैं. वो पूरा एक कारवाँ चलता है. तंबोला बहुत बड़े उत्सव की तरह मनाते हैं. जैसे मेले में जाते हैं. गाते-बजाते हैं. और खेलते हैं. हर बार वो सबकुछ हार कर आते हैं. हर बार कंगाल हो कर आते हैं और फिर से शुरू करते हैं अगले साल,वही स्वप्न देखते हुए. यह जो एक गैंबलिंग का,लॉटरी का…अनिश्चितता में अमीर बन जाने का जो सपना दिया,वो इसी इकोनॉमी ने दिया. क्योंकि श्रम से पूरी तरह से मुक्त हो कर, बिना मेहनत के आप अमीर बन सकते हैं. और आप देखते भी हैं कि हाँ लोग बन रहे हैं. तो दरअसल ‘दिल्ली की दीवार’ को आप पढ़ेंगे बहुत ध्यान से, तो ये जो न्यू इकोनॉमी है,इसने मनुष्य को जो झूठे सपने दिये हैं और जो अमीर बना, उसके साथ जो त्रासदियाँ हुईं ये उसकी मार्मिक कहानी है. मतलब ये सिर्फ़ अर्थ नहीं है,अर्थशास्त्र नहीं है.
क्योंकि कोई भी जो सोशल चेंज़ होगा,सामाजिक परिवर्तन होगा…, जैसे प्रेमचंद क्यों महान बने?उसका कारण ये है कि…जैसे कर्मभूमि ही है या गोदान ही जिसका आपने ज़िक्र किया था,तो कहीं-न-कहीं ये जो मशीनीकरण है, औद्योगीकरण है, पूँजी का जो रोल है… जैसे मेरा कहना था कि जो महाजन है,साहूकार है, प्रेमचंद के समय में,अब मेरे लिए वो बैंकिंग सिस्टम है. कोई भी प्रधानमंत्री आएगा,फ़ाइनेंस मिनिस्टर आएगा,कहेगा कि हम इतनी सब्सिडी दे रहे हैं. हमारे रुरल बैंक्स में इतना परसेंट किसानों के लिए है. हर कोई कहेगा. लेकिन आप जाकर देखिये, जहाँ-जहाँ रूरल बैंक्स हैं,सबसे ज्यादा सुसाइड वहीं हो रहे हैं. वहाँ वो साहूकार नहीं आता है. अब वो एक सिस्टम है. वहाँ एक मुस्कराता हुआ लड़का बैठा है. वह बहुत अच्छी बातें बोलता है. एक तरह से बहुत ही सिविलाइज़्ड है. लेकिन पता नहीं क्यों ? लोग सुसाइड कर रहे हैं. बल्कि इसकी जो…पी. साईंनाथ को आपने पढ़ा ही है. उसने लिखा है कि जिस-जिस हफ़्ते ईनाडु अख़बार में नीलामी के विज्ञापन छपे हैं,उस-उस हफ़्ते किसानों ने सबसे ज़्यादा आत्महत्या की है. आपके इसी बैंकिंग सिस्टम ने ये हत्याएँ पैदा की हैं.
संतोष अर्श : भारत से बाहर वर्तमान हिंदी साहित्य की क्या स्थिति है ?
उदय प्रकाश : कोई कुछ नहीं जानता. कहीं कुछ नहीं है. किसी का कोई नाम नहीं जानता. भारत की दूसरी भाषाओं का कुछ है. जैसे मराठी का है. दिलीप चित्रे उनमें से एक नाम है.
संतोष अर्श : ‘मोहन दास’की लफ़्ज़ पेशगी में आपने ज्योतिबा फुले को कोट किया है. उससे पहले की आपकी रचनाओं में ऐसे किसी विचारक-सुधारक का उल्लेख नहीं है. अंबेडकर आपकी रचनाओं में क्यों नहीं हैं ?
उदय प्रकाश :नहीं ! हैं न !! आप वो…‘अनावरण’पढ़िए. उसमें हैं.
संतोष अर्श : ये राजेन्द्र यादव जी के विमर्शों का प्रभाव है,या आप को लगा कि सचमुच मार्क्सवादियों को जाति तक पहुँचने,उस पर बात करने में देर हो गयी ?
उदय प्रकाश: हाँ ये लगा ! लेकिन देखिये,ये सिक्स्टी एट से ही मेरी कहानियों में आ गया था. 1968 में एक कॉन्फ्रेंस हुई थी केरल में, इंडिया स्टेट एंड सोसाइटी. सेमिनार था. वह बहुत बड़ा सेमिनार था. इंडिया स्टेट एंड सोसाइटी. उस पर किताब भी आई थी बाद में. पीपीएच से आई थी,कहीं—न-कहीं मिल जाएगी आपको. तो उसमें जो पेपर्स पढ़े गए थे,उसमें एक पेपर था ए.के. रॉय का. वह ‘कास्ट एंड आक्युपेशन’इस पर था. यानी कास्ट एंड क्लास. और वह पहला पेपर था जिसने कास्ट को आक्युपेशनल कैटेगरी माना था. और उसने उसमें कहा था कि जब तक हम इसको नहीं समझेंगे,तब तक हम क्लास को नहीं समझ पाएंगे. और उन्होंने इंडियन सोसाइटी और जो दूसरी एशियन सोसाइटीज़ हैं उसमें फ़र्क़ भी किया था. उनको बाद में निकाल दिया गया पार्टी से और सिक्स्टी फ़ोर में कम्युनिस्ट पार्टी भी टूट गई और दो भागों में बंट गई. सीपीआई और सीपीएम हो गई. वह मुझे हमेशा…तब से मुझे हांट करता था.
फिर क्या था ?हम लोग तो एक्टिविस्ट थे ! एक लंबे समय तक. मैं खुद तब नहीं समझ पाता था. लेकिन जैसे-जैसे मैच्योरिटी आती गई मैं पाता गया कि यार ये तो कुछ कास्ट के लोग हैं जो ऊपर तक चले जाते हैं. कुछ ऐसे हैं जो गायब ही हो जाते हैं (हँसी फूटी). लेफ़्ट में भी यही हाल था. फिर लगने लगा कि ये पूरा-का-पूरा एक कास्टिस्ट डेन है. तो फिर मोहभंग होना शुरू हुआ. मैं अभी भी कहता हूँ कि जब तक आप कास्ट को,कास्ट सिस्टम को एड्रेस नहीं करेंगे,तब तक आप…मैं तो नहीं मानूँगा कि सिर्फ़ पोलिटिकल लाइन या पोलिटिकल आइडियोलॉजी के ज़रिये आप कुछ कर लें. ऐसा नहीं हो सकता. तो अब जैसे वो है न…अब उसी दौरान मैंने वो किताब पढ़ी, ‘गॉड दैट फ़ेल्ड’. और ग्यारह लेखक,बड़े-बड़े लेखक पॉल एलुआर से लेकर तमाम जो मार्क्सवादी लेखक थे वो आए और उन्होंने बत्तीस में, उन्नीस सौ बत्तीस में पाया कि ये तो गड़बड़ है. सोशलिस्ट स्टेट. और उनकी ख़ामियाँ उनको दिखाई पड़ने लगीं. उन्होंने वार्न करना शुरू किया. उसमें एक विलियम राइट का भी लेख है. वो मुझको बहुत पसंद आया. बहुत मज़ा आया पढ़ने में उसको. तो उसने पूरा वर्णन किया है कि कैसे उसने स्टूडेंट एज़ में…लेफ़्ट सर्किल में शामिल हुआ फिर उसने ये किया…कम्युनिस्ट हुआ. ये हुआ,वो हुआ सब. फिर वो बताता है एक जगह कि वो ब्लैक था, ‘नीग्रो’. कहता है कि ब्लैक तो थे ही नहीं,बहुत कम थे. तो जो ब्लैक आते थे उनको बहुत आगे-आगे करते थे. कि देखो हमारे साथ ब्लैक्स भी हैं.
तो उनके लिए कुछ स्पेशल ट्रीटमेंट होता था जैसे हमारे यहाँ कोई मुसलमान आ जाए या कोई दलित आ जाए तो उसको बहुत आगे-आगे रखते हैं (हँसते हुए). तो उसको जान लिया उसने. उसका अंतिम क्वेश्चन यही है,आई जस्ट वांट टु आस्क वन क्वेश्चन व्हाइ देअर आर नो ब्लैक्स इन अमेरिकन लेफ़्ट सर्किल ? व्हाइ एन ओनली व्हाइट सर्किल ? गोरे ही क्यों कम्युनिस्ट होते हैं ? वही सवाल यहाँ था कि सवर्ण जातियाँ ही क्यों कम्युनिस्ट होती हैं ?और ये मैंने कहा भी और आप भी शायद पाएंगे कि, ‘टेपचू’में भी है ये. ‘टेपचू’मुसलमान है और उसका फ़ादर भी ट्रांसजेंडर है. अब भी वो नाचता गाता है और लगभग…ही इज़ नॉट अ मस्क्युलिन. तो मुझे लगता है कि सबाल्टर्न की शुरुआत तो ‘टेपचू’से ही हो गई. ये सेवेण्टी सिक्स में हो गई थी. और वो आप देखेंगे कि ‘टेपचू’किससे लड़ता है ? गजाधर शर्मा से !! तो उसको ऑपरेशन थियेटर में…तो वो तो क्रिश्चन है डॉक्टर. जिससे वो कहता है कि इन लोगों ने मुझे मारने की कोशिश की. तो इस तरह की वो कहानी थी. तो ये मत सोचिए कि वो मैं डेलिबरेटिली लिख रहा था. क्योंकि सोच-समझ कर कोई नहीं लिखता. आपकी चेतना में जो चीज़ें होती हैं,वो बहुत सारी चीजों का एक तरह से सम्मिश्रण होती हैं. और वो जब आप लिखते हैं तो सामने आती हैं.
जैसे ‘पीली छतरी वाली लड़की’लिख रहा था… तो ये सच है कि मेरे पास समय नहीं था. मैं शूटिंग में लगा हुआ था. एक प्रोजेक्ट मिला हुआ था. और राजेंद्र (यादव) जी बहुत मानते थे. और उन्होंने धमकाना शुरू कर दिया कि नहीं लिखना ही लिखना है. तो मैंने कहा (हँसते हुए) संभव नहीं है. तो उन्होंने कहा,यार किसी तरह भी लिख कर दे दो. तो मैंने एक छोटी सी शुरुआत की थी. मैंने कहा था कि लिख दूँगा. लव स्टोरी है,ख़त्म कर दूँगा. और वो ख़त्म होने को ही नहीं आ रही थी. और वो पाँचवे भाग पर भी नहीं चाहते थे कि इसे ख़त्म किया जाय. मुझे लगा कि…इतना बवाल हो गया उस पर कि मेरे खिलाफ़ तमाम चीज़ें छपने लगीं कि,वो पागल कुत्ता है,उसे ढेले मारो ! ये,वो. और वो सारे ऑफ़िसर्स भी टूट पड़े–विभूति नारायण राय से लेकर तमाम,सभी लोग. पूरा हिंदी का जो सत्ता-तंत्र है. मेरे पैंतीस असाइनमेंट कैंसल हुए. तो बहुत ख़राब स्थिति हो गई थी. डिप्रेशन होना शुरू हो गया. तो आप ये मान के चलिये कि बहुत डैक्रोनियन लैंग्वेज़ है. इस हिंदी में लिखना आसान नहीं है.
और हिंदी में लिख कर जो महान कवि बनते हैं न,यक़ीन मानिए वो कौन हैं ?जस्ट ट्राइ टु क्वेश्चन इट एंड फ़ाइंड इट अप ! तो उन सब को जानने के बाद मुझे लगा कि…अब आप ये देखिये कि कहाँ से छपी है ?पेंग्विन ने उसको पंप आउट किया. लेकिन पेंग्विन से छपी. फिर उसे निकाला गया. कुछ किताबों के साथ,है न ! लेकिन अब वो येल में छपी और येल यूनिवर्सिटी इस समय मुझे लगता है कि दुनिया की सर्वोत्तम यूनिवर्सिटी है,तो वह वर्ल्ड रैंकिंग के साथ छपती है. और किसी का वहाँ से कुछ नहीं छपा है. किसी की भी किताबें नहीं हैं. और वहाँ की सेलिब्रेटेड बुक है. आपको न्यूयॉर्क रिव्यू ऑफ बुक्स में दिखा दूँगा कि उसने पचास साल के वर्ल्ड लिट्रेचर के जो दस क्लासिक्स चुने,तो उन दस में से एक है वो. वही ‘पीली छतरी वाली लड़की’जिसको यहाँ हँसी और मज़ाक बनाया गया.
फिर जर्मनी में मैग्ज़िमम अवार्ड ट्रांसलेशन के ‘पीली छतरी वाली लड़की’ने पाये. तो एप्रिशियेटिंग अ वर्क ऑफ आर्ट…इन अ लैंग्वेज़ ! ये बहुत निर्भर करता है कि उस भाषा का स्वामी कौन है ?हू ओंस द लैंग्वेज़ ?मैं जिस भाषा में लिखता हूँ…मैं तो कहता हूँ कि मैं…स्वामी नहीं,ट्राइबल हूँ इसका. और जैसे आदिवासियों से जल,जंगल, ज़मीन छीनी जा रही है,वैसे मेरी भाषा ही मुझसे छीन ली गई. तो यह एहसास होना…! और मैं जानता हूँ कि मैं कभी इस भाषा का मानक नहीं बन सकता. उसका कारण यही है कि जो डिबेट चलाई थी इकोनॉमिक टाइम्स ने…तो उन्होंने दो लोगों को चुना था.
हिंदी वर्सेज़ अंग्रेज़ी डिबेट था. अब ये सोचिए कि उन्होंने हरीश त्रिवेदी को रखा उधर और मुझको रखा इधर. मैं हिंदी का लेखक और हरीश त्रिवेदी अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर. तो सामान्य लोगों को ये लगा कि दोनों अपनी-अपनी भाषा के बौद्धिक व्यक्ति हैं दोनों अपनी भाषा के बारे में कुछ कहेंगे. तो मज़े की बात ये है कि उसमें इकोनॉमिक टाइम्स में हरीश त्रिवेदी हिंदी के पक्ष में बोल रहे थे, और मैं अंग्रेज़ी के पक्ष में बोल रहा था. तो मैंने कहा कि अगर अंग्रेज़ी नहीं आई तो हम ग़ुलाम हो जाएँगे. और उनका कहना ये था कि अंग्रेज़ी के कारण हम ग़ुलाम हुए या हैं. तो मेरा कहना था कि जब गाँधी ने कहा…वो गाँधी को कोट कर रहे थे,गाँधी ने तब कहा था जब ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ़ एक तरह की यूनिटी की ज़रूरत थी. और हिंदी बीइंग अ वाइडली स्पीकिंग लैंग्वेज़ इन द कंट्री. तो उनको लगा कि हाँ हिंदी जो है, इसको अपनाना चाहिए. और ये चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने भी कहा था. तमिल लोगों ने भी कहा था कि हम हिंदी के पक्ष में हैं. लेकिन आज हिंदी की क्या हालत है ?
अब अंग्रेज़ी जो है,वो लिब्रेट करेगी. हिंदी नहीं लिब्रेट करेगी ! हिंदी तो ड्राइवर,सफ़ाईकर्मी, रिक्शापुलर,कुली और ये सब बनाएगी. तो इस पर झगड़ा हुआ. और काफ़ी अच्छी डिबेट थी वो. लेकिन बाद में मैंने देखा कि पूरे साउथ इंडिया से लेकर बहुत से लोग मेरे फ़ेवर में थे. तो…ये लोग नहीं हैं. संख्या में लोग कहीं नहीं हैं…दे आर हार्डली टू-थ्री पर्सेंट ! लेकिन इतना क़ब्ज़ा कर रखा है…तंत्र बहुत मजबूत है इनका. तो ये समस्या है.
संतोष अर्श : हिंदी का ये तंत्र कैसे टूटेगा ?इसे कैसे क्रश किया जा सकता है ?इसको कैसे तोड़ा जाय,यह भी तो सोचा जाना चाहिए ?
उदय प्रकाश : (लंबी चुप्पी)….मुझे नहीं लगता है कि ये टूटेगा ! और कभी-कभी मैं बड़ा निराश होता हूँ. जैसे चर्च है न ! तो पादरी तो रहेंगे ही ?बाबा साहब अंबेडकर ने क्या कहा था ?उन्होंने कहा था कि जो पोप है,जो फ़ादर है, जो प्रीस्ट है…शब्द उन्होंने प्रीस्ट इस्तेमाल किया है. तो प्रीस्ट कभी रैडिकल सोशल चेंज़ कों अलाउ नहीं करेगा. बुनियादी सामाजिक परिवर्तन पंडा नहीं होने देगा. तो ये प्रीस्ट जो है…और मुल्ला है,मौलवी…क्या वो चाहेगा कि इस्लाम में परिवर्तन हो?एंड ब्राहमिन्स…दे आर आल्सो प्रीस्ट. और ये अंबेडकर भी कहते हैं कि जो ब्राह्मण है, वह हिन्दू वर्ग का पुरोहित है. पुरोहित तो कोई परिवर्तन नहीं करने देगा न ?दे जस्ट वर्शिप्ड ! वे हर विचार को न्यूट्रलाइज़ करते हैं.
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(उदय प्रकाश के साथ पूर्णिमा कुमार) |
सोशल जो उसका रोल हो सकता है,किसी भी विद्रोही विचार का,आधुनिक चिंतक का,वे उसके सामाजिक प्रभाव को निरस्त कर देते हैं. पूजा करते हैं. उसको देवता बना देते हैं. जैसे राजेन्द्र यादव का ही ‘वे देवता नहीं हैं’…उस पर मैंने लिखा है. लेकिन लिखा मैंने अंग्रेज़ी में है. वो अभी है मेरे पास. बल्कि जब भारत भारद्वाज और सुधा भारद्वाज ने खलनायक के नाम से निकाली न राजेन्द्र यादव जी पर एक किताब मोटी सी ?खलनायक राजेंद्र यादव ! बड़ी मोटी किताब…बड़ी चर्चा रही उसकी. तो मुझसे भी लेख माँग रहे थे तो मैंने कहा कि मेरे पास समय अभी नहीं है,लेकिन वो जो मैंने लिखा था,मैंने कहा ये ले लीजिए,अंग्रेज़ी में है. तो शायद वो अकेला अंग्रेज़ी में लेख है उन पर. राजेंद्र यादव जी पर. बहुत अच्छा लेख है. अब उसमें…बड़ी गहरी दृष्टि थी राजेन्द्र जी की. बहुत गहरी. और उनके साथ भी वही समस्या थी जो हम सबके साथ है.
वो ‘न लिखने का कारण’अगर पढ़ें आप ध्यान से तो उनकी पूरी मजबूरियाँ सामने आती हैं. और सीधा सवाल है कि क्यों नहीं उनको साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया ?उनको नहीं मिला,धर्मवीर भारती… ‘अंधा युग’ आज भी क्लासिक है! उनकी कहानियाँ ‘गुलकी बन्नो’और तमाम जो हैं….
संतोष अर्श : रेणु के ‘मैला आँचल’को भी नहीं दिया गया ! जिस वर्ष वह छपा था,उसी वर्ष माखनलाल चतुर्वेदी की किसी रचना पर दिया गया था.
उदय प्रकाश :ये तो साफ़ है न ! स्पष्ट है बिलकुल. अब शैलेंद्र और रेणु की दोस्ती ही…शैलेंद्र तो दलित थे. और इप्टा में भी थे. लेकिन उनका क्या हश्र हुआ ?शैलेंद्र को गायब कर दिया.
संतोष अर्श : (मुस्कराते हुए) आपके बारे में एक ख़ास वर्ग के लोग ‘बहुत कुछ’कहते रहते हैं. उनके बारे में आप क्या कहेंगे ?
उदय प्रकाश :उनको क्या कहूँ ?ये ट्रोल्स हैं देखिए,है न !
संतोष अर्श : अभी मैंने कहीं एक लेख पढ़ा था उसमें भी ऐसा ही ‘बहुत कुछ’था. योगी वाला पूरा प्रकरण और तमाम ‘बहुत कुछ’आपकी रचनाओं पर. ऐसा क्यों है ?
उदय प्रकाश :उसका कोई असर अब मुझ पर नहीं पड़ता है. हाँ,पहले पड़ता था. पहले बहुत पड़ता था. देखिए,मैं आपको एक बात बताता हूँ,मेरी पहली कहानी जो ‘मौसा जी’ के बाद आई ‘सारिका’में वो ‘टेपचू’ही थी. ‘टेपचू’सेवेण्टी सिक्स में लिखी गई थी. जेएनयू में. वो छपी ‘सारिका’ में. जैसे ही ये कहानी आई इतनी पॉप्युलर हुई कि सारिका के अंक उठा कर देख लीजिए,आठ-नौ अंकों तक उस पर चिट्ठियाँ-ही-चिट्ठियाँ छपती रहीं. लोकप्रिय हुई. तो उस पर पहला आरोप लगाया गया. इलाहाबाद से कोई सज्जन एक फ़िल्मी पत्रिका निकालते थे,उसमें प्रदीप पंत जो ‘आजकल’के संपादक थे. उन्होंने लिखा, ‘आह क्यु’ की भद्दी और भोंडी नक़ल टेपचू’. और उसमें उन्होंने इसको लिया ‘टेपचू’नाम को. मैंने ‘आह क्यु’ पढ़ी भी नहीं थी तब तक.
और ‘टेपचू’कैसे लिखी गई ?यह तीन लोगों के जीवन से जुड़ी हुई थी,जिसमें एक मैं था. तीन घटनाओं कों मिलाकर ‘टेपचू लिखी गई. प्लस लेनिन का कहना…कि…सर्वहारा हारता नहीं है कभी. सर्वहारा की पराजय नहीं होती. जिजीविषा… तो जब लिखी गई,तो उन्होंने ये आरोप लगा दिया. किसी ने ला कर के उसे मेरे सामने रख दिया. मैं ‘दिनमान’ में उस समय आया था,नया-नया. तो ये जो पूरा गैंग होता है न लेखकों का (हँसते हुए). …दिल्ली का गैंग था वो. तो जानबूझ कर वो उन्होंने मेरी टेबल पर रख दिया था. ‘अरे क्या है ये ?’ मैं बड़ा यंग था उस समय. जिसने रखा उसी ने कहा कि नक़ल है ये तो. तो मैंने कहा कि,बिलकुल झूठ है ये. मैंने पढ़ा तक नहीं उसको. मैंने कहा कि उनका नंबर दो,प्रदीप पंत का ! तो उसने नंबर दिया और मैंने फोन किया प्रदीप पंत को,गुस्से में. तब मैं रिएक्ट करता था. जो आप अभी कह रहे थे ?
बहुत रिएक्ट करता था. रिएक्ट तो अभी भी बीच-बीच में कर देता हूँ. मैंने फोन किया. मैंने कहा कि जो लु-शुन की कहानी है ‘आह क्यु’ वो आप लेकर आ जाइए. और मैं ये लेकर आता हूँ और हम लोग मिलते हैं मोहन सिंह पैलेस में. और आप सिद्ध करिए कि ये नक़ल है. उन्होंने ‘टेपचू’से समझा कि चाइनीज़ नाम होगा. जबकि हमारे यहाँ टेपचू,लेपचू बहुत नाम होते थे. हमारे यहाँ छत्तीसगढ़ में. आपके यहाँ भी होते होंगे ?
संतोष अर्श : (हँसते हुए) मेरा एक सहपाठी था बचपन में. उसका नाम ‘धच्चू’था.
उदय प्रकाश : (ठहाका) तो उन्होंने पतली जो हिंदी की आवाज़ होती है,हिंदी की एक जो सवर्ण आवाज़ होती है…(उस काइयाँ नकियाई आवाज़ की नक़ल करते हुए) ‘अरे फिर भी लोग कह रहे हैं तो कुछ होगा न उदय जी ?’तो मुझे बहुत गुस्सा आया. मैंने उनसे कहा,तुम गधे की औलाद हो ! बहुत यंग था मैं. ‘आप गाली दे रहे हैं,गुंडागर्दी कर रहे हैं’,उसने कहा. तो मैंने कहा कि,(हँसते हुए) जितना तुमको अपने जन्म की शुद्धता की चिंता है,उतनी ही मुझे अपनी रचना की शुद्धता की चिंता है. ये झगड़ा हुआ. तो बहरहाल मैंने डांट-वांट कर रख दिया फोन. अब वो मुश्किल से पंद्रह दिन बीते होंगे कि एक वो थी, ‘चित्रधारा’करके…फ़िल्मी पत्रिका थी मोटी सी. उसमें सेकेंड लीड स्टोरी पंद्रह-बीस पेज की वही थी. मतलब उदय प्रकाश पर. और जब मैंने उस समय कुछ लिखा ही नहीं था…महज़ दो कहानियाँ लिखी थीं. एक ‘टेपचू’लिखी थी, एक ‘मौसा जी’ लिखी थी. और उसमें भी तमाम लोग जानने वाले थे. मंगलेश डबराल और सुरेश सलिल जैसे जाने-पहचाने नाम. सब के उसमें कोटेशंस थे. तब तो कहा जाएगा कि तालस्ताय ने उदय प्रकाश की नक़ल करके लिखा है.
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(उदय प्रकाश के साथ संतोष अर्श) |
और एक पेज उसमें था, ‘उदय प्रकाश से बातचीत’. उसमें भी पूरा झूठ था. जैसा मैंने आप से पूछा कि,राजीव गाँधी के बारे में आप क्या सोचते हैं ?नक्सलवाद के बारे में आप के क्या विचार हैं ?मुझको उन्होंने बहुत ख़तरनाक नक्सलवादी (देर तक हँसते हुए) सिद्ध किया. मैं बहुत परेशान होता था. बहुत ज़्यादा परेशान हुआ. तो ये चला ख़ूब. और उसके बाद तो हर रचना पर.