(उदय प्रकाश से संतोष अर्श की बातचीत: दूसरी क़िस्त)
(‘वारेन हेस्टिंग्ज़ का साँड़’ में उदय प्रकाश लिखते हैं, ‘आख़िर कल्पना की भी तो सीमा होती है. और कल्पना के पंख हमेशा काल की कैंची कुतरती है.’ लेखक इन पंखों की क़तरन संभाल-सहेज कर रखता है. रचनाकार चाहता कि जब लोग उसे सुनने को तैयार हों और वह काल की कैंची से कुतरे गए पंख पेश करे, तो लोग सुनते हुए उन कतरनों को छू कर देखें. सुने और महसूस किए गए की सांद्रता को अपने अंतर के गहरे विवर में उतर कर मिश्रित करें. वह चाहता है कि लोग उसे सुनें, उसे समझने की पर्याप्त, अपर्याप्त कोशिशें करें.
उदय प्रकाश से बात करते हुए उनकी बेचैनी और तनाव को भी महसूस किया जा सकता है. लेखक अपनी अनुभूतियों को मरने नहीं देना चाहता है. लेखक का सबसे बड़ा डर यही है. मृत्यु से भी बड़ा डर. उसने पूछा भी था कि डर का रंग कैसा होता है ?
बनिस्बत कवि, मुझे उदय प्रकाश का कथाकार अधिक प्रिय रहा है. उनकी कहानियाँ बौद्धिकता और कला का संतुलित मिश्रण हैं. शिल्प के वरक़ में आख्यान लिपटा है और संवेदना के फूल बौद्धिक ज्ञान की लता पर खिले हुए हैं. ऐसा फ़िक्शन, जो अपने समय को रचना के पैनेपन से प्रस्तुत भी करता है और दर्ज़ भी.
पिछली क़िस्त पर अच्छी पाठकीय प्रतिक्रियाएँ आई थीं. बल्कि, किसी ने कहा कि, ‘यह एक ईमानदार आदमी से दूसरे ईमानदार आदमी का वार्तालाप है.’ उस पाठकीय स्नेह से उपजे साहस से बता दूँ कि यह स्वाभाविक बातचीत है. उसी तरह जैसे रोशनी सीधी लकीरों में चलती है या बीज का काँच तोड़ कर निकला अँखुआ रोशनी की तरफ़ बढ़ता है. यह हमारे समय के उत्तर-सत्यवाद से आक्रांत नहीं है. इसीलिए संवाद की इन सतरों में आपको लेखक की बोली हुई भाषा मिलेगी जिसे अदबी रंग-रोग़न की ज़रूरत ही नहीं, बस थोड़ा सा अनगढ़ सलीक़ा है; जैसे जल्दी से आँगन लीप दिया गया हो या बारिश से पहले मिट्टी की कच्ची दीवार पर गीली मिट्टी भूसा मिलाकर पोत दी गई हो.
ज्ञानात्मक संवेदन से पूरित-सिंचित बातचीत की यह दूसरी क़िस्त प्रस्तुत है. पिछली बातचीत को बहुत सराहा गया, पसंद किया गया. उसके लिए प्रेम प्रेषित है. अभी सिलसिला ख़त्म नहीं हुआ है.- संतोष अर्श)
संतोष अर्श : उदय जी क्या आप के राजनेताओं से कभी संबंध रहे ? मेरा आशय वामेतर नेताओं से है. क्या उनमें उठना-बैठना रहा ?
उदय प्रकाश : मैंने तो बताया ही है आपको कि मैं तो लेफ़्ट से था. और काफ़ी समय तक था. अब जैसे लेफ़्ट में… और पूरे लेफ़्ट में शायद अभी भी पढ़ने-लिखने वाले लोग बहुत हैं. बुद्धदेब भट्टाचार्य ही काफ़ी अच्छे और पढ़े-लिखे थे… कवि-लेखक भी थे. बंगाल में तो सारी परंपरा ही रही है. ई.एम.एस. नंबूदरीपाद...! अरुंधति रॉय की जब पहली किताब आई थी तो पहली जो क्रिटिकल समीक्षा थी, वो ई. एम. एस. नंबूदरीपाद ने लिखी थी. और भी थे. सब पढ़ने-लिखने वाले लोग थे. पी. सी. जोशी थे. उन्होंने तो एक पूरा-का-पूरा आंदोलन ही खड़ा कर दिया. इप्टा, पीडबल्यूए सब पी.सी. जोशी के समय का है. बल्कि, कलाकारों को, लेखकों को इकट्ठा करना और जोड़ना, ये मानना कि ये समाज के क़ीमती हिस्से हैं, तो ये लेफ़्ट की ही देन थी.
और अपोज़ीशन भी इतना बुरा नहीं था. अगर उस समय का आप देखें… उस समय की बहसें देखें… उनकी गुणवत्ता देखें. जैसे तिब्बत पर ही जो बहस हो रही थी उसको आप सुन जाइए पूरा. तो लगता है कि हाँ, ये एक स्तर था. कंसर्न सिर्फ़ यह नहीं थी कि वह चीन के कब्ज़े में चला जाएगा, या उसने इतने सिर काट लिए, इतना गोला दाग़ दिया, ये बहस नहीं थी. पूरी बहस थी कि क्या कोई बफ़र स्टेट या कोई बफ़र नेशन बनाया जा सकता है ? तो तिब्बत को वेटिकन की तरह रखना या वैसा रखना कि वो राइट-लेफ्ट-सोशलिस्ट-कैपिटलिस्ट के बीच का एक नो वार ज़ोन हो…है न. और उस तरह की डिबेट चलती थी पार्लियामेंट में. अब कहाँ है उस तरह की बहस ? बहस ही नहीं है. तो मुझे लगता है हिंदी के साथ जो सबसे बड़ी समस्या रही वो ये कि हिंदी ने अपनी… क्या कहेंगे उसको?
संतोष अर्श: राजनीति से भी कट गई हिंदी ?
उदय प्रकाश : राजनीति से जुड़ी भी तो उस तरह नहीं जुड़ी, जैसे जुड़ना चाहिए. और अगर राजनीति को समझती की राजनीति क्या है…
संतोष अर्श: (बीच में ही बोलते हुए) …कुछ लोग जुड़े रहे हैं. (उदय जी हामी भर रहे हैं, हूँ…हूँ…) जैसे कि हम देखते हैं कि केदारनाथ सिंह सैफई महोत्सव का उद्घाटन करने गए थे. कुछ लोग जुड़े रहे हैं. इसी तरह से… अब बिल्कुल… पूरी तरह से यह जुड़ाव ख़त्म हो गया है ?
उदय प्रकाश: केदारनाथ सिंह तो पुरानी पीढ़ी के थे. नए में कहाँ हैं… इस तरह से ? लेकिन हैं…संबंध हैं अभी. मैं ख़ुद राजनीति के बारे में बात कर रहा हूँ. क्या यह राजनीति संबंध रखने लायक है ? तो क्वेश्चन तो यहाँ उठा रहा है. देखिए… अब फूकोयामा की किताब है…पोस्ट ह्यूमन फ़्यूचर. बड़ी चर्चित किताब है. तो उसमें उसने इसी को केंद्र में रखा कि पॉलिटिक्स है क्या? तो कहाँ से आई ? जैसे मान लीजिए कि डेमोक्रेसी कहाँ से आई ? तो हर कोई जानता है कि यह फ्रेंच रिवॉल्यूशन से आई. …सत्रह सौ नवासी… वहाँ से पैदा हुई. तो तीन स्लोगन लेकर आई. लिबर्टी…इक्वेलिटी और फ्रेटरनिटी. स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व. ये डेमोक्रेसी… लोकतंत्र की बुनियाद है. यहीं से राजनीति बनी. तो राजनीति का आना ही लोकतंत्र की पहली शर्त है. पॉलिटिक्स का रहना. और पॉलिटिक्स को उसने (फुकोयामा ने) कहा कि जैसे हवाईजहाज है तो उसमें जो पायलट है, वो पॉलिटिक्स है. वो ले जा रहा है…समाज है…तो पायलट ले जा रहा है हवाईजहाज को. समाज पीछे बैठा हुआ है एज़ ए पैसेंजर. है न…. तो इतिहास बन रहा है कि ये समाजवाद है, ये पूँजीवाद है…ये ये है… ये ये है…. तो पायलट तो पॉलिटिक्स है. अब पॉलिटिक्स की जगह या पायलट की जगह कौन बैठा है ? तो हुआ क्या कि…वो राजनीति रही नहीं. राजनीति डेमोक्रेसी थी…डेमो यानी जनता… लोक…लोकतंत्र. तो वो थी पॉलिटिक्स.
अब क्या है कि उसकी जगह पर प्लूटोक्रेसी आई. यानी जिसके पास पैसा है…धन है, वही राजनीति करेगा. और अब जो है, ये है क्लेप्टोक्रेसी. कि माफ़िया भी है.. और लूट भी है… ये पूरा नेक्सस है. तो अब तो राजनीति है ही नहीं ! जिसको आप राजनीति समझने का भ्रम कर रहे हैं, दे आर द क्लेप्टोक्रेट्स. वहाँ टेक्नोलॉजी है और ग्लोबल कैपिटल, कॉरपोरेट कैपिटल है. और राजनीति जो है, वो हो गई है उनकी सेवा करने वाली. तो राजनीति नहीं रही. अब ऐसे में आप साहित्यकार से कहें कि वो समाज का साथ न दे करके, जिसको हम सिविल सोसायटी कहते हैं… ग्राम्शी का डिवाइडेशन है न ? पॉलिटिकल सिस्टम और सिविल सिस्टम. तो लेखक को सिविल सिस्टम में रहना चाहिए या पॉलीटिकल सिस्टम में ? अब ये बहुत बड़ा सवाल है ! लेफ़्ट भी है तो… लेफ़्ट कभी ना भूलिए… वह भी एक सिस्टम था. पॉलिटिक्स में था. वेस्ट बंगाल में लेफ़्ट का रोल अच्छा नहीं रहा. नहीं तो न जाते वहाँ से. या पूरे ईस्टर्न यूरोप में और यूएसएसआर में अगर वही सोशलिज़्म रहा होता जो लेनिन का सपना था तो वहाँ से सत्तर सालों में विदा ना हो गए होते. तो होता क्या है, जब आप स्टेट सिस्टम में बदल जाते हैं तो जनता फिर सब्जेक्ट हो जाती है, मतलब प्रजा हो जाती है. तो बड़ा मुश्किल हो जाता है उस रूप में जनता का प्रतिनिधित्व कर पाना. इसलिए लेनिन ने भी अपने अंतिम समय में कहा था कि कम्युनिस्ट पार्टी शुड रीमेन एज़ अ वाचडॉग ऑफ सोसाइटी.
हमको पहरेदार की तरह रहना चाहिए. …है ना. और गाँधी ने भी कहा कांग्रेस को भंग करो, इसको एक आंदोलन की तरह रहना चाहिए. तो जिन-जिन लोगों ने (हँसी फूटी) बनाया उनकी मान्यता थी कि हमको… राज्य नहीं बनाना है….स्टेट नहीं बनाना है. हमको जनता की तरफ़ से रहना है. एक आंदोलन की तरह या पहरेदार की तरह. ऐसा नहीं हुआ. अब क्या हुआ जो लेफ़्ट भी है…पॉलिटिकली आप सोच रहे हैं कि मुलायम सिंह आ गए तो बहुत सारे लेखक भी आ गए, लेकिन मुलायम सिंह मुख्यमंत्री भी थे… और राज्य भी था उनका. तो वे जब हो गए तो काफ़ी लेखक उनके संपर्क में आए, उनके पास काफ़ी पावर्स आए. और वो मामूली लेखक नहीं रह गए. उनका स्ट्रगल ख़त्म हो गया. और उन्होंने ख़ूब रेवड़ियाँ बाँटीं. यहीं पर जहाँ हम लोग हैं, तमाम ज़मीनें एलॉट की गईं…सब कुछ हुआ. तो उनकी भी गुड-लिस्ट, बैड लिस्ट-बनती है. और यही लेफ़्ट के साथ हुआ. उन्होंने भी काफ़ी बेनिफिट्स दिए अपने लेखकों को. तो यही मेरा कहना है अर्श, कि जो लेखक है, उसकी प्रतिबद्धता किसके साथ हो ?
मतलब… जनता के साथ हो या राजनीति के साथ हो ? और जो राजनीति दावा करे कि नहीं हम जनता की तरफ़ से हैं, तो मैंने बताया न कि राजनीति भी बदली हुई है और राजनीति की पुनर्व्याख्या भी. क्योंकि 1989 के बाद, नब्बे के बाद दुनिया बदली है और पूँजी की भूमिका बदली है. आप देखिए कि पूरी पॉलिटिक्स बदली है. अब कोई भी सोशलिज़्म उस तरह का नहीं है, जैसा नब्बे के पहले होता था. अब जर्मनी में भी कोई ईस्ट जर्मनी, वेस्ट जर्मनी नहीं है, केवल जर्मनी है. और ये होता जा रहा है. अभी एक जगह मैं था, जर्मनी में ही. तो जो सड़क के किनारे चित्र बनाते रहते हैं, तो वो बना रहा था… पोट्रेट… मैंने कहा कि, ‘मेरा पोट्रेट बनाओ, कितना लोगे ?’ उसने कहा, ‘फोर्टी यूरो.’ उसने कहा कि, ‘अगर मैं पेंसिल से बनाऊँगा तो ट्वेंटीफ़ाइव लूँगा.‘ मैंने कहा कि, ‘तब भी बहुत महँगा है.‘ फिर उससे बात होने लगी. मैंने उससे पूछा कि, ‘आप कहाँ से हैं ?’ वह कज़ाकिस्तान से आया हुआ था. रूस से…पुराने रूस से ! तो फिर मुझसे उसने पूछा तो मैं बोला इंडिया से हूँ ! तो उसने कहा, योगा, योगा. फिर वो बताने लगा मैं भी योगा करता हूँ. फिर उसने कहा, मेरे पेट पर घूँसा मारो ! तो मैंने कहा नहीं… नहीं…!! फिर उसने अपने पेट को खोल दिया, तो मैंने दो-तीन घूँसे मारे, तो उसने कहा कुछ नहीं हुआ !! दिस इज़ योगा !! (ज़ोर से हँसते हुए…कुमकुम जी भी हँस रही हैं) तो मैंने पूछा उससे, कि तुम क्या हो ? यू आर रस्सियन… तो वह बोलता है (उदय उसकी दबी हुई आवाज़ का अभिनय करते हुए बोलते हैं) “आई वाज़ नेवर अ कम्युनिस्ट…आई एम नॉट अ राइटिस्ट.. मैं तो बस चित्र बनाता हूँ !!”
तो एक ऐसी पूरी जनता पैदा हो गई, जिसने राजनीति से…जिसका लेना-देना पूरी तरह ख़त्म हो गया. और उसकी ज़िंदगी बिल्कुल अलग हो गई. रोल ऑफ़ पॉलिटिक्स विच ही वन टाइम यूज़ टु हैव…वो ख़त्म हो गया. आज आप देखिए क्या राजनीति है ? ईवीएम कोई राजनीति करना है ? (हँसते हुए) मोदी जी कोई राजनीति कर रहे हैं ? ये जो गाय से लेकर जो तमाम सब हो रहा है, ये कोई राजनीति है क्या ? पॉलिटिक्स है नहीं !! और अगर आप इकोनॉमी के रोल को देखें, तो ये पूरी स्टडीज़ हैं… आप स्टिग्लिट्ज़ (जोसेफ़ स्टिग्लिट्ज़, अमेरिकी अर्थशास्त्री) से शुरू कीजिए, और अपने अर्थशास्त्रियों तक, अमर्त्य सेन तक आइए. तो मध्यवर्ग कहाँ है बताइए आप ?
मैं तो बार-बार कहता हूँ ! कि जो मिडिल क्लास है, ग्लोबली ! वो गायब हुआ है. जिसको मिडिल-क्लास कहते हैं, वो न्यू रिच क्लास है. वो बेनिफ़िशियरी है. वो टिकल डाउन थिअरी में जो ऊपर से टपक रहा है, तो उसको पाने के लिए वो है. वह मध्यवर्ग जो एक अवांगार्द था, समाज का अगुआ था, जहाँ से लेखक-चिंतक-विचारक, राजनीतिक, नेता ये सब पैदा हुआ करते थे, वो मध्यवर्ग है कहाँ ? तो मध्यवर्ग का विलोप हुआ. जैसे कहा जाता है न… नई इकोनॉमी ने वाइप आउट किया इंट्लेक्चुअल्स को !! देयर आर नो इंटेलेक्चुअल्स. या तो आप मान लीजिए कि न्यूज़ चैनल के एंकर्स ही इंटेलेक्चुअल हैं…या सैम पित्रोदा (ठहाका लगाकर) इंटेलेक्चुअल हैं. या सुहेल सेठ हैं, जो आ करके बोलते हैं टीवी में वो इंटेलेक्चुअल हैं.
इंटेलेक्चुअल की धारणा ही बदल गई. और वो… ग्राम्शी जिसे ऑर्गेनिक इंटलेक्चुअल कहता था, वह कहाँ है बताइए आप ? नहीं हैं वो…और अगर कहीं हैं, तो मैं यह कह रहा हूँ कि कहीं खाट पर पड़े हुए होंगे. और कोई उनको पूछ नहीं रहा होगा. उनके घर के लोग ही नहीं पूछ रहे होंगे. मतलब उनकी कोई स्थिति नहीं बची समाज में. तो यही बहुत बड़ा बदलाव हुआ है. और ऐसे में राइटर अगर मान लीजिए चूज़ कर ले, कि उसको पॉलिटिक्स में जाना है. मैं ही आज मान लीजिए, चूज़ कर लूँ. मेरे बहुत सारे दोस्त हैं, बीजेपी में है…कांग्रेस में हैं….! तो मैं कहीं भी पहुँच जाऊँ. अच्छा हो जाऊँ. फिर पैसे-वैसे भी काफ़ी मिलने लगेंगे. और कहीं भी, वर्धा से लेकर आपके जेएनयू…डीयू तक… जैसे आप रिसर्च स्कॉलर बन जाइए, प्रोफ़ेसर बन जाइए, वाइस चांसलर बन जाइए.
तो सब शुरू हो जाएगा. तो… यू हैव टु चूज़. दिस इज़ योर डिसीज़न. लेकिन मुझे लगता है कि शायद ऐसा नहीं करना चाहिए. क्योंकि जब आपने एक लंबा समय स्ट्रगल में गुज़ारा… तो कहा जाता है न… ‘आख़िरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमाँ होंगे’. तो फिर होता क्या है कि… अब आप जान लीजिएगा, अगर आप परस्यु करते रहेंगे अपने आपको, ऑनेस्टली, तो उसके रिज़ल्ट्स मिलते हैं बाद में. और किसी भी हिंदी वाले उसमें आप देखिए… मेरा नाम कहीं नहीं आएगा, सूचियों में. …है न …? कहानी में भी आप देखिए… आपके पास दूसरे हैं, प्रेमचंद की परंपरा वाले… मैं तो नहीं हूँ ?
संतोष अर्श: हाँ बहुत सारे अफ़सर हैं. सेल टैक्स ऑफ़िसर, आईपीएस…!!
उदय प्रकाश : (हँसते हुए) कविता में भी आप नहीं पाएंगे, लेकिन है क्या ? सच्चाई ये है कि जितनी बड़ी रीडरशिप मेरी है, जिसको कहते हैं यूटिग्रल रीडरशिप…ये हिंदी में तो है ही, और अन्य भारतीय भाषाओं में भी है और प्रमुख विदेशी भाषाओं में भी है. मेरी आप पाठकों की संख्या देखिए… है… काफ़ी है… बहुत ज़्यादा है. और कोई फ़र्ज़ी समीक्षा नहीं है. जैसे मैंने आपसे भी कभी नहीं कहा होगा कि आप ‘मोहन दास’ पर लिखिए !! लिखा तो, आपने अपनी इच्छा से लिखा होगा. और मैं एलेक्ज़ांद्रा से परिचित भी नहीं था, जिसने उसको….’मोहन दास’ को रेज़िस्टेंस लिट्रेचर के रूप में प्रस्तुत किया. तो लोग स्वेच्छा से लिख रहे हैं. अच्छा, अनुवादक भी जितने हैं, यक़ीन मानिए, कि मैं उनको नहीं जानता था. और वे अनुवादक भी उसी तरह के हैं. मतलब कोई ह्यूमन राइट एक्टिविस्ट है, कोई… किसी को रचना ही पसंद आ गई. तो ये एक तरह का बहुत… मतलब वालंटियरली काम किया गया है. …तो ये है.
संतोष अर्श: आपका जन्म 1952 में हुआ. आपने पिछली आधी सदी देखी है. बहुत सी सोशियो-इकोनॉमिक कंडीशंस चेंज़ हुईं. ऐसा आपने क्या देखा ?
उदय प्रकाश : नहीं आप इसको स्पष्ट करें !!
संतोष अर्श: पिछली सदी में ऐसा क्या था, जो नई सदी में नहीं आया ? उसी सदी में रह गया ?
उदय प्रकाश : मैं आपसे बताना तो यही चाहता हूँ !! जैसे 1990 क्या है ? उन्नीस सौ नवासी-नब्बे. तो एटीनाइन-नाइंटी ये बड़ा… विभाजक काल है. एक रेखा है, समझ लीजिए आप. और मैं तो इसको सिविलाइज़ेशन चेंज़ कहता हूँ. सभ्यतामूलक परिवर्तन है. क्योंकि जैसे इंडस्ट्रियलाइज़ेशन था, वह एक सभ्यतामूलक परिवर्तन था, जिसने एक पूरे सामंती समाज को पूरी तरह से बदल दिया. और बहुत किताबें हैं इस पर. जैसे…जो कैश नेक्सस का आना है, बैंकिंग का आना है, नेविगेशन का आना है, स्टॉक मार्केट का आना ये सब हुआ सत्रहवीं-अठारहवीं सदी में. यूरोप में इंडस्ट्रियलाइज़ेशन के समय. फिर बाज़ार का बनना. नाइंटी में जो परिवर्तन हुए…ये जो नई टेक्नोलॉजी आई… जिसको हम थर्ड टेक्नोलॉजिकल रिवॉल्यूशन कहते हैं. तीसरी प्राविधिक क्रांति !! ये बहुत बड़ी थी. ये जो कारख़ानों वाली थी, उद्योगों वाली थी, बड़े उद्योगों वाली क्रांति, उसमें बहुत सारे मज़दूर होते थे. और जिसको देखकर कहा जाता था कि, ‘दुनिया के मज़दूरों एक हो’…दुनिया बदल देंगे. तो इतनी बड़ी संख्या में काम करने वाले, उनका यूनाइट होना, इस कैपिटल में, इस टेक्नोलॉजी में, नब्बे के बाद वो पूरा बदल गया. अब आपके पास जो टेक्नोलॉजी है, उसमें ऑर्गेनाइज़्ड वर्किंग सेक्टर की ज़रूरत ही नहीं है. तब उसने वर्ग-संरचना बदल दी समाज की. और जितना जो पहले श्रमिक वर्ग था, उससे ज़्यादा सेवा प्रदान करने वाला, या सर्विस क्लास जिसे कहते हैं, वो आ गया. उसकी संख्या बहुत ज़्यादा हो गई. फिर जिसको हम मिडिल क्लास कहते हैं, मिडिल क्लास ने आउटनंबर कर लिया. उसकी संख्या बहुत अधिक हो गई.
और अब जैसे मैं टाइम्स ऑफ़ इंडिया में था… दिनमान में था. हमारे कंपोज़ीटर्स होते थे, बयालीस से लेकर सौ तक… वह कम्पोज़िंग करते रहते थे. और फिर वो मैटर आता था और फिर हम लोग उस पर करेक्शन्स लगाते थे, फिर वो जाता था. अब पता लगा वो सब बदला और एक आदमी बैठ कर वो सब कंपोज़ करने लगा. फिर डिज़ाइनिंग शुरू हो गई. सब कुछ बदल गया, इसने बहुत बड़ा परिवर्तन किया. और इससे बहुत सारे वैल्यूज़ जो उस समय के समाज से जुड़े हुए थे, वो सब बदले और बहुत तेज़ी से बदले. और जो… जिनको समाज ने एक तरह से सुधार दिया था, जिन बीमारियों को…. वो फिर उभर कर सामने आ गईं. तो कहते हैं न कि ग्लोबलाइज़ेशन में सपना तो देखा गया था कि एक ऐसा कल्चर…एक ऐसी दुनिया बनेगी, एक ऐसी संस्कृति बनेगी, जिसमें सब कोई लगभग शेयर करेंगे और एक आसान सा अनुमान लगाया गया कि सब लोग एक जैसे ब्रांड इस्तेमाल करेंगे, एक जैसा सब कुछ करेंगे कोल्ड ड्रिंक पिएंगे, एक जैसा बर्गर खाएंगे, एक जैसा खाना खाएंगे, यह होगा वह होगा, एक ग्लोबल विलेज बनेगा. यानी बहुत सारी समस्याएँ हल हो जाएँगी.
हुआ उल्टा ! जितने माइक्रो कॉनफ़्लिक्ट्स, जो थे, वो सब उभरकर सामने आए. जिनको हम कहें कि जो सूक्ष्म अस्मिताएँ थीं, उनका बहुत बड़ा उभार हुआ. यानी जातियाँ, उपजातियाँ, सांप्रदायिकता, क्षेत्रीयता, भाषा इतने कॉनफ़्लिक्ट्स उस समय नहीं थे. कहीं-ना-कहीं डिज़ाल्व होते जा रहे थे. बड़ा अच्छा नारा लगता था कि… यूनिटी इन डाइवर्सिटी...!! विविधता में एकता. या टैगोर की पंक्तियाँ सुनिए आप ! ‘वी आर द लार्ज़ ओशन ऑफ़ ह्यूमैनिटी’. ‘हम महामानव के महासमुद्र हैं’. …इस तरह का. तो वह जो एक धारणा बन रही थी, जो क़ायदे से इंडस्ट्रियलाइज़ेशन के बाद कॉलोनियल शासन था भारत में, उसने ये संभावना पैदा की थी, कि रहे आओ सब एक जगह. एक जगह रेवेन्यू आए, एक जगह सब कुछ आए और एक जगह सब कुछ हो. और यह सब टूटने लगा. और आज तो देखिए हम फ्रग्मेंटेशन के स्टेज़ पर हैं. और इसने एक नहीं किया. इसने फ़ूड डाइवर्सिटी ज़रूर एक कर दी है. आप हर जगह पिज़्ज़ा खा सकते हैं. और हर जगह दोसा खा सकते हैं. यानी ये सब फास्ट फूड में आ गए. जैसे हम लोग नहीं जानते थे कि पिज़्ज़ा क्या होता है ? अब गली… सड़क के किनारे पिज़्ज़ा बनता है, हर जगह. तो ये सब तो हुआ, लेकिन फिर गाय के नाम पर हत्या भी होनी शुरू हो गई. इतनी मैसिव किलिंग लड़कियों की, वो इसके पहले कभी नहीं थी.
इतना डिस्क्रिमिनेशन नहीं था. अब मुझे नहीं लगता कि कभी दलितों के विरुद्ध इतनी ज़्यादा घृणा पैदा की गई हो, रही हो. इतना ज्यादा नहीं था. तो ये सब हुआ. ये चीज़ें हैं और मूल्यों में परिवर्तन ज़बरदस्त हुआ है. और जिसको हम कहते हैं न, कि जो उत्तर-आधुनिकता है उसके केंद्र में आनंद है… प्लेज़र. तो आनंद की ओर, प्लेज़र की ओर समाज का, सभ्यता का जाना शुरू हुआ. तो बहुत सारे वैल्यूज़ जो आपके अंदर ऑनेस्टी पैदा करते थे, संयम पैदा करते थे, बहुत से मूल्य उससे जुड़े हुए थे. जो आपको रोकते थे, प्रतिबंधित करते थे. भोगवादी होने से, एडोनिस्ट (Hedonist) होने से. वो सब टूटे, बल्कि, ‘पीली छतरी वाली लड़की’ में इस पर अच्छा ख़ासा विचार है, कि इतना मत खाओ, इतना मत यह करो. ये पूरी की पूरी एक्युमुलेशन की प्रवृत्ति पैदा हुई, कि सब इकट्ठा करो, जितना खा सकते हो खाओ, कोई बंधन नहीं है, जितना भोगना है भोगो. तो यह जो है, आया.
विज्ञापन देखिए बदल गए. फिल्में बदल गईं. और आपका सब कुछ बदल गया. तो बदलाव ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ ऊपरी है, बदलाव हर स्तर पर है. कहीं अच्छा है, कहीं बहुत अच्छा है और कहीं बहुत ख़राब भी है. जैसे जेंडर बायसेस जो थे, पहले कम थे, बड़ा कठिन था स्त्री का पहले रह पाना. अब दोनों चीजें हैं. उस पर हमले भी ज़्यादा हैं लेकिन उसकी स्वतंत्रता की जो लड़ाई है वह भी पहले से अधिक है. तो दोनों बातें हैं. और मुझे लगता है कि अच्छा ही है क्योंकि आज ही बैठे हैं आप, आज ही रैली हुई है जिग्नेश मेवानी की, और बहुत बड़ी रैली हुई है. अब उस तरह से नहीं चल पाएगा बहुत दिनों तक. तो एसर्सन है. और हम लोग तो यही सपना ही देखते हैं, जो हम सोचते हैं, उसी ओर. हम लोग ये नहीं देखते कि कितनी आपने बुलेट ट्रेन दौड़ा दीं, और कितना…कैसी रोड अखिलेश जी ने बनवा दी या मोदी जी ने बनवा दी, या शीला दीक्षित ने दिल्ली में क्या-क्या कर दिया. इससे क्या होता है ? इससे बहुत कम परिवर्तन वास्तव में होते हैं. तो इसी रूप में है.
संतोष अर्श : ‘दिल्ली के न थे कूचे, औराक़े-मुसव्विर थे’, उदय प्रकाश को दिल्ली में कैसी तस्वीरें नज़र आईं ?
उदय प्रकाश: मेरे ख़याल से दिल्ली पर मैंने काफ़ी लिखा है. ‘दिल्ली की दीवार’ भी है, ‘पॉल गोमरा का स्कूटर’ भी अगर देखें तो दिल्ली में ही है. ‘तिरिछ’ भी अगर आप देखें तो दिल्ली ही है. तो दिल्ली कई रूपों में है. हर लेखक अपने शहर का लेखक होता है. बल्कि आपने साहित्य ही पूछा है तो एक प्रकाशक हैं, अकाशिक पब्लिशर्स. न्यूयॉर्क के. बड़े लोकप्रिय हैं वो. तो वो नॉइर सीरीज़ निकालते हैं. डेल्ही नॉइर (Delhi Noir), वाशिंगटन नॉइर, आदि. शहरों के नाम से ही, और उसमें उस शहर के जो लेखक होते हैं, तो उसी शहर के लेखक उसमें अपनी कहानियाँ लिखते हैं. उन कहानियों का एक संग्रह है, जैसे वाशिंगटन पर है, वाशिंगटन वाले लिखेंगे, कोलकाता पर है, तो कोलकाता के लेखक लिखेंगे. अपने-अपने शहर को देखने का नज़रिया… और अलग-अलग नज़रिया होता है. जैसे डेल्ही नॉइर में यही है, ‘दिल्ली की दीवार’, लेकिन डेल्ही नॉइर में जो हिर्श सॉनी है उसकी भी कहानी है, ‘गौतम अंडर ट्री’. उमैर अहमद की कहानी है. उसकी बिल्कुल अलग कहानी है.
उसमें अंग्रेज़ी के लोग हैं, हिंदी में शायद मैं अकेला हूँ. तो सबकी दृष्टि इसी दिल्ली के बारे में बिल्कुल भिन्न-भिन्न है. अब आप उनको देखिए, जो उर्दू में हैं, मतलब दिल्ली जितनी ग़ालिब में है और आज मेरी दिल्ली देखें, या मंटो की दिल्ली देखें, तो… अंतर आता है और बहुत अंतर आता है. ख़ैर इसमें समय भी है. निर्मल जी ने ही लिखा है, कहानियाँ हैं उनकी. पार्टीशन से जो लोग आए यहाँ शरणार्थी हो कर उनकी देखी हुई दिल्ली बिल्कुल दूसरी है. मतलब यह है कि दिल्ली एक नहीं है. और यह माना जाता है, कि यह जो सत्रह बार उजड़ी है, उजड़ी नहीं है, सत्रह बार रही है यहाँ. और कुछ न कुछ बचा रह गया है. जैसे वो विलियम डार्लिंग्पल वाली है, ‘सिटी ऑफ जिन्स’, तो वो कहता है न कि आप जहाँ भी जाएँगे आपको मिल जाएगा पुराना. और आप चाँदनी चौक की तरफ जाएंगी तो एक दूसरी दिल्ली है. उधर महरौली की तरफ़ जाएँगे तो बिल्कुल दूसरी दिल्ली है. फिर लोदी स्टेट की तरफ़ जाएँगे (हँसते हुए) तो एक और दिल्ली है.
दिल्ली गाँव भी है. मुझे लगता है कि किसी महानगर के बारे में… और जो महानगर…है न…एक करोड़ चालीस लाख…उसके बारे में एक कोई दृष्टि बना पाना…ये पढ़ने-वढ़ने के लिए तो ठीक है लेकिन वास्तव में आप कहें एक लेखक की तरह कि आप क्या कहेंगे, तो बड़ा मुश्किल होगा. जैसे यही अरुंधति रॉय वाला उपन्यास है ‘मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैपीनेस’ तो भी दिल्ली यही है. तो वह भी एक दृष्टि है. …और ख़ुशवंत सिंह की भी दिल्ली है. उनकी बिल्कुल एक अलग दृष्टि है.
संतोष अर्श : अरविंद अदिगा की भी दिल्ली है !!
उदय प्रकाश : हाँ उनकी भी दिल्ली है. तो वही मैं कह रहा हूँ कि बड़ा मुश्किल है ये.
संतोष अर्श : एक्चुअली मुझे लगा था कि आप उस पर भी बोलेंगे….इकॉनोमिक ट्रांस्फ़ार्मेशन ऑफ डेल्ही ! दिल्ली की दीवार में इतना रुपया कहाँ से आया ?
उदय प्रकाश: नहीं देखिये आप उसमें…अगर आप वास्तव में सचमुच जानना चाहते हैं…! तो आप देखिये कि ये लिखी कब गई. तो लिखी गई थी ये…लगभग तेरह-चौदह साल हो गए. आप याद कीजिए…और ज़्यादा हो गए. कभी भी ब्लैक मनी पर, काले धन की चर्चा कहीं नहीं थी. न अन्ना साब हज़ारे थे, न अरविंद केजरीवाल. कोई नहीं था. ब्लैक मनी का कोई नामलेवा ही नहीं था. और मैंने पढ़ी किताब प्रोफ़ेसर अरुण कुमार की. और वो नब्बे में आई थी किताब. ‘ब्लैक मनी इन इंडिया’. तो बहुत अच्छी किताब थी. और उन्होंने बताया था उसमें कि फोर्टी फ़ाइव पर्सेंट… जो सर्कुलेटिंग करेंसी है, उसमें फोर्टी फ़ाइव पर्सेंट ब्लैक मनी है. काला धन है. यानी कि जो सौ रुपए आप देते हैं, उसमें से पैंतालीस तो आप पहले से ही घटा दीजिए. उसकी फंक्शन वैल्यू पचपन रुपए है. तो घटना ये थी. तो अब अगर अब आप देखेंगे तो सेवेंटी टु पर्सेंट…यानी आप सौ रुपए लेकर जाते हैं और उसकी वैल्यू बीस-पचीस रुपए से ज़्यादा नहीं है. उसी समय एक घोटाला हुआ था…उसमें एक ‘मिश्र’ मंत्री थे. ख़ैर उस पर बात नहीं करना चाहता. आप सोच सकते हैं. और मेरी अपनी ज़िंदगी उस समय बदहाली और अभाव में कट रही थी… आप हिंदी की कहानियाँ पढ़िए, आपको यह कहीं नहीं मिलेगा. क्योंकि रिअल लाइफ़ से जो इंटरैक्शन्स हैं, वो तो रहे नहीं…. ख़त्म हो गए. मैं ‘दिल्ली की दीवार’ नहीं लिख पाता अगर मैं बदहाली में, बेरोज़गारी में नहीं रहा होता.
…तो कई बार आपके जीवन के जो अभाव होते हैं यही आपको ले जाते हैं ज़िंदगी की ओर. व्हेन यू कम क्लोज़ टु द रिअलिटी…. और वह (दिल्ली की दीवार) ब्लैक मनी पर पहली कहानी है. और हिंदी के साथ समस्या यह है कि लोग ढूँढने लगते हैं कि यह किस पर लिखी गई है ? तो उसमे उन्होंने खोज निकाला कि अरे ! यह तो फलाँ पुलिस अफ़सर पर लिखी गई है. फलाँ लेखक के ऊपर लिखी गई है. तो आप कल्पना कर सकते हैं कि मेरे साथ क्या गुज़री होगी ? तो जब दस-ग्यारह साल बाद उस ‘मिश्र’ मंत्री को सज़ा हुई, तब मैंने कहा कि अब आप देखो… कि जस्टिस क्या है ? तो होता क्या है कि अगर आप सचमुच अपने समय की जो बड़ी घटनाएँ हैं, उन पर आपकी निगाह अगर है, और वे आपको उद्वेलित कर रही हैं, तो आप कुछ ऐसा कर जाते हैं. वरना आप नहीं कर सकते. तो इसलिए वह कहानी ब्लैक मनी और उससे उत्पन्न होने वाली मानवीय त्रासदी…आज अगर आप देखिये कि इतना अमीर बनने लगा रामनिवास (कहानी का पात्र) तो उसका हुआ क्या ? तो ये जो न्यू इकोनॉमी है वो जिस चीज़ को प्रमोट करती है वो है चांस….(मोबाइल की रिंग बजी)…एक सेकेंड…
(बीच में ही किसी का कॉल आ गया है. उदय प्रकाश उससे बात करते हुए बता रहे हैं कि संतोष अर्श आए हुए हैं, उनसे बातचीत हो रही है. लेखक के मुख पर आत्मीयता, स्नेह और प्रसन्नता की खिली हुई चमक है. लेखक के फोन पर बात करने के दौरान संतोष अर्श उस पर अपने फ़ोटोग्राफी के हुनर आज़मा रहे हैं. और यह लेखक की जो सौम्य मुस्कान वाली फ़ोटो आपने इस बातचीत के साथ देखी है, उसी समय ली गई थी. फोन काटने के बाद लेखक ने बताया कि कॉमरेड विजेंद्र सोनी की कॉल आई थी. वही विजेंद्र सोनी जो ‘मोहन दास’ के कॉमरेड हर्षवर्धन सोनी हैं)
संतोष अर्श : रिलीव होना है तो हो लीजिए. काफ़ी देर से बोल रहे हैं आप.
उदय प्रकाश : मेरा ये कहना है संतोष, जैसे अभी भी… अभी मैं प्रॉपर मूड में नहीं हूँ.
संतोष अर्श : मेरे पास ज़्यादा सवाल नहीं हैं, बस आप की कहानियों पर थोड़ी बात करना चाहता हूँ. ‘वारेन हेंस्टिंग्ज़ का साँड़’…. औपनिवेशिक इतिहासबोध की उत्कृष्ट रचना है. यह कहानी हिंदी की लगती ही नहीं. आपने कैसे लिखी ?
उदय प्रकाश : मैं बहुत पढ़ाकू हूँ, ये आप जान लीजिए.
संतोष अर्श : क्या पोस्ट-कोलोनियल डिस्कोर्स का प्रभाव पड़ा है आप पर ?
उदय प्रकाश : हाँ पड़ा तो है ही. अच्छा मैं एक मिनट में थोड़ा पानी पी कर और अपनी खैनी रगड़ कर आता हूँ. (खैनी वाली बात सुन कर हम सब हँस पड़ते हैं.)
(उदय प्रकाश रिफ्रेश हो कर लौट आए हैं. हम सब फिर बैठ गए हैं)
कुमकुम जी: ये कैसी ठंड है ? मार काँपे जा रहे हैं हम लोग !!
उदय प्रकाश : आठ डिग्री है और प्लस में है. ठंड नहीं है ये…कुछ क्लाइमेट एब्नॉरमिलिटी है. ये वो प्राकृतिक ठंड नहीं है. बर्फ़ गिरती है. यक़ीन मानिए, हम सब खेलते हैं बर्फ़ में और ठंड नहीं लगती. और यहाँ बिना बर्फ़ गिरे…इसका कारण वही है. पूरा पर्यावरण का विनाश हुआ है.
संतोष अर्श : अकादमिक रूप से मैं पर्यावरण और साहित्य के अंतर्संबंधों का अध्येता हूँ !
उदय प्रकाश : अरे वाह यह बहुत अच्छा है. मेरा बेटा जर्मनी में पर्यावरण वैज्ञानिक ही है. बल्कि आपके बहुत काम का है. यूरोप के सबसे बड़े एनवायरमेंटल इंस्टीट्यूट ‘एको-इंस्टीट्यूट’ से उसने पढ़ाई की है. सीनियर साइंटिस्ट है वो. उसको अच्छा एरिया मिला हुआ है. काँगो, घाना, नाइज़ीरिया, थाईलैंड वगैरह.
संतोष अर्श : मेरा काम इको-क्रिटिसिज़्म पर बेस्ड है ! इधर इस बहाने से काफ़ी वर्ल्ड लिट्रेचर से सामना हुआ. शेक्सपियर और वर्ड्सवर्थ की ग्रीन स्टडी (हरित अध्ययन) पढ़ी. यहाँ हिंदी में तो वेदों-पुराणों, रामचरितमानस में ही पर्यावरण ढूँढने का चलन है. कोई वैज्ञानिक थियरी डेवलप नहीं हो पा रही. अमिताव घोष के ‘द हंगरी टाइड’ और अरविंद अदिगा के ‘द व्हाइट टाइगर’ पर कुछ काम हुआ है इस तरह का, वह नज़र से गुज़रा था.
उदय प्रकाश : यानी लिट्रेरी है आप का ?
संतोष अर्श: जी हाँ !! आप भी कभी-कभी पर्यावरणीय मुद्दों पर लिखते रहते हैं.
उदय प्रकाश : हाँ, बस ऐसे ही. लेकिन थोड़ा सा वैज्ञानिक नज़रिया है मेरा. एक बार बर्लिन में एक प्रोग्राम हुआ था. अरबनाइज़ेशन इन इंडिया. भारत का शहरीकरण. उसमें टाउन प्लानिंग और सारा रोड कन्ट्रक्शन, यही सब था. तो उसमें सुधीर कक्कड़ को बुलाया था और (हँसते हुए) मुझे भी बुलाया था. तो मुझको वही व्यू देना था जो आप कह रहे हैं. मैं क्या सोचता हूँ…एक लेखक के नाते ? तो इनका क्या है कि जब आप टाउन प्लानिंग करते हैं तो पब्लिक स्पेस और प्राइवेट स्पेस…बेसिक डिवीज़न ये होता है. प्राइवेट स्पेस मतलब घर वगैरह. और पब्लिक स्पेस मतलब पार्क वगैरह. तो प्राइवेट स्पेस जब किसी यूरोप के शहर में आप बनाते हैं, तो वो दूसरे रूप में बनता है. यहाँ प्राइवेट स्पेस और पब्लिक स्पेस में कैसे फ़र्क़ करेंगे ? यहाँ पार्कों में कौन लोग रहते हैं ? तो जाके आप देखिये, उसमें या तो घरों से निकाले गए बूढ़े रहते हैं, या फिर संघी शाखा-वाखा लगाते हैं. या फिर स्मैकिए रहते हैं. इसमें उस तरह के लोग नहीं रहते हैं जो हेल्थ के लिए और दूसरे कारणों से आते हैं, लोगों के क़रीब आने के लिए या जॉगिंग के लिए. ये रहते हैं, लेकिन थोड़ी देर रहते हैं. और आप देखते हैं जहाँ ज़्यादा विज़िलेन्स नहीं है वह अड्डा बन जाता है, दूसरी तरह के लोगों का…दिल्ली की दीवार में भी आप देखेंगे. तो सड़क को आप क्या कहेंगे ? पब्लिक स्पेस या प्राइवेट स्पेस ? यहाँ पैदल चलने वालों के लिए कोई जगह नहीं है. पूरी प्लानिंग ही दूसरी तरह की है. बल्कि मैंने उनको उदाहरण दिया था…और आप से भी कहता हूँ कि उसे ज़रूर पढ़िएगा…मेरा बड़ा प्रिय लेखक है और बहुत अच्छा लेखक है… मिलोराद पाविच… मैं वर्षों से कहता आ रहा हूँ.
उसकी सुप्रसिद्ध रचना है, ‘लैंडस्केप पेंटेड विथ टी’ ! अद्भुत है मतलब. उसमें नायक एक आर्किटेक्ट है, स्थापत्यकार, शिल्पी. जिसका नाम है, अतानास स्विलार, जिसको लंबे समय बाद एक टाउन प्लानिंग का प्रोजेक्ट मिलता है. तो उस टाउन प्लानिंग में एक नदी को लगभग ख़त्म हो जाना है. तो वो कहता है कि नहीं, सभ्यताओं का जो इतिहास है वो नदियों के पीछे है. तो नदी ज़्यादा मूल्यवान है बज़ाय इमारतों के. तो पूरे प्लान को रिजेक्ट कर देता है. और उसको फिर लोग पागल कहने लगते हैं. वो उसका नायक है. तो उसमें बहुत सी अच्छी उक्तियाँ हैं.
जैसे वो कहता ही कि घर में स्पेस होना चाहिए. जैसे हमारे यहाँ पहले आँगन होता था. वो कहता है कि घर में ख़ाली जगह उसी तरह की है जैसे ब्रेड में साल्ट होता है. कहता है, जैसे भाषा में साइलेंस होता है…चुप्पी…ख़ामोशी… तो कहता है, इस तरह स्थापत्य में स्पेस जो है साइलेंस का और साल्ट का रहना चाहिए, तब ही आप कोई घर बनाएँ. फिर कहता है कि खिड़की भीतर से बाहर देखने के लिए नहीं होती है, खिड़की बाहर की चीज़ें भीतर आने के लिए होती है. तो उसका पूरा सोचना बहुत मज़ेदार है.
क्रमश: …
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उदय प्रकाश से संतोष अर्श की बातचीत की पहली क़िस्त यहाँ पढ़ें.