परितोष मणि
प्रोफ़ेसर मैनेज़र पाण्डेय जितने बड़े और सुलझे हुए आलोचक हैं उतने ही अच्छे अध्यापक भी. वास्तव में अच्छे शिक्षक का सबसे बड़ा गुण सिर्फ यही नहीं होता है की वह छात्रों में बेहतर तरीके से अपने ज्ञान को बाँटें, बल्कि यह भी होता है की विद्यार्थी की व्यक्तिगत समस्या को समझे, और किसी अभिभावक की तरह से उसका मार्गदर्शन भी करे, और ऐसे संस्थान में तो यह अधिक जरुरी है जहाँ अधिक आज़ादी हो. और सुदूर गांव या कस्बो से इतने बड़े महानगर में पहुंचे छात्रों के लिए अक्सर ऐसी आज़ादी के दूसरे मतलब भी हो जाते हों.
पाण्डेय जी ऐसे ही शिक्षक थे, अकेले जितने छात्र पाण्डेय जी से प्रभावित थे और जुड़े थे उतने शायद किसी भी अध्यापक से नहीं.,क्योंकि पाण्डेय जी जैसा सहज और सरल संस्थान में बहुत कम थे. यूँ तो JNU के भारतीय भाषा केंद्र में अनेक ख्यातिप्राप्त दिग्गज थे और सिर्फ संस्थान में ही नहीं, पूरे देश में हिंदी-उर्दू के प्रखर चिंतन और रचनात्मकता में जिनका विशिष्ट स्थान था, चाहे केदार जी हो ,अग्रवाल जी या तलवार जी,सबकी अपनी विशिष्टता थी,लेकिन पाण्डेय जी और अग्रवाल जी ही ऐसे थे जो छात्रों से उनके संवेदना के स्तर पर गहरे से जुड़े थे, मैं ही नहीं वह हर छात्र जो केंद्र में था वह इस बात की तस्दीक करेगा. पाण्डेय जी ऐसे शिक्षक के रूप में मशहूर थे जिनके घर कोई भी छात्र अपनी कोई भी व्यक्तिगत समस्या लेकर जा सकता था (अगर वह किसी लेख को पूरा करने में व्यस्त न हो तो )और पाण्डेय जी बड़े आलोचक का चोगा उतार कर अभिभावक के रूप में उपस्थित हो जाते थे.ऐसे अनेक मित्र हैं जिनके प्रेम –संबंधो के पुष्पन –पल्लवन में या संबंधो के बीच आ गयी दरार को पाटने में पाण्डेय जी को अक्सर पंच की भूमिका में भी केंद्र ने देखा है.
ज.ने.वि.का भारतीय भाषा केंद्र अपने अध्यापको और छात्रों के प्रखर बौद्धिक चिंतन और तार्किक विमर्शो के लिए जाना जाता था, यही इसका गुण था और देश के दूसरे हिंदी विभाग इसके इसी गुण को नकारात्मक तरीके से प्रचारित करने में तत्पर रहते थे. वास्तव में नामवर जी के प्रयासों से यहाँ ऐसी शिक्षण-प्रविधि विकसित हुई थी जो तोता- रटंत की परंपरागत तरीके से बिल्कुल अलग नए तरीके से छात्रों को विषय का ज्ञान,और उन्हें सोचने –समझने की नयी दृष्टि देती थी. वैसे तो ज .ने .वि. अपने आप में अनूठे मॉडल पर निर्मित किया गया था, विभाग से लेकर शिक्षण-शोध प्रविधि और छात्र संघ चुनाव से लेकर परस्पर आत्मीयता तक सब कुछ बिलकुल अलहदा था, दूसरे विश्वविद्यालयों की तुलना में और कहने की जरुरत नहीं की इन सबकी जड़े मार्क्सवादी वैचारिकता में रची –बसी थी, वैचारिकता यहाँ की साँस थी, यहाँ के पेडों, वनस्पतियों, पठारो में उसीकी खुशबु थी, उसी के रंग थे.
भारतीय भाषा केंद्र के ज्यादातर शिक्षक और छात्र इसी मार्क्सवादी विचारधारा की बुनियाद से खड़े होकर साहित्य और समाज को देखते थे, समझते थे और लिखते थे. पाण्डेय जी स्वयं मार्क्सवादी विचारधारा के थे और हैं, और बरसों से जन–संस्कृति मंच (जसम )के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, लेकिन वह उन छात्रों से बहुत ही चिढ़े रहते थे जो कॉपी-बुक तरीके से मार्क्सवाद को जीते थे और उसी को अंतिम मानते थे, पाण्डेय जी का साफ मानना था कि भारत का सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश रूस और चीन जैसा बिलकुल नहीं है इसीलिए यहाँ आयातित मार्क्सवाद बिलकुल नहीं चल सकता, यहाँ का परिदृश्य मार्क्स को नहीं मरकस बाबा को अधिक समझेगा,पाण्डेय जी कि बात बिलकुल सही थी, आज हिंदी पट्टी में मार्क्सवाद की क्या दशा –दिशा है, यह कोई छुपी हुई बात नहीं है. पाण्डेय जी साहित्य में भी कोरी वैचारिकता के पक्षधर कभी नहीं रहे, उनके लिए कलात्मकता भी उतनी ही जरुरी थी, पाण्डेय जी के पसन्द के कवियों में कई ऐसे कवि हैं जो वामपंथी विचारधारा के नहीं हैं.
भारतीय भाषा केंद्र के ज्यादातर शिक्षक और छात्र इसी मार्क्सवादी विचारधारा की बुनियाद से खड़े होकर साहित्य और समाज को देखते थे, समझते थे और लिखते थे. पाण्डेय जी स्वयं मार्क्सवादी विचारधारा के थे और हैं, और बरसों से जन–संस्कृति मंच (जसम )के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, लेकिन वह उन छात्रों से बहुत ही चिढ़े रहते थे जो कॉपी-बुक तरीके से मार्क्सवाद को जीते थे और उसी को अंतिम मानते थे, पाण्डेय जी का साफ मानना था कि भारत का सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश रूस और चीन जैसा बिलकुल नहीं है इसीलिए यहाँ आयातित मार्क्सवाद बिलकुल नहीं चल सकता, यहाँ का परिदृश्य मार्क्स को नहीं मरकस बाबा को अधिक समझेगा,पाण्डेय जी कि बात बिलकुल सही थी, आज हिंदी पट्टी में मार्क्सवाद की क्या दशा –दिशा है, यह कोई छुपी हुई बात नहीं है. पाण्डेय जी साहित्य में भी कोरी वैचारिकता के पक्षधर कभी नहीं रहे, उनके लिए कलात्मकता भी उतनी ही जरुरी थी, पाण्डेय जी के पसन्द के कवियों में कई ऐसे कवि हैं जो वामपंथी विचारधारा के नहीं हैं.
वास्तव में किसी भी विचारधारा को ठीक से समझकर अपना रास्ता बनानेवाला लेखक कभी भी संकीर्ण नहीं हो सकता, संकीर्ण तो अधकचरे वैचारिक ज्ञान वाले होते हैं, जिनके लिए विचारधारा न तो जीने का आधार होता और न ही समाज और साहित्य को समझने का माध्यम. ऐसे लोग वैचारिकता को फैशन में दुशाले कि तरह ओढ़े रहने वाले लोग हैं, इनके लिए नारे कविता है और चीखो-पुकार कहानी या उपन्यास. हिंदी में आजकल यह प्रवृति बहुत ही बढ़ रही है, लोगो ने तो बाकायदा पत्रिकाएं तक निकाल कर अन्य विचारधारा के लेखकों के प्रति निंदा-अभियान चला रखा है, बिना यह सोचे कि जिस लेखक के बारे में अनर्गल प्रलाप का प्रायोजित कार्यक्रम चलाया जा रहा है वह कितना बड़ा लेखक है और साहित्य में उसका कितना योगदान है? बहरहाल ..
पाण्डेय जी के व्यंगात्मक कटूक्तियों और हाजिरजवाबी का भी सेंटर में कोई सानी नहीं था. बल्कि यह कहा जाये कि पाण्डेय जी से सबसे अधिक लगाव होने के वावजूद विद्यार्थी सबसे अधिक डरते और घबराते भी उन्ही से थे, तो गलत नहीं होगा, किसी को पता नहीं कब सर सार्वजनिक रूप से लताड़ लगा दे या व्यंग के तीर छोड़ दें.. पाण्डेय जी जब अपनी खिंची और ऐंठी वाणी (उनके चेहरे पर कभी लकवे का आक्रमण हुआ था जिससे होंठ थोड़े तिरछे हो गए और आवाज़ थोड़ी खिंची सी निकलती है ) कोई टिप्पणी करते थे तो समां बांध देते थे, मुझे याद है कुछ छात्र अपने को बहुत ज्ञानी और मूर्धन्य समझते थे और बड़े से बड़े लेखक पर उपहासात्मक टिप्पणी कर देते थे,पाण्डेय जी की ऐसे लोगो के लिए सूक्ति थी’’ हाँ ! यहाँ कुछ छात्र ससुर अपने को रामचंद्र शुक्ल से कम मानने को तैयार नहीं हैं, दुनिया उन्हें चाहे कुछ भी न माने. एक बार का और वाकया है- नन्द किशोर नवल की एक भारी भरकम पुस्तक कवि मुक्तिबोध के उपर आई थी, सेंटर में पाण्डेय जी से हम छात्रों ने कुछ टिप्पणी चाही, सर ने अपने अंदाज में कहा – .हां .नवल जी ने इतनी मोटी पुस्तक में यही साबित करने का प्रयास किया है कि मुक्तिबोध कवि थे और मार्क्सवादी कवि थे, और अब कुछ लोग इस पर भी किताब लिखेंगे कि मुक्तिबोध आदमी भी थे.
एक और मजेदार कथा हुई थी, पाण्डेय जी के एक शोधार्थी आलोचक बनने को लालायित थे, उन्होंने ‘’साहित्य और बाज़ार ‘’विषय पर एक आलेख लिखा और मध्यप्रदेश से निकलने वाली पत्रिका में छपने को भेज दिया, लेख छप भी गया. अब उन्ही महाशय के एक अन्य साथी जिनसे उनका पुराना विवाद था, ने पाण्डेय जी के इसी विषय पर छपे एक लेख और और अन्य कुछ लेखकों की इसी से सम्बंधित लेखो के आधार पर यह सिद्ध कर दिया कि सारा लेख कट-पेस्ट के करामाती फॉर्मेट से रचा गया है ,पाण्डेय जी तक बात पहुंची तो उन्होंने पहले तो शिष्य को काफी हडकाया और जाते-जाते बोले ‘’हाँ .शुक्र है आपने मेरे लेख का ही इस्तेमाल किया, मुझे तो डर है कि आपकी प्रतिभा ऐसे ही रही तो कुछ दिन बाद \’साहित्य और समाजशास्त्र\’ (पाण्डेय जी की पुस्तक)आपके नाम से दोबारा ना छप जाये.
पाण्डेय जी जितने अनुशासित अध्यापक थे उतने ही व्यवस्थित आलोचक, इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण उनकी पुस्तकों के फूटनोट और उद्धरण को देख कर लगाया जा सकता है, जो गवाह होते हैं कि उस लेख या पुस्तक के पीछे कितना श्रम किया गया है, हालाँकि कई बार यह उनके लिए आलोचना का भी कारण भी बन जाता ,लेकिन बिना आधार के कोई बात कहना या लिखना उन्हें स्वीकार्य नहीं था ,और दूसरी बात यह भी थी कि पाण्डेय जी कि अधिकांश कृतियाँ सैद्धान्तिक आलोचना के घेरे में मानी जाती हैं, जो बिना उद्दरण के मुमकिन नहीं होती हैं,यह एक मजबूरी भी थी. पाण्डेय जी कहीं बोलने भी जाते थे तो पूरी तैयारी के साथ, सम्बंधित विषय से जुडी हर छोटी से छोटी सूचना उनके पास तैयार रहती थी, उनका होम वर्क परीक्षा देने जा रहे किसी भी छात्र को मात कर सकती थी. मुझे अच्छी तरह से याद है पाण्डेय जी से अधिक सेंटर का कोई शिक्षक पुस्तकालय के जर्नल अनुभाग में नहीं दिखता था. मुझे आज भी लगता है कि सेंटर में पाण्डेय जी और अग्रवाल जी से अधिक कोई भी छात्रों को विदेशी साहित्य की नई सूचनाएं और प्रकाशित पुस्तकों के बारे में बताता था और पढने को प्रोत्साहित ही नहीं मजबूर भी करता.
पाण्डेय जी के व्यक्तिगत जीवन में बहुत सी उलझने थी खासकर जब उनके अकेले पुत्र आनंद असमय ही काल- कवलित हो गए. किसी भी पिता के लिए इससे यंत्रणादायक कोई भी बात नहीं हो सकती कोई अन्य होता तो टूट कर बिखर जाता ,लेकिन पाण्डेय जी ने अपने जिजीविषा के दम पर इस संकट से भी बाहर निकल कर अपनी लेखन की ऊष्मा को बचाए रखा. संकट के बावजूद जीवन और लेखन चलता रहा ,चलता रहेगा यूँ ही अनवरत
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:: सो हैप्पी बर्थडे सर ::
अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
यह खुशी की बात है कि अपने गुरुवर के जन्मदिन पर कुछ लिखने का मौका मिला है. मैं जे.एन.यू. में २००३ में आया. यही वर्ष है मैनेजर पाण्डेय जी से मेरे परिचित होने का. इसके पहले मैं सिर्फ नाम जानने के तौर पर नामवर जी को ही जानता था और इस भ्रम के साथ कि नामवर जी अभी भी जे.एन.यू. में पढ़ाते हैं. फैजाबाद जिले के एक छोटे से गाँव और उससे सटे हुये डिग्री कालेज से होते हुये आया हूँ इसलिये उस समय के अपने अज्ञान पर आश्चर्य भी नहीं है. फिलहाल, पहला मौका था सीनियर बंधुओं द्वारा दिये जाने वाले ‘फ्रेसर वेलकम २००३’ का, जहाँ पहली बार यह देखकर जानना हुआ कि ‘वे सर जी पाण्डेय जी हैं’!
जब आया था यहाँ तो पाण्डेय जी, पुरुषोत्तम अग्रवाल जी और वीर भारत तलवार जी अपनी खासियतों के साथ त्रिदेव की स्थिति में प्रतिष्ठित थे. (यहाँ देव शब्द को पूजाग्रासी अर्थ में न समझा जाय) हमें गर्व है कि इन हस्तियों से मैंने ज्ञान पाया है. पहले समेस्टर में ही अग्रवाल जी और तलवार जी से पढ़ना हुआ. वे दिन थे गजब के, चंदवरदायी-कबीर-जायसी एक छोर पर तो दूसरे छोर पर भाषा-विज्ञान से लेकर उर्दू-हिन्दी विवाद जैसे नये विषय! एक नयी सी दुनिया में बाल-बुद्धि थोर थी और सहेजने-समेटने के लिये ढेर मिल रहा था! पर लेट-लतीफ सब संपन्न हो जाता था! इसी सेमेस्टर में हम सब लालायित थे पाण्डेय जी से पढ़ने के लिए. पाण्डेय जी ने अपनी इजाजत दी कि वे सूरदास पर हमें कुछ क्लासें पढ़ायेंगे. अब तक पाण्डेय जी के सूरदास पर व्यक्त किये गये उद्गार को हमने उनकी पुस्तक ‘भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य’ में ही पढ़ा था. विचारों का प्रभाव था, और एक रोमांच था पाण्डेय जी के मुख से ही इन उद्गारों को सुनने समझने का! इस क्लास में शायद ही कोई गैरहाजिर रहा हो, हम सब अपलक सुनते रहे! मैंने महसूस किया कि पुस्तक में निहित ज्ञान को पढ़कर जानना और उसे उसी लेखक के मुख से आमने सामने सुनने/समझने में कुछ वैसा ही अंतर है जैसे किसी गायक को किसी ‘माध्यम’ की सीमा के साथ सुनना और उसे ‘लाइव’ सुनना. काफी अंतर हो जाता है. संगीत की तरह ज्ञान में भी कहाँ यति और कहाँ गति होगी, यह हम आमने सामने होने पर ज्यादा समझ पाते हैं. ज्यादा पाने और ज्यादा समझ पाने का यह अनुभव सूरदास विषय पर पाण्डेय जी द्वारा मिला, जो अद्यापि हमारी विचार-सरणि में मौजूद है, हमारे सोच को यथेष्ट नियमित-निर्देषित करता हुआ. ‘हरि हैं राजनीति पढ़ि आए’ तो बहुत बार पढ़ा था, पर ‘राजनीति’ पर एक यति चाहिये और मध्यकालीन भक्त-कवियों में एक खास प्रेक्षण इस शब्दार्थ को लेकर, पुनः उस समय के एक सामाजिक सत्य का निचोड़ ले आने के लिहाज से एक अपेक्षित गति; यह सब बूझना गुरु-सान्निध्य में सहज था.
एम.ए. चौथे सेमेस्टर में एक कोर्स था : ‘साहित्य और विचारधारा’. इस कोर्स को हम लोगों ने पाण्डेय जी से ही पढ़ा. क्लास कब बीत जाता था, पता ही नहीं चलता था. एक जटिल कोर्स को इतना सहज बनाकर समझा देना, यह पाण्डेय जी की अद्वितीयता है. टेरी ईगल्टन की ‘ईडियोल्जी’ हमें विषय को बोधगम्य नहीं बना पाती, पाण्डेय जी के अध्यापन की ठेठ शैली कठिन और अपरिचित से विषयों के लिए भी एक आत्मीय प्रस्थान को निमंत्रित करती थी. यह ठेठ का ही ठाठ था कि आज भी संदर्भ याद आते रहते हैं. बाजारवाद के बर्बर उपभोगवादी मनोवृत्ति को समझाने के लिये सर जी ने ठेठ पर्याय बताया – ‘भकोसवाद’. यह ‘भकोसना’ अवधी-भोजपुरी इलाके का बेहद चर्चित शब्द है, और उपभोगवादी मनोवृत्ति के विवेकहीन पेटभराव के लिये सम्यक शब्द है यह. देशज को समय और संदर्भ के अनुसार ले आना पाण्डेय जी की ऐसी विशेषता है जो मैने अभी तक किसी अन्य हिन्दी के अध्यापक में नहीं पाई. अगर हिन्दी अपनी अ-लौकिक चाल में न चलती तो शब्दों के अपरिचय और अरुचि-पूर्णता से ग्रस्त न होती. पर लोकपक्ष की अनदेखी सतत हुई. आचार्य हजारी प्रसाद जी ने ‘शोर्टकट’ के लोकसुलभ भोजपुरी पर्याय ‘अवगाह’ को प्रस्तावित किया था पर ऐसी बातें अनदेखी की शिकार हुईं. आज भी हिन्दी का यही चरित्र है. पाण्डेय जी ने बताया था कि यह भी एक विचारधारा है – संस्कृत साहित्य के संदर्भ में – जो ग्राम्यता को दोष मानती है. इस विचार से कहूँ तो जो संस्कृत का ‘नागर’ था वही आज बढ़-चढ़ कर हिन्दी का ‘मेट्रोपालिटन’ हो गया है.
पाण्डेय जी की क्लास में कभी उचाट नहीं हो्ता था, समय फुर्र से उड़ जाता था जैसे! बीच-बीच में हास्य के पुट भी सहज आते थे, सायास नहीं. गुरुवर का ह्यूमर असाधारण है. टीबी वगैरह की विज्ञापन संस्कृति पर सर जी के कमेंट्स ऐसे थे कि जैसे किसी चीज को तार-तार करके दिखा भी दिया जाय और उसे फूँक भी दिया जाय. क्रोध के साथ निकले हुये तंज एक बेचैनी भी लिये रहते थे. यह वही दौर था जब अमेरिका के राष्ट्रपति बुश दुनिया में लोकतंत्र फैलाने का ठेका ले लिये थे! दूसरी-तीसरी क्लास में ‘बदमाश बुश’ का संदर्भ आ ही जाता था. ऐसे मौकों पर हमारे क्लास के मित्र अमेरिकावासी टाइलर सर गड़ा लेते थे कभी कभी. पाण्डेय जी के सुभाव में खरापन है, इसे भी लोकसुलभ कहूँगा, जिसकी वजह से हम मित्रों को खरी फटकार मिल भी जा्ती थी. जैसे एक मित्र को हम सब आज भी उसी समय को याद कर कहते हैं, वही बात, ‘‘चार किताब का पढ़ लिये हैं, शुक्ल-द्विवेदी को ठेंगे पर लिये फिरने लगते हैं, चले हैं ‘फ्रेम’ में ‘फिट’ करने!” एम.फिल में हम लोगों ने पाण्डेय जी से ‘साहित्य का समाजशास्त्र’ पढ़ा. यह पांडेय जी का प्रिय क्षेत्र है. सर जी ने पुस्तक भी लिखी है, ‘साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका’. क्लास में साहित्य और समाजशास्त्र के बीच के विविध-स्तरीय संबंधों को जानना आज भी एक उपलब्धि है. हिन्दी में ‘लोकप्रिय साहित्य’ (जो असाहित्यिक मानकर किनरिया दिया जाता है) की चर्चा का श्रेय सर जी को ही जाता है, साहित्य और समाज के रिश्ते को जानने की आवश्यक कड़ी!
मैं लोकभाषा प्रेमी हूँ. पाण्डेय जी को मैं इसलिये भी पसंद करता हूँ कि उन्हें अपनी लोकभाषा – मादरी जुबान – भोजपुरी से प्रगाढ़ प्रेम है. यह उनके व्यक्तित्व की शक्ति है, जीवन में सँचरी हुई है. उनकी ठेठ-दीठ जो उन्हें विलक्षण बनाती है, उसका ताल्लुक उनके भोजपुरी प्रेम से अवश्य है. पाण्डेय जी मानते हैं कि कबीर की मादरी जुबान भोजपुरी है. भोजपुरी आगे बढ़े, यह पाण्डेय जी का स्वप्न है. कुछ वर्ष पूर्व जे.एन.यू. में भोजपुरी के महान साहित्यकार भिखारी ठाकुर पर एक भोजपुरी सम्मेलन हुआ था, उसमें पाण्डेय जी की उत्साहवर्धक बातें लोकभाषा के लिए सुकर्मदीक्षा से कम नहीं थीं! पाण्डेय जी ने भोजपुरी की एक द्विभाषिक (हिन्दी व भोजपुरी) पत्रिका के निकाले जाने की जरूरत को लोगों के सामने रखा. इसके लिए वहीं पर सर जी ने अपनी तरफ से वहीं २५ हजार देने की घोषणा भी की. पत्रिका तो फिलहाल अभी तक नहीं आई, पर इन सबसे उनके हृदय में भोजपुरी के प्रति उमड़े प्रेम का दर्शन होता है. यह लोकभाषा प्रेम प्रणम्य है.
हम जो कुछ व्यक्ति-परिवेश से सीखे होते हैं वह हमारी अभिव्यक्ति में अक्सर आता रहता है. पाण्डेय जी ने हमें ज्ञानराशि से समृद्ध किया है, ये हमारी अभिव्यक्ति और चिंतन के अनिवार्य घटक से हैं, और हमेशा रहेंगे. गुरुवर के लिए मेरी हार्दिक प्रार्थनाएँ हैं कि आप दीर्घायु हों, और हम सभी को मार्गदर्शन देते रहें!! सादर..!
परितोष मणि
अज्ञेय की काव्य- दृष्टि\’ प्रकाशित.
ई-पता : dr.paritoshmani@gmail.com
अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
शोधार्थी ,जे. एन, यू.
ई पता :amrendratjnu@gmail.com
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