(पेंटिग : ABDULLAH M. I. SYED – DIVINE ECONOMY)
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ज्याँ पाल सार्त्र कहा करते थे– ‘मनुष्य स्वतंत्र होने के लिए अभिशप्त है.’ वह मध्ययुगीन बर्बरताओं से बाहर आया अब ‘आधुनिकता’ की जंजीरों को भी पहचान कर उन्हें काट रहा है. हेगेल ठीक ही कहते हैं – ‘स्वतन्त्रता की चेतना की प्रगति का विकास ही इतिहास है’.
यादवेन्द्र |
\”मलयालम के चर्चित और पुरस्कृत लेखक एस हरीश के उपन्यास \’मीशा\’ (मूंछ) की आठ दस पंक्तियों लेकर हिंदूवादी संगठनों ने केरल में बड़ा और गंदा बवाल मचाया….उपन्यास को धारावाहिक छापने वाली पत्रिका \’मातृभूमि\’ की प्रतियाँ जलाईं और लेखक को इतना धमकाया कि इसकी तीन कड़ियों के बाद उनके कहने पर पत्रिका में प्रकाशन रोक दिया गया. अन्ततः एक बड़े प्रकाशक ने साहस दिखाते हुए दस पन्द्रह दिन में ही उपन्यास पुस्तकाकार छाप दिया.
\”मातृभूमि सचित्र साप्ताहिक में मेरे उपन्यास की तीन कड़ियाँ छपीं – यह उपन्यास पिछले पाँच वर्षों के कठोर परिश्रम जा प्रतिफलन है और इसकी विषयवस्तु बचपन से मेरे मन में घर किये हुए थी. पर मैं देख रहा हूँ कि इस कृति का एक बहुत छोटा सा अंश सोशल मीडिया पर बड़े दुर्भावनापूर्ण ढंग से प्रचारित प्रसारित किया जा रहा है…
कोई दिन ऐसा नहीं बीतता जिस दिन मुझे सोशल मीडिया पर धमकियाँ न दी जाती हों. एक चैनल पर राज्य स्तर के नेता ने कहा कि चौराहे पर खड़ा कर मुझे झापड़ मारना चाहिए.
यहाँ तक कि मेरी पत्नी और दोनों बच्चों की तस्वीरें भी सोशल मीडिया पर अपमानजनक ढंग से साझा की जा रही हैं. और तो और मेरी माँ, बहन और पिता – जो अब इस दुनिया में भी नहीं हैं – तक को भी नहीं बख्शा गया. राज्य महिला आयोग और अनेक पुलिस थानों में मेरे खिलाफ़ रिपोर्ट लिखाई गयी. इन सब को ध्यान में रख कर मैंने निश्चय किया है कि अपना उपन्यास पत्रिका में आगे छपने से रोक दूँ.
यह उपन्यास भी तत्काल छपे ऐसा मेरा कोई इरादा नहीं है. जब भविष्य में मुझे लगेगा कि समाज भावनात्मक रूप से शांत हो गया है और इसे स्वीकार करने के लिए तैयार है तब मैं इस कृति को छपने के लिए दूँगा. जिन लोगों ने मुझे इतना अपमानित प्रताड़ित किया मैं उनके विरुद्ध भी कोई कानूनी कारवाई नहीं करने जा रहा हूँ…
मैं लंबे कानूनी दाँव पेंच में नहीं उलझना चाहता जिस से कम से कम आने वाले समय में अपना काम शांतिपूर्ण ढंग से कर पाऊँ. इतना ही नहीं जो सत्ता में बैठे शक्तिशाली लोग हैं मेरी क्षमता उनसे पंगा लेने की नहीं है. इस संकट में जो तमाम लोग मेरे साथ खड़े रहे उन्हें मैं तहे दिल से शुक्रिया कहना चाहता हूँ- विशेष तौर पर \’मातृभूमि\’ की संपादकीय टीम और अपने परिवार का आभारी हूँ जो निरन्तर मेरे साथ खड़े रहे.
मेरी कलम रुकेगी नहीं, आगे भी चलती रहेगी.\”
इस घटना के दस दिन बाद ही केरल के प्रमुख प्रकाशक डी सी बुक्स ने हिंदूवादी संगठनों की धमकियों को अँगूठा दिखाते हुए एस हरीश का उपन्यास \”मीशा\” पुस्तक के रूप में प्रकाशित कर दिया. इस मौके पर डी सी बुक्स ने एक महत्वपूर्ण व साहसिक वक्तव्य भी जारी किया :
\’यदि \’मीशा\’ को अब न प्रकाशित किया गया तो हम ऐसे मुकाम पर पहुँच जायेंगे जहाँ मलयालम में कोई कहानी और उपन्यास प्रकाशित करना असंभव हो जायेगा. वैकुम मोहम्मद बशीर, वी के एन, चंगमपुझा, वी टी भट्टतिरिपद जैसे बड़े और आज की पीढ़ी के लेखकों की रचनाएँ प्रकाशित करने के लिए जाने किस-किस की अनुमति लेनी पड़ेगी.\’
\’पूजा करने के लिए,और क्यों?\’
\’नहीं, तुम गौर करना….सबसे सुंदर कपड़े पहन कर, सबसे आकर्षक सज धज के साथ ही वे भगवान के सामने प्रार्थना क्यों करती हैं?…उनके अवचेतन में यह सजधज बैठी हुई है – यह इस बात का संकेत है कि वे सेक्स करने की उच्छुक हैं. यदि ऐसा नहीं है तो हर महीने चार पाँच दिन वे मंदिर की ओर रुख क्यों नहीं करतीं? अपने को सजा धजा कर वे यह घोषणा करती हैं कि अब वे इसके लिए तैयार हैं….खास तौर पर उनके निशाने पर मंदिर के पुजारी होते हैं. पहले के समय में इन सारे कामों के असली मालिक वही होते थे.\’
किताब के बारे में लेखक हरीश ने विस्तार से \’द हिन्दू\’ से बात की और कहा कि विवाद वाला प्रसंग पचास साल पहले का दो मित्रों का संवाद है. उनके अनुसार-
जिस दिन उपन्यास के पात्र लेखक का हुक्म मानने लगेंगे उसदिन सब कुछ नष्ट हो जाएगा – वास्तविक जिंदगी और कहानियाँ दोनों विसंगतियों (ऐब्सर्डिटी) के पैरों पर चलती हैं. वे कहते हैं कि वे स्वयं संवाद के स्त्री विरोधी तेवर के खिलाफ़ हैं पर किरदारों पर उनका कोई वश नहीं चलता. उनके अनुसार कहानियाँ लोकतंत्र का उच्चतर स्वरूप है जिसमें असहमतियों की पूरी जगह है.
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