(कृति : stuart Amos) |
समाज में हो रहे अच्छे बुरे बदलावों को कला और साहित्य सबसे पहले देखते और दिखाते हैं. खासकर कहानियां जब सन्दर्भ में किसी घटना को रखती हैं तब उस पर ध्यान जाता ही नहीं टिकता भी है. लेखक की अपनी समझ और सोच का कोण भी ‘कथा’ को प्रभावित करता है. देखने वाली चीज यह है कि कहानी में कथा की तार्किक परिणति हुई है या नहीं. और कथा का प्रभाव पाठक में अंत तक रूचि बनाए रख पाता है कि नहीं.
शहादत ख़ान को युवा कहने का मन होता है पर अभी वह ‘हिंदी’ के हिसाब से ‘युवा’ भी नहीं हुए हैं. महज़ २३ साल में वह मुस्लिम-हिन्दू के रिश्तों पर विचलित करने वाली कहानियाँ लिख रहे हैं. यह कहानी एक होनहार युवक के साम्प्रदायिक दुष्प्रभावों के शिकार की दारुण कथा है.
आप पढिये. उन्हें इस्लाह की भी जरूरत है और यह प्यारा लेखक इसका खैरमकदम ही करेगा.
इमरान भाई
शहादत ख़ान
उस प्रतियोगिता के बाद इमरान भाई को कॉलेज में बहुत कम देखा जाने लगा. वह कभी-कभी ही कॉलेज आते. जब कभी आते भी तो बस एक दो लेक्चर लेते या फिर लाइब्रेरी से किताबें बदल कर चले जाते. उन्होंने साजेब से भी मिलना छोड़ दिया था. लेकिन साजेब उनका इंतज़ार करता. कई बार वह उनसे मिला भी. लेकिन हर बार वह यह कहकर, “मैं अभी जल्दी में हूँ… फिर मिलेंगे”, निकल जाते. लेकिन वह फिर मिलते नहीं. साजेब उनका नंबर मिलाता तो वह ऑफ जाता.
राज्य शिक्षा बोर्डो से अच्छे नंबरों के साथ इंटरमीडिएट की परीक्षा उतीर्ण करने के बाद अधिकांश छात्रों का सपना माल रोड यानी डीयू (दिल्ली विश्विद्यालय) पहुँचने का होता है. हालांकि राजधानी में इससे अलग दो ओर विश्वविद्यालय, जामिया और जेएनयू है. फिर भी छात्रों के बीच ग्रेजुएशन की डिग्री के लिए डीयू को लेकर एक अलग ही उत्साह होता है. उन्हें इसके नाम, प्रसिद्धि, एजुकेशन कल्चर और छात्र राजनीति भी अपनी ओर खींचती है. वैसा देखा जाए तो जामिया को जहां अल्पसंख्यकों की संस्था माना जाता है वहीं जेएनयू में अधिकांशतः मास्टर्स की पढ़ाई होती है. इस कारण भी छात्र डीयू को प्राथमिकता देते हैं.
और दे भी क्यों ना. डीयू है भी भारत का ऑक्सफोर्ड. यहां से निकले अधिकांश छात्रों ने अपने-अपने क्षेत्र में खूब नाम कमाया है. इनमें देश के किसी भी राज्य (उत्तर प्रदेश) की पहली महिला मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी, दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित, बुद्धिजीवी और राजनीतिज्ञ शशि थरूर, प्रशासनिक अधिकारी और मशहूर मानवाधिकार कार्यकर्ता मेघा पाटकर, प्रथम महिला आईपीएस अधिकारी किरण बेदी से लेकर म्यामांर की लोकतंत्र समर्थक नोबेल पुरुस्कार विजेता आंग सांग सू की तक और मशहूर साहित्यकार खुशवंत सिंह, अमिताव घोष, सदी के महानायक अमिताभ बच्चन, बॉलीवुड के किंग खान शाहरुख खान, मनोज वाजपेयी, कोणका सेन शर्मा, हुमा कुरेशी, कबीर बेदी, वकील और राजनीतिज्ञ अरुण जेटली, कांग्रेस के अग्रणी नेता और वकील कपिल सिब्बल, मशहूर कम्युनिस्ट और मार्क्सवादी पार्टी की महिला नेता वृंदा करात, जानी मानी टीवी एंकर बरखा दत्त, मोंटेका सिंह अहलूवालिया, अद्भुत फिल्म निर्माता और निर्देशक इम्तियाज अली, कबीर खान, अनुराग कश्यप और साथ ही क्रिकेटर गौतम गंभीर से लेकर नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री जे. पी. कोईराला तक शामिल है.
हर साल की तरह उस साल भी देश के विभिन्न राज्यों से हजारो छात्रों ने दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिला लिया था. यू. पी. बोर्ड से नब्बे प्रतिशत अंको के साथ इंटरमीडिएट उत्तीर्ण होने पर साजेब को भी दिल्ली विश्वविद्यालय के गुरु तेग बहादुर खालसा कॉलेज में एडमिशन मिल गया था. जब वह पहले दिन कॉलेज पहुँचा तो उसने वहां खुद को एक अलग ही दुनिया में पाया था. जहां अजनबी और अनजान चेहरों की भीड़ थी. किताबों का ढ़ेर था और आधुनिकता का बोलबाला. कॉलेज आने के बाद वह बहुत से नये और अपरिचित लोगो से मिला. इनमें सबसे पहले तो उसके क्लासमेट ही थें. जिनमें से कुछ तो जल्द ही उसके अच्छे और पक्के दोस्त बन गए. फिर वह अपने सीनियर्स से मिला जो अलग-अलग ग्रुपों में उनका परिचय लेने और अपना देने के लिए उसकी क्लास में आए थें. इसके बाद वह उन लोगों से मिला जो खेल, राजनीति या फिर पढ़ाई के लिए कॉलेज में चर्चित थें. इनमें से कई लोगों से तो वह व्यक्तिगत तौर पर मिला भी था. उसने मिलकर उसे अच्छा लगा था. इसलिए उसने आगे भी उन लोगों से मेल-मुलाकात रखी थी. लेकिन इन चर्चित लोगों की भीड़ में उसका ध्यान जिस इंसान ने सबसे ज्यादा अपनी ओर आकर्षित किया वह थे इमरान भाई.
गठीले स्वस्थ शरीर वाले इमरान भाई. सांवला रंग. खिचड़ी-नुमा छोटे-काले घुंघराले बाल. आंखे अद्भूत, काली-पनीली, उन पर बारीक फ्रेम का चश्मा चढ़ा हुआ. चौड़ा माथा, लंबी नाक, फूले हुए गाल और तिक्त मुस्कुराते होंठ…. वह बनारस, उत्तर प्रदेश के रहने वाले थे और दिल्ली में ज़ाकिर नगर में रहते थे. वह कॉलेज में अंग्रेजी साहित्य में स्नातक द्वितिय वर्ष के छात्र थे. उनकी चर्चा के दो मुख्य कारण थे. एक तो वह पढ़ाई में सबसे आगे थे. उन्होंने पिछले दोनों सेमेस्टर में यूनिवर्सिटी टॉप किया था. दूसरा वह एक बेहतरीन वक्ता थे. कॉलेज में एडमिशन लेने से लेकर आज तक उन्होंने यूनिवर्सिटी के किसी भी कॉलेज के किसी भी स्तर के वाद-विवाद को नहीं छोड़ा था. उन्होंने यूनिवर्सिटी के बहात्तर के बहात्तर कॉलेज में समय-समय पर हुई सभी वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया था और संबंधित विषय पर अपने विचार रखे थे. वह कम्यूनिस्ट विचारधारा से प्रभावित थे इसलिए समाज और व्यक्ति से जुड़े विषयों पर उनके विचार इतने दमदार होते थे कि उनके बोलना शुरु करने से लेकर बंद करने तक पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजता रहता था. बोलने के इसी जादूई अंदाज के कारण वह हर प्रतियोगिता में प्रथम स्थान हासिल करते थे. यही कारण था कि उन्हें इस साल की फ्रेशर पार्टी में ‘बेस्ट स्टूडेंट ऑफ द ईयर’ और ‘बेस्ट डिबेटर ऑफ द यूनिवर्सिटी’ दोनो खिताब से नवाजा गया था.
इमरान भाई से साजेब की अभी तक कोई मुलाकात नहीं हुई थी. बस उसने उन्हें कॉलेज में ही “अखंड भारतः एक स्वप्न या हकीकत” विषय पर हुई वाद-विवाद प्रतियोगिता में बोलते हुए सुना था. उस दिन उन्होंने नीली जिंस और महरुन रंग का कुर्ता पहन रखा था. वह एक चुस्त-दुस्त वक्ता की तरह मंच पर आए और बोलना शुरु किया, “अखंड भारत एक स्वप्न तो कतई नहीं है और फिलवक्त हकीकत भी नहीं है. जैसा कि आप सभी जानते है कि सैंतालीस में विभाजन के बाद हमारा देश भारत टूटकर दो हिस्सों में बंट गया था और फिर आगे चलकर वह टूटा हिस्सा भी दो हिस्सो में बंट गया. लेकिन जब हम इतिहास में झांककर देखते हैं तो हमें भारत एक अखंड, अटूट, सशक्त और महान राष्ट्र के रूप में दिखाई देता है. जहां सद्भावना है, प्यार है, सम्मान है और है अपने राष्ट्र के प्रति असीम भक्ति-भावना. लेकिन इस नश्वर संसार में कोई भी चीज स्थायी नहीं होती. वक्त के साथ हर किसी में परिवर्तन होता है. और इस परिवर्तन का जिम्मेदार कोई ओर नहीं बल्कि खुद मनुष्य होता है. यही कारण है कि बीतते वक्त के साथ हमारे देश की अखंडता, अटूटता, सशक्ति और महानता छिन-भिन होती गई. जिसका परिणीति सैंतालीस में विभाजन के रूप में हुई. लेकिन इससे अगर हम यह मान ले कि अखंड भारत अब एक स्वप्न मात्र है तो शायद हम गलत है. गलत है हम क्योंकि हमने कभी उस स्वप्न को हकीकत में बदलने की सोची ही नहीं. मेरा मानना है कि अगर कोई इंसान पूरी ईमानदार, मेहनत और लगन से किसी स्वप्न को हकीकत में तब्दील करने में लग जाए तो कहा जाता है कि आसमान से फरिश्ते भी उसकी मदद के लिए जमीं पर उतर आते हैं. फिर यह तो सौ करोड़ लोगो का स्वप्न है. इसे तो हर हाल में पूरा होना चाहिए. आप सोचिए तो सही यदि पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी का एकीकरण हो सकता है.
फ्रांस और जर्मनी ईयू के तहत एक हो सकते है. अमेरिका और जापान दोस्त बन सकते है तो फिर भारत और पाकिस्तान एक क्यों नहीं हो सकते? सिर्फ इसलिए क्योंकि हमने उसके लिए कोई मेहनत नहीं की. और मेरे दोस्तों कोई भी स्वप्न मेहनत, साहस और कुर्बानियों के बिना वास्तविक नहीं हो सकता. अंत में मैं बस इतना कहना चाहूँगा कि भारत कल भी अखंड था और आने वाले कल में भी अखंड होगा. यह कोई भावनात्मक पहलू नहीं बल्कि हकीकत है. ये बेहतर भविष्य की माँग भी है और नियति का फैसला भी. जिसे हर हाल में पूरा होना ही होगा.”
इमरान भाई ने अपने इन विचारों को मात्र तीन मिनट में व्यक्त किया था. उन्होंने अपनी बात को सशक्त तरीके से रखे थे कि जैसे ही उन्होंने बोलना बंद किया पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा था. पूरे दो मिनट तक लोग ताली बजाते रहे थें. प्रोफेसर्स, प्रिंसिपल और मंचासीन अतिथियो को भी इमरान भाई के विचार अच्छे लगे थे. उन्होंने व्यक्तिगत रूप से इसकी तारीफ भी की थी. और हर प्रतियोगित की तरह इसमें भी उन्हे ही प्रथम पुरुस्कार मिला था.
कॉलेज आने के बाद एक रोज़ साजेब लाइब्रेरी में बैठा पढ़ रहा था जब इमरान भाई से उसकी बार मुलाकात हुई थी. इमरान भाई उसी किताब को ढूँढ रहे थे जिसे वह बैठा पढ़ रहा था. उन्होंने उससे पूछा, “क्या तुम्हें इस किताब की ज़रुरत है?”
“जी नहीं. मैं तो ऐसे ही पढ़ रहा था.“
“मुझे इसमें से कुछ नोट्स बनाने है. अगर तुमने पढ़ ली हो तो मैं इस इशु करा लूँ.”
“जी हाँ, करा लीजिए”, यह कहकर साजेब ने किताब इमरान भाई के हाथों में थमा दी.
“तुम इकॉनोमिक्स फर्स्ट ईयर में हो ना?”
“जी हाँ.”
“क्या नाम है तुम्हारा?”
“मोहम्मद साजेब.”
“कहां से?”
“लखनऊ से.”
“पढ़ाई कैसी चल रही है?”
“अच्छा चल रही है?”
“नोट्स-वोट्स बनाए या पहले से ही है?”
“नहीं. न तो अभी तक बनाए और न ही कहीं ओर से मिले है.”
“कोई नहीं… मेरा एक दोस्त है मैं तुम्हे उससे लेकर नोट्स दे दूँगा.”
“जी अच्छा.”
इमरान भाई किताब लेकर चले गए थे लेकिन साजेब को यकीन नहीं हो रहा था कि उसने अभी इमरान भाई से बात की और वह उसे खुद नोट्स लाकर देंगे. क्योंकि उसके कई क्लासमेट्स महीने भर उन्हें किसी दोस्त से नोट्स दिलाने के लिए कह रहे थे. लेकिन उन्होंने एक बार भी उनकी इस मांग पर गौर नहीं किया था. अगले दिन वह तब हैरान रह गया जब क्लास में लेक्चर के लिए जाते वक्त रास्ते में वह इमरान भाई से टकरा गया और उन्होंने अपने बैग से नोट्स का बंडल निकालकर उसे थमाते हुए कहा, “यह लो… इसकी फोटो करा लेना… और अपने क्लास के एक दो बच्चो को ओर दे देना. वो लोग काफी दिनों से मुझे नोट्स के लिए कह रहे थें.”
जब साजेब के क्लासमेट्स को इस बार में पता चला कि इमरान भाई ने साजेब को नोट्स दिए है तो उन्होंने इमरान भाई पर आरोप लगाते हुए कहा, “इमरान भाई ने साजेब को इसलिए नोट्स लाकर दिए है क्योंकि वह मुसलमान है.”
लेकिन साजेब इससे बहुत खुश था. उसने इमरान भाई की इस पहल को उनकी और अपनी दोस्ती की एक अच्छी शुरुआत समझा. इसके बाद वह उनसे कुछ कुछ दिनों के अंतराल के बाद और फिर लगभग हर रोज़ मिलने लगा. कभी किसी किताब को लेकर तो कभी किसी और कॉलेज से संबंधित मुद्दे को लेकर. वह दिन में एक-दो बार तो जरुर उनसे मिलता था. इमरान भाई भी उसे तवज्जो देते थे. वह उसे पढ़ाई को लेकर मशवरा देते और कोर्स से अलग भी कुछ किताबें पढ़ने के लिए बताते रहते. उन्होंने उसे वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में बोलने के लिए भी कहा. उसने उनके सामने हाँ तो कर दी थी, पर उसने इससे पहले कभी मंच पर बोला नहीं था. वह डर रहा था. मंच पर खड़े होते ही उसके पैर कांपने लगते थे. उसकी आवाज़ गुम हो जाती थी. होंठ एक दूसरे से चिपक जाते और वह फटी फटी जिब्हा होते जानवर की तरह सामने बैठे लोगों को देखना लगता. उसे ठंडे पसीने आने लगते. दो तीन बार वह बिना बोले ही मंच पर से उतर आया था.
पर जब इमरान ने उससे कई बार बोलने और इस पर मेहनत करने के लिए कहा तो उसने भी हिम्मत से काम लेना शुरु कर दिया था और इस पर पूरी तुनदई से उस पर मेहनत करने लगा. कुछ ही दिनों में वह काफी अच्छा बोलने लगा था. लोग भी उसके तारीफ करने लगे और उसे मंचासीन अतिथियों द्वारा सराहा भी जाने लगा. लेकिन हद तो तब हो गई जब उसने इमरान भाई की गैर-मौजूदगी में कॉलेज में हुई एक वाद-विवाद प्रतियोगिता में प्रथम पुरुस्कार जीत लिया. फिर तो इमरान भाई भी उसे अपने साथ विभिन्न कॉलेजो में होने वाली वाद-विवाद प्रतियोगिता में ले जाने लगे. इससे अलग भी वह अधिकतर समय साजेब को अपने साथ ही रखते.
एक साल बीत गया. दोनो सेमेस्टर के एग्जाम भी खत्म हो गए. परिणाम भी उसके आशानुरूप ही आया था. साजेब खुश था. नए सेमेस्टर (तीसरा) की शुरुआत पर कॉलेज से बहुत से छात्रों की विदाई हुई तो उतने ही छात्रों का स्वागत भी किया गया. जल्दी ही कॉलेज में पुराने जैसा माहौल बन गया और नए छात्र पुराने लोगों से परिचित हो गई. बीते एक साल के दौरान इमरान भाई के साथ रहने के कारण साजेब भी कॉलेज में खासा चर्चित हो गया था. लोग उसके बारे में बाते करने लगे थें. नए छात्र तो हर वक्त उसके इर्द-गिर्द घूमते रहते. साजेब ने इस सबका श्रेय इमरान भाई को दिया तो उसके क्लासमेट्स ने फिर तंज करते हुए कहा, “इमरान भाई तेरी हेल्प इसलिये करते है क्योंकि तू मुसलमान है.”
साजेब को अपने क्लासमेट्स की ये बातें कभी अच्छी नहीं लगी. उसकी समझ नहीं आया कि आखिर क्यों हर बात को उसके धर्म से जोड़कर देखा जाता है? क्या उसका व्यवहार, उसकी सलाहियत, उसकी शिक्षा और बाकी दूसरी चीज़े कोई मायने नहीं रखती है? क्या धर्म के सिवा उसकी कोई पहचान नहीं है? वह सिर्फ एक मुस्लिम लड़के रूप में देखा जाएगा और किसी रूप में नहीं? वह यह सब सोचता. लेकिन उसने ये सवाल कभी अपने क्लासमेट्स या फिर किसी ओर से नहीं किए. उसे पता था कि अगर वह इस तरह के सवाल करेगा तो सिवाएं बहस और फसाद के कुछ नहीं होगा. और वह किसी किस्म की बहस या फसाद में नहीं पड़ना चाहता था. खासतौर से उनमें जिससे कोई फायदा न हो. इसलिए उसने उनकी इस तरह की बातों का कोई जवाब नहीं दिया. वह अपने पढ़ाई में जुटा रहा और कॉलेज में होने वाली विभिन्न प्रतियोगिताओं में समारोह में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता रहा.
उन्हीं दिनों राष्ट्रीय चुनाव की घोषणा हो गई और इसके साथ ही उत्तर-प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में दंगे भड़क उठे. इमरान भाई कई सामाजिक संस्थाओं और उन संगठनों से जुड़े थे जिनका लोग कम्यूनिस्ट, छद्म सेक्युलरवादी और कट मुल्ले तक कहकर उनका मज़ाक उड़ाते हैं. वह दंगा पीड़ित लोगों की मदद के लिए गठित एक स्वयंसेवक दल में जुड़कर मुजफ्फरनगर चले गए. जाने से पहले उन्होंने साजेब से भी चलने के लिए कहा था लेकिन साजेब को कई प्रोजेक्ट्स बनाने थें और उनकी प्रजेंटेशन भी देनी थी इसलिए उसने माफी मांग ली.
इमरान भाई पंद्रह दिन बाद कॉलेज आए. जिस दिन वह कॉलेज आए उस दिन सौभाग्य से कॉलेज में “भारत में मुसलमानों की स्थिति” विषय पर वाद-विवाद प्रतियोगिता होने वाले थी. हमेशा की तरह इस बार भी इमरान भाई से पूछे बिना वक्ताओं की सूची में उनका नाम भी शामिल कर दिया गया. प्रतियोगिता शुरु होने से पहले ही हॉल खचाखच श्रोताओं से भर चुका था. जिन लोगों को बैठने के लिए कुर्सी नहीं मिली थी वह नीचे बैठ गए और जिन्हें नीचे भी बैठने के लिए जगह नहीं मिली वह एक दूसरे का साहरा लेकर चिपककर खड़े हो गए. बड़ा गहमा-गहमी का आलम था. लोग इमरान भाई को सुनने के लिए उतावले थे.
मंच पर प्रिंसिपल के साथ अतिथिगण आए. अतिथियों ने बारी बारी से अपना परिचय दिया. संबंधित विषय पर अपने कुछ विचार भी रखे. लोगों ने उन्हें अनमने भाव से सुना. प्रतियोगिता शुरु हुई और मंच पर एक-एक कर वक्ता आने लगे. सभी ने भारत में मुसलमानों की स्थिति पर अपने विचार रखे और चले गए. श्रोताओं ने भी उनके विचारों की वास्तविकता के अनुसार ताली बजाकर उनका उत्साह बढ़ाया. छः वक्ताओं के बाद जैसे ही इमरान भाई के नाम का ऐलान हुआ तो मानो हॉल में बिजली दौड़ गई. पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. प्रिंसिपल के चेहरे पर भी मुस्कुराहट तैर गई. अतिथिगण गर्दन इधर-उधर घुमाकर देखने लगे जैसे पूछ रहे हो, ये कौन है जिससे सुनने के लिए लोग इतने उतावले है और जिसके के लिए वह इतने उत्साह के साथ ताली बजा रहे हैं? इमरान भाई मंच पर आए. लेकिन उनका वह चिरपरिचित एक जोशीले वक्ता जैसा अंदाज़ गायब था. उनके चेहरे की चमक भी गायब थी और उस पर निराशा और हताशा के बादल तैर रहे थे. लेकिन श्रोताओं ने इस ओर ध्यान नहीं दिया और वह उत्साह में तब तक ताली बजाते रहे जब तक इमरान भाई ने बोलना शुरु कर नहीं कर दिया. “सम्मानीय प्रधानाचार्य, अतिथिगण और मेरे प्यारे साथियो”, उन्होंने बोलना शुरु किया “जैसा कि आप सभी जानते है इस प्रतियोगिता का विषय- भारत में मुसलमानों की स्थिति है. यहां, इस पर इस विषय के पक्ष और विपक्ष, दोनों ओर के वक्ता है. लेकिन मेरा मानना है कि इस विषय पर किसी पक्ष या विपक्ष की ज़रुरत नहीं है. क्योंकि भारत में मुसलमानों की जो स्थिति है वह सब आपके सामने है.
मुझे लगता है वो यहां एक कुत्ते-बिल्ली से ज्यादा हैसियत नहीं रखते. बल्कि सच कहूं उनकी हालात इन जानवरों से भी बदतर है. यहां उनका कोई ख़ैर-ख़्वाह नहीं है. कोई उन्हें पूछने वाला या उनकी समस्याओं की ओर ध्यान देने वाला नहीं है. राजनेता उनके वोट तो लेते है पर उनकी बस्तियों में स्कूल या अस्पताल नहीं खोलते. वa उन्हें चुनाव के दौरान आरक्षण, नौकरी और न जाने क्या क्या देने की बात करते हैं, लेकिन चुनाव के बाद उन्हें इस तरह भुला दिया जाता है जैसे उनका कोई अस्तित्व ही न हो. और चुनाव से पहले ही वो उनके साथ क्या किया जाता है? अभी आपने मुजफ्फरनगर देखा. उससे पहले, कभी गुजरात में, कभी मध्य-प्रदेश तो कभी राजस्थान में, कभी अयोध्या में तो कभी दरभंगा उन्हें गाजर-मुली की तरह काट दिया जाता है. उनके घरों को फूस के ढेर की तरह जला दिया जाता है. उनकी बेटियों के साथ खिलौने के तरह खेला जाता है. उनके साथ बलात्कार किया जाता है. उनकी माँ-बहनों को बेआबरू किया जाता है. सिर्फ इसलिए कि वे मुसलमान हैं. मैं अभी मुजफ्फरनगर से लौटकर आया हूँ. मैंने वहां अपने घरों के लिए रोते लोगों को देखा है.
एक बूढ़े बाप को सिकुड़ी और लटकी खाल वाले कांपते हाथों से अपने जवान बेटे की लाश को दफनाते देखा है. उन लोगों को देखा है जिनकी बेटियों का पता नहीं कि वे कहां है? एक माँ को देखा है जो मर चुके अपने बच्चे के लिए रो रही थी. एक दूसरी औरत अपने शौहर की मौत के बाद कब्रिस्तान में बनी झोंपडी में इद्दत के लिए बैठी थी. छुपकर बैठी बलात्कारित लड़कियों को देखा है. मैं जब ये सब देख रहा तो एक छोटे से मासूम बच्चे ने मेरे कुर्ते का पल्लू का पकड़कर पूछा, ‘मेरे अब्बू कहां है?’ उसके अब्बू दंगे में मारे गए और अब वह अपनी विकलांग माँ और दो भाई बहनों के उस बदबू मारते शिविर में रह रहा है.
अब मुझे बताओ कि मैं उससे क्या कहूँ? क्या जवाब दूँ मैं उसे? क्या कहूं कि उसके अब्बू जी कहां है? या फिर उसे उनके लोगों के सामने लेकर जाकर खड़ा करुं जिन्होंने पड़ोसी होने के बावजूद उसके बाप को कत्ल कर दिया?उसे बताऊं कि उसके अब्बू सिर्फ इसलिए मार दिया गया कि उसका गुनाह ये था कि वह मुसलमान था? उसने एक मुसलमान के रूप में जन्म लेकर एक गंभीरता जुर्म किया था. और कि उसे मारने वाले महान हिंदू राष्ट्रवादी है? कि वह उन्हें सिर्फ इसलिए मार रहे हैं कि वह चुनावों में अपनी जीत सुनिश्चित कर सकें? इसलिए वह मारे जाएंगे?उनके घरों को जालाया जाएगा?उनकी माँ बहनों के साथ बलात्कार किया जाएगा? उनमें से हर एक कत्ल किया जाएगा? वो भी सिर्फ इसलिए कि वह मुसलमान है?” यह कहते हुए रो पड़े.
पूरे हॉल में खामोशी छा गई. एक भयानक और हिला देनी वाली खामोशी. ऐसी खामोशी जिसमें वहां सैकड़ों लोगों की सांसों की आवाज़ें भी नहीं सुनाई दे रही थी. उन्होंने अपना चश्मा उतारा और हाथ से अपने आँसू साफ किए. उन्होंने फिर चश्मा पहना और एक लंबी साँस लेकर दोबारा कहना शुरु किया, “माफ कीजिएगा, शायद में कुछ ज्यादा ही भावुक हो गया हूँ.” वह रुकते है. फिर थोड़ा संभल कर दोबारा बोलना शुरु करते है, “लेकिन मैं इस सब की शिकायत आपसे क्यों कर रहा हूँ? क्यों आपके सामने अपने दुखड़े सुना रहा हूँ? क्यों? आप भी तो उनमें से ही एक हैं. भले ही आप यहां बैठ कर खुद को बुद्धिजीवी, कम्यूनिस्ट, सोशलिस्ट, मानवतावादी या फिर कुछ कहते रहे, पर चुनावों के वक्त आप उन्हें ही वोट देंगे. उन्हें विधायक, सांसद, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बनाएंगे. उन हत्यारों को. क्यों नहीं… वह आपका महान हिंदू राष्ट्रवाद का वादा जो पूरा करेंगे. आप भले ही बाहर कुछ भी नज़र आते हो… पर आपकी अंदर की दबी इच्छा यही है.
इसीलिए तो तुम खामोश समर्थन करते हो उस आतंक का जो मुसलमान के खिलाफ बार बार किया जा सकता है. चुनाव में जीत के लिए. बहुतम के ध्रुवीकरण के लिए. उस वक्त इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि देश को कौन चला रहा है- एक हत्यारा या समझदार और नेक इंसान.” वह चुप हो गए. कुछ पल रुके और फिर बोले, “लेकिन मैं आपसे एक बात साफ-साफ कह देना चाहता हूँ कि हम, हम भारतीय मुस्लिम बांग्लादेशी हिंदू नहीं है, जो अफवाहों या फिर महज झूठी धमकियों से डरकर अपना मुल्क छोड़ दें… और न ही हम जर्मन यहूदी है जो चुपचाप मार खाते रहेंगे और कत्ल होते रहेंगे, सिर्फ इसलिए कि हम अल्पसंख्यक है और बहुसंख्यक को हमारे ऊपर जुल्म का करने जन्मसिद्ध अधिकार है.
हम हिंदुस्तानी मुसलमान है. यदि हम अपने देश की आन के लिए अपने सिर कलम करवा सकते हैं. दुनिया सबसे शक्तिशाली ब्रितानवी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंक सकते है. 1857 की क्रांति में लाखों सिर कलम करवा सकते हैं तो फिर आज हम अपनी सुरक्षा और सम्मान के लिए जंग-ए-बदर (इस्लामिक इसिहास की पहली लड़ाई. जिसमें महज 365 मुसलमानों ने हज़ारों सैनिकों की मक्कावासियों की फौज को करारी शिकस्त दी थी.) दोहरा सकते हैं.”
इमरान भाई ने बोलना बंद किया. मंच उतरे और हॉल से बाहर निकल गए. कहीं कोई आवाज़ नहीं. तालियों की कोई गूंज नहीं. सब एकदम चुपचाप. ऐसा लगता था जैसे वहां कोई शोक सभा हो रही थी जिसमें बोलना वर्जित था. शायद यह इमरान भाई का पहला व्याख्यान था जिसके खत्म होने पर तालियों की गड़गड़ाहट नहीं हुई थी. और शायद ऐसी पहली प्रतियोगिता जिसमें उन्हें प्रथम पुरुस्कार नहीं मिला था.
उस प्रतियोगिता के बाद इमरान भाई को कॉलेज में बहुत कम देखा जाने लगा. वह कभी-कभी ही कॉलेज आते. जब कभी आते भी तो बस एक दो लेक्चर लेते या फिर लाइब्रेरी से किताबें बदल कर चले जाते. उन्होंने साजेब से भी मिलना छोड़ दिया था. लेकिन साजेब उनका इंतज़ार करता. कई बार वह उनसे मिला भी. लेकिन हर बार वह यह कहकर, “मैं अभी जल्दी में हूँ… फिर मिलेंगे”, निकल जाते. लेकिन वह फिर मिलते नहीं. साजेब उनका नंबर मिलाता तो वह ऑफ जाता.
इसी तरह दूसरा साल भी बीत गया और इमरान भाई ने कॉलेज को अलविदा कह दिया. विदाई समारोह से पहले साजेब ने सोचा था कि इमरान भाई फेरवेल पार्टी में शामिल होने आख़िरी बार तो कॉलेज आएंगे ही. तब उनसे ज़रूर मिलेगा. साथ ही उनका नया मोबाईल नंबर और घर का पता भी ले लेगा. समारोह हो गया. लेकिन इमरान भाई नहीं आए.
इमरान भाई के न आने से साजेब को बहुत बुरा लगा. साथ ही दुख भी हुआ. वह उदास हो गया. लेकिन जल्दी वह इस सब को भूल गया और आने वाले एग्जाम्स और उनसे संबंधित एसाइनमेंट्स में व्यस्त हो गया. उसने कभी अच्छे एसाइनमेंट्स बनाए. क्लास में लगभग सबसे बेहतर. एग्जाम भी उसके अच्छे ही हुए थे और वह बहुत अच्छे नंबरों से पास भी हो गया था. ग्रेजुएशन पूरी करने के बाद वह आगे पढ़ना चाहता था लेकिन घर हालात उसे इस बात की इजाज़त नहीं देते थे. इसलिए उसने आगे पढ़ने की बजाय एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी पकड़ ली.
हालांकि कॉलेज के आखिरी दिनों में और उसके उसके बाद नौकरी भाग-दौड़ के दरमियान भी बार बार उसका ध्यान इमरान की ओर चला जाता और वह उन्हें याद करके दुखी होता. कॉलेज के अपने आख़िरी दिनों कॉलेज आने वाले हर पास आउट से, जो भी इमरान भाई को जानता था वह उनके बारे पूछता. लेकिन हर कोई यह कहकर इंकार कर देता कि कॉलेज से निकलने के बाद उसका उनसे कोई संपर्क नहीं हुआ. नौकरी के दौरान भी वह किसी समारोह या फिर कहीं ओर भी मिलने वाले अपने और इमरान भाई के क्लासमेट्स, अन्य दोस्तों और जानने वालों से उनके बारे में पूछता, लेकिन हर कोई मना कर देता.
वह इतवार का दिन था. उस दिन भी वह हर इतवार की तरह देर से सोकर उठा था. उठकर फ्रेश होने के बाद उसने चाय बनाई और फिर एक कप में लेकर बालकॉनी में जाकर बैठ गया. सामने सड़क पर देखते हुए उसने एक घूंट चाय पी और फिर उठकर अंदर कमरे में चला आया. उसने दरवाज़े के पास पड़ा अखबार उठाया और फिर से बालकॉनी में आकर कुर्सी पर बैठ गया. अब वह चाय पीता हुआ सामने सड़क पर देखने की बजाय अखबार में छपी खबरों पर सरसरी नज़रे दौड़ाता हुआ उसके पन्ने पलट रहा था. तभी उसकी नज़र एक खबर पर अटक गई. खबर का शीर्षक था, “संदिग्ध सिमी आतंकी मुठभेड़ में ढ़ेर.” इसके साथ ही एक क्षत-विक्षत शव की फोटो लगी थी. खबर का इंट्रो था, “भारत-नेपाल बॉर्डर के पास शनिवार की रात सुरक्षाबलो ने एक संदिग्ध सिमी आतंकी को मुठभेड में मार गिराया है. आतंकी की पहचान इमरान खान के रूप में हुई है. इमरान खान दिल्ली विश्वविद्यालय का पूर्व छात्र रह चुका है.”
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शहादत ख़ान
(April 14, 1995)
रेख़्ता (ए उर्दू पोएट्री साइट) में कार्यरत, दिल्ली
7065710789. /786shahadatkhan@gmail.com