दिनेश कर्नाटक
हामिद तो आपको याद ही होगा ना. अपनी ईदगाह कहानी वाला हामिद. वही जिसके अम्मी-अब्बू किसी नामुराद बीमारी की भेंट चढ़ गये थे. जो अपनी बूढ़ी दादी अमीना के साथ अकेले रहता था. जो अपने दोस्तों के साथ ईदगाह जाने को लेकर खुश था. जिसे बूढ़ी दादी ने तीन आने दिये थे. जिसने खिलौने, मिठाई में पैसे खर्च करने के बजाय चिमटा लिया था. जिसके चिमटे ने वकील, पुलिस के सिपाही, शेर सबको हरा दिया था. जिसके चिमटे को देखकर न सिर्फ उसकी दादी भाव-विभोर हो गई थी, बल्कि हम सबकी आंखों में भी आंसू आ गये थे. वही हामिद जिसने हम को प्रेरित किया था कि हम भी एक बार कोई न कोई ऐसा काम जरूर करेंगे कि हमारी दादी भी हमें गले से भींच लेगी और अपनी बेशकीमती दुवाओं से हमें संसार का सबसे अमीर आदमी बना देगी.
वही हामिद अब स्कूल में पढ़ता था. मगर पढ़ाई से कहीं ज्यादा उसे खेलना पसंद था. हर समय उसका मन खेलने को करता. खेल के नाम से उसका मन पतंग की तरह आकाश में उड़ने लगता. सच तो यह है कि अगर उसे कोई साथ देने वाला मिल जाता तो वह दिन-रात बगैर खाये-पीये खेलता रहता. वह तो अम्मी उसे दूर से गालियां देती हुई दिखती तब उसे होश आता कि घर जाना भी जरूरी होता है. नामुराद बैट-बल्ला तो उसे इतना पसंद था कि सोते हुए भी उसका मन उनसे अलग होने का नहीं होता था. उसका बस चलता तो बैट-बल्ले को ही साथ रखकर सो जाता. मगर अम्मी का खौफ उसे मनमर्जी करने से रोकता था. दोनों को वह ऐसी जगह पर रखता था कि जैसे ही कोई खेलने वाला मिल जाता तो इतनी तेजी से दोनों को निकाल कर लाता कि खेलने को आये हुए उसके दोस्त भी दंग रह जाते थे. हर रोज वह उन्हें किसी नयी जगह छुपा देता ताकि फिर से अम्मी कोई नया बवाल न खड़ा कर दे. उसके लिये दोनों दुनिया की सबसे कीमती चीजें थी.
उसका बैट-बॉल तथा दीगर खेलों के पीछे इस तरह पगलाये रहना अम्मी-अब्बू को पसंद नहीं था. दोनों उसके मुस्तकबिल को लेकर परेशान रहते थे. कहते, इस लौंडे के यही रंग-ढंग रहे तो किसी काम का नहीं रह जायेगा. वे चाहते थे, लौंडा उनके खानदानी फर्नीचर के काम में रूचि ले. उन्हें जितना भरोसा अपने इस पुश्तैनी काम पर था, उतना पढ़ाई पर नहीं था. दोनों को लगता, लड़के को हुनर आ गया तो और जो कुछ हो जाये मगर भूखा नहीं मरने का. अम्मी ने यही सोचकर एक-दो बार उसके बैट-बॉल को गायब कर दिया था. मगर अम्मी पर शक होते ही हामिद मियां ने वो तूफान मचाया कि पूरा मौहल्ला घर के सामने आकर खड़ा हो गया और हार कर अम्मी को मुंह पर कपड़ा बांधकर कूड़े के ढेर से मुए बैट-बल्ले को लाना पड़ा. दोनों के सामने आते ही लौंडे की आंखें में ऐसी चमक आयी कि उसी समय किसी को तैयार कर भाईजान ने खेलना शुरू कर दिया.
जाड़ों की छुट्टियां पड़ने वाली थी. हामिद मन ही मन बहुत खुश था. उसने सोच रखा था, इस बार वह दोस्तों के साथ खूब खेलेगा. लेकिन उसे क्या पता साजिश भी कोई चीज होती है. वही हुआ जिसका उसे डर था ? छुट्टियों का पहला दिन था. हामिद मियां अपने दोस्तों के साथ मैदान की ओर जाने के बजाय दुकान की ओर जा रहे थे. आज से ही उसकी छुट्टियां शुरू हुई थी और आज ही अब्बू को काम के लिए बाहर जाना पड़ रहा था. सुबह-सुबह घर में सवाल खड़ा हो गया कि दुकान कौन खोलेगा ? दुकान का खुलना जरूरी था. जिम्मा उसके बड़े भाई कासिम और उसके ऊपर ही आना था. कासिम ने घर में पहले से ही कह दिया था कि इस बार छुट्टियों में उससे दुकान या काम पर जाने के लिए न कहा जाए. उसे दसवीं के बोर्ड के इम्तहान में अच्छे नंबरों से पास होना था.
हामिद कितने दिनों से इन छुट्टियों का इंतजार कर रहा था. स्कूल उसके लिए कैद खाने जैसा था. रोज वही प्रार्थना, वही प्रतीज्ञा. वही घंटी. वही शिक्षकों का सुई की नोक पर आना-जाना. कोर्स को रेल की तरह भगाये ले जाना. किताब-कॉपी. डंडा-श्याममपट. लिखना-रटना. काम पूरा करना. वरना मार खाना. हर रोज वह बुरी तरह पक जाता था. वह तो गनीमत थी कि हाफटाईम होता था और वह दोस्तों के साथ कुछ न कुछ खेल लेता था.
उसने सोच रखा था, इन छुट्टियों के दौरान वह खूब मजे करेगा. स्कूल में खेलना नहीं हो पाता था. रोज मन में कसक रह जाती थी. मगर छुट्टियों में वह छककर खेल लेना चाहता था. छुट्टियों का आना उसे ईद के आने का जैसा लग रहा था. उसे हर ओर खुशियाँ ही खुशियाँ, रंग ही रंग नजर आ रहे थे. आस-पास की दुनिया बदली-बदली सी लग रही थी. मन में कैसे-कैसे ख्याल थे ? क्रिकेट तो थी ही-चींटो, चोर-सिपाही, छुपन-छुपाई के साथ जी भरकर साइकिल चलाने का इरादा था. मगर अब ऐसा लग रहा था जैसे सब कुछ एक झटके में खत्म हो गया.
अब्बू और अम्मी मौका मिलते ही समझाने लगते थे कि असली चीज है हाथ का हुनर. एक बार को पढ़ा-लिखा आदमी बेरोजगार रह सकता है, मगर हुनरमंद आदमी को कभी काम की कमी नहीं रहती. ‘हो जाओ तुम अच्छे नंबरों से पास. ले आओ फर्स्ट डिवीजन. कौन दिलवा रिया तुम को नौकरी ?‘ मगर कासिम के खयालात कुछ और ही हैं. वो कहता है, ‘आज के जमाने में पढ़ाई ही असली चीज है ! पढ़-लिखकर ही अपने हालात बदले जा सकते हैं. वरना चीरते रहो लकड़ी, ठोंकते रहो कीलें, कुछ नहीं होनेका ! जैसे हो वैसे ही बने रहोगे !’
हामिद ने दुकान जाने से बचने की भरपूर कोशिश की थी. उसने अब्बू से कासिम को भेजने को कहा. हामिद का रूंआसा चेहरा देखकर अब्बू ने कासिम को समझाते हुए कहा, ‘तू दुकान में रहेगा तो गाहक से बात कर लेगा. हामिद अभी छोटा है. क्या समझेगा ? क्या समझायेगा ? इसे साथ लेकर दुकान चले जइ्यो. वहीं पढ़ लेना. कौन सा वहां तुझे कोई काम करना पड़ रिया है ? दुकनदारी का उसूल है कि चाहे दुकनदार के सामने कैसी भी मजबूरी क्यों न हो, दुकान रोज समय से खुल जानी चाहिए.’
जवाब में कासिम ने कहा, ‘अब्बू, ये साल मेरे लिए बड़ा कीमती है. इसके बाद तुम जो कहोगे मुझे मंजूर होगा. मैं खुद ही तुम्हारे साथ काम पर चले चलूंगा ! आप की कसम दुकान पर पढ़ाई नहीं हो पाती. कोई न कोई आकर ‘डिस्टर्ब’ कर देता है.’
अब्बू को झटका सा लगा था. आसमान की ओर देखकर कहने लगे-‘ऐ मेरे खुदा, ऐसे समय के बारे में तो नहीं सोचा था. घर में दो-दो लौंडों के होते हुए दुकान नी खुलेगी और अकेले काम पर जाना पड़ेगा. न जाने आगे जाकर कैसा समय देखना है ?’
कासिम ने तिलमिला कर कहा था, ‘अब्बू अब ऐसी बात मत करो ! क्या मैं अपनी मर्जी से काम करने नहीं आ जाता ? कब मैंने आपको अकेला छोड़ा ?’
हामिद मायूस हो चुका था. काफी मायूस. उसे लग रहा था, जैसे फिल्डिंग सजने के बाद बॉलर पहली बॉल फेंकने ही वाला था कि अचानक पानी बरसने लगा और देर तक इंतजार करने के बाद सबको हार कर घर की ओर को जाना पड़ा.
हामिद समझता था कि दुकान के भरोसे ही उनकी गुजर-बसर चलती है. दुकान उनके लिए दूसरी कई बातों से पहले है. स्कूल से आने के बाद रोज ही अम्मी उसे किसी न किसी काम से दुकान भेज देती थी. लेकिन स्कूल की छुट्टियों के दौरान वह कोई भी काम नहीं करना चाहता था. उसने ठान रखी थी, जब छुट्टियां हमारी हैं तो मर्जी भी हमारी ही चलनी चाहिए. दुकान जाने का उसका बिलकुल भी मन नहीं था. लेकिन जब अब्बू ने जाते हुए उसका नाम लेकर कह दिया कि ‘समय से दुकान खोल दियो‘ तो जवाब में वह ‘कुछ नहीं’ कह पाया था. उसी समय से उसके थोपड़े पर बारह बज गये थे. बाद में भी मना करने का मतलब था अम्मी का वही बार-बार दोहराये जाने वाला लंबा-चौड़ा भाषण जिसे सुन-सुनकर उसके कान पक चुके थे. स्कूल में गुरुजी की सुनो. घर में अम्मी-अब्बू की. उसने सोचा इससे अच्छा तो चुपचाप दुकान को चल दूं.
दुकान को जाते हुए वह सोच रहा था, कि अगर कासिम भी उसके साथ होता तो मौका मिलते ही वह दुकान से खिसक लेता. मगर अब वह बुरी तरह से फंस चुका था.
तभी उसे शहदाब और आसिफ अपने घर के बाहर खेलते हुए दिखे. दोनों कितने खुश थे. उसे देखकर पूछने लगे, ‘हामिद, दुकान जा रिया है क्या ?’
दुकान का नाम सुनते ही हामिद का मन रोने को हो आया था. उसे लगा, दोनों ने जान-बूझकर उसे चिढ़ाने के लिए दुकान का नाम लिया. दोनों को गाली देकर वह आगे बढ़ गया.
हामिद ने एक-एक कर बैड, मुर्गी का दड़बा, ऑलमारी और चौखट को निकालकर बाहर रखा. दुकान की सफाई की. लकड़ी की फंटियों और इधर-उधर बिखरे हुए सामान को सहेजने के बाद वह काउंटर पर बैठ गया. अगरबत्ती सुलगाई. कुछ देर सामने पड़े कागजात उलटता-पलटता रहा. फिर उसका मन इन सब से उचटने लगा. अचानक उसे अपने छोटे भांजे कादिर की याद आयी. पिछले साल जब वह अम्मी के साथ बाजी के वहां गया था तो कादिर के साथ उसे खूब मजा आया था. कभी वह उसके पेट पर चढ़ता, कभी उसके बाल खींचता और कभी ठुमक-ठुमक कर दौड़ता. अपनी अनजान भाषा में वह हामिद से न जाने क्या-क्या कहता. इन छुट्टियों में भी उसे बाजी के वहां जाने का मौका मिलता तो कितना मजा आता. कुछ दिन पहले जब उसने यह बात अम्मी से कही तो भड़ककर कहने लगी, ‘चुप करके अब्बू के साथ काम सीख. देख नहीं रिया है अड़ौस-पड़ौस के लड़के सारा काम कर लेवे हैं. और सब को छोड़. अपने बड़े भाई को देख पढ़ने का भी अच्छा और काम में भी होशियार ! एक तू है…….हर बखत खेलने-कूदने और आवारागर्दी की बात सोचता रहता है.’
हामिद को लगता है, अम्मी को उसकी ख़ुशी से कोई मतलब नहीं ! खेलने के नाम से तो जैसे उन्हें नफरत है. वो तो अब्बू हैं जो अम्मी से कह देते हैं, ‘अरे अभी नहीं खेलेगा तो फिर कब खेलेगा ? हर वक्त की किच-किच अच्छी नहीं हुवा करती !’
अम्मी चिढ़कर अब्बू से कहती- ‘बाद में लौंडों को बिगाड़ने का इल्जाम मत लगइयो !’
हामिद सोचता, ‘आखिरकार अम्मी को खेलने से इतनी नफरत क्यों है ?‘ अलबत्ता उसे कोई मुकम्मल जवाब नहीं मिल पाता था.
दोपहर के समय जब हामिद घर में खाने के लिए गया तो उसका किसी से बातचीत करने का मन नहीं था. घर में सब खुश थे. उनको क्या पता कि उस पर क्या बीत रही है ? अम्मी और भाई ने उसकी हौसला अफजाही करने की कोशिश की. उसने चुपचाप खाना खाया और दुकान लौट आया. अम्मी ने कॉपी-किताब साथ ले जाने का मशविरा दिया जिसे उसने अनसुना कर दिया.
अब वह अपने दोस्तों के बारे में सोच रहा था. सभी कितने खुश होंगे. कितने मजे से खेल रहे होंगे. कितनी मस्ती कर रहे होंगे. उसकी गैरमौजूदगी में राशिद और फैजान ने दो टीमें बनाई होंगी. फिर खेल शुरू हुआ होगा. किसी ने डिबरी पर निशाना लगाया होगा. डिबरी के बिखरते ही सब भागने लगे होंगे. कभी कोई आउट होता होगा तो कभी कोई डिबरी बनाने में कामयाब हो जाता होगा. ख़ुशी के मारे सब चीख-चिल्ला रहे होंगे. ऐसे ही खेलते हुए शाम हो जाएगी. फिर उन्हें भूख लगने लगेगी और कुछ खाने को मिलने की उम्मीद में वे घर की ओर को चल देंगे.
‘लग गई भूख…..आ गई घर की याद…..क्यों लौट आए……..खेलते रहते……..!’ उनकी अम्मी उन्हें ताना देगी. वे चुपचाप अम्मी की डांट सुनते रहेंगे. अम्मी ने कुछ दिया तो ठीक वरना बर्तनों को उलट-पलटकर वे कुछ न कुछ ढूंढ लेंगे. कुछ देर अम्मी की नजरों के सामने बने रहने के बाद मौका मिलते ही फिर से गायब हो जाएंगे. अब वे सब स्कूल के मैदान की ओर को जाएंगे. वहां वे क्रिकेट खेलेंगे. हामिद ने ठान रखा था, इस बार वह जल्दी आउट नहीं होगा. क्रीज में डटा रहेगा. सभी का पसीना निकालकर रख देगा. धौनी की तरह खूब चौके-छक्के लगायेगा !
मगर वह दुकान में था. उसने सोच लिया था, घर जाकर वह किसी से बातचीत नहीं करेगा.
दुकान जाते हुए हामिद को तीन दिन हो चुके थे. वह ही जानता है यह समय उसने कितनी तकलीफ के साथ बिताया था. उसका कल का दिन भी उदासी, गुस्से और दोस्तों के बारे में सोचते हुए बीता था. इस दौरान उसकी छुट्टियों में खेलने को लेकर अम्मी से तीखी बहस हुई थी.
अम्मी ने कहा था-‘ये ही नहीं किसी भी छुट्टी में खेलने की बात भूल जइयो. तुझे छुट्टियों में अब्बू के काम में हाथ बंटाना होगा.’
‘मैं नहीं करने का कोई काम-धाम.’ उसने छूटते हुए कहा था.
‘तो जहां जायेगा वहीं खाने-पीने का इंतजाम भी कर लियो. यहां सूरत मत दिखइयो. ऐसे नालायकों के लिए यहां कोई जगह नहीं.’
‘मैं छुट्टियों में नहीं खेलूंगा तो कब खेलूंगा ? छुट्टियां तो मेरी हैं.’ उसने रूंआसा होकर कहा था.
‘ये बात दिमाग से निकाल दे. तेरा कुछ नहीं है. सब हमारा है. तेरो को हमने जन्म दिया है. जैसा कहेंगे, वैसा करेगा. वो तो गनीमत समझ अब्बू तुम्हें स्कूल भिजवा देते हैं. औरों के मां-बाप तो स्कूल भी न भिजवाते.’ अम्मी ने बड़ी रूखाई से कहा था.
उसके पास अम्मी की इस कड़वी बात का कोई जवाब नहीं था.
आज दुकान की साफ-सफाई करने के बाद जब वह काउंटर पर बैठा तो उसे अपने ऊपर गुस्सा आया. वह सोच रहा था, इस तरह बगैर कुछ किए खाली बैठे हुए कैसे वक्त गुजारा जा सकता है? उसका ध्यान बगल की दुकान में काम करने वाले आमिर की ओर गया. वह उसकी ही उम्र का था. सोचा, उस से बात कर लेता हूं. वह टीन काटने में लगा हुआ था. कुछ देर तक वह उसे काम करते हुए देखता रहा. वह अपने काम में खोया हुआ था. हामिद को लगा उसे देखकर वह खुश होगा और बातचीत करेगा. लेकिन उसने एक बार मुस्करा कर उसकी ओर देखा फिर अपने काम में लग गया. हामिद को लगा मानो उसे अपने काम में ही खेल का मजा आ रहा था.
कुछ देर यूं ही बेकार बैठे रहने के बाद हामिद ने सोचा क्यों न कुछ काम किया जाए ? इसी बहाने वह कुछ सीख जायेगा और समय भी बीत जाएगा.
उसने पटली बनाने की सोची. कमरे से लकड़ी लाकर वह काम पर लग गया. पहला काम था, चौड़ी लकड़ी को आयताकार काटना. फिर बराबर के दो पाए बनाना. कुछ ही देर में, वह काम में मशगूल हो गया. पटली तैयार हो चुकी थी, लेकिन तैयार पटली में उसे कोई खास बात नजर नहीं आयी. ऐसी तो कोई भी बना देगा. अब्बू कहते हैं, गाहक को नए-नए डिजायन पसंद आते हैं. क्यों न वह भी कोई नया डिजायन निकाले ? कुछ अलग तरह का. कुछ खास. जिसे देखकर अब्बू खुश हो जाएं. उसने डिजायन निकालना शुरू ही किया था कि उसके हाथ पर आरी लग गयी. काफी दर्द होने लगा. खून भी बहने लगा. उसकी आंखों में आंसू आ गए. कपड़े का एक चिथड़ा ढूंढकर उसने कटी हुई जगह को बांध दिया.
जब दर्द कम हो गया तो उसने सोचा, ‘जो भी हो आज तो मैं नई डिजायन की पटली बनाकर ही रहूंगा !’
वह फिर से काम में जुट गया. मगर आरी से अपनी मर्जी का काम लेना आसान नहीं था. इस बार पैर का नंबर था. शुक्र है ज्यादा नहीं कटा.
कुछ देर सुस्ताने के बाद वह फिर से पटली पर डिजायन निकालने में जुट गया. बीच में कुछ लोग अब्बू को पूछने आए थे. उसने उन्हें बताया कि वो एक-दो दिन के बाद ही मिलेंगे. पटली पर काम करते हुए पूरा दिन बीत गया. उसने सोचा था एक जोरदार चीज बनाकर सब को चौंका देगा, लेकिन शाम को जो चीज तैयार होकर उसके सामने पड़ी थी. वह उसकी उम्मीद के मुताबिक तो बिल्कुल भी नहीं थी. उसे देखकर कोफ्त हो रही थी और किसी ऐसी जगह फैंकने का मन कर रहा था, जहां कोई भी उसे देख न पाए.
अब्बू का बाहर का काम अब खत्म हो गया था. हामिद मन ही मन काफी खुश था. वह सोच रहा था, अब तो मुझे दुकान से मुक्ति मिल जाएगी. इसलिए वह नींद का बहाना बनाकर बिस्तर पर पड़ा रहा. लेकिन अब्बू कहां मानने वाले थे. उन्होंने दुकान का हवाला देकर उससे जल्दी उठने को कहा. बुझे मन से तैयार होकर वह अब्बू के साथ चल पड़ा. वह कुछ भी नहीं कह पाया. कैसे कहता ? अम्मी हमेशा कहती है, ‘तुम लोगों को कुछ अंदाजा भी है कि तुम्हारे अब्बू हम सब के लिए कितनी मेहनत करते हैं ?’ उनको गुस्सा दिलाने से क्या फायदा ? दुकान पर काम नहीं होगा तो अब्बू खुद ही कह देंगे, ‘जा, हामिद अपने दोस्तों के साथ खेल !’
दुकान की साफ-सफाई के बाद सामान बाहर निकालकर तथा अगरबत्ती सुलगाकर हामिद एक स्टूल पर बैठ गया. अब्बू कहने लगे, ‘हामिद आज हमें टेबल बनानी है. तू लकड़ियां बाहर निकाल !’
उसने लकड़ियां बाहर निकाल दी. रनदे से लकड़ियों की सफाई करने के बाद अब्बू ने उन पर जगह-जगह निशान लगा दिए और काम बांट दिया. उन्हें छिदाई करनी थी जबकि हामिद को चूलें चीरनी थी. तभी कोई गाहक आ गया. अब्बू उस से बातें करने लगे. जब वह गया तब तक हामिद काफी काम कर चुका था. उसने अब्बू से कहा, ‘अब्बू चलो, आज आपका मेरा
मुकाबला हो जाए !’
उन्होंने कहा, ‘ठीक है.’
अब्बू आराम से छिदाई करते रहे जबकि हामिद ने तेजी से अपना काम निपटा दिया.
वह अब्बू से जीत गया था. जब उस ने अब्बू से कहा कि मैं जीत गया तो वे ख़ुशी से उसकी ओर देखने लगे. हामिद जानता है, अब्बू के लिए अब इस तरह के खेलों का कोई मतलब नहीं है. उसका दिल बहलाने के लिए ही उन्होंने हामी भरी थी. सच तो यह है कि वह अब्बू से कभी जीत नहीं सकता.
अब एक बात तय हो चुकी थी कि छुट्टियों पर हामिद का नहीं उसके अम्मी-अब्बू का अख्तियार था. जैसा वो कहेंगे वैसा उसे करना पड़ेगा. उसकी मनमर्जी नहीं चलने वाली थी.
हामिद अपने ही खयालों में खोया हुआ दुकान को जा रहा था कि एक कुत्ते ने न जाने कहां से आकर उसके ऊपर छलांग लगा दी. पहले तो उसे लगा वो उसके साथ खेलना चाहता है. लेकिन उसके हाव-भाव ठीक नहीं थे. एक पल के लिए हामिद घबराया. फिर न जाने कहां से उसके अंदर इतनी हिम्मत आ गई कि उसने न सिर्फ उसे अपने ऊपर से धकेल दिया, बल्कि एक जोरदार लात भी दे मारी. कुत्ता तो भाग गया. लेकिन देर तक उसका दिल जोरों से धड़कता रहा. कहीं फिर से लौटकर हमला न कर दे सोचकर उसने चारों ओर देखा और वहां से चल पड़ा. आगे जाकर देखा वही कुत्ता दूसरे लोगों पर भी झपट रहा था. लोग उसे पत्थर मारकर भगा रहे थे.
हामिद दुकान की साफ-सफाई के काम निपटाकर बैठा ही था कि अब्बू आ गए. आते ही कहने लगे, ‘बैठने का वक्त नहीं है हामिद, चल दरवाजा बनाते हैं !’
हामिद ने फटाफट लकड़ी बाहर निकाली. अब्बू ने हमेशा की तरह लकड़ी को रंदे से साफ कर निशान लगाए. उससे कहा, ‘हामिद, निशान पर ही आरी चलाना !’
हामिद ने कहा, ‘ठीक है !’ और लकड़ी को चीरने लगा. उसे आरी चलाने में बहुत मजा आ रहा था. वह अपनी ही धुन में आरी चलाता जा रहा था. लेकिन तभी आरी उसके हाथ पर लग गई. बहुत दर्द हो रहा था और खून भी बह रहा था. उसने अब्बू से कुछ नहीं कहा और चुपके से दुकान के अंदर चला गया. कपड़े से खून साफ किया और वहां रखे हुए मलहम को चोट पर लगा दिया. कुछ ही देर में खून रुक गया. वह फिर से काम करने लगा. अब वह सावधानी से काम कर रहा था. फिर खाने का वक्त हो गया और दोनों घर को चल पड़े.
खाना खाने के बाद अब्बू ने कहा, ‘चल हामिद, अब दुकान चलते हैं !’
हामिद ने कहा, ‘अब्बू, मैं दुकान नहीं जाऊंगा, मुझे स्कूल का बहुत सा काम करना है. दुकान के चक्कर में, मैं अभी तक कुछ भी काम नहीं कर पाया.’
अब्बू ने कहा, ‘ठीक है, वैसे भी तेरा हाथ कट गया है. तू घर में रह.’
अब्बू की इस बात से वह चौंक गया, ‘तुमको कैसे पता ?’ उसने पूछा.
‘जब तू दुकान के अंदर जा रहा था तभी मैंने तेरे हाथ से खून की एक बूंद को गिरते हुए देखा था.’
हामिद सोच में पड़ गया. जब अब्बू को पता चल गया कि मेरा हाथ कट गया है तो उन्होंने उस समय कुछ क्यों नहीं कहा ? उसे बुरा लगा. हो सकता है, उनके लिए ये रोजमर्रा की बात हो. फिर उसे ख्याल आया, उसे अब्बू से झूठ नहीं बोलना चाहिए था. उसे स्कूल के काम की बात के बजाय साफ-साफ कह देना चाहिए था कि उसे खेलना है. यदि वह ऐसा कह देता तो मन में किसी तरह का बोझ नहीं रहता.
अब्बू के जाते ही हामिद भी खेलने चला गया. उसे देखकर उसके दोस्त अरशद, फैजल, नाजिम आदि बहुत खुश हुए. उसे भी इतने दिनों बाद उनके बीच पहुंचकर बहुत अच्छा लग रहा था. वह जल्दी खेल शुरू करके कुछ ही पलों में सारे दिनों की कसर निकाल लेना चाहता था. खेलते-खेलते समय का पता नहीं चला और शाम हो गई.
आज हामिद काफी खुश था. आज वह उदास नहीं था और किसी से नाराज नहीं था.
अब्बू अब तक बाहर के कामों के लिए कासिम को ही ले जाते थे. हामिद का मन भी उनके साथ जाने को होता था. वह हमेशा कहता कि कासिम जा सकता है तो मैं क्यों नहीं. वे कहते अभी तुझे काम नहीं आता या तू अभी छोटा है. अब्बू घर में जब उन जगहों की बातें बताते तो हामिद को लगता, वह भी वहां होता तो कितना मजा आता. नई जगह, नए लोग देखने को मिलते. खाने को नई चीजें मिलती.
तो क्या जिस दिन का वह ख्वाब देखा करता था, आज वह दिन आ गया ?
‘हां, कासिम कह रहा है कि वो दुकान पर चला जाएगा.’ अब्बू ने कहा.
‘मगर अब्बू आप तो कहते हो मुझे काम नहीं आता.’ हामिद ने पूछा.
‘तो क्या हुआ ? आज तू ही मेरे साथ काम पर चलेगा. काम करने से आता है, बेटा !’
‘मगर कल से स्कूल खुल रहे हैं. मेरा स्कूल का काम भी पूरा नहीं हुआ है ?’ अचानक उसे ख्याल आया कि वह अभी तक स्कूल का काम पूरा नहीं कर पाया है.
‘वहां ज्यादा काम नहीं है. शाम को जल्दी लौट आएंगे फिर कर लेना.’
‘ठीक है, फिर मैं आपके साथ चलता हूं.‘ उस ने खुश होते हुए कहा.
हामिद को बस के सफर के दौरान खिड़की पर बैठना बहुत पसंद है. उस ने बस के अंदर पहुंचते ही खिड़की वाली सीट पर कब्जा जमा लिया. वह बहुत खुश था. जैसे उसे मन मांगी मुराद मिल गई हो. उसकी बेसब्री देखकर बगल में बैठा व्यक्ति उसे तीखी नजरों से घूरने लगा. हामिद ने उसे नजरअंदाज कर दिया और मजे से बाहर की दुनिया देखने लगा. कुछ दूर तक उसे अपने कस्बे की जानी-पहचानी जगहें नजर आती रही. मगर, कमाल यह था कि बस पर बैठकर वही रोज की देखी हुई जगहें कितनी अलग सी लग रही थी ? जैसे किसी और जगह का हिस्सा हो. सड़क के आस-पास टहलते हुए उसे अपने कुछ दोस्त भी नजर आए थे. उस ने उन्हें आवाज दी और फुर्ती से हाथ हिलाया. मगर न जाने उनका ध्यान कहां था. बगल में बैठे व्यक्ति ने उसे डांटा-’हल्ला क्यों मचा रहा है ? बस में पहली बार बैठ रहा है क्या ?’ अब्बू ने भी उसे टोका था.
इस के बाद आसमान को छूते हुए ऊंचे पेड़ों वाला जंगल आया था. जहां तक नजर जाती पेड़ ही पेड़ नजर आ रहे थे. जंगल के बाद एक गांव आया. दूर तक पसरे हुए हरे-भरे खेत और उनके बीच छोटे-बड़े घर दिखायी दे रहे थे. स्त्री-पुरुष खेतों पर काम कर रहे थे. यह सब कुछ हामिद के लिए अलग और नया था. वह बहुत खुश था. उसे लग रहा था, छुट्टी का असली मजा तो आज आया है.
जिस जगह वे काम करने पहुंचे, वह किसी बड़े किसान घर था. अब्बू ने एक कमरे से लकड़ी बाहर निकाली और एक कपड़े पर औजार सजा दिये.
‘हामिद तू छिदाईयां कर….मैं मालिक से मिल कर आता हूं.’ अब्बू ने उससे कहा.
कुछ ही देर में, हामिद काम में रम गया. उसे काम करने में खूब मजा आ रहा था. उसे यह सोचकर भी काफी अच्छा लग रहा था कि अब उसे छोटा नहीं समझा जा रहा था. अब वह भी बड़ों की जमात में शामिल हो चुका था. तभी वह मनहूस पल आया, जब उसके पैर पर हथौड़ा लग गया. काफी दर्द होने लगा. रूलाई फूट पड़ी. कोई देख न ले यह सोचकर उसने अपने चेहरे को बांहों में छुपा लिया और काम रोककर अपने पैर को सहलाने लगा. उसे अपने ऊपर गुस्सा आ रहा था. ‘जितनी बार मैं काम करता हूं, उतनी बार मुझे चोट क्यों लगती है ? अब्बू और भाई के साथ तो ऐसा नहीं होता ? मुझे अभी अच्छे से काम नहीं आता, शायद इसलिए हर बार चोट लग जाती है.’ वह सोच रहा था.
अब्बू के आने तक दर्द कम हो चुका था और वह काम में जुटा हुआ था. अब्बू ने उसका काम देखा. कुछ हिदायतें दी फिर दोनों मिलकर काम करने लगे.
तभी हामिद को अपने बगल में हरे रंग की एक टेनिस बॉल दिखायी दी. उसे लगा आस-पास कोई खेल रहा है. उस ने अब्बू की ओर देखा. उसकी तरफ उनकी पीठ थी. बॉल उठाकर वह मकान के पीछे की ओर चला गया. वो उसकी ही उम्र के दो लड़के थे. एक बाजार का नया बैट पकड़े हुए विकेट के सामने खड़ा था और दूसरा उसकी ओर देख रहा था. हामिद ने बॉल उसकी ओर फैंक दी और मंत्रमुग्ध सा उनके बल्ले और टेनिस बॉल को देखने लगा. हामिद भी इसी तरह के बल्ले और गेंद से खेलना चाहता था, मगर न तो उसके और न उसके किसी दोस्त के पास इस तरह का बल्ला और गेंद थी. उन्हें मजबूरी में हाथ से बनाए हुए बल्ले और कपड़े की गेंद से खेलना पड़ता था.’
‘तू भी खेलेगा ?’ बड़े लड़के ने उस से पूछा था. ‘फिल्डिंग में लग जा. मेरे बाद इसका, फिर तेरा नंबर आयेगा !’
हामिद भागकर विकेट के पीछे चला गया. उसके खेलने से उन्हें काफी सहूलियत हो रही थी. वह भागकर इधर-उधर जा रही बॉल लाकर उन्हें दे रहा था. फिर छोटे लड़के ने उस से बॉलिंग करने को कहा. वह ख़ुशी से चहकते हुए उसके पास गया. उस ने बॉल को पकड़कर ध्यान से देखा. बॉल सचमुच शानदार थी. उसके मन में हूक सी उठी हम लोग भी इसी बॉल से खेलते तो कितना मजा आता ? हामिद ने चौथी बॉल में उस लड़के को आउट कर दिया था. अब दूसरा लड़का बैटिंग कर रहा था. उसके बाद हामिद की बारी आनी थी. वह बेसब्री से अपनी बारी का इंतजार कर रहा था. बाजार के बल्ले से खेलने का उसका बड़ा मन था. वह उन दोनों को अपनी बैटिंग दिखाना चाहता था. उसका इरादा कुछ जोरदार चौके और छक्के लगाने का था.
आखिरकार उसकी बारी आई. उसने बैट पकड़ा और लड़के की बालिंग का इंतजार करने लगा. लड़का बालिंग के लिए दौड़ने लगा, लेकिन क्रीज के अंत में आकर रूक गया. तभी हामिद के चेहरे पर एक जोरदार थप्पड़ पड़ा. उसके कुछ समझ में नहीं आया. थप्पड़ इतना जोरदार था कि उसकी आंखों के आगे अंधेरा छा गया. जब होश आया तो अब्बू उसके सामने थे. दोनों लड़के घबराये हुए से हामिद की ओर देख रहे थे.
‘जहां देखो, खेल शुरू ! हम यहां काम करने आए हैं या खेलने ?’ अब्बू हामिद से पूछ रहे थे.
और हामिद के पास रोने के सिवाय और कोई जवाब नहीं था. ________
दिनेश कर्नाटक
13 जुलार्इ 1972, रानीबाग (नैनीताल)
कहानी-संग्रह ‘\’पहाड़ में सन्नाटा’’, ‘\’आते रहना\’’ तथा ‘’मैकाले का जिन्न तथा अन्य कहानियाँ’’ क्रमशः बोधि, जयपुर, अंतिका प्रकाशन, दिल्ली तथा लेखक मंच प्रकाशन, गाजियाबाद से प्रकाशित. एक उपन्यास \’फिर वही सवाल’ भारतीय ज्ञानपीठ से तथा यात्रा वृतान्त की पुस्तक ‘दक्षिण भारत में सोलह दिन’ लेखक मंच प्रकाशन से प्रकाशित.
लखनऊ में वर्ष 2010 के ‘प्रताप नारायण मिश्र स्मृति युवा साहित्यकार सम्मान’ से सम्मानित,उपन्यास \’फिर वही सवाल\’ भारतीय ज्ञानपीठ की नवलेखन प्रतियोगिता-2009 में पुरस्कृत.
विद्यालयी शिक्षा, उत्तराखंड की कक्षा 4, 5, 7 तथा 8 की हिन्दी पाठयपुस्तकों \’हंसी-खुशी तथा \’बुरांश\’ के लेखन तथा संपादन में हिस्सेदारी.
शैक्षिक सरोकारों पर केन्द्रित शिक्षकों के सामूहिक प्रयासों से निकाली जा रही पत्रिका \’शैक्षिक दखल\’ का संपादन.
सम्पर्क : \”मुक्तिबोध\” /
ग्राम व पो.आ.-रानीबाग