तुला
हमारी समझ से पूरी दुनिया एक ही है. हम ही पत्थर, हम ही दरिया, हम ही पंछी, हम ही नदियाँ; इसलिए हर कुछ आपबीती है. ऐसा नहीं भी हो तो भी हम ऐसा मानते हैं क्योंकि कहा गया है कि जो ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का जाप करता रहता है, एक दिन स्वयं ब्रह्म बन जाता है. जो लोग अद्वैत दर्शन से इत्तेफाक़ नहीं रखते, वो हमारी बात पर झुँझला के पूछते हैं कि सीधे-सीधे से बताइए आपके साथ ऐसा हुआ था या नहीं? इस अफ़साने में जो तारीख़ें हैं, वो क्या सच हैं? जो किरदार हैं, वो क्या सच में हैं? जो सवाल-जवाब हैं, जो विचार-विमर्श है, उन सबकी हक़ीक़त क्या है?
यह कहानी है हमारे कॉलेज जीवन में हुयी एक उल्लेखनीय घटना की. यह कहानी है नीलगिरि छात्रावास के मेस बॉयकॉट की, जिसे हम आज तक भूल नहीं पाते. इस कहानी के खलनायक (या कहूँ प्रतिनायक?) थे हमारे हॉस्टेल की वार्डन ‘माइकल जैक्सन’, तत्कालीन डायरेक्टर ‘तेजपाल सिंह बटरोही’ और अन्य प्रतिष्ठित लोग जो कभी परदे के बाहर कभी न आए. इस कहानी के नायक हैं मेरे दोस्त- मेरे सहपाठी, मेरे हॉस्टेल मेट, जूनियर और सीनियर – वे सभी जिन्हें आज भी यह कहानी बिल्कुल शीशे की तरह साफ याद है.
21 अक्टूबर 2002 : मयखाना-ए-इल्हाम
मुझे तो ठीक से अँग्रेजी लिखना बोलना भी नहीं आता है. क्लास में मुँह बंद कर के पिछली सीट पर बैठ कर चुपचाप समझने की कोशिश करता रहता हूँ. ऐसा नहीं है कि मैं बुद्धिमान नहीं हूँ. मेरे ग्रेड ठीक ठाक हैं, पर मुझे इससे कहीं ज्यादा की उम्मीद है. माइनर 2 में खराब नम्बर से मेरा मूड बिगड़ा हुआ है (एक साल का शैक्षणिक सत्र चौदह हफ्तों के दो सेमेस्टरों में होता है. हर सेमेस्टर में तीन परीक्षाएँ होती हैं– माइनर 1, माइनर 2 और अंत में मेजर ). नम्बर लाना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि इससे इज्जत बनी रहता है. भले ही यहाँ लोग खेलते कूदते रहते हैं पर परीक्षाओं के समय सब बड़े गम्भीर हो जाते हैं और बहुत ही अच्छे अंक ले कर प्रोफेसरों को भी चकित कर देते हैं. कान्वेंट के पढ़े लड़कों के बीच अपनी जगह बनाने के लिए मुझे बड़ी मेहनत करनी पड़ती है. एक साल में यह समझ आ गया था कि चुपचाप क्लास लगा लेने से, सारी असाइनमेंट बना लेने से और परीक्षा से पहले एक बार विषय पढ़ लेने से सम्मानजनक जगह बनी रहती है.
सोमवार होने के कारण मैं और सुबह उठ कर जल्दी तैयार हो गया. 8 बजे की क्लास के लिए सवा सात बजे तक नाश्ते के लिए मेस पहुँचना होता है, ताकि उसके बाद पैदल इंस्टिट्यूट समय पर पहुँचा जा सके. कुछ प्रोफेसर देर से आने वालों के लिए बड़े सख्त होते हैं. पर मेरी साइकोलॉजी की प्रॉफेसर बड़ी दयालु थीं. हमेशा कि तरह मैं समय पर पहुँच गया. जहाँ बहुत से लोग खेलने-कूदने, नाचने-गाने, ड्रामा-डिबेट में लगे थे, वहाँ मेरी अभिरुचि पुस्तकों में थी. इंस्टिट्यूट की बड़ी लाइब्रेरी में मैं साहित्य की किताबें पढ़ता रहता हूँ. हॉस्टल में भी अलग सा पुस्तकालय है, जिसमें किताब लड़कों की अभिरुचि से मंगायी जाती है, जिसके लिए वार्डन की सहमति जरूरी होती है. मुझे मानविकी विभाग के कक्षाएँ बहुत पसंद हैं. इसमें थर्ड ईयर और कभी-कभी फोर्थ ईयर वाले भी हुआ करते हैं. इंजीनियरिंग की तुलना में यह मुझे बहुत रोचक लगता है. आज का लेक्चर बहुत शानदार रहा.सुबह के तीन लेक्चर के बाद दोपहर के लिए खाने के लिए आना हुआ. इसके बाद दो बजे से एक-एक घंटे के दो ट्यूटोरियल क्लास थे, लेकिन दोनों ही आज रद्द थे.
बारह बजे के आस पास इंस्टिट्यूट से लौटते हुए शैलेश और मैं साइकोलॉजी के क्लास में हुयी बहस को याद करते हुए बहस कर रहे थे. बहस के दौरान शैलेश ने एकदम से पूछा, “तुम ‘आर्ट आफ लिविंग’ ज्वाइन करने के बारे में सोच रहे हो क्या?”
“एकदम नहीं. मेरे हिसाब से यह पैसे लूटने का एक तरीका है.”
“कुछ बोलो, उसे हर बात में कोई न कोई तकलीफ़ हो जाती है. रूम में ताला न लगा हो तो फाइन, गलती से रूम के अंदर लाइट जलती रह जाए तो दो सौ रूपए फाइन, पंखा चलता रह गया तो पाँच सौ रूपए फाइन, रूम में टेपरिकॉर्डर बजाओ और अपना वार्डन चौकीदार की तरह गश्त लगाता हुआ आएगा और टेपरिकॉर्डर उठा कर ले जाएगा. छुड़ाने के एवज में पाँच सौ रूपए का दण्ड भरो. अगर कोई कॉरीडोर पर सिगरेट पीते हुए पकड़ा जाए तो हज़ार रूपए का फाइन. हम लोग यहाँ पढ़ने आए हैं या जेल में सजा काटने?”
“बिलकुल ठीक कर रहा है वार्डन. हमारे यहाँ हुड़दंगी लड़के बहुत जोर से गाना बजाते हैं. पहली बात है कि सिगरेट पीना खराब बात है. अगर पीना भी है तो अपने रूम में पियो. क्या तुम नहीं मानते कि हमारे कॉलेज में अधिकतर लड़के नैतिक रूप से गिरे हुए हैं. उन सब के लिए वार्डन का डण्डा होना बहुत ज़रूरी है.”
“हद है. परेशां हूँ कि क्यूँ मेरी परेशानी नहीं जाती, लड़कपन तो गया मगर मेरी नादानी नहीं जाती. मैं परेशान रहता हूँ कि मेरे ग्रेड कम आते हैं. इसलिए परेशान रहता हूँ कि समझ नहीं आता ज़िन्दगी में आगे क्या करूँगा? पढ़ना लिखना इतना बड़ा बोझ लगता है. हम चाहते हैं क्या है? नौकरी? मतलब किसी के हाँ में हाँ मिलाते हुए काम करते रहो, अपने मन का कुछ न करो.“
सोमवार को कॉन्टिनेन्टल खाने का मेनू होता था. मतलब मेस में बनाया देसी पिज्ज़ा और बाज़ार से मंगायी सस्ती पेस्ट्री. बाकी दिन मेस के खाने को सभी गाली दिया करते थे, पर सोमवार के खाने के लिए बहुत से लोग उतावले हुआ करते थे. मेस में 7 बजे 8:30 तक खाना मिला करता था. शैलेश और मेरा प्लान था कि डिनर कर के फ़िल्म देखने के लिए इंस्टिट्यूट के मल्टी स्टोरेज बिल्डिंग की तरफ़ डोगरा हॉल (जिसे कॉन्वेकेशन हॉल भी कहते हैं) में जाएँगे. शाम में 06:30 के आस-पास अचानक लाइट चले जाने के कारणजब शैलेश और हमयूँ ही घूमने के लिए नीचे आ गए,हमने रिसेप्शन के पास ही लड़कों का हुज़ूम उमड़ा हुआ देखा. किसी अनिष्ट की आशंका से मैं उस उबलती भीड़ के पास जा कर अपने ईयर के लड़कों से पूछा, “क्या हुआ?”
“माइकल जैक्सन ने फर्स्ट ईयर के गौरव कटारिया की पिटाई कर दी.“
अशोक ने कहा, “मैं वहाँ था. थप्पड़ लगने से कटारिया कोने में गिर गया, तब भी वार्डन रुका नहीं और उसके पेट पर तीन लात लगा दिए!”
थर्ड ईयर और फोर्थ ईयर के सीनियर कुछ मंत्रणा कर रहे थे. हॉस्टल में ऐसी सरगर्मी पिछले साल 9/11 के हमले के बाद देखी थी.ठीक इसके बाद डिनर शुरु हुआ. खाना खा कर के शैलेश के साथ मैं डोगरा हॉल (कॉन्वेकेशन हॉल) की तरफ़ निकल गया. वहाँ 1925 की रूसी फ़िल्म ‘द बैटलशिप पोट्मकिन’ दिखायी गयी. फ़िल्म में नाविकों को ज़ुल्मों का बगावत देख कर मैं अजब से जोश में भर गया.
ऐ फ़लक ऐसा भी इक दिन आएगा
कुछ न कहना ‘शाद’ से हाल-ए-ख़िजाँ
22 अक्टूबर 2002 : दाग़-ए-जिगर
“सर, यह वार्डन बदल देना चाहिए!”
हम दोनों अभी रिसेप्शन के पास पहुँचे ही थे कि देखा कि सारी भीड़ छट चुकी थी. एक युवा लड़की कुछ लोग से बातें कर रही थी. हमें देखते ही पास आ कर बताया कि वह एक बड़े अँग्रेज़ी अख़बार से है. बस फिर क्या था, सुंदर संवाददाता और अपना दु:ख. चार लड़के बताने लगे. आते-जाते लोग रूक कर नमक मिर्च लगा कर बताने लगे. कौशिक ने जोश में आ कर जोड़ा, “प्रॉफेसरों ने सज़ा के तौर पर हमारे हॉस्टल का इंटरनेट बंद कर दिया है. वे नहीं चाहते कि हम आप को, मीडियावालों को, यहाँ हो रहे अत्याचार की ख़बर दें. आप देख रहींहैं, ये हॉस्टल लगता है देखने में … पर आप को यहाँ रहने को कहा जाय तो आप समझ जाएँगी यह जेल है जेल!”
इससे पहले कि कौशिक उस रिपोर्टर को देख कर अपने होश और खोता, मैं उसे पकड़ कर अपने साथ घसीटता हुआ बाहर ले गया. साइकिल पर बैठ कर हम दोनों इंस्टिट्यूट की तरफ़ चल दिए.
खुशहाल अग्रवाल ने पूछा, “कब तक?” इस सवाल के लिए वह तैयार नहीं था. उसने इतना ही कहा कि जब तक हमारी बात नहीं मान ली जाय. कह कर वह टेबल से नीचे उतर गया.
(तीन)
23 अक्टूबर 2002 : दीवान-ए-ग़ालिब
“हिन्दुस्तान में जहाँ फर्ज़ी की डिग्री मिल जाती है, कितना आसान है ऐसे फालतू के नम्बर ले आना. अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग तरह से नम्बर आते हैं, कहीं सत्तर-पचहत्तर प्रतिशत ही अधिकतम नम्बर आते हैं. इस तरह तो राजस्थान और बिहार के लड़के कभी आइआइटी नहीं आ पाएँगे. कोई अंग्रेजी में कमजोर है, पर गणित में बहुत अच्छा है. ऐसे तो मेहनत करने वाले लड़के और रियल टैलेंट वाले लोग कभी आ ही नहीं पाएँगे. दरअसल यहाँ प्रोफेसरों का माइंडसेट ऐसा है कि इलीट स्कूल के लड़के ही यहाँ पढ़ें. और इलीट घर के लड़कों की आँखों में देखो कि किस तरह गरीब घर के लड़कों को उनकी निगाहों से धिक्कारा जाता है.“
“कब की पढ़ ली. ठीक है. मुझे बहुत पसंद नहीं आयी. सेना का मज़ाक उड़ाया गया है, चलता है. लिखा हुआ बहुत पसंद नहीं आया. एक तरह के जोक़ बार-बार रिपीट हो रहे थे. एक बात की दाद देनी पड़ेगी. इस किताब से ऐसा समझ आता है कि डिसीप्लिन के नाम का स्वांग का पूरा मॉडल सेना से उठ कर आया है.“
“तुम खुद इतने डिसीप्लिन्ड हो, तुम्हेँ डिसीप्लिन पसंद नहीं?”
“वार्डन डिसीप्लिन की बात नहीं करता है. रुल्स लागू करने के लिए फाइट मारता है. उसको जो काम मिला है, वो करने की कोशिश कर रहा है.“ सूखा पाला बदल कर जवाब देने लगा, जब कि मैं जानता था कि वो भी माइकल जैक्सन से बहुत चिढ़ता है.
करीब साढ़े पाँच बजे जब पब्लिक अनाउँसमेंट हुयी, सभी लोग मेस में इक्कट्ठा होना शुरु हुए. मेस खचाखच भर चुका था. माइकल जैक्सन सिर झुकाए एक कोने में बैठा था. उसके साथ जोश में भरे हुए डीन और हाउसमास्टर बैठे थे. तभी ख़ामोशी से आ कर डायरेक्टर वहाँ कर बैठ गए. हमने पहली बार डायरेक्टर को रूबरू देखा था. खुशहाल अग्रवाल और बाकी सेक्रेटरी से उनके सवाल जवाब हो रहे थे. डीन आफ स्टूडेंट ने खड़े हो कर हम सबों को सम्बोधित किया, “आज डायरेक्टर साहब हमारे बीच में हैं. इन्होंने अपनी बिजी शेड्यूल से हमारे लिए समय निकाला है. हमें उम्मीद है वे आपकी समस्या का समाधान करेंगे और आप लोग निष्पक्ष हो कर अपनी बात रखेंगे. जिस किसी को भी कुछ कहना है, वो बारी-बारी से अपनी बात कहे.“
बहुत से हाथ खड़े हो गए. खुशहाल अग्रवाल ने फर्स्ट इयर के एक लड़के की तरफ़ इशारा कर के कहा, “तुम बोलो.“
डायरेक्टर ने कहा, “मुझे बहुत दु:ख है मुझे आप लोग से मिलने का समय नहीं मिल पाता.आज आया भी हूँ तो शिकवे-शिकायत सुनने के लिए. मेरे लिए यह कितना बड़ा क्षण है कि जहाँ मैं पढ़ा, जहाँ से मैंने नौकरी की और जहाँ आज मैं डायरेक्टर हूँ; उस संस्थान को अब अखबारों में झूठ-मूठ में बदनाम किया जा रहा है. मैं इस को जस्टीफाइ करने नहीं आया हूँ. मैं इस समस्या को सुलझाने आया हूँ.“
थर्ड इयर के अनिल ने कहा, “सर, जब हम परसा आप के पास शिकायत ले कर आपके पहुँचे तो आपने कटारिया की गलती बतायी. आपने कहा कि जब वार्डन थप्पड़ मार रहे थे तो कटारिया पीछे क्यों हटने लगा? पीछे ईंट थी, अगर ईंट उसके सिर पर लगती, चोट आ जाती तो कौन जिम्मेदार होता? हम यह कहना चाहते हैं कि पिटते वक्त आदमी को होश नहीं रहता कि आगे-पीछे खाई है या नहीं.“
डीन कुछ कहने को हुए, तभी किसी और ने कुछ कहना शुरु किया. हाउस सेक्रेटरी खुशहाल अग्रवाल ने आवाज़ लगाई, “सब एक साथ नहीं बोलें. एक-एक करके.“डीन ने भीड़ को शांत कराते हुए जोर से कहा, “एक मिनट, एक मिनट! तुम लोग को यह पता है कि गौरव कटारिया के घर में यह बात पता चली तो उसके माता-पिता ने क्या कहा?”
मेरे दोस्त सूखे को न जाने कौन सा जोश आ गया, उसने फट से चिल्ला कर कहा, “सर, मेरे घर में मेरे पिता जी ऐसे ही बात किया करते हैं.“डीन की आँखेंफड़क गयीं. उसने आवाज़ कम कर के कहा, “ओह… सच में? यहाँ कितने लोग ऐसे हैं जिनके घर में उनके माँ-बाप ऐसे गाली दे कर उनसे बात करते हैं? अपने हाथ खड़े करो.”
फिर डीन ने गिनना शुरु किया, “एक.. दो.. चार.. आठ नौ… ओह .. तुम सब मिल गए हो.. सब ने हाथ खड़ा कर दिया. (हँस कर) पूरे हॉस्टल के चार सौ लड़के …. अच्छा.. हम सब समझते हैं कि तुम सब मिल कर झूठ बोल रहे हो. किसी के घर में ऐसे कोई बात नहीं करता और तुम लोग यहाँ एकता दिखा रहे हो.“
तभी फोर्थ इयर के निशांत पोद्दार ने कहा, “सर, गाली की ही बात है तो यह दोहरी नीति है. मेरे एक ट्यूटोरियल में एक प्रोफेसर ने गाली दे कर मुझे कहा कि तुम्हें चप्पल से मारूँगा. आपको याद होगा कि पिछले साल मैंने इस सिलसिले मेंआपसे शिकायत भी की थी. आपने मुझे टरका दिया कि वो बहुत प्यार से पढ़ाते हैं. उनका ऐसा लहज़ा है. आज वार्डन की गलती सामने है तो आप मान नहीं रहे हैं?”
“वो दूसरी बात है. उस बात को यहाँ मत लाओ. उस के लिए हमने अलग बातचीत की है.“ कह कर डीन ने कन्नी काटी.
इस के बाद सेकेण्ड ईयर के नागराज ने डायरेक्टर से कहा, “आप हम सबकी हालत सुन ही रहे हैं. वार्डन की मुआफ़ी काफ़ी नहीं है. हमें इनसे आजाद कर दीजिए. जब तक आप ऐसा नहींकरेंगे, मैं यहाँ खाना नहीं खाऊँगा.“
डायरेक्टर ने कहा, “बेटे, तुम्हारा नाम क्या है?” फिर डीन से बोले, “मुझे इसके माँ-बाप से बात करवाइए.“ इतने भीड़ में मैं डायरेक्टर से कहना चाहा, “सर, मुझे भी कुछ कहना है?”
24 अक्टूबर 2002: फ़ैज-ए-मीर
“अब कोई बहाना बनाने की ज़रूरत नहीं है. मैंने कुक बोला कि तुम सब लोग के लिए कुछ बना दे. चलो भी!”
उसकी फिलॉसफी सुन कर हम सब हँसने लगे.
शाम में फिर पब्लिक अनाउँसमेंट हुयी. मेस हम सब इक्कट्ठा हुए. खुशहाल अग्रवाल के चेहरे पर मायूसी छायी हुयी थी. सबके आ जाने के बाद उसने कहना शुरु किया, “साथियों, डीन और डायरेक्टर हमारी बात मानने को तैयार नहीं है. डीन ने मुझे आठ लोग के नाम की लिस्ट दी है, जिसमें मेरा भी नाम है, जिन्हें कल इंस्टिट्यूट से अनुशासनिक कारणों से निकाल दिया जाएगा. उन्होंने कहा कि अगर यह मेस बॉयकॉट ख़त्म नहीं हुयी, तो हमें न केवल सेमेस्टर के लिए बल्कि हमेशा के लिए यहाँ से निकाल दिया जाएगा.“
यह सुन कर सब को साँप सूँघ गया. एक आवाज़ आयी, “ऐसे कैसे निकाल देंगे? हम धरना देंगे.”
ऐसे में यह विद्रोह क्या किसी एक का होगा? यह विरोध पूरी विचारधारा का है. इस सड़ रही व्यवस्था में है. हिन्दुस्तान के बेहतरीन दिमाग को मशीन की तरह धौंकनी में झोंक देना, यह क्या है? मेस बॉयकॉट क्या केवल गौरव कटारिया के पिट जाने के ख़िलाफ़ हुआ? इस रामायण में क्या माइकल जैक्सन ही रावण है? मैं यह नहीं कहता कि सारे प्रॉफेसर हरामजादे हैं, बहुत से अच्छे भी हैं. वे न तो अटेंडेंस के चक्कर में पड़ते हैं, न वार्डन बनने के चक्कर में. अच्छे लोग को क्यूँ नहीं ऐसी जिम्मेदार पोस्ट मिला करती हैं?मैं पूछता हूँ कि जब माइकल जैक्सन ने गौरव कटारिया से मुआफ़ी माँगी, उसी समय लगे हाथोँ अपना इस्तीफ़ा क्यूँ नहीं दे दिया? जब हॉस्टल के चार-साढ़े चार सौ लोग आपके खिलाफ़ झंडा बुलंद कर के खड़े हैं, तब वह कौन सी मजबूरी थी कि आप वार्डन के पोस्ट पर चिपके रहे? इन डीन, डायरेक्टर को समझ नहीं आता कि उन्होंने एक बार भी वार्डन से सार्वजनिक माफ़ी नहीं माँगने को कहा? हम कौन सा उसे कान पकड़ कर उठक-बैठक करने को कह रहे थे?
बारह बजे जब लेक्चर ख़त्म हुआ, तब मैं वापस हॉस्टल की तरफ़ रवाना हुआ. जाने आने वालों के बीच यह ख़बर फैल गयी थी कि नीलगिरि का मेस बॉयकॉट ख़त्म हो गया. हॉस्टल पहुँच कर मैंने देखा कि हाउस सेक्रेटरी, डीन, वार्डन, हाउस मास्टर और एसोसिएट डीन मेस के बाहर खड़े थे. पास लगे नोटिस बोर्ड पर लड़कों का झुण्ड नोटिस पढ़ रहा था. मैंने भी जगह बनायी और नोटिस को पढ़ा.
छात्रों में असंतोष तब और बढ़ गया जब पुरुषदत्त को राजकीय सम्मान से अलंकृत कर के गुजरात के वल्लभी विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में अनुशंसित किया गया. विवादित आचार्य स्थिरमति, जिस पर छात्रों से दुर्व्यवहार का आरोप था, उसे कालांतर में नागार्जुनकोंडा स्थित बौद्ध विश्वविद्यालय में कुलपति के रूप में भेजा गया. तिब्बती भाषा की विद्वान इतिहासकार ‘गीता मिर्ज़ी ’ने पूर्ववर्ती जापानी इतिहासकार ‘शोहेई इशीमुरा’ के मत की पुष्टि ही की है कि ‘इक्ष्वाकु वंश’ द्वारा पोषित नागार्जुनकोंडा के उस प्रसिद्ध महाविद्यालय का पतन राजनैतिक दखलअंदाज़ी के कारण हुयी, जब स्थिरमति ने महायान के आचार्यों की अनदेखी कर के बर्मा के थेरवादी आचार्यों नियुक्त किया. इस तरह वृश्चिक संक्रान्ति से शुरु हुयी अप्रिय घटना ने विश्वविद्यालय को मंझधार में डुबो दिया.
इतिहास के घटनाएँ विवादित होती हैं. हर पक्ष से हम कारणकार्यवाद स्थापित करना चाहते हैं. तथ्यों से विचार निगमित स्थापित करना, यही इतिहासकारों का काम है. किन्तु अगर कोई मुझसे मेरे निजी विचार पूछे तो मैं ज्योतिषचार्य होने के बावजूद इस तरह के संयोगों पर ध्यान नहीं दूँगा.इसकेबहुत से कारण और मान्यताएँ हैंजिस पर और विचार करना विषयांतर हो जाएगा. अत: इसे यहीं समाप्त करना उचित जान पड़ता है.