प्रज्ञा पाण्डेय
गोल और गदबदे चेहरे वाली गोलमटोल वह गेहूँ के रंग की लड़की ट्रेन में सवार हो गयी थी. पहाड़ी लड़कियों सी तरल, पनीली, फूली फूली आँखों वाली वह अपनी सीट पर बैठी भीतर से जितनी बेचैन थी ऊपर से उतनी ही शांत दिखाई देती थी. उसके फरीदा जलाली गालों के कारण उसकी उम्र का अंदाजा कोई भी नहीं लगा पाता था. वह कभी तैतीस की लगती थी तो कभी तेईस की. ऐसा उसके साथ बरसों से था. वह जब जैसी चाहती बन जाती, जब चाहती तेईस की और जब चाहती तैंतीस की. जब वह चाहती खिलकर हंसती तब उसके चेहरे पर उसकी आँखें,उसकी पुतालियां, उसकी नाक, उसकी त्वचा भी खिलखिल हंसती.
कोई भांप ही न पाता कि अपने भीतर वह किस तरह का और कितना निर्मम समय जी चुकी है. सचमुच सन्नाटों से भरे बीते हुए खौफनाक समय को पछाड़ना वह जानती थी तो क्या जीवन को रंगमंच मानकर वह सायरा बानो की तरह ही अभिनय कर रही थी जिसकी मासूम सुन्दरता देख यकीन नहीं होता कि यह भी क्या अभिनय कर सकती है. वह लड़की अपने चारों ओर महकते हुए शोख, सफ़ेद, गुलाबी फूल और अपना सबसे प्रिय फूल लिली उगा लेती थी और खूब खुश दिखायी देती जैसे कि धरती पर पावों को थाप दे दे नाच रही हो, जैसे कि अभी उसके सपनों का उगना बाक़ी हो जो उसके दुपट्टे में आँखें बंद किये सोये पड़े हों और जिन्हें वह दुनिया के सामने बिखेर देना चाहती हो. ऐसी थी वह लड़की! पर कभी कभी अपने दिल की दुनिया में बिखरी हुई, रुई सी उदास एक औरत थी जो आँगन के पिछले दरवाज़े से निकल अपने उन स्वप्नों के लिए हर चहारदीवारी फलांग जाना चाहती थी और किसी खुले मैदान में बैठ मर गए सपनों के लिए जी भर रोना चाहती थी जिनके साथ उसे कभी मन की दुनिया बसानी थी जो बस न सकी थी.
लड़की के दिल में एक धुकधुकी की आवाजाही हरदम ही बनी रहती थी. ट्रेन के चलने से पहले ज्यों ही इंजन डिब्बे से टकराया लड़की का जी धक् से हुआ उसे लगा कि पूरी ट्रेन ही कहीं किसी दरख़्त से जाकर टकरा गयी. सामने की बर्थ पर एक रोबीला, मूंछों वाला, अफसर जैसा आदमी आकर बैठ गया और ट्रेन ने स्टेशन को ऐसे छोड़ा जैसे कि अब तक उसी की प्रतीक्षा में रुकी थी.
अलस् भोर थी. ठंढी हवा थी फिर भी रोबीली मूंछों वाले उस अफसर को देख कर लड़की की हथेली में पसीना आ गया. चूंकि लड़की ने अपने आसपास कई रूआबदार पुरुषों को अपने जीवन को जकड़ते देखा था इसलिए वह रुआबदार लोगों से बहुत डरती थी लेकिन ऊपर से उसके चेहरे के ऊपर उसके भरे भरे होंठों की मुस्कान का ऐसा पहरा था कि यह सच कभी भी जाहिर नहीं होता था. सो उसने फिर वही किया और अपनी बेपरवाही ऐसे जतायी जैसे उसे अपने आस-पास से कुछ लेना-देना ही न हो जैसे कि वह मस्तमौला, सजी धजी कोई फकीरिन हो.
सामने की सीट पर बैठा वह रोबीला आदमी सी बी आई में था. अफसर था. किसी केस के सिलसिले में बनारस आया था और अब दिल्ली वापस जा रहा था. लड़की बनारस की थी और दिल्ली जा रही थी. ट्रेन चलने के कुछ मिनटों के बीच इतनी बाते खुल चुकी थीं. एक यात्रा में दो मुसाफिरों के बीच इससे अधिक बातचीत की कोई गुंजाइश भी नहीं होती लेकिन अफसर बहुत बातूनी था. उसके बातूनीपन की तर्ज़ पर ही लड़की ने भी उससे सवाल पूछ लिया था कि किस केस के सिलसिले में वह बनारस आया ? तो अफसर इस के जवाब को किसी बहाने से टाल गया था. लड़की ने भी दुबारा नहीं पूछा बल्कि इसी बीच अफसर अपने बातूनीपन के बारे में लड़की को बताने लगा कि बचपन से ही अफसर के बातूनीपन की आदत छुड़ाने की माता पिता ने तमाम कोशिशें की थीं लेकिन वह अब तक वैसा ही था.
माता पिता को लगता था कि यह ऐब उसकी ज़िंदगी का बहुत सा उत्तम और नतीजे देने वाला समय बर्बाद कर देगा साथ ही वह बडबोलेपन के कारण कभी किसी मुसीबत में भी फंसेगा लेकिन वह अब तक किसी मुसीबत में नहीं पडा था बल्कि इसी गुण की वजह से बहुत से लोगों की बहुत सी मुसीबतों के समाधान ढूंढ दिए थे. अफसर को अपने प्रोफेशन में इस बातूनीपन का लाभ मिला था. अपनी इसी आदत के कारण वह बहुत जल्दी जल्दी कामयाबी की सीढियां चढ़ गया था क्योंकि अफसर किसी को न तो अप्रिय बोलता था न दुश्मनी मोल लेता था. वह तो कुरेद कर पेट की दाढ़ी भी बाहर निकाल लाता था और इसीलिए वह खुद को किसी के अंतर्मन में झाँक लेने का माहिर समझता था. वह बोला कि वह कुएं में झाँकने की तरह किसी के मन में झांकता है. यह जानकर लड़की कुछ अधिक ही सतर्क हो गयी थी. वह बाहरी लोगों से अधिक बातचीत करना तब तक पसंद नहीं करती थी जब तक संभव हो. वह अपनों से तो खुली किताब थी पर परायों के सामने ताला बंद कमरा थी.
यों तो अफसर देखने में जितना रोबीला था बोलने में उतना रोबीला सचमुच नहीं था इसीलिए लड़की को उसमें किसी अफसरपन की कोई बू नहीं आई और कोई रुआब नहीं दिखा लेकिन उसकी मूंछे रोबीलीं थीं. रुआबदार अफसर ने पूछा- \”तुम क्या करती हो\”
\”मैं एक एन जी ओ में काम करती हूँ\” लड़की बिला वजह किसी को अपने सच बताने में बिलकुल यकीन नहीं करती थी क्योंकि उसके पास जीवन के ऐसे कई अनुभव थे जिनके कारण वह जानती थी कि उसे ऐसा ही करना चाहिये. जाने कैसे कैसे डर थे उसके भीतर जिन्हें संभालना उसके ही वश में था किसी और के नहीं तब किसी को बताने का लाभ ही क्या था.
\”एन जी ओ का क्या नाम है.\” अफसर ने पूछा.
\”एडुकॉम एंड नेशन. वे लोग भारत में शिक्षा पर काम करते हैं. भारत की गरीबी कम करने और भारत को साक्षर बनाने के लिए वर्ल्ड बैंक ने उन्हें पैसे दिए हैं. लड़की ने एक संपर्क से मन ही मन नाता जोड़ लिया था और बेझिझक बहुत इत्मीनान से अफसर से बातें करने लगी थी. अफसर को देश विदेश के सारे एनजीओज़ का काला चिट्ठा बहुत मालूम था. उसके पास एक अंतर्दृष्टि भी थी. अपने बारे में यह भी उसका मानना था कि सूक्ष्म आर्थिक अपराध और अपराधियों को वह दूर से ही पहचानता था लेकिन सच तो यह था कि अपना रौब झाड़ने में कभी कभी वह दूसरों के सामने बहक भी जाता था. वह कहता मैं उड़ती चिड़िया को पहचानता हूँ और उसके पर गिन सकता हूँ. उसे लड़की मासूम लगी. उसने सोचा -यह क्या कर सकती है, अपराध तो ऊपर बैठे लोग करते हैं. यह तो उस बड़ी माला का एक ऐसा मोती है जिसे निकाल कर पूरी माला दो सेकेंड में फिर गुंथ जाए और इसके वहां होने की कोई निशानी भी न छूटे.
\”अच्छा तो फिर यहाँ किसलिए ?\”
अफसर ने पूछा.
\”यहाँ तीन-चार दिन दिल्ली और आस पास की झुग्गियों का सर्वे करके रिपोर्ट बनानी है मुझे.\”
लड़की ने बहुत सहजता से मुकम्मल जवाब दे दिया.
\”ओह तो काफी सीरियस काम है आपका.\” अफसर बाल की खाल निकालने में जुटा सा लगा.
लड़की भीतर के भी भीतर थोड़ा सा डरी कि उस रुआबदार अफसर ने तुरंत ही पूछ ही लिया -\” ओह, तो आपको यहाँ की झुग्गी झोपड़ियों के अते-पते मालूम हैं?\”
लड़की जवाब के लिए तैयार थी – \”नहीं मुझे तो कुछ नहीं मालूम. मेरे जो लोग यहाँ हैं वे ही मुझे गाइड करेंगे.\”
इसके बाद की बारीकी में अफसर नहीं गया. उसने अपनी सुडौल स्वस्थ गरदन हाँ में हिलायी. उसने पूछा -माँ बाप कहाँ हैं क्या करते हैं.
\”पिता तो रिटायर हो चुके हैं. माँ घर में ही रहतीं हैं \”लड़की दस साल पीछे पहुँच गयी थी. लड़की ने अपनी भाव भंगिमा से यह संकेत दे देना ठीक समझा था कि वह अब तक अविवाहित है.
विवाहित स्त्री और अकेली माँ पर कैसी कैसी निगाहें रखते हैं लोग यह सब भुगतने बाद ही लड़की इस नतीजे पर पहुंची थी. इस बीच उसकी बेटी का फ़ोन आया और वह उसे काटकर एसमएस को माध्यम बना उससे बात करती रही. कोई बड़ी बात नहीं थी यह कहने में कि वह शादीशुदा है. उसके दो बच्चे हैं लेकिन किसी को इतना बताने पर बात इतने पर कहाँ रुकती है. और आपके पति ? इस सवाल के बिना कहाँ पूरे होते हैं सारे जवाब. वह इस सवाल से बचना चाहती थी. वैसे तो शादी के दो साल बाद से ही लगभग उसने यह बताना छोड़ ही दिया था कि वह शादीशुदा है क्योंकि शादी उसकी दुखती रग थी जिसे बार-बार छेड़ने पर वह खासे दर्द का अनुभव करती थी. यों भी कम समय में उसने बहुत अधिक जी लिया था.
उसके सपनों की तहें और गिरहें अभी खुली भी न थीं. उसे इसके लिए समय ही नहीं मिला था. अब तक का उसका सारा समय खुद को ढंकने तोपने और बचाने में चला गया था.उसने अफसर को चोर निगाह से देखा. क्या अफसर सच कह रहा है कि वह सबको समझ जाता है ! क्या उसे भी. उसे तो सब छुपा ले जाना है. वह मान ही मान हंसी ..
\”कहाँ की रहने वाली हो\” अफसर ने पूछा –कैसे बताये कि वह आज भी अरावली की पहाड़ियों के बीच ही रहती है. वर्षों बीत गए वहां गए हुए और उस एक ठहरी हुई गाढ़ी शाम को जिए हुए फिर भी.
लड़की धीरे से अपने भीतर उतर गयी. प्रेम में पड़ विवाह किया था उसने. प्रेम में ही रह गयी होती विवाह क्यों किया. उसे बार बार लगता लेकिन उसके लगने से क्या हुआ. दुनिया की सबसे पुरानी पहाड़ियों के बीच घूमती वह शाम उसी तरह बीत गयी होती तो क्या कोई शिकायत की होती उसने ! उसके साथ कितनी मधुर थी वह. उसे पत्थरों के बीच बना वह मंदिर याद आ गया. वह वहां न रहा होता तो उसने भी कोई कसम न ली होती. वहां लाल जोड़े में सजी धजी एक दुल्हन और पीली धोती और पीला कुरता पहने गाँठ जोड़े वह जोड़ा जो न मिला होता तो वह उस शाम को दिल में बसाये अपने घर चली आयी होती. उस जोड़े को देखती संजीव की आँखों की कशिश ने वहीँ एक ऐसी कसम दे दी कि वह अपना जीवन बिना सोचे समझे उसे सौंप घर लौट आयी थी.
पत्थरों के बीच बने उस मंदिर की चट्टान पर बैठ एक आरक्त चुम्बन के आतुर इंतज़ार में ढलते सूरज को देखना और झिलमिल अँधेरे के आते ही झट घर आने के लिए उसकी बाहों के घेरे को तोड़कर अपनी कलाईयों को उसकी मुलायम पकड़ से छुड़ा लेने की स्मृति जीने के लिए क्या बहुत नहीं होती. क्या चंद पलों में उसे एक बड़ा फैसला कर लेना चाहिए था ? लेकिन बावजूद इसके उसने बड़े फैसले आगे भी चंद पलों में लिए. जैसे संजीव से अलग होने का फैसला एक छत के नीचे रहते हुए भी संभव किया. जिस दिन उसने उसके स्कूल के लिए निकलते समय उसकी बेटियों के सामने ही उसने कहा था- धंधा करने जा रही हो हो ? बस उसी दिन बल्कि उसी पल .
उसकी आँखों में कोई आंसू झिलमिलाता उसके पहले ही अफसर ने पूछ लिया.
\”माँ बाप के लिए तो बेटियां बहुत प्रिय होतीं हैं. तुम तो वैसे भी इतनी मधुर और शालीन हो.\” अफसर स्नेहिल था .
लड़की के होंठ हमेशा की तरह फैली हुई तैलीय मुस्कान से लबरेज थे. लड़की स्थिर शीशे की बड़ी खिड़की से बाहर अपनी नज़रें जमा बैठ गयी.
वह लगातार ट्रेन के बंद शीशे वाली पारदर्शी खिड़की से बाहर देख रही थी.
पिता लड़की के फैसले से आहत थे. उन्होंने तो उसके बचपन में ही मित्र के बेटे से उसका रिश्ता जोड़ने का वचन दिया था. यह भी कहा था तुम मेरे पास ही रहोगी तुम्हारे घर की छत मेरे घर की छत से मिली रहेगी तो मैं चैन से मर सकूँगा. पिता बहुत भावुक व्यक्ति थे और उसे बहुत चाहते थे. भावुकता के लिए वे माँ की डांट खाते रहते थे. संभवतः माँ ने ही पिता को मजबूत किया होगा उसके लिए फैसला लेने के बारे में तभी वे उसे बुलाकर कह सके होंगे- \”जाओ जहाँ चाहती हो वहां जाकर घर बसा लो\”.
वे तो चाहते ही थे कि वह सुखी रहे. उसको खुद से दूर नहीं करना चाहते थे लेकिन माँ की बात मानते थे. बीमार पिता को छोड़ एक धुकधुकी सीने में लिए वह पाँव में पत्थर बाँध भारी कदमों को लेकर नदी से भरे मन से मां के पैरों पर गिरी. मां को देखा तो उन्होंने उसकी ओर एक बार भी न देखा मां की आँखों में उसके मन की वही नदी मौजूद थी. वह चली आयी.कच्ची मिटटी के अहाते वाले आँगन से बाहर आते हुए वहां बने इकट्ठ-दुक्कट की गहरी रेखाओं ने उसे रोका था लेकिन उसने दिल पर हाथ रख कर उनसे कहा- \”फिर आँऊगी.\” पिता मर गए. घर बिक गया. वह दुबारा जा न सकी. एक बार इतना बड़ा फैसला लेने के बाद पिता के रहते वह वापस जाती तो क्या उसे अपने ही घर में पनाह मिलती. क्या पिता उसे माफ़ कर देते ? वह यह सवाल मन तक लाती और फिर पिता के मन का मान रखती हुई वह जवाब भूल जाती.
अफसर जितनी देर चुपचाप बैठा रहा उतनी देर लड़की यही सब सोचती रही. उसकी आँखों में एक मायूसी ठहर जाए उससे पहले वह अफसर की ओर देख मुस्करा देती. \” माँ -बाप बेटियों के विवाह की चिंता सबसे अधिक करते हैं. शादी के लिए कोई लड़का-वड़का ढूंढ लो\”
अफसर मुस्कराया वह फिर लड़की से बात करने के मूड में था. शादी की बात पीछा नहीं छोड़ेगी. लड़की को झल्लाहट हुई फिर भी जाने क्यों लड़की को अफसर भला लग रहा था. उससे बात करना अच्छा लग रहा था नहीं तो अब तो वह हमेशा ही डर के घेरों में रहकर जीने वाली लड़की हो गयी थी. पहली बार वह किसी सहयात्री को इतनी छूट दे रही थी. अफसर की लड़का-वडका ढूँढने की बात पर वह कुछ शर्म से मुस्करा पड़ी. कुवांरी लड़की को लडके की बात पर जिस तरह मुस्करांना चाहिए ठीक उसी तरह और फिर खिडकी से बाहर देखने लगी. यह सब वह अक्सर किया करती थी तभी तो तेईस की हो जाती थी. उसका मन सचमुच तेईस पर ही आँखें मूंदें बैठा था. यही सच था क्योंकि उसके सपनों की तो तहें भी अभी नहीं खुलीं थीं.
अब तो दो बेटियां, उसके दो बच्चे भी हैं. उसने बेटी को एसमएस भेजा – “रिन्नू सो जाओ. अपना ख़याल रखना और बाहर का दरवाज़ा ठीक से बंद कर लेना. ध्यान रखना \”
\”ओके, टेक केयर , गुडनाइट माँ.\” बेटी का जवाब भी आ गया.
अफसर की आँखों की मुलायमियत से ज़ाहिर था कि वह लड़की को किसी के प्रेम में मान रहा था. ज़रूर ये उसी को एसमएस भेज रही होगी. लड़की ने सोचा वह ऐसा ही सोच रहा होगा. अफसर ने सोचा – लड़कियां सही मायनों में शादी करना भले ही नहीं जानतीं पर वे प्रेम करना जानतीं हैं. अफसर को याद आया कि जिस लड़की से अफसर ने प्रेम किया उसने उससे विवाह नहीं किया और जिससे अफसर ने विवाह किया उससे उसको कभी प्रेम नहीं हुआ. वह अपनी प्रेमिका के बारे में अक्सर सोचता और एक शेर याद करता- कुछ तो मजबूरियां रहीं होंगी यूं ही कोई बेवफा नहीं होता. अफसर सामने बैठी किसी भी लड़की में अपनी प्रेमिका को ढूंढता. अफसर यह खेल खुद के साथ खेलता तब वह वापस उम्र के उसी पडाव पर खडा होता.
एक छत के नीचे रहते हुए उसने संजीव से रिश्ते तोड़ लिए और खुद को कुंआरी कहने लगी. जब वह नशे में होता उसे बहुत प्यार करता उसे आवाज़ देता, बुलाता उसे गाना सुनाता उसे रिझाता लेकिन लड़की का दिल टूट चुका था. वह पति से नहीं पर उस प्रेमी से बेसाख्ता नाराज़ थी जो उसे अरावली की पहाड़ियों में मिला था. उसकी नाराज़गी इस जन्म में तो नहीं टूटने वाली. उसने सोचा था कि एक बार अपने पथरीली रास्ते पर चलना सीख ले तब संजीव से एक एक पल का हिसाब करेगी. लेकिन ढेरों सवाल उसके पास रह गए.
उसने जिद करके एक बार कहा -\”क्यों नहीं छोड़ देते इसे. . तब एक दिन संजीव ने कहा और उसने सुना. लड़की की आँखों के आगे कई दिनों तक वही सब घूमता रहा. – \”पा पीने वाले को जहाँ भी देखते पीटने लगते थे. पार्टी में शराब पीने वालों को बख्शते नहीं थे. वे शराब की महक पाते ही वहशी की तरह किसी के घर में चल रही पार्टी में हंगामा करते थे और गाली गलौज कर पार्टी छोड़कर चले आते थे. हम सारे भाई बहन, माँ और मैं अंधेरी रातों में बिना कुछ भी खाए पिए उनके पीछे पीछे भागते घर चले आते थे .
पा के इस चेहरे से वह इतना डरने लगा था कि उसको भय के दौरे पड़ने लगे थे. उसके पाँव काँपते थे, उसे डरावने सपने आते थे. एक बार उन्होंने, उन्होंने मेरे जिगरी यार को पीटा था मेरे जिगरी यार को और उसी दिन मैं पीकर घर आया था. उन्होंने ही दरवाजा खोला था और मुझे देखते ही सहम गए थे. मैं वह निगाह नहीं भूल सकता. उनकी निगाहों में वही याचना थी जो मेरी निगाहों में थी जब मेरे जिगरी यार को मेरे ही घर की पार्टी में सबके बीच में पटक पटक कर मारा था उन्होने. तभी से मैं पीता हूँ बल्कि शराब मुझे पीती है और तब से ही मुझे भय के दौरे भी नहीं पड़ते जब तक मैं ज़िंदा हूँ तब तक ये मुझे पीती रहेगी और मैं इसे पीता रहूंगा\” .
लड़की ने एक बार मर जाने की कोशिश की. अपने हाथ की नस काट ली लेकिनसंजीव ने उसे बचा लिया था. संजीव ने उसके माँ बाप के लिए और अपने बच्चों के लिए उसे बचा लिया था. वह नशे में आपे से बाहर हो जाता था \”किससे मिलने जाती हो ? कौन यार है तुम्हारा, कभी हमें भी मिलवा दो. यह सिंगार किसके लिए ? बोलो. मारने दौड़ता. फैशन ? उतार इसे.\” वह डर जाती. फिर पहनने लगती वही पुराने कपडे. वह बाहर घूम घूम कहने लगता इसके चाल चलन ठीक नहीं हैं. नशे में खूब बहकता वह. अफसर की नज़र बचाकर लड़की ने अपनी कलाई पर पड़े उस कटे हुए निशान को देखा और झट दुपट्टे में छुपा लिया .
एक दिन संजीव ने दुनिया को अचानक अलविदा कह दिया और फिर कभी न लौटने के लिए उसपर मुस्कराता हमेशा के लिए चला गया. लड़की के लिए संजीव का यह धोखा ना काबिले बर्दाश्त था. सदमें से बाहर आने में उसे कुछ साल लग गए. उसने खुद को संभाला और खूब संभाला.
घर की ड्योढी के अन्दर वह औरत थी और ड्योढ़ी के बाहर एक लड़की. बीच में कोई सुराख नहीं था. एक दिन उसके शोख दुपट्टे को अलगनी पर सूखते देख उसके देवर ने आँखें निकालकर कड़क आवाज़ में उससे पूछा था \’यह शोख रंग तुम्हारा है\’ वह सकपका कर बोली थी- \’नहीं रिन्नू का\’ वह बच गयी थी. वह अभिनय करने वाली फकीरिन हो गयी थी. अपने सपनों को जीने के लिए सारे रंग पहनने के लिए, अपने कोरे दुपट्टों में रंग भरने के लिए, जीने का अभिनय करने के लिए. उसे दूसरा जन्म लेने की ज़रुरत नहीं थी. उसे मालूम था कि ज़िंदगी छोटी है इसे जी लो जितना जीना है. उसे लगता उसके आसपास के लोगों को यह नहीं मालूम था नहीं तो उसे फकीरिन बनना ही क्यों पड़ता .
अपने काले कटे बाल वह क्लिप में छुपाकर रखती. पतले चूडीदार पायजामे, कांच की चूड़ियाँ,इत्र की शीशियाँ सुरमा, काजल वह सफर के लिए रखती.
\”अरे लो भाई खाना आ गया है.\” अफसर उसको उसके ख्यालों से बाहर निकाल लिया. अफसर बोला – \”थोड़ी देर में मेरा स्टेशन आने वाला है. मुझे उतरना है. तुमसे बातें करते रास्ता कब ख़त्म हो गया पता ही न चला. सुनो, लड़की, मैं इंसान को देखकर उसको पहचान लेता हूँ. वर्षों का तजुर्बा है मेरे पास. मैंने तुम्हें बताया था न.” लड़की डरती हुई मुस्कराती रही.
\”एक बात कह रहा हूँ. मेरी बेटी की उम्र की हो तुम ! लड़की ! यह दुनिया काजल की कोठरी है. कोई अच्छा लड़का देखकर शादी कर लो. मैं चलता हूँ. फिर मिलूंगा शायद फिर ट्रेन में.\”
वह ज़ोर का ठहाका लगाकर हंस पड़ा. लड़की ने सोचा अफसर उसके पिता की तरह ही भावुक है.
कितना अच्छा है अफसर. इतने शातिर अपराधियों को पकड़ने वाला अफसर मुझे नहीं पकड़ पाया? लड़की अपने अनुभवों और आंसुओं के साथ हंस पडी. जाते जाते अफसर ने एक बार मुड़कर उसे देख लिया उसकी डबडबायी आँखों को. लड़की ने झट से आँखों में कुछ पड जाने बहाना कर पीठ उसकी ओर घुमा ली. अफसर ने जाते जाते हाथ हिलाया लड़की मुस्करा दी. ट्रेन गंतव्य की ओर दौड़ पडी थी.
प्रज्ञा पाण्डेय
89, लेखराज नगीना, सी ब्लाक, इंदिरा नगर
लखनऊ
9532969797