कोरोना महामारी के इस विकट दौर में लोग घरों में क़ैद हैं, बचे हुए बाहर की क़ैद में छटपटा रहें हैं. इस भयावह एकांत को कवियों, लेखकों, कलाकारों ने भरना शुरू किया है, वैज्ञानिकों, विचारकों ने समझना प्रारम्भ कर दिया है. जब यह कहा जाता है कि मनुष्य जल्दी ही इस आपदा से बाहर निकल आयेगा. मैं सुनना चाहता हूँ कि कोई कहे यह पृथ्वी भी अपनी वनस्पतियों और पशु-पक्षियों के साथ जल्दी ही मनुष्य निर्मित विभीषिकाओं से बाहर निकल आएगी.
कवि, विचारक, कला-संस्कृति मर्मज्ञ अशोक वाजपेयी की कुछ बिलकुल नई कविताएँ प्रस्तुत हैं. इनमें मेघ-मन्द्र स्वर में कोरोनाकालीन समय की उदासी, विवशता, बेचैनी के साथ वह उम्मीद भी है जो कभी भी साथ नहीं छोडती.
कोरोना एकान्त में कुछ कविताएँ : अशोक वाजपेयी
हम अपना समय लिख नहीं पायेंगे
यह ठहरा हुआ निर्जन समय
जिसमें पक्षी और चिड़ियाँ तक चुप हैं,
जिसमें रोज़मर्रा की आवाजें नहीं सिर्फ़ गूँजें भर हैं,
जिसमें प्रार्थना, पुकार और विलाप सब मौन में विला गये हैं,
जिसमें संग-साथ कहीं दुबका हुआ है,
जिसमें हर कुछ पर चुप्पी समय की तरह पसर गयी है,
ऐसे समय को हम कैसे लिख पायेंगे?
पता नहीं यह हमारा समय है
यहाँ हम किसी और समय में बलात् आ गये हैं
इतना सपाट है यह समय
कि इसमें कोई सलवटें, परतें, दरारें, नज़र नहीं आतीं
और इससे भागने की कोई पगडण्डी तक नहीं सूझती.
हम अपना समय लिख नहीं पायेंगे.
यह समय धीरे चल रहा है
लगता सब घड़ियों ने विलम्बित होना ठान लिया है;
बेमौसम हवा ठण्डी है;
यों वसन्त है और फूल खिलखिला रहे हैं
मानों हमारे कुसमय पर हँस रहे हों
और गिलहरियाँ तेज़ी से भागते हुए
मुँह चिढ़ाती पेड़ों या खम्भों पर चढ़ रही है;
अचानक कबूतर कुछ कम हो गये हैं जैसे
दिहाड़ी मज़दूरों की तरह अपने घर-गाँव वापस
जाने की दुखद यात्रा पर निकल गये हों:
हमें इतना दिलासा भर है कि
अपने समय में भले न हों, हम अपने घर में हैं.
उम्मीद किसी कचरे के छूट गये हिस्से की तरह
किसी कोने में दुबकी पड़ी है
जो आज नहीं तो कल बुहारकर फेंक दी जायेगी.
हम अपना समय लिख नहीं पायेंगे.
(29 मार्च 2020)
पृथ्वी का मंगल हो
सुबह की ठण्डी हवा में
अपनी असंख्य हरी रंगतों में
चमक-काँप रही हैं
अनार-नीबू-नीम-सप्रपर्णी-शिरीष-बोगेनबेलिया-जवाकुसुम-सहजन की पत्तियाँ:
धूप उनकी हरीतिमा पर निश्छल फिसल रही है:
मैं सुनता हूँ उनकी समवेत प्रार्थना:
पृथ्वी का मंगल हो!
एक हरा वृन्दगान है विलंबित वसन्त के उकसाये
जिसमें तरह-तरह के नामहीन फूल
स्वरों की तरह कोमल आघात कर रहे हैं:
सब गा-गुनगुना-बजा रहे हैं
स्वस्तिवाचन पृथ्वी के लिए.
साइकिल पर एक लड़की लगातार चक्कर लगा रही है
खिड़कियाँ-बालकनियाँ खुली हैं पर निर्जन
एकान्त एक नये निरभ्र नभ की तरह
सब पर छाया हुआ है
पर धीरे-धीरे बहुत धीमे बहुत धीरे
एकान्त भी गा रहा है पृथ्वी के लिए मंगलगान.
घरों पर, दरवाज़ों पर
कोई दस्तक नहीं देता-
पड़ोस में कोई किसी को नहीं पुकारता
अथाह मौन में सिर्फ़ हवा की तरह अदृश्य
हलके से धकियाता है हर दरवाज़े, हर खिड़की को
मंगल आघात पृथ्वी का.
इस समय यकायक बहुत सारी जगह है
खुली और ख़ाली
पर जगह नहीं है संगसाथ की, मेलजोल की,
बहस और शोर की, पर फिर भी
जगह है: शब्द की, कविता की, मंगलवाचन की.
हम इन्हीं शब्दों में, कविता के सूने गलियारे से
पुकार रहे हैं, गा रहे हैं,
सिसक रहे हैं
पृथ्वी का मंगल हो, पृथ्वी पर मंगल हो.
पृथ्वी ही दे सकती है
हमें
मंगल और अभय
सारे प्राचीन आलोकों को संपुंजित कर
नयी वत्सल उज्ज्वलता
हम पृथ्वी के आगे प्रणत हैं.
(6 अप्रैल 2020)
छोटी कविताएँ
1
भोर की पहली चिड़िया बोल रही है
अभी भी बचे हुए अँधेरे को चीरती हुई
भोर को पता नहीं.
2
निर्जन में आवाज़ें हैं
शब्द नहीं हैं, लोग नहीं हैं
नियत समय पर फिर भी हो रहा है
सवेरा.
3
चिड़िया ने कुछ कहा नहीं है
उसको किसी ने कुछ बताया नहीं है
चुपचाप चिड़िया भोर ले आयी है
अपने नन्हें पंखों पर.
4
शायद अँधेरे को पता होता है
कि उसे बीत जाना है
शायद प्रकाश को ख़बर होती है
कि उसका अवसर आयेगा
शायद हम ही हैं
जो बीतने और होने के बीच फँसे हैं.
5
हमारे बिना जाने कुछ-कुछ छूटता रहा है:
बचपन के पहले राग-बिम्ब
रात की ट्रेन में चुपचाप कम्बल उढ़ाने वाले व्यक्ति का चेहरा
सुबह याद न आने वाली ललित की प्रसिद्ध बन्दिश
पिछले वर्ष शिरीष से पटे ढेर सारे फूलों का दिन
कुछ-कुछ छूटता रहता है…
(7 अप्रैल 2020)
क्या?
क्या उत्तर दोगे तुम
जब वे पूछेंगे कि वह नीली आभा कहाँ गयी?
कहाँ गया वह मांसल लाल
कहाँ वह हरियाती पीतिमा?
कैसे कहोगे तुम
कि शब्दों में अँट नहीं पाया
वह हलका हरा अँधेरा
वह ओस की बूँद पर एक पल को चमकी धूप
वह शहर छोड़कर भूखे भागते आदमी का लाचार चेहरा
वह सब कुछ से बेख़बर हवा में फुदकती चिड़िया की चहचहाहट की स्वरलिपि?
क्या होगा तुम्हारे पास अभी भी बचा
जब तुम लौटोगे भाषा की घाटियों में
जो हरा-भरा हो और जीवन से भरपूर?
(8 अप्रैल 2020)
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ashokvajpeyi12@gmail.com
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