उनकी स्मृति को नमन करते हुए प्रमोद कुमार तिवारी का यह आलेख प्रस्तुत है.
प्रमोद कुमार तिवारी
यह बात तब की है जब कवि केदारनाथ सिंह मूलचंद अस्पताल में भर्ती थे. दिल्ली की भागदौड़ और कठिनाइयों को झेलते हुए उनके एक सखा रोज शाम को नियमपूर्वक आते थे और बाहर के कमरे में चुपचाप बैठते थे. अगर केदारनाथ सिंह बेहतर स्थिति में होते तो वे मिलते अन्यथा दरवाजे के शीशे से निहार कुछ घंटे बाद चुपचाप वापस लौट जाते. संबंधियों के यह कहने पर कि हम उनको बता देते हैं वे जोर देकर मना करते कि नहीं, बन्धु को आराम करने दीजिए. मैंने उन्हें दूर से देख लिया, कल फिर आऊंगा. ये गंगा प्रसाद विमल थे. अपने ‘विमल’ नाम को सार्थकता प्रदान करते हुए.
गंगा प्रसाद विमल को लोग अनेक रूपों में जानते हैं. ‘अकहानी आंदोलन’ के प्रणेता. मशहूर कथाकार, कवि, उपन्यासकार, अनुवादक, निबंधकार, नाटककार, प्रशासक, केंद्रीय हिन्दी निदेशालय के निदेशक, जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र के अध्यक्ष आदि आदि पर इन सब से बढ़कर जो चीज उन्हें खास बनाती थी वह थी उनकी सहजता. याद आता है कि जेएनयू में जब पहली बार उनसे मुलाकात हुई तो उन्होंने हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ बढ़ाया, मैंने बहुत ही संकोच से हाथ मिलाया. इसके पहले सिर्फ एक मुलाकात हुई थी वे एक कवि सम्मेलन का संचालन कर रहे थे और मैंने बहुत ही कमजोर सी कविता पढ़ी थी. पर उन्होंने तभी से मेरे लिए कवि संबोधन निश्चित कर दिया. बाद में जब वे सह-शोध निर्देशक बने तो बड़े ही दुलार से एक दो टिप्पणी ऐसी की जो आज तक प्रकाश दिखाती है.
अजातशत्रु गंगा प्रसाद विमल वर्षों पहले उत्तरकाशी का अपना पुश्तैनी गांव छोड़ कर दिल्ली वासी हो चुके थे परंतु उनके कालका जी के फ्लैट में उनके गांव से मुलाकात हो जाती थी. जो लोग भी उनके घर गए होंगे वे बताएंगे कि मैदानी क्षेत्र में पहुंच कर प्रदूषित होने से पहले वाली गंगोत्री और उत्तरकाशी वाली स्वच्छ विमल गंगा उनके मन मिजाज में वास करती थी. वे केवल गांव के न थे परंतु गांव को जीते थे. गांव से बिछड़ने के दर्द को उन्होंने कई कविताओं में व्यक्त किया है. एक कविता तो गांव पर ही है जिसमें वे अंतत: जब गांव को ढूंढते हुए गांव पहुंचते हैं तो वहां भी गांव नहीं मिलता है-
मैं जी भर कर चूमना चाहता हूँ
आभार में
अपने उस गाँव को
वह पहले तो मेरे साथ ही आया था
शहर में
झटक कर, मुझे अकेला कर कहाँ चला गया वह
स्मृति की खोह में
गंगा प्रसाद विमल के पूरे व्यक्तित्व में ठेठ पहाड़ की सरलता और खास तरह की सादगी हर कोई महसूस कर लेता था. इसका पता जेएनयू, साहित्य अकादेमी आदि के कार्यक्रमों के दौरान भी देखने को मिलता था. ऐसे औसत छात्र जिन्हें सामान्य विद्वान भी मुंह नहीं लगाते थे, वे गंगा प्रसाद विमल का भरपूर सम्मान पाते थे. विमल जी का बड़ापन इस बात में निहित था कि उनसे मिलकर ढेर सारे छोटे लोग बड़े बन जाते थे. उनका ‘बंधु’ का चिरपरिचित संबोधन, सबके लिए गर्मजोशी से बढ़े उनके हाथ और मोहक मुस्कान उनकी साधारणता को असाधारण बना देती थी.
गंगा प्रसाद विमल की विशेषता यह थी कि केवल पहाड़ को नहीं पूरी धरती को वे उसकी सांद्रता में महसूस करते थे. वे स्थानीयता और वैश्विकता की बाइनरी को नकारते हुए इनकी सीमाओं को परस्पर घंघोल देते थे. वे प्रकृतिप्रेमी थे जो सीमाओं को नहीं जानती, इसीलिए वे किसी पहाड़, किसी देश को नहीं धरती को संबोधित करते हैं:
कुछ भी लिखूंगा
बनेगी
तुम्हारी स्तुति
ओ प्यारी धरती.
पहाड़ ही नहीं जन्मे तुमने
न घाटियां
क्षितिज तक पहुंचने वाली
फैलाव में
रचा है तुमने आश्चर्य
आश्चर्य की इस खेती में
उगते हैं
निरंतर नए अचरज
मैं नहीं
अंतरिक्ष भी आवाक है
देखकर तुम्हारा तिलिस्म.
गंगा प्रसाद विमल का पूरा व्यक्तित्व एक खास तरह की सादगी से भरा हुआ था, पहली बार मिलने पर उनमें कोई विशिष्टता नजर नहीं आती थी. सबसे बड़ी बात यह थी कि उनकी रचनाएं भी इसी नामालूमपन से ओत-प्रोत होती थीं. बड़ी से बड़ी बात वे बिना चौंकाए, बिना झटका दिए कह जाते थे. विमल सर की रचनात्मकता इस बात की गवाह है कि चीते की तरह नहीं घास की तरह भी आक्रामक हुआ जा सकता है. उदाहरण के लिए उनकी कविता ‘शक्ति’ देखें:
जन्मी है शक्ति
गरीब की उपजाऊ धरती से
बेबसी में ही बढ़ी है
हमारी महान
सामर्थ्य
दो मुझे
दो शक्ति
जिसे हृदय ने रोपा है
जिसे रोप कर काटा है आदमी ने
और मापा है
फांसी के फंदों से.
बड़ी ही सादगी के साथ मुस्कुराते हुए वे बडी से बड़ी बात कह जाते थे. जब उनको किसी बात का विरोध भी करना होता तो इस अदा से करते कि अपनी बात भी कह जाते और सामनेवाले के अहं को चोट भी नहीं पहुंचती. एक सहज, सरल बाल हृदय व्यक्ति थे. बच्चों से उन्हें बहुत प्रेम था. बौद्धिकता से भरी बोझिल बातों की बजाय घर-परिवार और बच्चों की चर्चा करते, कार पार्किंग में कविता या गीत सुनाने को कहते और कुरेदने पर ही बौद्धिक बातें उठाते. पर व्याख्यान के समय उन्हें कभी अगंभीर होते नहीं देखा. मध्यकाल की उनके पास गहरी दृष्टि थी. कबीर आदि पर उन्होंने न सिर्फ काम किया था, बल्कि हर तरह की परिस्थिति में भक्त कवियों का आनंदित रहने वाला स्वभाव अपने भीतर समाहित कर लिया था. शायद यही कारण रहा हो कि कभी भी उन्हें चिंतित नहीं देखा. अक्सर लोग छोटी मोटी समस्याओं की मजबूरी गिनाते दिख जाते हैं. पिछली मुलाकात में जब किसी बात को मुझे दोहराना पड़ा तो उन्होंने अपने बुढ़ापे का मजा लेते हुए और उसके फायदे गिनाते हुए कहा कि ‘’कान से थोड़ा ऊंचा सुनने लगा हूं, इसलिए अब सुनता कम, सुनाता अधिक हूं, इसका एक फायदा यह है कि कोई बुराई भी करेगा तो सुनायी नहीं देगा… और उसके बाद वही निश्छल हंसी….’’
भाषा को उन्होंने जतन से साधा था, नये नये शब्द बना देते थे. मेरे शोध कार्य के एक अध्याय को देखने के दौरान ऐसे ही दो तीन शब्द उन्होंने लिख दिए और फिर अपनी चिरपरिचित सरलता के साथ कहा, ‘’मेरी आदत खराब है, अपने ढंग से शब्द बना लेता हूं, शब्दकोश की दृष्टि से जो आपको अनुचित लगे उसे हटा दीजिएगा.‘’
वे अकहानी के प्रमुख सिद्धांतकार थे. आजादी के बाद कहानी को बड़े संदर्भ से जोड़ने और एक वैश्विक परिप्रेक्ष्य देने की बात रखते हुए कहते हैं कि “काल की भौगोलिक यात्राएं खत्म होकर अब स्पेस के उस ‘अभूगोल’ से जुड़ गई हैं जहां अनुभव भी ‘संज्ञातीत’ है. अत: भारतीयता का आग्रह केवल प्रतिगामी शक्तियों की स्थापनाकांक्षाओं का ही आग्रह है.”
गंगा प्रसाद विमल अथक रचनाकार थे. उनके सात कविता संग्रह, ग्यारह कहानी संग्रह, चार उपन्यास, एक नाटक और आलोचना पर तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. जिनमें प्रमुख हैं बोधि-वृक्ष, नो सूनर, इतना कुछ, सन्नाटे से मुठभेड़, मैं वहाँ हूँ, अलिखित-अदिखत, कुछ तो है (कविता संग्रह); कोई शुरुआत, अतीत में कुछ, इधर-उधर, बाहर न भीतर, खोई हुई थाती (कहानी संग्रह); अपने से अलग, कहीं कुछ और, मरीचिका, मृगांतक (उपन्यास); आज नहीं कल (नाटक); प्रेमचंद, समकालीन कहानी का रचना विधान, आधुनिकता:साहित्य का संदर्भ (आलोचना). इसके अतिरिक्त गजानन माधव मुक्तिबोध का रचना संसार, अज्ञेय का रचना संसार, लावा (अंग्रेजी) आदि पुस्तकों का उन्होंने संपादन भी किया. गंगा प्रसाद विमल हर समय व्यस्त रहनेवाले व्यक्ति थे, उनके पास अनेक योजनाएं हुआ करती थीं.
उनके व्यक्तित्व के अनेक पक्ष हैं यहां उनके साक्षात्कार के छोटा सा अंश प्रस्तुत कर रहा हूं. एक साक्षात्कार के दौरान जब अर्गला के संपादक अनिल कविन्द्र ने उनसे पूछा कि वे कौन सी रचनाएं होंगी जिन्हें मुश्किल समय में आप सुरक्षित रखना चाहेंगे? तो गंगा प्रसाद विमल का जवाब अनूठा था, जो भावी पीढ़ी में उनके अखंड विश्वास का द्योतक भी है. उन्होंने कहा,
“मैं उस कवि को बचाऊँगा जिसके वाक् जो हैं, वो बीजों की तरह हैं. वो वाक् बीज बचा लूँगा, बाद में खेतों में डालूँगा और अपने आप वो कविताएँ बन जाएँगी. वाक् बीज पैदा करने वाला कवि जो है. ऐसा नहीं कि वो ईसा से 2000 वर्ष पूर्व पैदा हुआ होगा. हो सकता है कि अद्यतन जो नया कवि है, वो पैदा हुआ हो. पर इसे मैं इस रूप में रखना चाहूँगा.”
इस संदर्भ में उन्होंने बड़े कवियों से ज्यादा अपरिचित कवियों पर दृष्टि डालते हुए बड़ी बात कही कि
“अच्छे कवि. वो तो बच जाएँगे. उन्हें मैं दोहराता रहूँगा, इसलिए वो बच जाएँगे. लेकिन कुछ ऐसी चीजें, कुछ ऐसे कवि, जिन्हें बार-बार आप पढ़ना चाहेंगे. वो पैदा होते रहते हैं. जैसे मैं सोचता हूँ कि कालिदास स्मृति में होंगे. कबीर स्मृति में होंगे. ग़ालिब काफी लोगों की स्मृति में होंगे. लेकिन जो बच जाए वहाँ से, बचाना चाहिए. और मुझे ये लगता है कि जो नए लोग काम कर रहे हैं, वो बचाकर रखना बेहद ज़रूरी होगा. क्योंकि वो नए बीज हैं, उनसे नई चीजें आगे पनपेंगी. इसलिए इसमें यही कहूँगा कि जो अच्छी चीजें होंगी, स्मृति में बची रहेंगी. और जो न बच पाएँगी, न रह पाएगी स्मृति में, उन काग़ज़ों को ले जाने में मैं गुरेज न करूँगा. और उसमें नए कवियों को ले जाऊँगा.‘’
कबीर और कालिदास को छोड़कर नये कवियों के संग्रह को ले जाने की बात करने वाले विद्वान कम होते हैं. अक्सर देखा गया है कि वरिष्ठ विद्वानों को युवा पीढ़ी से शिकायतें अधिक होती हैं, असंतोष अधिक होता है. इस मामले में गंगा प्रसाद विमल अनूठे थे. उनकी विशिष्टता का प्रमाण इस प्रश्न से मिलता है कि जब यह पूछा गया कि ‘’आपकी वह कौन सी स्व-रचित कृति है, जिसे आप बेहद पसंद करते हैं और क्यों?
तो गंगा प्रसाद विमल ने कहा कि ‘’इसका उत्तर कठिन है. क्योंकि मुझे बाकी लोगों की बहुत सी चीजें पसंद हैं, अपनी एक भी पसंद नहीं है.‘’
80 की उम्र में वे युवापन से लबालब भरे हुए थे. युवा दल को संबोधित यह कविता इसी बात का प्रमाण है:
युवा दल
नहीं हूँ अब तुम्हारा सदस्य
पर तुम तो रहते हो
निश्चित ही मुझमें.
जैसे गेहूँ निबद्ध है रोटी में
जैसे सूर्योदय
दिन में घुला-मिला है
तुम हो मुझमें
एक पवित्र मेखला की तरह
हर ईमानदार दुनिया खोलने के लिए.
ऐसी ही उनकी एक कविता है ‘रूपांतर’ जो अपनी सादगी के कारण मुझे बहुत पसंद है. सच और झूठ के रिश्ते को इतने सरल ढंग से भी बयां किया जा सकता है, इस कविता को पढ़ने के बाद जाना. कोई चाहे तो इस कविता में मृत्युबोध को भी महसूस कर सकता है-रूपांतर
इतिहास
गाथाएं
झूठ हैं सब
सच है एक पेड़
जब तक वह फल देता है तब तक
सच है
जब यह दे नहीं सकता
न पत्ते
न छाया
तब खाल सिकुडने लगती है उसकी
और फिर एक दिन खत्म हो जाता है वह
इतिहास बन जाता है
और गाथा
और सच से झूठ में
बदल जाता है
चुपचाप.
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प्रमोद कुमार तिवारी
कवि-आलोचक
गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय
9868097199