Photo :Tim Walker : Georgina and Mice |
गीत चतुर्वेदी की प्रस्तुत छह कविताएं समालोचन पर पहली बार प्रकाशित हो रही हैं. गीत हिंदी कविता के अब एक तरह से वैश्विक पहचान बन चुके हैं. उनकी कविताओं का चौदह भाषाओँ में अनुवाद हो चुका है और इन अनुवादों को सराहा गया है.
गीत की कविताएँ इक्कीसवीं सदी की कविताएँ हैं, उनकी कविताओं का मिजाज़ और मुहावरा दोनों समय के साथ बदला है और समुचित हुआ है. ये कविताएँ और अधिक कविता हुई हैं. इनमें आभासी और यांत्रिक समय के मनुष्य और उसके होने के लगातार हो रहे कत्लेआम का बहता ठंडा लहू है. इसमें दरअसल कलाओं का वह उजास है जिसमें हम अपना आदमी होना देख पाते हैं.
कविताएँ खास समालोचन के पाठकों के लिए.
गीत चतुर्वेदी
छह कविताएं
सुसाइड बॉम्बर
कविता को उपयोगितावादी दृष्टिकोण से देखना मुझे नहीं पसंद.
फिर भी मन में कई बार आता है ख़याल
कि कोई मानव-बम
बटन दबाना भूल जाए
कि उस समय वह कविता पढ़ रहा था
उसके बाद अपना बम उतार कर
ख़ुद एक मानव-कविता बन जाए
ताकि दूसरे बम उसे पढ़ सकें.
बड़े पापा की अंत्येष्टि
फूल चढ़ाने के बाद उस लाश को घेरकर हम खड़े हो गए थे.
सम्मान से सिर झुकाए. उसका चेहरा निहारते.
हममें से कई को लगा कि पल-भर को लाश के होंठ हिले थे.
हां, हममें से कई को लगा था वैसा, पर हम चुप थे.
एक ने उसके नथुनों के पास उंगली रखकर जांच भी लिया था.
उसके दाह के हफ़्तों बाद तक लोगों में चर्चा थी कि
मरने के बाद भी उस लाश के होंठ पल-भर को हिले थे.
कैफ़े चलाने वाली एक बुढि़या, जो रिश्ते में उसकी कुछ नहीं लगती थी,
बिना किसी भावुकता के उसने एक रोज़ मुझसे कहा,
मुझे विश्वास था, वह आएगा, मरने के बाद भी आएगा
अपना अधूरा चुंबन पूरा करने.
53 साल पहले जब वह 17 का था
गली के पीछे टूटे बल्ब वाले लैंपपोस्ट के नीचे
एक लड़की का चुंबन अधूरा छोड़कर भाग गया था.
यासुजिरो ओज़ू की फिल्मों के लिए
अगर तुम एक देश बनाते, तो वह एक मौन देश होता : तुम्हारे रचे शब्दकोश मौन होते : तुमने कभी देवताओं के आगे हाथ नहीं जोड़ा : ताउम्र तुम एक दृश्य रचते रहे : उनमें तुम मानसिक आंसुओं की तरह अदृश्य रहे
अर्थ की हर तलाश अंतत: एक व्यर्थ है : इस धरती पर जितने बुद्ध, जितने मसीहा आए, इस व्यर्थ को कुछ नए शब्दों में अभिव्यक्त कर गए : मां की तरफ़ सेमैं पीड़ा का वंशज हूं: पिता की तरफ़ से अकेलेपनका : जब भी मैं घरकी दहलीज़ लांघता हूं : मैंएकांत का इतिहास लांघता हूं
गुप्त प्रेमी मरकर कहां जाते हैं?
सड़क की तरफ़ खुलने वाली तुम्हारी खिड़की के सामने
लगे खंभे पर बल्ब बनकर चमकते हैं
उनके मर चुकने की ख़बर भी बहुत-बहुत दिनों तक
नहीं मिल पाती
मृत्यु का स्मरण
तमाम अनैक्य का शमन करता है
मेरी आंखें मेरे घुटनों में लगी हैं
मैंने जीवन को हमेशा
विनम्रता से झुककर देखा
थके क़दमों से एक बूढ़ा सड़क पर चला जा रहा
वह विघटित है
उसके विघटन का कोई अतीत मुझे नहीं पता
मैं उसके चलने की शैली को देख
उसके अतीत के विघटन की कल्पना करता हूं
वह अपनी सज़ा काट चुका है
कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि जज साहब उसे
बाइज़्ज़त बरी कर दें
जो कहते हैं भविष्य दिखता नहीं, मैं उन पर यक़ीन नहीं करता
मैं अपने भविष्यों को सड़कों पर भटकता देखता हूं
उसी तरह मेरे भविष्य
मुझे देख अपना
अतीत जान लेते हैं
मैं वह शहर हूं जिसकी वर्तनी व उच्चारण
बार-बार बदल देता
एक ताक़तवर राजा
यह मेरी देह का भूगोल है :
मैं आईने के सामने जब भी निर्वस्त्र खड़ा होता हूं,
मुझे लगता है,
मैं एक भौगोलिक असफलता हूं
मेरी भाषा, मेरा भविष्य
शहर के बाहर पुल के नीचे कचरे के ढेर के बीचोंबीच
मेरी भाषा का सबसे बूढ़ा कवि चाय में डबलरोटी डुबोकर खाता है
उसने अफ़ज़़ाल से भी पहले शायरी ईजाद की थी
सारे देवता जूं बनकर उसकी दाढ़ी में रहते हैं
उसके शरीर पर जितने बाल हैं, वे उसकी अनलिखी कविताएं हैं
वह उंगलियों से हवा में शब्द उकेरता है
इस तरह, हर रात अपने अतीत को लिखता है एक चिट्ठी
जो लिफ़ाफ़ा खोजने से पहले ही खो जाती है
मरने से पहले एक बार
कम से कम एक बार
उस औरत का सही नाम और चेहरा याद करना चाहता है
जो किसी ज़माने में उसकी कविताओं की किताब
अपने तकिए के नीचे दबाकर सोती थी
मैंने कहा, तू कौन है? उसने कहा, आवारगी *
बहुत सारी रातें मैंने काम करके बिताई हैं
लिखते हुए, पढ़ते हुए.
हमेशा अकेला ही रहा, इसलिए महज़ ख़ुद से लड़ते हुए.
लेकिन मैं याद करता हूं उन रातों को
जब मैंने कुछ नहीं किया, पैरों को मेज़ पर फैलाकर बैठा
दीवार पर बैठे मच्छर को बौद्ध-दर्शन की किताब से दबा दिया.
कांच के गिलास को उंगलियों से खिसकाकर फ़र्श पर गिरा दिया,
महज़ यह जानने के लिए कि
चीज़ों के टूटने में भी संगीत होता है.
एक रात बरामदे में झाड़ू लगाया और उसी बहाने आधी सड़क भी साफ़ कर दी
किताबों से धूल हटाने की कोशिश की तो जाना-
साहित्य और धूल में वर-वधू का नाता है.
बाक़सम, इस बात ने मुझे थोड़ा विनम्र बनाया.
मैंने धूल को साहित्य और साहित्य को धूल जितना सम्मान देना सीखा.
कुछ गोपनीय अपराध किए
तीस साल पुरानी एक लड़की को फेसबुक पर खोजता रहा
और जाना कि पुरानी लड़कियां ऐसे नहीं मिलतीं –
शादी के बाद वे अपना नाम-सरनेम बदल लेती हैं.
सीटी बजाते हुए सड़कों पर तफ़रीह की
और एक बूढ़े चौकीदार के साथ सूखी टहनियां तलाशीं
ताकि वह अलाव ताप सके.
एक रात जब सिगरेट ख़त्म हो गई तब बड़ी मेहनत से ढूंढ़ा उस चौकीदार को.
उसने मुझे पहचान लिया और अपनी बीड़ी का आधा बंडल मुझे थमा दिया.
एक औरत से मैंने सिर्फ़ एक वक़्त की रोटी का वादा किया था
जवाब में दूसरे वक़्त भूखी रहती थी वह.
आधी रात मैं उसे कार में बिठाता और शहर से बहुत दूर ढाबे में ले जाता.
वह आधी अंगड़ाई जितनी थी, आधी रोटी जितनी, आधी खुली खिड़की जितनी,
आधे लगे नारे जितनी.
खाना खाने के बाद हम प्रॉपर्टी के रेट्स पर बहसें करते
और मिट्टी पर मंटो का नाम लिखते थे.
एक रात एक पुलिसवाले ने मुझे ज़ोर से डांटा कि क्यों घूम रहा है इतनी रात को?
मैंने भी उसे चमका दिया कि लोग मुझे हिंदी का बड़ा कवि मानते हैं, तुम ऐसे मुझे डांट नहीं सकते.
बिफरकर वह बोला, साले, चार डंडे मारूंगा तेरे पिछवाड़े. घर जाकर सो जा.
मैंने उसके साथ बैठकर तीन सिगरेटें पीं. वह इस बात से परेशान था
कि उसका साहब एक नंबर का चमड़ी है
और वह अपनी बेटी को पुलिस में नहीं आने देगा.
अपनी मोटरसाइकिल पर बिठाकर मुझे घर छोड़ गया.
एक रात जब मैं पैदल भटक रहा था, कुछ कुत्ते भौंकने लगे मुझ पर.
मैंने दोस्तोयेव्स्की का एक हार्ड-बाउंड मोटा उपन्यास उन्हें दे मारा.
पर कुछ पल बाद ही कुत्ते फिर से भौंकने लगे.
मैंने इसे फ़्योदोर की एक और नाकामी मानी
और मन ही मन सोचा :
यह दुनिया माईला… नाम्या ढसाळ का गांडूबगीचा है.
जिन रातों को मैंने मोटी-मोटी किताबें पढ़ीं,
कुछ कवियों को सराहा, कई पर नाक-भौं सिकोड़ी,
जिन रातों को बैठकर मैंने अपनी कविताएं सुधारीं गद्य लिखे –
मैं उन रातों को कभी याद नहीं करता
न ही वे चीज़ें याद आती हैं जो मैंने लिखी हैं –
वे बेशक भूल जाने लायक़ हैं.
पर जो चीज़ मैं नहीं भूल पाता, वह है अपनी रातों की आवारगी.
न पैसा न दमड़ी, न किताब न कविता
जब मरूंगा, छाती से बांध के ले जाऊंगा ये अपनी आवारगी.
और हां, जाने कितनी रातें मैंने छत पर गुज़ारी हैं.
कभी रेलिंग से टिककर धुआं उड़ाते. कभी नंगी फ़र्श पर चित लेटे
आकाश निहारते.
ख़ुद से कहा है बारहा – लोग तुम्हें कितना भी रूमानी कहें गीत चतुर्वेदी
आंसू, गुलाब और सितारे से कभी बेवफ़ाई मत करना.
कविता ख़राब बन जाए, वान्दा नहीं
पर दिल को इन्हीं तीनों से मांजना – हमेशा साफ़ रहेगा.
अंतत: ख़ुद कवि को ही करनी होती है
अपनी बेचैनियों की हिफ़ाज़त.
(शीर्षक पंक्ति मोहसिन अली नक़वी की एक ग़ज़ल से है.
‘गांडूबगीचा’ मराठी कवि नामदेव ढसाळ के एक कविता-संग्रह का नाम है)
सबसे प्रसिद्ध प्रश्न \’मैं क्या हूं\’ के कुछ निजी उत्तर
रोटी बेलकर उसने तवे पर बिछाई
और जिस समय उसे पलट देना था रोटी को
ठीक उसी समय एक लड़की का फ़ोन आ गया.
वह देर तक भूले रहा रोटी पलटना.
मैं वही रोटी हूं.
एक तरफ़ से कच्ची. दूसरी तरफ़ से जली हुई.
उस स्कूल में कोई बेंच नहीं थी, कमरा भी नहीं था विधिवत
इमारत खंडहर थी.
बारिश का पानी फ़र्श पर बिखरा था और बीच की सूखी जगह पर
फटा हुआ टाट बिछाकर बैठे बच्चे हिंदी में पहाड़ा रट रहे थे.
सरसराते हुए गुज़र जाता है एक डरावना गोजर
एक बच्चे की जांघ के पास से.
अमर चिउंटियों के दस्ते में से कोई दिलजली चिउंटी
निकर के भीतर घुसकर काट जाती है.
नहीं, मैं वह स्कूल नहीं, वह बच्चा भी नहीं, गोजर भी नहीं हूं
न अमर हूं, न चिउंटी.
मैं वह फटा हुआ टाट हूं.
गोल्ड स्पॉट पीने की जि़द में घर से पैसे लेकर निकला है एक बच्चा.
उसकी क़ीमत सात रुपए है. बच्चे की जेब में पांच रुपए.
मां से दो रुपए और लेने के लिए घर की तरफ़ लौटता बच्चा
पांच बार जांचता है जेब में हाथ डाल कि
पांच का वह नोट सलामत है.
घर पहुंचते-पहुंचते उसके होश उड़ जाते हैं कि जाने कहां
गिर गया पांच रुपए का वह नोट. वह पांच दिन तक रोता रहा.
हां, आपने सही समझा इस बार,
मैं वह पांच रुपए का नोट हूं.
उस बच्चे की आजीवन संपत्ति में
पांच रुपए की कमी की तरह मैं हमेशा रहूंगा.
मैं भगोने से बाहर गिर गई उबलती हुई चाय हूं.
सब्ज़ी काटते समय उंगली पर लगा चाक़ू का घाव हूं.
वीरेन डंगवाल द्वारा ली गई हल्दीराम भुजिया की क़सम हूं
अरुण कोलटकर की भीगी हुई बही हूं.
और…
और…
चलो मियां, बहुत हुआ.
अगले तेरह सौ चौदह पन्नों तक लिख सकता हूं यह सब.
‘मैं क्या हूं’ के इतने सारे उत्तर तो मैंने ही बता दिए
बाक़ी की कल्पना आप ख़ुद कर लेना
क्योंकि मैं जि़म्मेदारी से भागते पुरुषों की
सकुचाई जल्दबाज़ी हूं, अलसाई हड़बड़ाहट हूं
चलते-चलते बता दूं
ठीक इस घड़ी, इस समय
मैं दुनिया का सबसे सुंदर मनुष्य हूं
मेरे हाथ में मेरे प्रिय कवि का नया कविता-संग्रह है.
कवि की तस्वीर: © ज़ाहिद मीर, 2012.
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1977 में मुंबई में जन्मे गीत चतुर्वेदी के खाते में छह लिखी हुई और कई अधूरी-अनलिखी किताबें दर्ज हैं. उनका पहला कविता संग्रह ‘आलाप में गिरह’ 2010 में राजकमल प्रकाशन से आया और दूसरा संग्रह ‘न्यूनतम मैं’ भी जल्द ही वहीं से आने वाला है.
उन्हें कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, गल्प के लिए कृष्ण प्रताप कथा सम्मान मिल चुके हैं. ‘इंडियन एक्सप्रेस’ सहित कई प्रकाशन संस्थानों ने उन्हें भारत के सर्वश्रेष्ठ लेखकों में शुमार किया है.
उनकी कविताएं देश-दुनिया की चौदह भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं. उनके नॉवेला ‘सिमसिम’ के अंग्रेज़ी अनुवाद के लिए उनकी अनुवादक अनिता गोपालन को प्रतिष्ठित ‘पेन-हैम ट्रांसलेशन ग्रांट 2016’ अवार्ड हुआ है. सोलह साल तक पत्रकारिता करने के बाद अब वह अपना अधिकांश समय लेखन को देते हैं. इन दिनों भोपाल रहते हैं. उनका ईमेल पता है :
geetchaturvedi@gmail.com
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