कोरोना जैसी महामारियाँ सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक के साथ-साथ नैतिक संकट भी खड़ा करती हैं. अब तक अर्जित और प्रचारित सभी तरह के कल्याणकारी मुखौटे एक-एक उतरने लगते हैं. इस महाव्यवस्था के केंद्र में अंतिम मनुष्य नहीं कोई और है. यह हर जगह और स्पष्ट है अब.
इस महामारी के समाजिक और प्राकृतिक आयामों पर यह आलेख संतोष अर्श का है. बेधक और सुगठित.
छज्जे से झाँकती पृथ्वी
संतोष अर्श
“Possibly, a good side of the Coronavirus, is it might bring people to think about what kind of a world do we want.”
मनुष्य से संक्रमित पृथ्वी सेल्फ़ आइसोलेशन में जाना चाहती है :
पिछले वर्ष अगस्त से अक्टूबर तक फेफड़े जैसे अमेज़ॅन के सघन वर्षावन दावाग्नि से धधक रहे थे और बहुसंख्य प्राणी उनमें जीवित भुन गये. उनका प्रकृतिप्रदत्त अभयारण्य उन्हीं के लिये गैस चैम्बर बन (बना दिया?) गया. और अब एक रक्तबीज विषाणु मनुष्य के श्वसन-तंत्र का अतिक्रमण कर उसे अवरुद्ध कर रहा है. यदि मनुष्य का स्वयं को प्रकृतिजीवी मानने का दावा है और उसने महामारियों का इतिहास विस्मृत नहीं किया है, तो उसे यह प्रकोप इतना अप्रत्याशित नहीं लगना चाहिए।
लगभग सत्तर लाख वर्गकिलोमीटर में विस्तृत और आठ देशों (ब्राज़ील, बोलीविया, पेरु, इक्वाडोर, कोलंबिया, वेनेजुएला, गुयाना, और सूरीनाम) का आच्छादन करने वाले ये ऊष्णकटिबंधीय वर्षावन संसार के उच्चतम जैव-विविधता का क्षेत्र थे और दुनिया के तीस फ़ीसदी विविध वन्य-जीवों का वास स्थल (हैबिटेट) भी. धरती पर जितने मनुष्य हैं, उससे पचास गुने अधिक (३९० बिलियन) वृक्षों की हरित छाया में सोलह हज़ार से अधिक प्रकार के जीव पलते थे. पृथ्वी पर सघन वर्षावनों का आधा भाग, जो बीस प्रतिशत प्राणवायु का उत्पादन करता था, जिसके लिए ब्राजील का विश्वप्रसिद्ध पर्यावरण कार्यकर्ता चीको मेंडेस मार दिया गया था, महाप्रलय-सी अग्नि में जल गया. साथ ही पर्यावरणवाद का विचार एक और बार झुलसा. फिर नवंबर से ऑस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स से ‘काली ग्रीष्म’ प्रारंभ हुई. इस दावाग्नि में असंख्य जीव जीवित जल गये. जिनकी गणना एक अनुमान भर है.
लातीनी अमेरिका के सबसे बड़े देश ब्राज़ील के महावनों की तबाही का उत्तरदायी नेता जाइर बोलसोनारो हमारे सत्तरवें गणतंत्र दिवस का विशिष्ट अतिथि बना. कोरोना आपदा आने के बाद उसने हमारे देश को लिखी चिट्ठी में हनुमान, लक्ष्मण और संजीवनी बूटी का उल्लेख किया. वह, जो अपने देश की अनगिनत संजीवनी बूटियाँ जलकर राख होते हुए देखता रहा. ब्राज़ील के इस नए राष्ट्रपति ने देश के ‘आंतरिक विकास’ के लिये अमेज़ॅन वनों के संरक्षण की पर्यावरणिक मान्याताओं को ताक पर रखा और कहा कि, न तो वह डब्ल्यूडब्ल्यूएफ़ का एजेंडा मानेगा और न ही इन जंगलों के आदिम निवासियों के लिए इन्हें आरक्षित रखेगा. इस तरह इन महावनों के बड़े हिस्से के जलकर राख होने का आरोप एक ट्वीट में ‘शुष्क मौसम, हवा और ताप’ पर लगा दिया गया. पूँजी ने राजनीति से मिलकर सदा ही प्रकृति के नष्ट होने का आरोप प्रकृति पर लगाया है और निर्धनता का आरोप निर्धन पर.
फ़रवरी में हमारे देश में दुनिया भर के पूँजीपतियों के मुखिया देश अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भी आये थे. देश ने उन्हें ‘नमस्ते ट्रम्प’ कहा और स्वागत में अनुमानित सौ करोड़ रुपये भी व्यय किये. एक महीने बाद जब आपदा का भीषण समय आया तब ‘हाईड्रोऑक्सीक्लोरोक्विन’ के लिए अमेरिका के राष्ट्रवादी राष्ट्रपति भारत पर ‘जवाबी कार्रवाई’ के लिए भी तैयार थे. इस बात को ढकने के लिए हमारे देश की सत्ता-चेरी मीडिया को अतिरिक्त वाग्जाल बुनना पड़ा. ट्रम्प, जिन्हें अमेरिका के एक बूढ़े दार्शनिक और भाषाविद् ने अभी-अभी ‘मनोरोगी विदूषक’ (Sociopathic Bufoon) कहा है, तीन वर्ष पूर्व विकास और पर्यावरण के साथ-साथ गंभीर कार्बन उत्सर्जन पर आधारित २०१५ का ‘पेरिस समझौता’ तोड़ चुके थे. पेरिस समझौता तोड़ते वक़्त उनका कहना था कि यह अमेरिका की अर्थव्यवस्था के लिए नुक़सानदेह और ‘स्थायी-हानि’ का सबब है. उस समय ट्रम्प ने सस्ती मज़दूर मंडी एशिया की दूसरी और तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं- भारत और चीन का भी उल्लेख किया था। इस समझौते के टूटने से पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध नेताओं, कार्यकर्ताओं और अन्य आशान्वित जनों को गहरी ठेस लगी थी. हिंसक, अहंमन्य, अहंस्फीत राष्ट्रवाद के आगे सभी आवाज़ें अनसुनी रह गयीं. आज जब कोविड-१९ से अमेरिका बहुत हलकान है और न्यूयॉर्क जैसे नगर में विषाणुदूषित शवों का निकलना ज़ारी है, ट्रम्प ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के अमेरिकी अनुदान पर रोक लगा दी है. और अमेरिका में काम कर रहे, वहाँ के आर्थिक परिप्रेक्ष्य में सस्ते कुशल श्रमिक वतन वापसी की उम्मीद में हैं. परंतु वे इतने सस्ते मजूर भी नहीं हैं कि गिट्टी, मौरंग और सीमेंट ब्लेन्ड करने वाले ट्रक के उदर में छिपकर उन्हें वापस लौटना पड़े और सत्ता की पुलिस उन्हें उसकी नाभि के छिद्र से बाहर निकाले.
मनुष्य के पास आत्मा-परमात्मा का जो प्रपंच है, उसमें वन्य जीवों की आत्माओं के लिए सीमित स्थान है. शुक्र है कि भारतीय दंत-कथाओं में यह प्रचुर व आवधारणात्मक रूप में है. अगस्त, २०१९ से अब तक जितने वन्य-जीव जलकर मरे हैं, या जिन्हें जलाया गया है, क्या उनकी आत्मायें भस्म हो चुके जंगलात में भटकती होंगी ? मूक पशु-पक्षियों को प्रतिशोध का कोई मौक़ा नहीं मिलता, जबकि महावृत्तांतों में यह सृष्टि अत्यंत दयालु परमेश्वर की सुंदरतम रचना कही जाती है। कोरोना विषाणु कहाँ से आया है ? वैज्ञानिक अभी तक बहुस्तरीय प्रकोप बन गये नोवल कोरोनावाइरस के उद्गम का पता लगाने की स्पर्धा में हैं. जेनेटिक आकलन के आधार पर उनका संदेह ‘पैंगोलिन’ नाम के चींटीभक्षक निरीह जंतु पर है जो चीन में उसके माँस और अनोखे शल्क के लिए अफ्रीका और पूर्वी एशिया के अन्य क्षेत्रों से स्मगल किया जाता है. इस बारे में अध्ययन ज़ारी है, परन्तु उनका विश्वास है कि यह रोगक विषाणु किसी पशु से ही कूदकर मनुष्य शरीर के भीतर उतरा है. तो क्या दुनिया भर के अतियांत्रिक, स्वचलित क़साईख़ानों में कटने वाले पशुओं का प्रतिशोध एक रोगक (Pathogen) विषाणु लेगा जो चीन के वुहान से चला है ? या फिर यह जैविक अस्त्र-शस्त्रधारी वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं की टकराहट है ? जिसमें एशिया की सबसे बड़ी ‘मज़दूर मंडी’ हमारा प्यारा महादेश भी यातना झेल रहा है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन की मानी जाय (ट्रम्प का कहना है कि डबल्यूएचओ चीनी गुट में है) तो ३१ दिसंबर, २०१९ यानी पिछले वर्ष के अंतिम दिन चीन के देशीय डबल्यूएचओ कार्यालय में वुहान प्रांत का एक निमोनिया का मामला सूचित हुआ. ३० जनवरी, २०२० को यह चिंता ‘जन स्वास्थ्य आपात’ घोषित की गयी और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने इस स्वास्थ्य समस्या से जूझने की तैयारी हेतु ६७५ मिलियन डॉलर की माँग की. ११ फ़रवरी को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोरोना वाइरस से उपजी संक्रामक बीमारी का नामकरण कोविड-१९ किया. ११ मार्च को डबल्यूएचओ ने इसे वैश्विक महामारी घोषित कर दिया. १२ को यूरोप के डबल्यूएचओ के क्षेत्रीय निदेशक डॉ. हैन्स हेनरी पी. काल्वेज ने यूरोप को इस महामारी का अभिकेन्द्र कहा.
११ मार्च को डबल्यूएचओ द्वारा महामारी घोषित होने पश्चात् ११ दिनों तक हमारे देश में सब कुछ सामान्य था. अंतर्राष्ट्रीय उड़ानें आ रहे थीं। यूरोप से, अमेरिका से खाड़ियों से. १७ को कुछ संदेह उपजा, जब स्कूल और कॉलेजों को बंद किया जाने लगा। फिर एक दिन ‘लॉकडाउन’ घोषित हुआ. सत्ताओं के अत्यंत निकट रहने वाला यह शब्द जनता को कहीं दूर से आया हुआ लगा. और विस्थापित मज़दूर लौटने लगे. दूध और तेल के टैंकर्स के कुओं में छिपकर. साइकिल से, ठेलों से, मोटरसाइकिल से, अपने झोलों, बच्चों और स्त्रियों तक को कंधे पर उठाये हुए. हज़ार-दो-दो-हज़ार किलोमीटर की सत्याग्रही पदयात्राएं जिनके अपूर्ण रह जाने की प्रायिकताएँ थीं. खण्ड-प्रलय में प्रवाहित जन-नद. जिनमें से कुछ कभी नहीं लौट सके. कुछ ने मार्ग में ही दम तोड़ दिया. कुछ पहुँचे भी होंगे. दिल्ली के आनंद विहार में खौफ़ और दहशत से भरी हुई क़यामत की भीड़ इकट्ठी हुई थी। लेकिन वहाँ नूह की क़श्ती नहीं पहुँची। ज़ुलेखा पूँजी आपदा के समय भी युसुफ़ श्रमिकों को अनिश्चित, अजनबी, परदेसी स्थानिकता में रोक कर रखना चाहती थी. उसके पीछे न्यायसंगत ठहराया जाने वाला कारण यह था कि कहीं वे लौट गये और दोबारा नहीं आये तो उत्पादन और मुनाफ़े के संबंध असंतुलित हो जाएंगे. मुनाफ़े और उत्पादन के इस संतुलन को साधने के लिये जगत के जैविक, अजैविक हरेक पक्ष को गहरे तक असंतुलित किया जा चुका है. उत्पादन और मुनाफ़े के प्रश्न पर पूँजी मनुष्य की सांस्कृतिक अस्मिता को भूल जाती है. भविष्यहीन इस परिदृश्य में मज़दूर एक बार फिर पूँजी के बनाये प्रेत जैसा दिखा. पूँजी की नज़र से जिसका कोई घर-परिवार नहीं है, कोई देश नहीं है, कोई आसरा नहीं है, सवारी नहीं है. सरकार उनसे रेल किराया वसूलना चाहती है, पुलिस और सेना उन्हें नियंत्रित रखना चाहती है. मीडिया उन्हें तत्काल अराजक घोषित कर देना चाहती है.
निजी पूँजी के मिथकों को ध्वस्त करते हुये सरकारी कर्मचारियों और अस्पतालों की तरह टी.वी. पर एक सरकारी चैनल भी इस मुश्किल घड़ी में काम आया. रामायण का पुनःप्रसारण शुरू कर दिया गया. मध्यवर्ग टीवी पर अरुण गोविल, दीपिका चिखलिया और सुनील लहरी को वनवास पर जाते देख कर ज़ार-ज़ार रोने लगा और आनंद विहार पर नरकवास से लौटती विस्थापित श्रमिकों की उद्विग्न भीड़ उसकी आँखों से ओझल हो गयी. पूँजीवादी करुणा और सामंती भावुकता में कितना साम्य है ! आपदा में हमारे देश के मध्यवर्ग ने एक बार फिर ऐतिहासिक ढंग से इसी करुणा और भावुकता का मिश्रित शर्बत पिया-पिलाया और तृप्त हुआ. तालियाँ, थालियाँ पीटी जा रही हैं. पटाखे दग़ रहे हैं, दीवाली मनायी जा रही है. आपदा का हास्यास्पद उत्सवीकरण हो गया है. अफ़वाहें तकनीक की बहुत तेज़ गति पर सवारी कर रही हैं. अख़बार और वणिक-पूँजी से संचालित अन्य संचार माध्यम भी झूठ और हिंसा परोसने में ‘मारुत तुल्य वेगं’ हैं. बुद्धिजीवी क़यास लगा रहे हैं। शायद मज़दूरों को एअरलिफ़्ट करा लिया जाय ? शायद सारे निजी अस्पताल सरकार अपने संचालन में ले ले ? परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ। हाँ, मध्यप्रदेश में नयी सरकार के नये (मुख्य भी) मंत्रियों ने ‘सामाजिक दूरी’ का पालन करते हुए, मुँह पर मास्क पहन कर लोकतन्त्र को बचाने की शपथ ली. लोकतंत्र जो स्थगित है या चौड़ी सड़कों पर सन्नाटे की तरह पसरा हुआ है.
अब घृणा का प्रसारण शुरू हुआ। भूमंडलीकृत पूँजी अथवा नवउदारवाद और अमरीकी संस्कृति के उपभोग ने (हमारी भोक्ता-तपस्या से प्रसन्न हो कर) हमें कृतकृत्य भाव से घृणा और अहं का वरदान दिया है. ज़ोम्बीवाद की राजनीति करने वालों ने आपदा से निपटने की अपनी विफलताओं को छिपाने के लिए आपदा का राजनीतिकरण कर दिया। उनके प्रिय पूँजीपतियों के कथित समाचार माध्यमों ने कोरोना वाइरस को मुसलमान बनाना शुरू किया. इस तरह समाज के अहंवादी नक़ली और मूर्ख हिस्से को जीवित रहने के लिए एक स्थायी शत्रु प्राप्त हुआ. उसके जीवित रहने (सरवाइवल) के लिये एक रचा गया शत्रु अतिआवश्यक है. अंततः घंटा-थाली बजाकर, मोमबत्ती जलाकर वाइरस को मारने का नासा प्रमाणित दावा करने वाले लोग जी-जान से मुसलमानों के विरुद्ध जुट गये। श्रम और निर्धनता को हेय मानने वाली संस्कृति से अनुप्राणित समाज को सरमायादारी की सियासत ने ‘वर्क फ्राम होम’ दिया कि, कोरोना-19 महामारी यदि ठहर भी जाये तो इस महाद्वीप पर एक नरसंहार संभावित रहे और पूँजीवादी रक्तचूषक राजनीति का भविष्य सुरक्षित रहे.
वाइरस के आने की ख़बर के साथ मूर्खताओं का महाआख्यान प्रारम्भ हुआ. यह गोमूत्र पार्टियों से लेकर गो-कोरोना-गो के सामूहिक नारों तक ध्वनित, व्यंजित हुआ. धर्मगुरुओं के अक़ीदे ने इसमें चार चाँद लगाये. इन्हीं में से अचानक प्रकट हुई धर्मप्रचारक तबलीगी ज़मात. और यूटोपियाई जीवन में हिंसक निष्ठा रखने वाले मन-मस्तिष्क की भित्तियों पर कुटिलतापूर्वक इस भीति की पुताई कर दी गयी. मंदिरों-मस्जिदों में छिपे हुए लोग संक्रमित पाये गये और संक्रमण के साथ वे यहाँ-वहाँ छिटके भी। ये सब अभूतपूर्व नहीं, किंतु आशा से अधिक था. संसार भर में जहाँ नागरिकों के सोचने-विचारने का तरीक़ा बदल रहा है, वहीं भारत में खुलेआम कुंठाओं का प्रदर्शन हुआ. कुंठाएँ बुरी नहीं होतीं. ये मनुष्य के वास्तविक चरित्र और बर्ताव को सामने ला कर उसका विरेचन करती हैं. सत्तामुखी लोग सरकार से प्रश्न करने वालों को अपना शत्रु समझ बैठे. सोशल मीडिया पर ‘आईटी-सेल्स’ के ‘पेड-ट्रोल्स’ के घृणा-अनुष्ठान में ब्यूरोक्रेट्स, कलाकार, लेखक, संस्कृतिकर्मी भी सम्मिलित हैं. उनका कहना है कि जहाज़ के डूबते समय कैप्टन के विरुद्ध होना नैतिक नहीं है। इस तर्क से वे जहाज़ को डूबने से बचाने के लिए उस पर सवार कमज़ोर और संख्या में कम लोगों को गहराई में फेंक देने के निर्णय को स्वीकार लेंगे. वे कह रहे हैं, यह समय राजनीति का नहीं है, क्योंकि वे व्यापक जनसमूह की तबाही तक अपनी राजनीति बनाये रखना चाहते हैं. नैतिकता सामंतवाद की अंतिम दुहाई है. जनसमुद्र में घृणा की जो सुनामी उठने को आकुल है, उसके लिए भी महामारी से बच गये लोगों को तैयार रहना होगा. आरोप-प्रत्यारोप, निर्णायक दोषारोपण, गाली-गलौज़, धार्मिक-जातीय विद्वेष, सामाजिक विखण्डन यथावत नहीं; पूर्व से अधिक तीव्र, कुंठित और आवेगमय हैं.
लॉकडाउन में सेलिब्रेटी अजनबीयत से गुज़र रहे हैं. चूना-रौशनी के लिए लालायित रहने वाले नार्सिसिस्ट और आत्ममुग्ध लोग सोशल मीडिया पर लाइव आ रहे हैं. दैनिक जीवन के क्रिया-प्रदर्शन का दोहराव करते हुए. जो वे करते आए हैं वही सब. इस समय वे डरे हुए हैं कि मृत्यु के भय से आक्रांत उनके प्रशंसक उन्हें भूल न जायें. लोकप्रियता के लिए वे आपदा को इस्तेमाल करने का नया कौशल दिखा रहे हैं. वे कितने नक़ली हैं, कि जनता उनके लिए लोकप्रियता का स्रोत मात्र है. बाक़ी सबकुछ उनकी दृष्टि से अदृश्य है. वे आपदा के समय भी सेलिब्रेटी बने रहना चाहते हैं. मृत्यु के समीप भी वे अपने भ्रम को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं. भूख से रिरियाते चेहरों के दारुण वीडियोज़ सोशल मीडिया पर वायरल हैं तो प्रतिदिन नए व्यंजन बनाकर वहीं उन्हें परोसने वाली मध्यवर्गीय अश्लीलताएँ भी सरे-आम हैं. घरबंदी का लुत्फ़ ले रहे कुछ भरे पेट मध्यवर्गीय दिल्ली-मुंबई-सूरत से लौट रहे या लौटने का प्रयास कर रहे मज़दूरों को राक्षस बताने लगे. व्यंजना में वाइरस को साम्यवादी कहा गया और यह है भी क्योंकि, वर्गीय आधार पर यह मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद नहीं कर रहा है. इसने पूँजी की विराट वैश्विक संरचना को झकझोर कर इसकी चूलें हिला दी हैं. संभवतः तभी इसके लिए ऐसी तैयारी है। वरना ग़रीबों की मृत्यु के अन्य कारक प्रभु-वर्ग के लिए अदृश्य की लीलाएँ हैं. उनके काल्पनिक स्वर्ग और नर्क का फ़र्क़ मिटाने वाला वाइरस वामपथगामी ही होना चाहिए. किंतु नहीं, देशी प्रभुओं ने इसे बहरहाल मुसलमान घोषित कर रखा है.
संकट का सौंदर्य: अनिश्चितताओं से घिरा जीवन सभ्यताओं का मखौल उड़ा रहा है
वैश्विक अर्थव्यवस्था एक भोगवादी मस्तिष्क का भ्रम और मुनाफ़ाखोर मन का उद्गार है. इसकी बात करते समय हमें अक्सर यह नहीं बताया जाता कि समस्त उत्पादनों के कच्चे माल का एकमात्र स्रोत प्रकृति है. नवें दशक से ही भारत और दुनिया भर के विचारक, दार्शनिक, समाज-वैज्ञानिक, कवि-लेखक आदि भूमंडलीकरण, उदारीकरण और बाज़ारी संस्कृति का बहुस्तरीय, रचनात्मक विरोध करते आये हैं. एक तरह से यह उनकी आदत में शुमार हो गया था. इसे मुद्दे को टालने की बुरी लत भी दुनिया को लग चुकी थी. यह मानवीय त्रासदी है कि अस्तित्व पर संकट आने के समय ही किसी तरह की अवधारणा पर पूर्ण विश्वास किया जाता है. संकट टल जाने के बाद मनुष्य उसे फिर भूल जाता है, उसकी स्मृति समकालिक प्रपंचों की बंधक है. टिकाऊ विकास और वैश्विक पर्यावरण संरक्षण के नारे पिछले एक दशक में विफलताओं की ओर बढ़े हैं. इन प्रयत्नों का वृहत् भाग संतोषजनक परिणाम नहीं दे सका. यही कारण है कि भूमंडलीकरण के लाभार्थियों की अगली क़तार में खड़े लोग उतने ही भयभीत भी हैं. उन्हें वाइरस के भूमंडलीकृत होने की आशा नहीं थी. जीवन का यह संगीन संकट अगर छह माह भी ठहरा तो अगले छह सालों तक अर्थव्यवस्था का पूर्व जैसी स्थिति में आना असंभव है. माइक्रोसॉफ्ट, गूगल और अमेज़ॅन जैसी संस्थाओं से डॉलर कमाने वाले लोग भूल चुके हैं कि ज़मीन के एक टुकड़े, दो मवेशी और चार पेड़ों के साथ भी अनगिनत जीवनों की कई पीढ़ियाँ गुज़र गयी हैं.
जो बनायी गयी इस हिंसक व्यवस्था में जीने के लिये विवश या अभिशप्त रहे हैं उनके पास अब खोने के लिये जान के सिवाय कुछ नहीं है. न देश-गाँव, न देशी बीज, न मवेशी, न वनस्पति, न आहार. न कारीगरी के वे देशज पेशे और जीवन शैली. सबकुछ साभ्यतिक परिवर्तनों की आँधी में उड़ गया। संततिवाद की संस्कृति, अशिक्षा और जलवायु ने हमारे देश की आबादी को जिस स्तर पर पहुँचा दिया है, वहाँ कोई भी महामारी प्रलय की तरह विध्वंसक हो सकती है. ग़रीब और विस्थापित लोग भूख और दुर्भिक्ष से अराजक हो कर किस ओर जाएँगे ? अमीरों की रक्षा हेतु सेना की रायफ़लें और वंचितों के लिये उनकी गोलियाँ हैं. आपदा बनी रही तो ऐसे दृश्य आम हो जाएँगे. अमेरिका में अश्वेत संक्रमितों की संख्या अधिक है. हमारे देश में मेहनत-मज़दूरी और ऐसे ही अन्य पेशे वालों में जातीय एकांगीपन है. जिन्हें वैक्सीन से अधिक आवश्यकता आहार की है. इस समय जब सड़क पर कोई नहीं है, मजदूर खड़ा हुआ है. लौट रहा है. चल रहा है. संघर्ष कर रहा है.
उत्तर-मानव :
कई दिनों की घरबंदी से
हर्ष में है पृथ्वी !
फेन जैसा एक मृग तट पर
लहरों सा उछल कर
लहरों से खेल रहा है, निर्भय.
एक चिड़िया सोने की डाल पर
हीरक सी चमक रही है.
दिन के आकाश का नीलम शीशा
थोड़ा नीचे सरक आया है
और संझा का एक तारा
हमारी छतों के समीप.
जब मनुष्य इस पर नहीं रहेंगे
तब पृथ्वी कितनी सुन्दर हो जाएगी.
कुछ समय पूर्व एक पर्यावरणवादी स्थापना आई थी कि यदि पृथ्वी को एक दीर्घ समयावधि तक ख़ाली कर (Evacuate) दिया जाय तो यह ठीक वैसी हो जाएगी, जैसी बिगबैंग के पश्चात् थी. घरबंदी, बाज़ारबंदी और संगरोध के समय जब ऊर्जा खपत न्यूनतम स्तर तक पहुँची है, तब प्रकृति स्वयं को बहाल (Restore) कर रही है. कई आश्चर्यजनक, सकारात्मक बदलाव धरती की सतह और गगन मण्डल तक देखे जा रहे हैं. ओज़ोन क्षरण कम हो गया है. उसका घाव भर रहा है. व्हेल तटीय सतह पर आ रही है. क्षैतिज दृश्य स्पष्ट हो रहे हैं. नदियों का जल साफ़ हो रहा है. प्राणी प्रसन्न हैं. चिड़ियाँ अधिक गा रही हैं. सतह का तापमान कम हुआ है. शोर, धुआँ और कृत्रिम प्रकाश कम होने से कीट-पतंगों तक पर प्रभाव पड़ा है. पर्यावरण संरक्षण के नाम पर बड़ी-बड़ी योजनाएँ, संसाधन और धनराशियों के लिए असमर्थता का विलाप करने वाली सरकारों को देखना चाहिए कि पर्यावरण संरक्षण के लिए ये सभी व्यर्थ हैं. प्रकृति के ऊपर से मानवीय अतिक्रमण को केवल हटा देना है, वह अपना उपचार स्वयं कर लेगी. वैज्ञानिक और अभियांत्रिकीय अतिव्याप्तियों को कोसना भी निर्मूल है. विज्ञान का उपयोग मानवता को बचाने के लिए कम और उसे नष्ट करने के लिए अधिक हुआ है. यह अब तक पूँजी का सबसे स्वामिभक्त सेवक (दास) रहा है. इसे भी इस गिरफ़्त से छुड़ाया जाना चाहिए.
हेनरी डेविड थोरो का मानना था कि एक ही शाश्वत क़ानून इस सृष्टि पर लागू होता है और वह है प्रकृति का क़ानून (Law of Nature). शेष क़ानून सत्ता-संरचना द्वारा बुना गया मायाजाल है. उसका निर्माण और पालन करने वाले मूर्ख होते हैं. सामूहिक रूप से भेदभाव, अन्याय, अत्याचार और दमन के साथ जीवन निर्वाह करने की विवशतापूर्ण प्रणालियाँ. इसी व्यवस्था को जीवन-शैली, सभ्यता, संस्कृति इत्यादि संज्ञाएँ दी जाती रही हैं. थोरो का यह विचार सौंदर्य विषयक हमारी धारणाओं को परिवर्तित करने वाला है. सुंदर तभी तक सुंदर रहता है, जब तक मनुष्य की (कु) दृष्टि (उसके पास सुदृष्टि का भ्रम है, सुदृष्टि नहीं) उस पर नहीं पड़ती. उसकी इंद्रियों की ज़द में आते ही सबकुछ असुंदर हो जाता है, क्योंकि उसके नष्ट होने की आशंका भी जन्म ले लेती है. मनुष्य स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता रहा है। इतिहास में कई मौक़ों पर उसने मनुष्य ही के विरुद्ध इसका हिंसक मुज़ायरा किया है. मानव इतिहास बर्बरताओं और अत्याचारों का इतिहास है. उसमें जो अधिक ग्राह्य था, उसे विशेष महत्त्व नहीं दिया गया. लालच, भोग और वर्चस्व मानवीयता के सभ्य (?) हिस्से की चेतना का मूल हैं. प्रकृति और पर्यावरण की उपेक्षा ने मनुष्य को उसकी सीमाओं तक धकेल दिया है. एक सूक्ष्म प्रोटीन मॉलिक्युल के समक्ष वह कितना बेबस नज़र आ रहा है. महाशक्तियों और स्वर्गीय ऐंद्रिक भोगवाद की महागाथाएँ आज निस्सार और असहाय दीख रही हैं. अनिश्चितता की धूसर और मोटी दीवार ने मानवीय दूरदर्शिताओं को संकुचित कर दिया है. अनुलोम का विलोम हो रहा है. महाशक्तियाँ महादुर्बल हो रही हैं.
इन दिनों हमारी भाषा बदल गयी है. इसमें संगरोध, पृथक्करण, स्व-एकाकी, शारीरिक दूरी, सामुदायिक-संक्रमण, सामाजिक-प्रसार जैसे शब्दों और पदावलियों का बहुतायत है. क्वॉरन्टीन औपनिवेशिककाल से भी पूर्व खोजी समुद्री यात्राओं के समय का अवधि सूचक शब्द है. यह अवधि चालीस दिन की होती है. पानी के जहाज़ों के अलावा शहादत के चालीसवें (चेहल्लुम) से भी इसका कोई प्राचीन सांस्कृतिक संबंध हो सकता है. रक्त-संबंधों, मित्रताओं और मृत्युशोक की परिभाषाएँ उलट गई हैं. क्वॉरन्टीन एक यातना का नाम है. सत्ताएँ कारागार के नियमों को न मानने वाले उदण्ड क़ैदियों को भी आइसोलेशन या तन्हाई की सज़ा देती आई हैं. मनुष्य स्वयं में एक सत्ता है और सत्ता-मीमांसक भी, वह स्वयं अपराधी है, स्वयं न्यायाधीश, वह स्वकारागार में स्वयं को बंदी करता है और मुक्त भी. वह रक्षित और अरक्षित है. जीवन और मृत्यु का उसे मिथ्याभास है. जीवन-मरण उसकी अपनी क्रियाएँ और अवधारणाएँ हैं. इस संकट की खूबसूरती में मरना भी बदल गया है. यह मरना इस प्रकार का है कि कोई शव को भी नहीं स्वीकार करेगा. मृतक के लिए क़ब्रिस्तानों और श्मशानों की डगर कठिन हो चुकी है. मृत्यु की आध्यात्मिक मानी जाने वाली सुंदरता मानवीय क्षुद्रताओं की कुरूपता बन चुकी है.
हमारे जैसे देशों के नागरिक अपनी अरक्षिततता के साथ जीवित हैं. जहाँ कोई उत्तरदायी नहीं है. जो सत्ताओं के ऐतिहासिक चरित्र को जानते हैं वे उनसे किसी तरह की प्रत्याशा नहीं रखते. यह सब अभी लंबे समय तक चल सकता है. तकनीक हमारी निगरानी के लिए प्रत्येक जगह है. निजता को हमारे शरीर के भीतर तक घुस कर भंग किया जा चुका है. अगर हमने कभी सोनोग्राफ़ी या एम.आर.आई जैसी जाँच कराई है तो निगरानी करने वालों को हमारे गुर्दों, लीवर और हृदय का आकार तक मालूम है. हमारी चेतना की बाह्य सक्रियता को चिह्नित किया जा चुका है. बस हमारे मस्तिष्क के भीतर वे घुसा ही चाहते हैं. नियंत्रक आपदा का भरपूर लाभ उठाएंगे. क़ानूनों को बदलेंगे. सैनिक शासन और अधिनायकवाद पुराने पड़ चुके हैं. कुछ और नया, जघन्य, क्रूर और बर्बर लाया जा सकता है.
महामारी से बच जाना कोई दैवीय चमत्कार नहीं है. कृत्रिम अनुकूलन मानव की सभी शक्तियों से बढ़ कर है. वह धरती का महानतम (आ) जीवक है. परंतु प्रश्न यह है कि सभ्यता के इस महासागर में अकस्मात उत्पन्न महामारी के इस विक्षोभ से वह क्या सीखना चाहता है ? जैसा कि और भी लोग कह चुके हैं, कि यह कोई युद्ध नहीं हैं. यहाँ जय-पराजय नहीं है. युद्ध में शत्रु पक्ष होता है. यहाँ कोई शत्रु नहीं है. फेफड़े में पहुँच कर अपनी प्रतिकृति बनाने वाला वाइरस भी प्राकृतिक अंतर्जगत से निकला है. प्रकृति शत्रु नहीं है. उसका शत्रु-मित्र रूप मानवीय क्रिया-कलाप रचते हैं. फ़िलहाल इसे मानव और प्रकृति के अति प्राचीन संघर्ष के रूप में देखना चाहिए. सिवाय इसके, सब कुछ एक रिक्त परिकल्पना है.
हम लौट रहे हैं. पीछे जाने पर वे बुराइयाँ भी पड़ी मिलेंगी जिन्हें हम त्याग चुके थे. आपदा में अपने घरों से झाँकते स्वार्थी मनुष्य को देख कर लगता है कि जीवित रहने की चिंता में वह पदानुक्रमों और पदसोपानों को त्याग कर वापस आदिमानव भी बन सकता है. उस समय में जा सकता है, जब वह सूर्यास्त होते ही गुफ़ाओं में बंद हो कर उसके मुहाने पर एक भारी चट्टान फँसा देता था. किन्तु, यह लाचार सभ्य नागरिक वनों में रहने वाले उन प्रकृतिजीवी आदिवासियों को अपने साभ्यतिक विकास का अवरोध समझता रहा है, जो अपने पेड़-पहाड़-ज़मीन के लिए आतंकी होने का अपयश उठा कर सत्ताओं की गोलियों से मरने का चुनाव करते आये हैं. मनुष्य की प्रतिरक्षा प्रणाली (इम्यून) में बड़ा भाग उसकी हिंसा का रहा है. प्रकृति और पारिस्थितिकी को नष्ट कर, अपने जैसे मनुष्यों और मानवेतर जीवों को हीन बना कर ही वह अपना कम्फ़र्ट ज़ोन तैयार करता है. यही उसका इम्यून है. एक वैक्सीन (टीके) की हमें प्रतीक्षा है. उच्च-आधुनिक लैब्स में विषाणु प्रतिरक्षक के प्रयोग और प्रभाव भी पशुओं पर आज़माये जा रहे होंगे. यद्यपि अभी इस नतीज़े तक कोई नहीं पहुँचा है, किन्तु कहा जा रहा है कि यह विषाणु एंथ्रोपॉजेनिटिक (मानव निर्मित) है. ईरान के नेता अयोतल्लाह अली खमेनई ने महामारी के शुरुआती दिनों में ही इसे मानवजनित कहा है. हम सभ्यता के जिस मोड़ पर हैं, वहाँ प्रत्येक ख़तरा मानवजनित ही लगता है. स्पष्ट और असंदिग्ध केवल मृत्यु है.
मनुष्यता से अब और अधिक आशाएँ व्यर्थ लगती हैं, लेकिन आशा एक छली शब्द है. प्रकृति और जीव के सम्बन्धों और उनसे बनी जैविकी से ही कोई उम्मीद की जा सकती है. प्रकृति और मनुष्य के सह-संबंध प्राथमिक, जैविक सत्य है. इस वाइरस का कोई वैक्सीन आज नहीं तो कल विज्ञान की मदद से बना लिया जाएगा. आपदा से उपजी अनिश्चितता और अदूरदर्शिता समाप्त हो जाएगी. सब कुछ सामान्य और पूर्ववत हो जाएगा. दृष्टिकोण में अभी भी सब कुछ सामान्य ही है. देर तक टिक जाने वाली असामान्यताएँ मनुष्य को सामान्य अनुभव होने लगती हैं. असामान्यताएँ व्यवहृत हो कर सामान्य हो जाती हैं. मनुष्य और परिस्थिति आपस में सुलह कर लेते हैं. मनुष्यता का भविष्य सुरक्षित रखने के लिए मानव केंद्रित दृष्टिकोण का त्याग करना होगा. कायांतरित, हृदयान्तरित, व्यक्तित्वांतरित होना होगा. बल्कि, कवयित्री बाबुषा कोहली के शब्दों में-
“आपदा का यह समय बीत जाने के बाद यदि हम बचे रह जाएँ, और एक बदले हुए मनुष्य न हों तो मरना बेहतर है.”
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संदर्भ (साभार):
Noam Chomsky, Coronavirus pandemic could have been prevented, ALJAZEERA.com
Matthew Stewart, An Analysis of Amazonian Forest fire, towardsdatascience.com
David Cyranoski, Mystery deepens over animal source of coronavirus, nature.com
विश्व स्वास्थ्य संगठन, Who.int
यह वैश्विक महामारी एक नई दुनिया का प्रवेश द्वार है, अरुंधति राय, janchowk.com
The world after coronavirus, Yuval Noah Harari, www.ft.com
कोरोना के इर्द गिर्द कुछ गद्य : मदन सोनी, समालोचन