जश्न ए दोस्ती की कविताएँ
नेहा अंसारी
मैं नेहा अंसारी, नेचुरोपैथ और एक्यूपंक्चरिस्ट हूँ. 2010 से मैंने पढ़ाई के साथ साथ लिखना शुरु किया था जो अब तक जारी है. मेरी कविता में आस पास पास की झलक नज़र आती है और मैं अपनी जिंदगी के तजुरबों के बारे में लिखना ज़्यादा पसंद करती हूँ.
लड़की
रास्ते पे चलती वह लड़की
चुपचाप हर नज़र को सहती
सर झुकाए, चुनर संभाले
ख़ुद अपने आप में सिमटती
डरी डरी वह मासूम
फिर भी लोगों को खटकती
ज़िंदगी उसकी करके तंग
छीन के उसकी हर उमंग
चलते हो तुम तान के सीना
भँवर में उसका फंसा सफ़ीना
घर में उसको रोका जाए
रास्ते में भी टोका जाए
कभी वह रोती, कभी वो लड़ती
खुद को संभाले हिम्मत करती
छुड़ा के अपना आँचल सब से
राह पे अपनी आगे बढ़ती
चेहरे पर थे खौफ़ के साए
फिर भी आँखों में सपने सजाए
चलती रही वह कदम जमाए
राह पे अपनी फूल सजाए
मंजिल है करीब उसके
रास्ते हैं चट्टानों से
जितना चाहो तुम कोशिश कर लो
नहीं डरेगी वह तूफ़ानों से
अब तुम ख़ुद ही डर जाओगे
उसके पुख़ता इरादों से.
उमंगें
क्या करना है जी कर मुझे यह जानती हूँ मैं
अपने दिल के सारे फैसले मानती हूँ मैं
हैं दिल में उमंगें चाँद तारों को छू लूं
इस ज़मीन से फ़लक तक जाना चाहती हूँ मैं
कभी चाहूं मैं फूलों के संग हंसना खेलना
गर हो काँटों की राहें, गुज़रना जानती हूँ मैं
क्यों चलूँ मैं हमेशा दुनिया के बताए रास्तों पर
अपनी राहों से अपनी मंज़िल बनाना चाहती हूँ मैं
हो बात मेरे मुस्तकबिल या हमसफ़र की
अपनी मरज़ी से हर चीज़ पाना चाहती हूँ मैं.
राबिया सिद्दीकी
मेरा जन्म इलाहाबाद के एक गाँव में हुआ. 12वीं तक की पढ़ाई किया है. अभी मुंबई में हूँ. मशहूर कवियों की रचनाएँ पढ़ने के साथ साथ ख़ुद भी कविताएं लिखने का शौक लगातार जारी है. 2010 में शादी के बाद भी अपनी पढ़ाई जारी रखी. यह सफ़र आसान न था लेकिन हौसले मज़बूत थे.
अंतर्यामी
हे अंतर्यामी
कब मैंने यह सृष्टि मांगी
दिया जो भी उपहार स्वरूप
स्वीकार किया पतझड़ और फूल
न चाह किया उपवन की
कनक भेंट न माँगी
एक जोत सत्य की जले सदा
बस यह वरदान दो साची
इस छल नगरी से दूर कहीं
एक सत्य नगर बनवा दो प्रभु
जहाँ झूठ की तपती धूप से
बचा रहे इंसाफ़ प्रभु.
मत भटकना…
मत भटकना भटकाने से
मत अटकना अटकाने से
धरती अपनी एक
इरादे अपने नेक
मजहब अपना भाईचारा
मिल कर रहे हैं और रहेंगे
ज़ोर – ज़ोर से लगा दो नारा
साज़िश की कैची
इसकी तो ऐसी की तैसी
बन जाएँगे ढाल हम
जल के उठेंगे मशाल हम
कटने न देंगे एकता के तार हम
दौड़ाओ अपनी अक्ल के घोड़े
मत बनो किसी के हाथों मोहरे
तथ्य तलाशो
सत्य पहचानो
कही सुनी पर कभी ना जाओ .
सोच समझ कर कदम उठाओ.
सुनीता बागल
मैं सुनीता, समाज परिवर्तन के लिए कार्य करना पसंद करती हूँ.
जाति के इस पार, धर्म के उस पार
जाति के इस पार, धर्म के उस पार
कभी झांकने ही नहीं दिया
जाति धर्म का घोल पिलाकर ही बड़ा किया
जाति के स्कूल में, जाति के ही कॉलेज में, जाति की ही शिक्षा
उस पार की बस्ती में कभी झांकने ही नहीं दिया
संस्कृति, प्रतिष्ठा, घरानेशाही, इज़्ज़त-आबरू
हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई के खेल में
खेलकर बनाया परफेक्ट प्रोडक्ट
उस पार की बस्ती में कभी झांकने ही नहीं दिया
विविधता, धर्मनिरेक्षता, समानता
इन शब्दों को रख दिया किताबों में
पड़ोस की बस्ती में कभी झांकने ही नहीं दिया
कड़ी सुरक्षा के बीच किलों में कई हुए जौहर
इतिहास को कभी दिखे ही नहीं
इतिहास के झगड़ों में कभी सुलह होने ही नहीं दिया
फिर भी कोशिशें चलती रही इन सभी जंजालों को पार करने की
क्षितिज तक देखने की ……..
कुछ साल पहले
कुछ साल पहले तो
घर में नियाज़ आती थी.
सेहरी के लिए हम सब मिलके
फ़िल्मी गाने गाते थे.
हम गणपति के सामने कितना नाचते थे.
उरुस में कव्वाली सुनने के लिए
कितना झूठ बोलते थे घर पे.
मेहराज के “ढलता सूरज धीरे धीरे” पर
कितने फ़िदा होते थे.
थक गए अजमेर शरीफ़ और पुष्कर जाते जाते.
कितने छोटे छोटे ताज सजाए
हमने शोकेस में.
क्या हुआ यार बाबरी के बाद,
इतनी सिलवटें क्यों आईं रिश्ते में ?
कब मैं मुसलमान बना और तू हिन्दू ?
मैं पाकिस्तानी और तू हिन्दुस्तानी,
मैं देशद्रोही और तू देशभक्त ?
फंस गए यार किसी के खेल में.
चल मिटाते हैं फटने के पहले
डांस करते हैं ढलता सूरज पर.
श्रद्धा रघुनाथ माटल
मेरा नाम श्रद्धा रघुनाथ माटल है. में रामनारायण रुईया ऑटोनोमस कॉलेज में फ़र्स्ट ईयर बी ए में पढ़ रही हूँ.
इंसान है हम..
मिट्टी से उभरकर आए हैं हम
मिटटी में ही मिलना है
इंसान का जनम मिला है
इंसान होके ही मरना है
नादान बनके तूने अपने घर के
दो हिस्से बना दिये
चल अभी ये दीवार गिरा दे
जिसने अपने ही मार दिये
दिल में जगी दुश्मनी से
दूर हो गई इंसानियत है
चलो फिर एक साथ हम
मानवता की शपथ खाते है
लौट आये प्यार दिलों में
नफ़रत हम छोड़े देते है
यह पैग़ाम आया है
इंसान अब इंसान हो चला है.
सुवर्णा
मै सुवर्णा, मुझे लगता है समाज में हर इंसान को ख़ुशी ख़ुशी जीने का अधिकार है. इसे पाने के लिए समाज में निरोगी वातावरण, एक दूसरे के प्रति आदर होना जरूरी है. साथ ही हर मन में खिलाडू वृत्ति होने से अपने आसपास मानवता को खत्म करने वाली कोशिशों को और \”तोड़ो और राज करो”, की बढ़ती मानसिकता को हम नाकामयाब कर सकते है.
दोस्ती चाँद और आसमान की
गुज़रती उस ट्रेन से मैं.
नब्ज़ तेज़ होती.
सुकून होता बिछड़े प्रेमी के मिलने का.
याद आते वो रिश्ते.
ईद का चाँद ढूँढने की दौड़.
तो कभी बिजली जाने पर शोर.
पानी को लेकर झगड़े.
किसी के बीमार होने पर
प्यार से आगे बढ़ते हाथ.
नहीं था वह ख़ून का रिश्ता.
फिर भी धड़कते थे दिल.
माहौल कभी भी ठीक न था बाहर.
लेकिन डर नहीं था इस रिश्ते में.
दोस्ती थी चाँद और आसमान की सी.
रिश्ता था यह नाजायज़.
सीमाओं पर होती रजनीति.
ये तो बस्ती थी.
दिलों की हस्ती थी.
मकसद रहा इन्हें तोड़ना.
ज़माने से बसाते रहे डर.
बंट गईं बस्तियाँ, शहर.
फिर भी ………
हम चाँद और आसमान इकठ्ठा देखते रहे.
अकीला ख़ान
मेरा नाम अकीला ख़ान है और मैं नारीवादी संघटन से जुडी हूँ. मुझे नज़्म लिखने और फ़िल्म बनाने में दिलचस्पी है और अपने नज़रिये को लफ़्ज़ों और विडियो की सूरत में सब के सामने रखना चाहती हूँ.
भीड़
ज़ुल्म, तशद्दुद, गुंडागर्दी तुम करो.
इलज़ाम राम के नाम पर धर दो.
भड़काओ भीड़, करो आगज़नी, जान लो मज़लूम की.
करतूत ये नफ़रत भरी, देश भक्ति पर धर दो.
इस्तेसाल, खूनखराबा, नाइंसाफी करो.
फिर मज़हब की चादर से ढँक दो.
हैवान शर्मिंदा है, ऐवान पर हम शर्मिंदा
नाफ़िज़ जंगल का, कानून है समझ लो.
पूछना सवाल करना हुआ अज़ाब.
आधार से भी ना मिला आधार.
इंसाफ़ की अब उम्मीद करना भी पाप है.
अगर शिकायत करो तो, पड़ोसी मुल्क का हाथ है.
संसद में कमाल है, विपक्षी दल बेहाल है.
बोलती कलम को जेल या गोलियों से वार है.
सच का गला दबाती, हर भीड़ है
चीख़ जो निकले वह, घुसपैठ है.
अब विकास के इंतज़ार में देश बेहाल है
हॉस्पिटल में बस ऑक्सीजन की ना है.
राम का नाम सत्य था, सत्य है, सत्य रहेगा
बस जय जयकार की क्यूं गुहार है.
चलो अपने मन को टटोले हम.
कुछ तुम सुन लो, सब कुछ कह दे हम.
रोज बरोज के संघर्ष हमारे एक से हैं.
फिर तीसरा क्यूँ डर की राजनीति खेले
चल मिलकर थोड़ा अपने सवाल उठाएँ
नफ़रत का चश्मा उतारकर एक साथ आएँ
फिर देखना किस के पसीने छूटते है
फिर किसे सुरक्षा के नाम पर लूटते है
आज़ादी ए हिन्द
आज़ादी ए हिन्द की कहानी तो याद होगी.
लड़े जो वह बाग़ी उनकी कहानी तो याद होगी.
1857 से शुरू हूआ था अंग्रेजो का ज़वाल.
याद होगा मंगल पण्डे और शाह ज़फर का जलाल.
लड़े जो आज़ादी ए वतन के लिए, उनकी फ़ेहरिस्त तवील है.
तारीख़ के पन्नों में उनकी पुख्ता दलील है.
कैसे नाम लिख दूँ, किसी एक फ़र्द का.
जज़्बा था वो अव्वाम, बग़ावत और इतेहाद का
देखा जो भाईचारा, तो चली चाल मक्कारी की
नाम मज़हब का ले कर, लोगों में फूट डाली थी
ले कर मज़हबी पहचान हर शख्स़, रस्ते पर निकल पड़ा
हर घर कब्रस्तान और आँगन शमशान सा जल गया
इंसानियत बेगुनाहों की लाशों, में दब गई थी.
एक वतन की पहचान दो नक्शों में बट गई थी.
दानिशमंदी और तर्क की बुनियाद पर फिर अहद हमने लिया.
“हिन्द का आईन” खुद को लाज़िम उसूल की शक्ल में दिया.
देश भक्ति का नकाब ओढ़े, वो दुश्मन फिर आ गया है.
मज़हबी ख़ानों में फिर से, लोगों को बाँट रहा है.
वक़्त आ गया है फिर वही, इंकलाब का परचम लहराना होगा
अपने दस्तूर की हिफ़ाज़त के लिए, हमें साथ आना होगा.
__________________________
parchamcollective@gmail.com