ज्ञान चंद बागड़ी का उपन्यास ‘आखिरी गाँव’ वाणी ने अभी पिछले वर्ष ही प्रकाशित किया है,उनकी एक कहानी ‘बातन के ठाठ’ समालोचन पर छपी और पसंद की गयी थी. इधर वह अपने पहले कहानी संग्रह की तैयारी कर रहें हैं. प्रस्तुत कहानी भी उसमें शामिल है.
राजस्थान की संस्कृति में जोहड़ की केन्द्रीय भूमिका रही है, जल बिन सब सून. लेकिन जमीन के लालच में पूरे देश की तरह इन जोहड़ो को भी पाट कर हथिया लिया गया है.
यह कहानी उस स्त्री की है जो वर्षो बाद अपने घर लौटती है तो पाती है कि यह गाँव तो वह गाँव है ही नहीं जहाँ वह ब्याह कर आयी थी जहाँ जोहड़ था और पचबीर बाबा का मजार.
कहानी पढ़ते हैं.
जोहड़ और पचबीर बाबा
ज्ञान चंद बागड़ी
गाँव में आज बहुत दिन बाद कोई जीप आई है. गाँव कुछ इस तरह बसा हुआ है कि उसका रास्ता पूरे गाँव के बीचों-बीच से निकलता है. इसलिए कोई भी वाहन गाँव में घुसता है तो उसकी खबर सारे गाँव को हो ही जाती है.
बात अस्सी के दशक के शुरुआत की है, उन दिनों गाड्डी-घोड़े कौन से प्रतिदिन आते थे गाँवों में. जीप भी प्राय: चार अवसरों पर ही दिखाई देती थी. या तो चुनावों के मौसम में वोट मांगने नेता लोग आते थे या फिर किसी चोरी के सिलसिले में गाँव की बावरिया जाति को पकड़ने पुलिस की जीप आती थी. कभी-कभी सहकारी समिति वाले भी उगाही के लिए जीप से ही आते थे. और चौथा कारण होता था कलकत्ता से कमला सेठाणी का गाँव में आगमन. रेवाड़ी तक तो कमला रेल से आ जाती थी लेकिन उसके आगे के बीस किलोमीटर की यात्रा के लिए कमला को जीप की सवारी करनी पड़ती थी. उस दिन भी सारे गाँव के बीच से धूल उड़ाती हुई जीप जब बनियों के मोहल्ले में जाकर रुकी तो लोग समझ गए कि कलकत्ता से कमला सेठाणी ही आई होगी.
लोगों का अनुमान एकदम सही ही है. इसबार कमला सेठाणी अपने नवविवाहित पुत्र और पुत्रवधू के साथ कलकत्ता से गाँव आई हुई है. छोटा सा गाँव है इसलिए उनके आने की खबर जिनको नहीं भी पता थी उन तक भी बहुत जल्दी पहुंच गई. कमला सेठाणी का आगमन तो वैसे भी बहुत विशेष है क्योंकि गाँव में ऐसा कौन है जो कमला के दान-पुन्य और धार्मिक लगाव से परिचित नहीं है. सेठाणी का आना इस बार बहुत वर्षों में हुआ है. इस यात्रा में वह अपने नवविवाहित बेटे-बहू को स्थानीय लोक देवताओं की धोक और जोड़े से जात दिलाने के लिए आई है.
गाँव पहुंचते ही कमला को सबसे पहले अपनी सबसे प्रिय भायली (मित्र) अनार कंवर ठकुराइन से मिलना है. छह सौ बीघा जमीन के मालिक ठाकुर प्रभु सिंह चौहान की पत्नी अनार कँवर को सारा गाँव दादीसा के नाम से ही संबोधित करता है. कमला सेठाणी ही है जो अपनी इस भायली को अनार कहने की हिम्मत कर सकती है. सारी यात्रा में वह कितनी ही बातें सोचती हुई आई है जिन्हें उसे अनार से साझा करना है.
अरे आजा कमला, गले लगते हुए ठकुराइन ने अपनी मित्र का स्वागत किया.
कमला बहुत भारी सेहत हो गई है.
सेठाणीयों के पास मोटा होने के सिवा काम ही क्या है अनार.
कमला की कमर की भारी तगड़ी और हाथों में सोने के टड्डे देखकर ठकुराइन ने कमला से कहा-
\’मेरी बहन तेरी यह सुनार की दुकान तो घर छोड़ आती. डाका डलवायेगी क्या? दुनिया कहेगी कि कमला की अनार ठकुराइन जैसी भायली होते हुए भी उसके यहाँ डाका पड़ गया.\’
\’अनार के होते हुए किसकी मजाल जो कमला की तरफ आँख उठाकर देख भी ले. धर्म की बहन हूँ तेरी, जो ऊंचा-नीच हो भी गई तो नुकसान मेरे जीजा ठाकुर प्रभु सिंह ही भरेंगे, कहकर कमला जोर से हँसने लगी जिसमें ठकुराइन ने भी साथ दिया.\’
और सुना सब राजी-खुशी कमला?
सब राजी-खुशी, इस बार तेरे टाबरों को जात दुवाने आयी हूँ. पहुँचते ही सीधी तेरे पास भागी आयी हूँ.
बहुत अच्छा किया कमला. इस बार तो आने में बरसों ही लगा दिये बहन. चलो हमारे समाज की यह बहुत बड़ी विशेषता है कि लोग कामकाज तथा रोजी-रोटी तथा अन्य कारणों से कलकत्ता, चेन्नई, मुम्बई अथवा गौहाटी कहीं भी रहते हों लेकिन वे अपनी जड़ों से नहीं कटते. जात, जड़ूला, सवामणी के लिए उनका गाँव से जुड़ाव बना रहता है. यही कारण है कि गाँव में गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपने गाँव के घर को नहीं बेचता. वैसे भी गाँव में किसी के लिए सबसे बुरी कहावत यही होती है कि \”उसका क्या है, ना गाँव में घर और ना ही सीम में खेत\”. शहरों के बड़े-बड़े उद्योगपति भी गाँव में दूसरों के घरों में ठहरकर सहज महसूस नहीं करते.
देख ठकुराइन तू ठहरी बहुत जादा पढ़ी-लिखी ऊँचे घर की बेटी, तेरी यह बड़ी-बड़ी बात तो मैं समझूँ नहीं, पर इतना जानती हूं कि आदमी नैं आदमी भूल सकै सै, लेकिन अपनी लोक-लाज और परंपराओं को तो नहीं भूल सकता ना. अच्छा बहन अब चलती हूं, पहुँचता ही सीधी तेरे कनै ही भागी आई, अब सबेरै आऊँगी. हबेली की साफ-सफाई करवाणी जरूरी है बहन.
कमला ने अपनी इस पुरानी हवेली के रख-रखाव के लिए एक पंडितो का लड़का रखा हुआ था. बिना मालिकों के कौन किसको निहाल करता है. पीछे से वह लड़का इतनी बड़ी हवेली की कहाँ सफाई करता. वह तो अपने सोने वाली एक बैठक की सफाई करके अपनी नौकरी बजा देता था. कमला के बुलावे पर तीन-चार आदमी आ गये और उन्होंने सारा दिन लगकर हवेली को रहने लायक बनाया.
किसी समय इस हवेली में तीस लोग एकसाथ रहते थे. दो बड़े चौक, दो बैठक और दुमंजली इस हवेली में दस कमरे हैं. पहले कमला और उसका पति साल में एक बार आ ही जाते थे, उससे हवेली की नियमित मरम्मत होती रहती थी. इस बार कमला का आना बहुत बरसों बाद हुआ है, तो हवेली पूरी तरह जर्जर हो चुकी है. पंडित के लड़के को रखने का बस एक ही फायदा हुआ कि उसके कारण अभी भी हवेली के चौखट, दरवाजे और रोशनदान सुरक्षित हैं. इस बार वैसे भी कमला थोड़े समय के लिए आई है तो लगता नहीं कि हवेली की कोई सुध ली जायेगी.
कमला गाँव-मौहल्ले की प्रतिष्ठित महिलावों को बुलावा दे रही है. आज उसे पचबीर बाबा के यहां प्रसाद चढ़ाने जाना है. गाँव में पचबीर बाबा एक स्थानीय लोक देवता हैं जिनको प्रसाद के साथ घूघरी जरूर चढ़ती है और घरों में बँटती हैं. गाँव में आज भी महिलाएं समूह में गीत गाती हुई ही देवताओं के स्थान पर प्रसाद चढ़ाने जाती हैं. पचबीर बाबा का इतने दिनों बाद नाम सुनकर सभी महिलाएं अचंभित जरूर थी और एक-दूसरी से कानाफूसी भी कर रही थी, फिर भी किसी ने कमला की भावना का उपहास नहीं किया.
कमला सेठाणी की आज भी गाँव में बहुत इज्जत है. कोई नहीं जो उसकी बात औटाळ दे. ऐसे कितने ही परिवार हैं जिन पर उसके एहसान हैं. यही कारण है कि एक बड़े समूह में महिलाएं पचबीर बाबा को गीत गाती हुई घूघरी चढ़ाने जा रही हैं. समूह की सभी महिलाओं ने साड़ी के ऊपर कमला की दी हुई लाल रंग की लूगड़ी ओढ़ रखी है जो इसी अवसर के लिए कमला इन सभी के लिए कलकत्ता से ही लाई है. महिलाओं का पूरा समूह इस लाल रंग में बहुत सुंदर लग रहा है और वे सभी खुशी में गाती हुई जा रही हैं-
सखियों नाचो शगुन मनावो ,
सखियों गीत खुशी का गावो
मुंनै तेरो ही सहारो ,बाबा तू ही पालनहार
किस के पास मैं जाऊँ बाबा ,
किसको दर्द सुनाऊं
मूनैं तू ही देबा वालो
मूनैं तेरो नाम ही लेणों
सारी नाचो खुशी मनावो
चित बाबा का दर पै ल्यावो
जैसे ही सभी महिलाओं के साथ कमला बाबा के स्थान पर पहुंची तो उसने देखा कि बाबा की छोटी सी मज़ार वहाँ से गायब है. उसके पास जो रामसरिया जोहड़ था उसका भी कोई अवशेष वहाँ नहीं है. जहाँ मज़ार थी उस स्थान के पास गाँव के ही एक युवक ने पड़चूनी और सब्जी का खोखा लगाया हुआ है. पास में एक कुम्हार के लड़के ने चाय की दुकान कर रखी है. वहाँ एक बस अड्डा बन गया है जहाँ रिवाड़ी से एक बस सुबह-शाम फेरे लगाती है. कमला की देखते ही आँखें फटी की फटी रह गई.
अरे लोगो ! ऐं गाँव नै हो के गयो. बाबा की मजार और जोहड़ नैं भी हड़प गया.
वह वहीं जमीन पर बैठ गई औऱ लगातार बड़बड़ाती रही. आँखों में आंसू लिए वह बहुत देर तक सारे गाँव को कोसती रही. हे पचबीर बाबा ऐं गाँव कै तो कोई गुण -इसान ही कोन्या. अरे नाशपीटो ये थारा ढूंढा (मकान) कैंतरा बणता जै या पवित्र जोहड़ अपनी चीकणी माट्टी नहीं देतो. नपुतो थारा यह गुवाड़ा (पशुओं का बाड़ा) कैंतरा लिपता ?
बड़ी मुश्किल से गाँव की बड़ी-बूढ़ी महिलावों ने उसे संभाला. उसे समझ-बुझाकर वहीं एक स्थान पर सांकेतिक रूप से बाबा के नाम का प्रसाद और घूघरी चढ़ाकर वे सभी गाँव में वापिस लोटी.
गाँव पहुँचते ही कमला ने अपने पति रामपत सेठ को फ़ोन पर गाँव की सारी हकीकत बताई.
राधे का बापू तेरा गाँव को तो बेड़ो ही गर्क हो गयो सै. सत्यानाशी बाबा की मजार और जोहड़ नै भी हड़प कर गया. ऎं गाँव मैं आवोगा तो ना तो रामसरिया जोहड़ मिलैगो और ना ही बाबा पचबीर की मज़ार.
बावळी हो गई क्या कमला. गई तो अपणा गाँव मैं ही सा ना?
उहीँ गाँव में आई सूं राधे का बापू, जैठे ब्याहकर आई थी.
गाँव के पहाड़ कै ऊपर देबी को मंदिर सै ?
देबी को मंदिर भी सै और हिन्दोक बाबा को पेड़ भी सै. अपणी हवेली नै भी ना पिछाणू कै जैमै रह रही सूँ. बूढ़ी होली अब भी मुंनै बावळी ही समझता रहो. उधर रामपत सेठ भी हैरान, उसने बस इतना ही कहा \’के बताऊँ कमला\’, समझ ही नहीं आ रही की तू क्या कह रही है. जोहड़ को कौन हड़प सकता है ?’
कमला कोई पंद्रह बरस बाद गाँव आई है. इस बीच गाँव पूरी तरह बदल गया है. कमला सारे दिन बड़बड़ाती रहती. उसके बेटे ओमी ने अपनी माँ से कहा-
\’माँ जल्दी से भैंरु बाबा, भौमिया और खैमदास बाबा की जात दिलवा दे. हमें जल्दी से कलकत्ता चलना है. यह गाँव तो ऐसा ही रहेगा. तुझे कुछ हो गया तो परेशानी खड़ी हो जायेगी.\’
सही कह रहा है बेटा. जोहड़ वाली बात नै मेरै शूळ चभौदी. ऐ गाँव मैं तो अब उल्लू ही बोलैगा. ऐ जोहड़ की बात भूली ही कोन्या जाय. या अपनी हवेली देख, ऐनै बनाता टैम चूना का घरट चालता था. ऊँकी खातर पानी दूर पीवणा कुआ सै ल्यानो पडतो. रामसरियो जोहड़ नजदीक थो, लेकिन मजाल तेरे दादा ने पवित्र जोहड़ की एक भी बूंद लेण दी हो तो. ऊंकी चिकणी माट्टी ही म्हारा सारा गाँव कै काम आई.
अच्छा माँ तू इतना परेशान क्यों हो रही है ? ऐसा क्या था यहाँ ?
बेटा गाँव का बाहर जो स्कूल सै ना उठे कुछ बरस पहलां तक ऊंका पिछवाड़े एक बहुत बड़ो जोहड़ थो, जैनै गाँववाला रामसरिया जोहड़ कहा करता. जोहड़ अपणा पाणी नै रोकबा का बहुत पुराणा साधन सैं. राजस्थान मैं पानी को के महत्व सै या बात तू एक पुरानी कहावत सै समझ सका सा-
\”घी ढुलयां म्हारो किमी ना जाय.
पाणी ढुलयां म्हारो जी बले.\”
ऊंका ढावा (ऊँची पाल) पर ही पचबीर बाबा की मज़ार बनी हुई थी. ऐँ जोहड़ को नाम रामसरियो क्यों पड़ो और कौण पचबीर बाबा की मजार बनवाई थी, इन दोनों ही सवालां को जबाब देबा वालो तो गाँव मैं अब कोई भी कोन्या रह्यो. ऐँ जोहड़ नै लेकै लोगां की अलग-अलग याद सैं. कहीं नै याद सै कि ऊँका छोटा दादा नै उरै जरख खा गयो थो. कोई कहता है कि मेरा भाई एक दिन जोहड़ में डूबते-डूबते बचा था. लोग बताते हैं कि बाबा पचबीर की कृपा से आजतक कोई भी इतने बड़े इस जोहड़ में डूबकर नहीं मरा था. पचबीर बाबा साक्षात पर्चे देता है.
गाँव का लोग बाबा सै मन्नत मांगता और पुण्य कमाबा खातर कुम्हारां नै पैसा देकर ऊँ जोहड़ की माट्टी छंटवाता, बाबा कै घूघरी चढ़ाया करता. जोहड़ कै चारों ओर शीशम, नीम, पीपल, गूलर का विशाल पेड़ था जिनका नीचे गाँव की गाय-भैंस, भेड़-बकरियाँ विश्राम करती. जोहड़ के पास के गूलर के पेड़ों पर बहुत ही मीठी गूलर लगती थी जिन्हें गाँव के बच्चे और पक्षी बड़े चाव से खाते थे. गाँव का बुजुर्ग और ठलवा भी इन्हीं पेड़ों के नीचे ताश पीटकर अपना वक़्त बिताता या चंगा और कांटिया खेलता रहता. गाँव का बालक सारा दिन उन पेड़ों पर कानडंका खेलता रह्या करता. खेल सै थक जाता या ऊब जाता तो जब भी जी करतो जोहड़ में छलांग लगाकर पेड़ों के ऊपर से कूदता और घंटों तैरता रहता. बालकों में शर्त लगती कि कौन सबसे पहले जोहड़ की दूसरी पाल तक पहुंचता है. गाँव के मवेशियों और पक्षियों के पानी पीने और भैसों के लौटने के लिए भी यह जोहड़ ही सहारा था. गाँव की सारी दिनचर्या और संस्कृति इस जोहड़ के इर्दगिर्द ही थी.
गाँव में ठाकुर मगेज सिंह गाँव के सहयोग से दुर्गाष्टमी को देवी का मेला भरवाते थे. मेले के दिन इस जोहड़ के पास बहुत रौनक होती थी. गाँव की महिलाएँ अपने पीहर से लाये सबसे सुंदर बेस पहनकर पहले तो पहाड़ पर देवी के मंदिर में प्रसाद चढ़ाने जाती. उस दिन इन महिलाओं के लाल वस्त्र पहनने के कारण सारा पहाड़ लाल ही लाल दिखाई देता था. उसके बाद नीचे उतरकर पचबीर बाबा को प्रसाद और घूघरी चढ़ाती. प्रसाद चढ़ाने के बाद कुम्हारों से जोहड़ की माटी छँटवाकर मेले का आनंद लेती. मेले में चारों और पीं-पीं की आवाज का शोर रहता. कोई हवा में घूमने वाली फिरकी बेच रहा है तो कोई चूं-चूं करने वाला खिलौना. महिलाओं की दिलचस्पी मणिहारी और बिसायती की दुकानों में ही होती थी. लिपस्टिक, टीकी, काजल, पाउडर,शीशा और बिसायती का सामान खरीदती. जाते वक्त अमिया कुम्हार की दुकान से जलेबी या पकोड़ी खाती. खोपरे की बनी बर्फ चूसना तो जैसे मेले में आनेवाले सभी के लिए जरूरी था. साईकल पर लोहे की पेटी में बर्फवाले के चारों तरफ लोगों का हुजूम इकट्ठा हो जाता था.
माँ तू भी मेला देखने जाती थी ?
बेटा, मैं ही क्या गाँव की सारी औरतें मेला मैं प्रसाद चढाबा जाती. मेले में औरतें खेल-कूद नहीं देखने जाती थी. पाल के नीचे मर्द लोग ही होते थे. घूंघट-पल्ले का जमाना था बेटा.
जोहड़ की पाल के नीचे ही कुश्ती और कबड्डी की प्रतियोगिताएं होती थी. मिट्टी से सने खिलाड़ी और पहलवान भी इस जोहड़ में नहाकर अपने कपड़े बदलते थे. ऊँका बाद बेरो ना के हुयो बेटा, मैं तो पंद्रह बरस मैं अब आई सूं.
कमला कलकत्ता से ठुकरानी के लिए खास कपड़े लाई है, उन्हें देने के लिए वह उसकी हवेली पर आई है. ठकुराइन ने अपने हाथों से छाछ का गिलास लाकर कमला को दिया. कमला छाछ पीते हुए बस यही सोच रही थी कि जोहड़ की बात अनार से तो क्या छुपी होगी. मुझे उससे पूछना चाहिए.
कहाँ खो गई कमला?
अरे ऐसे ही बहन.
फिर दोनों में बात होने लगी.
इस बार गाँव मैं आकै आत्मा दुखी हो गई अनार.
अच्छा अनार तेरा सै तो के छिपो होगो, बता तो सही ऐँ जोहड़ को के हुयो ?
क्या बताऊँ कमला, एक दिन इस जोहड़ को नज़र लग गई. दुष्ट और अन्यायी आताताइयों ने रात में सोते हुए पेड़ों को काटा था. पेड़ काटने वाले गाँव के नहीं थे. उन्हें हरियाणा से बुलाया गया था. जब इन पेड़ों के शरीर पर कुल्हाड़े और आरी चल रही थी तो इन पर रहने वाले बाशिंदों ने चीख-चीख कर कोलाहल से आसमान सर पर उठा लिया था. उन निर्दयी जालिमों को इन पर बिल्कुल भी दया नहीं आई. देखते ही देखते इन पखेरूवों के हज़ारों परिवार उजड़ गए थे. इनमें से बहुत से पक्षियों ने अंडे दे रखे थे, उन्हें दूसरी जगह ठिकाणा बनाने का समय भी नहीं मिला था. प्रतिदिन सुबह-शाम अपनी चहचहाहट से वातावरण को रमणीक बनानेवाली आवाजें सुनाई देनी बंद हो गई .
गाँव की बसावट पहाड़ के दूसरी तरफ थी. अब गाँव के मास्टर सुरजीत सिंह के शातिर दिमाग ने इसे विस्तार देने के लिए पहाड़ के पीछे की तरफ जोहड़ की और नई कॉलोनी काटकर एक नई बस्ती बसाने की योजना बनाई. जोहड़ से भी पहले पचबीर बाबा की मजार को हटाना बहुत जरूरी था क्योंकि उस मज़ार के होते हुए शायद ही कोई उधर प्लाट लेने को राजी होता. गाँव वालों में आज भी कानून की अपेक्षा देवी-देवताओं का भय अधिक कारगर है. पाप का डर कानून से भी बड़ा होता है.
इंसान का लालच सभी समाधान ढूंढ लेता है. एक दिन सुबह गाँववालों ने देखा तो पचबीर बाबा की मज़ार का वहाँ कोई भी अवशेष नहीं था. गाँव का कोई आदमी तो बाबा के डर से उसे कैसे हटाता, लेकिन दूर से आये मजदूरों के लिए तो वे चार पत्थर ही थे. यह मज़ार हमारी मिली हुई गंगा- जमुनी संस्कृति के प्रतीक हैं कमला. हालांकि इस्लाम के नाम पर गाँव में केवल दो घर सक्काओं के और दो ही घर जोगियों के हैं. गरीब का क्या धर्म, जोगी पहले हिंदू थे फिर मुसलमान बनाये गए और अब फिर हिंदू हो गए हैं. गाँव के बूटिया जोगी ने मज़ार हटाने पर आत्मदाह करने की धमकी भी दी थी. उसके बाद बूटिया को कहाँ गायब कर दिया गया, उसकी आजतक किसी को भी कोई खबर नहीं लगी. कुछ अन्य लोगों ने भी दबी आवाज में प्रतिरोध किया था लेकिन जिनके हित होते हैं उनके पास लोगों की जबान बंद करने के बहुत से तरीके होते हैं. एक दिन बगल के गाँव के रती राम सिंह फौजी को उसके ट्रैक्टर से जोहड़ को आंटने का ठेका दे दिया गया. विशाल जोहड़ जिसमे एक ही समय बीस भैंसे लौटती थी वह समतल मैदान बन गया.
गाँव के पशु कई दिन तक अपनी पुरानी आदत के कारण उस जोहड़ की तरफ आते रहे. सपाट मैदान देखकर ये निरीह पशु निराशा में मुहँ उठाये वापिस लौट जाते. कुछ दिन चालाकी से इस नए मैदान को स्कूल के खेलने के मैदान की तरह उपयोग में लाया गया जिससे लोगों को लगे कि जोहड़ को स्कूल की जरूरत के कारण अंटवाया गया है. उसके बाद धीरे-धीरे वहां प्लाट कटने लगे और पूरी तरह एक बस्ती बसा दी गई. यह संयोग ही था कि जिस मास्टर ने जोहड़ आंटने का ठेका दिया था उसके घर में कुछ अकाल मौतें हुई और ट्रैक्टर वाले फौजी का ट्रैक्टर जाम हो गया और उसके बाद वह किसी काम का नहीं रहा. गाँववाले जो विरोध नहीं कर पाए थे, इसे पचबीर बाबा का श्राप बताते हैं. गाँववाले अब भी उन्हें बद्दुआएं देते हैं . उनका विश्वास है कि पचबीर बाबा उनको उनके किये की सजा जरूर देगा. बहुत ही अन्याय हुआ है बहन. अच्छा अनार एक बात और बता. जीजा जी की मरजी के बिना तो इस गाँव में पत्ता भी नहीं हिल सकता, उन्होंने भी जोहड़ को नहीं बचाया?
जोहड़ का इन्हें भी बहुत दुःख है कमला, पर तू तो जानती ही है कि मास्टर इनके कुनबे से ही तो है. अपने लालच के लिए कुनबा छोड़ सारे ठाकुर एक हो जाते हैं.
ले बिरा अनार भायली गलै मिल ले, अब कलकत्ता जाऊंगी और तुनै कह रही सूं, अब ऐं मनहूस गाँव का मैं कदै दर्शन नहीं करूँगी. जब इन दरिंदो ने पचबीर बाबा को ही नहीं छोड़ा तो हमें कहाँ छोड़ेंगे. ऐसा क्यों कहती है कमला, यह सारा गाँव तुझे बहुत चाहता है और तू अपनी भायली अनार से मिलने भी नहीं आएगी? रही बात अन्याय की कमला, तो जो जैसी करेगा वैसी ही भरेगा. ठुकरानी ने अपनी सहेली को फिर से गले लगाकर विदा किया.
अपनी भायली से गले लगे हुए कमला के दिमाग में कितनी ही तस्वीरें घूम रही हैं. जब वह ब्याहकर पहली बार इस गाँव में आई थी, गाँव की औरतें उसके रूप-रंग को लेकर कैसे छेड़ती थी, जब गाँव और उसने एक-दूसरे को अपना लिया था, जब गाँव को छोड़कर उसे कलकत्ता जाना पड़ा था, ऐसी ही कितनी ही स्मृतियाँ …..
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ज्ञान चंद बागड़ी
जोहड़ और पचबीर बाबा :
यह किसी एक गाँव की कहानी नहीं है। यह राजस्थान के हर गाँव की कहानी है। धन लोलुपों ने हर गाँव का जोहड़ जमींदोश कर दिया है। बाकायदा गाँव के कुछ रौबदारों की शय पर। जैसे यहाँ अनार कँवर के पति ठाकुर साहब का भी आंतरिक समर्थन नजर आ रहा है। बागड़ी जी ने गाँव की दुखती रग पर हाथ रखा है। आज गाँवों की परती भूमि पर प्लॉट कट चुके हैं। तथा सैंकड़ों की संख्या में पेड़ काट दिये गये। जिसके कारण हजारों पक्षी अपने प्राकृतिक आवास से महरूम हो चुके हैं। यहाँ बागड़ी जी की चेतना में प्राकृतिक विनाश और निकट भविष्य की आशंकाएँ कुलबुला रही है। साझी विरासत का बिखरने में सरकारों के यथा स्थानीय प्रशासन के तुष्टिकरण ने भी अपनी भूमिका बखूबी निभाई है। गाँव के कमजोर तो बस दैवीय चमत्कार के लेकर आशान्वित हैं। यह भी कहानी में देखने को मिला। इस कहानी ने सिद्ध कर दिया कि पुरुषों से ज्यादा संवेदनशील महिलाएँ हैं। यदि हम आधुनिक दिखने की कोशिश में धार्मिक रीति-रिवाजों की अनदेखी करेंगे। तथा इन्हें अंधविश्वास मानकर चलेंगे तो प्राकृतिक आवास नष्ट हो जायेंगे। हमारे बुजुर्गों ने बहुत ही सोच समझकर रीति रिवाज चलाये। सारे रिवाज वैज्ञानिक पद्धति पर खरे उतरते हैं। भले ही अंधविश्वास हों मगर अनपढ़ों में प्राकृतिक चेतना उभारने के लिए ये सब जरूरी था। हमने पिछले बीस बरसों में क्या क्या खो दिया है उसकी एक झलक इस कहानी में देखने को मिलती है।
भाषाई स्तर पर इसमें ठेठ शेखावाटीपन देखने को मिलता है। संवादों को लेखक ने स्थानीय बोलचाल में ही रखने की कोशिश की है। जिसमें लेखक सफल भी हुए हैं। कहीं कहीं स्थानीय संवादों सहायक क्रिया को लेकर लेखक कन्फ्यूज नजर आए। सर्वनाम प्रयोग में भी चूक हुई है जैसे – ‘तुनै कह रही सूँ’ की जगह ‘तनै कह रही सूँ’ का प्रयोग होना था।
‘ऐं मनहूस गाँव का मैं कदै दर्शन नहीं करूँगी’ में ‘ईं मनहूस गाँव……’ होता तो वाचिक प्रवाह नहीं टूटता।
बाकी एक ही झटके में कहानी को पढ़ गया। पढ़ते बखत पूरो बचपन म्हारी आँखयाँ रे आगे घूमगो। गाय व बकरी चराना, नाड़ी, खाडा में नहाना, झुरनी ज़ाळ व लुकमिचणी खेलना सब याद आ गया।
सादर प्रणाम
भागचंद जी
🙏🙏🙏