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Home » दाई माँ: ज्ञान चन्द बागड़ी

दाई माँ: ज्ञान चन्द बागड़ी

एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति के सुगम होने से पूर्व प्रसव सहायिका (दाई) की कुशलता और ज्ञान के महत्व को समझते हुए भी उन्हें स्वीकार्यता नहीं मिली न सम्मान ही, जबकि दीगर चिकित्सा पद्धतियाँ विकल्प के रूप में फलफूल रहीं हैं. इसका एक बड़ा कारण दाइयों का निम्न वर्ग से होना भी रहा होगा. अब यह प्रसव- पद्धति और इसकी प्रक्रिया भी लगभग लुप्त ही है. ज्ञान चंद बागड़ी की इस कहानी में कथा-तत्व भले ही कम हो, इस पेशे से जुड़ी जानकारियां भरपूर हैं. कथाकार ने प्रसव से सम्बन्धित शब्दावली का प्रामाणिक इस्तेमाल किया है. प्रस्तुत है कहानी दाई माँ.

by arun dev
June 2, 2023
in कथा
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दाई माँ:  ज्ञान चन्द बागड़ी
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दाई माँ
ज्ञान चन्द बागड़ी

हमारी अम्मा बुद्धो बुआ को हमेशा श्रद्धा से ही याद करती हैं. बुद्धो बुआ यानी की अम्मा की बस्ती की दाई. यह तो पता नहीं कि सभी उन्हें बुआ ही क्यों कहते हैं लेकिन अम्मा का मायका हो या हमारा घर दोनों तरफ़ सभी उन्हें बुआ ही बुलाते हैं. अम्मा बताती हैं कि बुद्धो बुआ उनकी बस्ती के पीछे जुलाहों की बस्ती में रहती हैं जिसे वह बचपन में गू वाली गली कहते थे क्योंकि दिन में बच्चे उस गली में ही टट्टी करते थे और सांझ ढले औरतें भी वहीं जंगल-पानी के लिये जाती थीं.

बुआ का पति दो बेटियों के पैदा होने के बाद स्वर्ग पहुंचने के लिये इतनी जल्दी में था कि उसने शराब पी-पीकर जल्दी ही खुद को खत्म कर लिया. बुआ ने बड़ी बेटी का विवाह कर उसे घर बार की कर दिया और छोटी को अपना पारंपरिक दाई कर्म सिखा दिया. बुआ अपने काम को इबादत की तरह बहुत गंभीरता से लेती थी लेकिन उनकी छोटी बेटी का काम के बजाय बस्ती के जवां लोडों के साथ जी अधिक लगता था.

बुआ के अपने हाथों पैदा किये बस्ती के कई लड़कों से उसका नैन-मटक्का था. एक दिन उनकी बेटी रामकटोरी एक लोंडे के साथ भाग गई. बस्ती की सारी औरतें उसको कोसती रहीं कि बुआ की बस्ती में कितनी इज्ज़त है, लेकिन देखो लौंडिया ने क्या गुल खिलाए हैं.

बुआ जब भी किसी के घर जाती और उसे कुछ खाने के लिये पूछा जाता तो उनका हमेशा एक ही जवाब होता कि मैं खाकर आई हूं, मैं नाश्ता करके आई हूं. बुआ को कुछ खिलाने के लिए उसके सर पड़ना पड़ता था. अपने गोरे रंग, भरे बदन और नीली आंखों के कारण बुआ बनाईन लगती है. पति की मृत्यु के पश्चात उसका घर उसके दाईकर्म से ही चलता था. बुआ जच्चा की कमर, सर, हाथ- पैर की मालिश करती जाती और अपनी मधुर आवाज में जच्चा या कोई सोहर गाती रहती थी-

ब्रज में बजत बधाई
ब्रज में बजत बधाई, मैं सुन के आई.

नन्द दुआरे नौबत बाजे,
और बजे शहनाई, मैं सुन के आई.

हरख हरख खावें सब पुरजन,
जै जैकार लगाई, मैं सुन के आई.

ब्रज में बजत बधाई, मैं सुन के आई.

कपड़े बुआ इतने साफ धोती थी कि मज़ाल किसी कपड़े पर दाग़ रह जाए. उन दिनों सूती कपड़े होते थे और बुआ की साफ़ धुलाई देखकर घरवालों की इच्छा होती कि बुआ जच्चा-बच्चा के अलावा दूसरे भी कुछ कपड़े धो दे. बुआ बताती है कि बच्चे के जन्म के समय वह जच्चा के बिल्कुल सामने होती थी और वर्षों तक नौ महीने के प्रदूषित तरल के लगातार सामने रहने के कारण ही उसने अपनी दोनों आंखें खो दी. अपने अंधेपन के बावजूद उसकी काम की दक्षता में कोई कमी नहीं आई और अब भी उसके धोए कपड़ों पर कोई दाग नहीं मिलता था. अम्मा बुआ को हमेशा याद करती हैं. हमारी नानी से लेकर अम्मा तक की जचगी बुआ के हाथों ही हुई है.

हमारी ननिहाल की हज़ार घर की हरफूल सिंह बस्ती सदर के नवाब रोड पर दो गोल घेरों में बसी हुई है. बीच में छोटा घेरा जिसके कोने पर हमारे नाना की हवेली थी और उसके बाहर बड़ा घेरा जिसमें पूरी बस्ती फैली थी. पीछे शरणार्थी मुसलमानों की बस्ती है. अम्मा बताती हैं कि बंटवारे के बाद दोनों बस्तियों के लोगों में अविश्वास की स्थिति के कारण हम सामान मुलतानी या सिंधियों की दुकानों से ही खरीदते थे. मुस्लिम बस्ती में दुकानें देर रात तक खुली होती थीं और उनके हलवाइयों की दुकानों पर बनने वाली चीजें हमें जरूर आकर्षित करती थीं.

बुआ की एक नियमित सी दिनचर्या थी. अपने यजमानों के यहां महिलाओं की जचगी से पहले या बाद में मालिश करना और उनके परिवारों के साथ हँस बोलकर अपना वक़्त काटना. हाँ, आपात स्थिति में कोई नई जचगी कराने का बुलावा आ जाता तो बुआ की प्राथमिकता बदल जाती और वह समझो उड़कर वहां पहुंचने का प्रयास करती और अपना काम संभाल लेती. कुल मिलकर बुआ की ज़िंदगी खुशहाल थी.

ज़िंदगी किसी की भी हो, एक दिशा में कहाँ चलती है. सबकुछ नियमित सा ही बना रहे ऐसा भी कहाँ होता है. ज़िंदगी तो हमेशा ही चौंकाती है. चार साल बाद बुआ की लड़की रामकटोरी अपने पति को छोड़कर अपने दोनों बच्चों को लेकर फिर से बुआ के यहाँ आ गई तो बेचारी बुआ की फिर से थू-थू हुई. बुआ अपने नातियों को बहुत चाहती थी. अपने प्रयासों से बुआ ने सरकारी अस्पताल में बेटी की सहायिका की नौकरी लगवा दी. नौकरी लगते ही उसने फिर से नया खसम कर लिया और उसके साथ रहने को चली गई. औरतों ने फिर बुआ की क़िस्मत पर अफ़सोस जताया.

डॉक्टर और नर्सों द्वारा पारम्परिक दाई के काम को बहुत हेय दृष्टि से देखा जाता है. चार साल की नौकरी के बाद एक दिन रामकटोरी को लेबर रूम में डॉक्टर ने बुरी तरह डांट दिया तो उसने नौकरी छोड़ दी. आजकल वह प्रसव के अलावा हड्टी की चोट, मोच आने या शरीर में किसी भी तरह के दर्द को मालिश से ठीक करने में भी माहिर हैं और उससे ठीक-ठाक कमाई कर लेती है.

एक दिन मैं सदर गया तो बुआ से मिलने चला गया. सर्दी के दिन थे, बुआ बाहर ही धूप में अपनी खटिया पर बैठी थी. अस्सी बरस पार कर चुकी बुआ को अब बुढ़ापे ने घेर लिया है. मैंने उन्हें प्रणाम किया-

राधे राधे बुआ!

राधे राधे बेटा. अरे बंटी; आज कैसे रास्ता भूल गया बेटा?

बुआ ने कई साल के बाद भी मुझे मेरी आवाज़ से पहचान लिया.

जीते रहो! हमेशा खुश रहो बेटा.

गंगा बिटिया कैसी है बेटा?

माँ ठीक है बुआ. आपको बहुत याद करती हैं.

याद तो मुझे भी बहुत आती है पर क्या बताऊं बेटा इन आँखों की लाचारी के कारण सबसे मिलना-जुलना ही छूट गया.

बुआ अब तुझे दिखाई भी नहीं देता. यह गले में चांदी की हंसली पहन रखी है इसे मुझे दे दे, तेरी बहू पहन लेगी.

तू तो मेरा नवासा है बेटा, तेरे लिये यह हंसली तो क्या चीज, मेरी जान भी हाज़िर है लेकिन यह तो तुम्हारी ही दी हुई है और दिया हुआ दान कभी वापिस नहीं माँगते लाला.

यह हंसली नहीं मेरी इज्ज़त और मेरे सम्मान की निशानी है. बेटियों को सब कुछ दिया लेकिन खास मौकों पर मिले इनाम आज भी मेरे साथ हैं. यह देख, डेढ़ किलो की चांदी की नेवरी, आधा किलो की तगड़ी. सच मैं बुआ ने इस आयु में भी इन आभूषणों को किसी फौजी अफसर या बड़े खिलाड़ी को मिले तमगों की तरह अपने बदन से चिपका रखा है.

तेरे बड़े नाना चौधरी गंगाराम ने तेरे बड़े मामा के जन्म पर मुझे भेंट दी थी. वह भी क्या समय था बेटा जब घर में गूंजी पहली किलकारी का शुभ समाचार हम दाइयाँ ही देती थीं. मुझे आज भी याद है उस बरसात की रात तेरे बड़े नाना ने रात के ढाई बजे मुझे बुलाने के लिये अपने कारिंदे को भेजा था. बस सरसों का तेल, नई पतरी और मेरे हाथ, बच्चे के जन्म के लिए काफी होते थे. तब लोग हम पर भरोसा करते थे. उस दिन तो ठाकुर जी ने ही मेरी लाज रखी थी बेटा. बड़ी मुश्किल से तेरी नानी की जान बची थी. तेरा मामा उलटा पैदा हुआ था. तेरी नानी की हिम्मत जवाब दे गई थी. मैं बार-बार उसे हिम्मत दे रही थी. उस दिन तो लाला मैं डर गई थी. पसीने में झाबमझोब हो गई थी. मेरी कई घंटों की मेहनत के बाद उस दिन मैंने वह जापा निपटाया था. जापा निपटाया तो एक नई समस्या पैदा हो गई. बच्चा रोया ही नहीं और एक तरफ निढाल पड़ा रहा. मेरे फिर से हाथ-पैर फूलने लगे. मैंने जल्दी से सौ ग्राम काली मिर्च मंगवाई और उन्हें चबाकर बच्चे के मुंह में फूंक मारी तब जाकर बच्चे ने किलकारी मारी.

उन दिनों पूरी बस्ती ऐसी ख़ुशी में शामिल होती थी. तब दाइयों का भी सम्मान होता था, नेग मिलता था. लोग हैसियत के मुताबिक उपहार देते थे. हो भी क्यों न, बिना किसी लालच के जरूरतमंद के यहां हम बस्ती में कहीं भी चली जाती थीं. मैं न कभी धूप देखती थीं न बरसात और न ठण्ड. अपनी घर-गृहस्थी की परवाह किये बगैर दाई पूरे-पूरे दिन गर्भवती महिला के साथ रहती थीं.

कई दिन तक हलवाई बैठे थे. तेरे बड़े नाना ने सारी बस्ती का डसोटन किया था. गेहूं की घूघरी की जगह पूरी बस्ती में पांच मेवा की थैलियां बंटवाई थी. कई दिनों तक हवेली में नाच-गान की धूम रही थी. जब समधी इतना खर्च कर रहा था तो उधर तेरी नानी के मायके वालों का क्या कम नाम था. अजमेरी गेट में ठेकेदार साहब का भी बड़ा रूतबा था. उन्होंने भी कोई कसर नहीं छोड़ी और वह भी बहुत भारी छूछक लेकर आए थे. तेरी नानी के जेवर, तेरे मामा के सोने के चांद-सितारे, दूसरे जेवर और परिवार के हर सदस्य के लिए कुछ ना कुछ उपहार लाये थे. बस्ती के मोजीज लोगों का सम्मान हुआ था. ढाई मण खिचड़ी के साथ एक से एक महंगे कपड़ों से हवेली का पूरा चौक पट गया था. मुझे भी खुश होकर चौधरी साहब ने पूछा था कि बोल भई बुद्धो; तेरे को क्या चाहिये ?

उनके आगे कहाँ आवाज़ निकलती थी लाला, मैंने तो बस हाथ जोड़ लिये थे. भगवान करे उनका स्वर्ग में बासा हो लाला. इस हंसली के साथ लत्ते-कपड़ों से मुझे लाद दिया था. उस ज़माने में भाभी को तारे दिखाने और दरवाजे पर बंदरवाल बंधाई के लिए तेरी नानी ने देवर के शगुन के लिए तेरे छोटे नाना को नेग में मोटरसाइकिल दी थी.

चौधरी साहब की हवेली से मुझे खूब मिला है बेटा. तेरी छोटी नानी को गर्भ के समय बच्चा नीचे आ जाता था. उसके दो बच्चे पहले ही खराब हो चुके थे. तीसरी बार जब वह आस से हुई तो चौधरी साहब ने मुझे बुलाकर जिम्मेदारी दी कि बुद्धो बेटा डॉक्टर को भी दिखाया है लेकिन तुझे तजर्बा है, तुझे बच्चे को पेट में ऊपर ही रखना है. मैंने महीनों मेहनत की थी बेटा तब जाकर वह सही जापा हुआ था. चौधरी साहब ने इस बार मुझे सोने की अंगूठी दी थी. गर्भ में उलटा बच्चा, जुड़वां जन्म, बच्चा पीछे को होना और बच्चे का नीचे सरकना, पता नहीं कैसे- कैसे हालातों से हम निपटते थे.

जापे की कैसी भी मुश्किल हो, कम साधनों से ही निपटना पड़ता था. हमारे पास कौन से औजार या दवा होती थी. हाँ बेटा; हम बहुत आसानी से घर में घर की चीज़ों जैसे सूती चादर, मलमल के कपड़े, बोरी और पुराने तकियों की मदद से जच्चा का मन पक्का करते ताकि वह जापे का दर्द सहन कर सके. दाई को खुद भी जच्चा के साथ मन से जुड़कर उसे भरोसा दिलाना होता है जिससे की वह दर्द सहते हुए बच्चे को जन्म दे सके. बचपन में माँ के साथ जाती थी तो देखती कि गांव में कई घरों में तो कपड़े भी नहीं होते थे लाला. ऐसे में माँ जच्चा-बच्चे के लिये राख की ढेरी का बिस्तर तैयार करती जिससे मैले के छटांव तक माँ और बच्चा बिना कपड़ों के राख पर ही सोते थे. राख के कारण छूत फैलने का खतरा नहीं रहता था. सर्दियों में माँ ऊपलों का जगरा लगाकर राख तैयार करती और जच्चा को सर्दी से बचाने के लिए उसके शरीर के नीचे गुनगुनी राख डालती थी.

अचानक बुआ के चेहरे पर शरारती मुस्कान आ गई जैसे उसे कुछ याद आ गया हो. बुआ ने बताया-

बेटा तेरी माँ तेरी नानी की पहली सन्तान थी. उसके बाद उसके कई बहन- भाई हुये थे. मुझे देखकर वह रोने लग जाती थी और तेरी नानी को कहती कि अम्मा इस औरत को तूने क्यों बुलाया है. ये जब भी आती है कोई बच्चा छोड़ जाती है, उसे तू मुझे थमा देती है. यह बात बताते हुए बुआ मासूम बच्चे की तरह खिल-खिलाकर हँसने लगी.

उन दिनों तो पता ही नहीं चलता था कि थकान भी कुछ होती है लाला, सारे दिन मैं एक टांग पर खड़ी रहती थी. लोगों का भला-बुरा संभालते कब दिन बीत जाता था, पता ही नहीं चलता था. बहुत बार सारी रात भी काली होती थी.

बुआ आपने ये भले-बुरे की बात कही है तो एक बात पूछ लूं ?

हां पूछ न बेटा.

दाई के पास तो सभी घरों के राज होते हैं. आपके पास भी कई उलटे-सीधे केस आये होंगे जिन्हें आपने छिपाया होगा?

बुआ ने लंबी सांस ली. ये पूछने की बातें नहीं हैं लाला. ऐसी बुराइयां तो हमेशा से रही हैं. हमने कितनी ही बार रिश्तों को पानी-पानी होने से बचाया है. पिछली तीन पीढ़ियों से हम दाई का काम कर रहे हैं. मेरी माँ गांव में दाई थी और ग्यारह बरस की उम्र में उसने मुझे यह काम सिखाना शुरु कर दिया था जिसे मैंने अपनी छोटी बेटी को भी सिखाया है. तू तो शहर की पूछ रहा है बेटा लेकिन गांवों में जहां सभी की साझी बहन-बेटी मानी जाती हैं और गांवों की मान-मर्यादा की हमेशा दुहाई दी जाती है, मैंने तो बचपन में वहाँ भी रिश्तों को तार-तार होते देखा है. गांव हो या शहर ईमान को सभी जगह डूबते देखा है. जन्मते ही बच्चे को ठिकाने लगाने से लेकर उसे किसी को दे देने तक के कितने ही राज दाइयों के पेट में छुपे रहते हैं.

सदर और पुरानी दिल्ली चटोरों का स्वर्ग है. बुआ जानती है कि मुझे बचपन से ही नाथू हलवाई के समोसे बहुत पसंद हैं. बुआ ने बगल के घर के एक बच्चे को आवाज़ देकर बुलाया और मेरे लिये समोसे और चाय मंगवाई. मैंने पैसे देने की ज़िद की लेकिन बुआ नहीं मानी. अपनी साड़ी के पल्लू की गांठ खोलकर बुआ ने ही पैसे दिये. पल्लू की गांठ के बाद बुआ के मन कि गांठ भी खुलती रही….

हमारे देखते ही धीरे-धीरे सारी दुनिया जचगी के लिए डाक्टरों के पास जाने लग गई जो अब तो बहुत बड़ा कारोबार बन गया है. लाला धीरे-धीरे दाइयों का पुश्तैनी काम तो गुम होता जा रहा है. दाइयों के पास अब काम ही नहीं है. डॉक्टरी की चमक जैसे-जैसे फैली वैसे-वैसे जापा कराती आ रही रही दाइयों कि पहचान खत्म होता गयी. बड़े-‌बड़े अस्पतालों की चकाचौंध में दाइयों के वर्षों से चले आ रहे पुश्तैनी वजूद को ही झुठला दिया है. सभी घरों में इस पुश्तैनी काम को छोड़ दिया है. अपने समय में दाइयों का बहुत नाम था. अपनी कला में माहिर दाइयों ने लगभग हर कौम और घरों में बिना किसी परेशानी के बच्चों का जन्म करवाया है. लोग प्यार से उन्हें दाई माँ कहते थे. बालक का जन्म हमारे लिए हुनर है, जो मैंने बहुत कम उम्र में अपनी माँ से सीखा था.

डाक्टरों के हाथों जचगी को मैं भी बुरा नहीं मानती लेकिन दूर-दराज के छोटे कस्बों और गाँवों में डॉक्टरी सुविधा नहीं है, वहां इन सीखी-पाटी दाइयों की जरूरत को भी मानती हूं. तेरी नानी और तुम्हारे घर में पहली बार तेरी भाभी का बच्चा आपरेशन से हुआ था. तेरी भाभी को लाड-प्यार से दादस ने सर चढ़ा रखा था. जापे के टेम पर तेरी भाभी ने ये हाय-तौबा मचाई कि डाक्टर के हल्का से कहते ही तेरी दादी आपरेशन के लिए मान गई. तेरी दादी के आगे तेरी अम्मा से कौन कुछ पूछता था.

एक बात कहूंगी लाला कि अधिकतर महिलाओं का आम जापा हो सकता है. एक हद तक तो आपरेशन को मैं जायज़ मानती हूं लेकिन आपरेशन तो बिलकुल अंतिम उपाय है. आपरेशन औरत का रूप और उसकी ज़िंदगी के कुछ बरस छीन लेता है. लेकिन अपने देश में तो यह व्यापार बन गया है और इसकी कोई सीमा ही नहीं है. अब तो जिसकी सुनो सभी के बच्चे आपरेशन से हो रहे हैं.

बुआ एक बात और है, पहले कोई महिला गर्भवती होती थी तो उसे उत्सव की तरह लिया जाता था और बहुत सी रस्मों के साथ गर्भवती का मान किया जाता था, अब तो जापे को बीमारी की तरह लिया जाता है. बात-बात पर भागो डॉक्टर के पास.

लाला पहले की औरतें बहुत काम-काज करती थीं. सुबह उठकर अपने हाथों से चक्की फिराकर, चून पीसती और सारे दिन मशीन की तरह काम करती थीं. क्या बोलें बेटा; आजकल की कई तो अब सोकर ही ग्यारह बजे उठती हैं. थोड़ी बोहत तो वर्जिश सभी के लिये जरूरी है. जापे से पहले उसकी पीड़ा के बारे में हम पहले से ही गर्भवती को समझाते थे ताकि बखत आने पर वे घबराएं नहीं. जापे में कौन से पौष्टिक आहार लेने हैं और कैसी कसरत करनी चाहिए, ऐसी बहुत सी बातें जो जापे से जुडी होती हैं, उसकी जानकारी समय-समय पर सभी दाई औरतों को देती थीं. जापे के पहले और बाद में भी दाई को जच्चा से जुड़ा रहना पड़ता है. जापे के बाद जच्चा के मिजाज़ में कई बदलाव आते हैं जिनमें कई बार निराशा के भाव भी आते हैं. इसलिये दाइयां जापे के बाद तक उस घर जाती रहती हैं क्योंकि वे जच्चा के मन को समझती हैं और उसकी मदद करती हैं. इसके पीछे किसी तरह के खास लालच वाली बात नहीं थी.

दाई कर्म ख़त्म तो हो रहा है बुआ, फिर भी परम्पराओं की कभी अवहेलना नहीं की जा सकती. अभी कोरोना संकट के समय बड़े डॉक्टर तो सब कुछ बंद करके भाग खड़े हुये थे. झोला छाप कहे जाने वाले डॉक्टरों और इन दाइयों ने कितनी ही ज़िंदगियां बचाई हैं. आज पूरी दुनिया में लाखों नर्सों और दाइयों की ज़रूरत को देखते हुए इनके प्रशिक्षण की बात उठ रही है. इसलिए ही कह रहा हूं बुआ परंपराएं अपनी जड़ों को आसानी से नहीं छोड़ती.

अब हमें तो क्या पता लाला, दुनिया में क्या कुछ हो रहा है.

अच्छा बुआ आशीर्वाद दो अब चलता हूं.

हमेशा खुश रहो बेटा, ठाकुर जी की तुम पर कृपा रहे. गंगा को मेरी राम रमी कहना.

कभी बखत मिले तो इस अंधी बुआ से मिल जाया करो बेटा. अब तो पता नहीं कब चला-चली की बेला आ जाये.

जरूर बुआ ! अरे बुआ, अभी से जाने की बातें क्यों करती हो.

एक बात और सुनता जा बेटा; मैं यह बात मानती हूं कि आँखें नहीं रहने से आदमी की क्षमता घटती है लेकिन मेरे तजर्बे से अभी भी मेरे पास देने को बहुत कुछ है. इस कोरोना के समय में ही पिछले मुहल्ले के अग्रवाल परिवार की नई बहू का बच्चा बिगड़ गया था. डाक्टरों के चक्कर काटते-काटते देर हो गई और बहू के पेट में ज़हर फ़ैल गया और जच्चा-बच्चा दोनों ही नहीं बचे. मेरे को ये बात देर से पता चली, मैं बिलख-बिलख कर रोई. हे ! ठाकुर जी; हम पर बिल्कुल ही भरोसा नहीं रहा? पुराने दिन याद करके जी बहला लेती हूं लाला, अब तो कोई सलाह भी लेने नहीं आता.

ज्ञान चंद बागड़ी
मानव-शास्त्र और समाजशास्त्र का अध्ययन-अध्यापन.

उपन्यास , कहानी, यात्रा वृतांत और कथेतर लेखन के साथ-साथ पत्र-पत्रिकाओं में स्तंभ लेखन भी
वाणी प्रकाशन ‘आखिरी गाँव’ उपन्यास, संस्मरण सम्भव (संयोजक) आधार प्रकाशन से, सफ़र में धूप तो होगी (यात्रा वृतांत) आधार प्रकाशन से प्रकाशित.

दिल्ली दयार (उपन्यास) संभावना प्रकाशन से (प्रेस में) बातन के ठाठ (कहानी संग्रह) रे माधव आर्ट से (प्रेस में)
gcbagri@gmail.com

Tags: 2023२०२३ कहानीज्ञान चंद बागड़ीदाई माँ
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Comments 10

  1. Lalan Chaturvedi says:
    2 years ago

    यह सब देखा हुआ यथार्थ है।यह इस दृष्टि से उल्लेखनीय है कि ऐसे महत्वपूर्ण काम को निष्पादित करने वाली मातृ तुल्य महिलाओं पर शायद यह पहली कहानी है। मैंने पढ़ी।आप को और ज्ञानचंद जी को बधाई प्रेषित करना चाहूंगा।

    Reply
  2. Raghvendra rawat rawat says:
    2 years ago

    बागड़ी जी लोक से जुड़े कहानीकार हैं। लोक का खांटी जीवन उनकी रचनाओं में जीवंत हो उठता है। बधाई बागड़ी जी।

    Reply
  3. Kaushlendra Singh says:
    2 years ago

    अच्छी कहानी है ,देश की स्वास्थ्य व्यवस्था की कलई खोलती और पुराने समय की याद दिलाती। बस एक बात खटकी की कोरोना के समय बड़े डॉक्टर भाग खड़े हुए और झोलाछापों ने जान बचाई। ये बेहद भ्रामक और अनुचित है। कितने डॉक्टर जिसमें हम सभी शामिल रहे बहुत अंत तक मरीज़ देखते रहे। संक्रमित भी हुए और तब बंद करना पड़ा। कितने डॉक्टर कोरोना देखते हुए चले गए। नए नए लोग चले गए, आज उनके लिए ,उनके परिवारों के लिए कोई तनिक भी सहानुभूति रखता है? मैंने तो नहीं देखा, हाँ कोरोना के समय ज़रूर सब डॉक्टरों की माला जप रहे थे। कितने लोगों की मदद वाट्सएप और फ़ोन से की गई। लगातार मरीज़ देखे गए, कोरोना आज भी है और आज भी कोई निश्चित नहीं कि किसके लिए घातक हो जाए । वो आपदा का समय था और संसाधन सीमित, उसे विशेष स्थिति की तरह ही लेना चाहिए। ऐसा कहना कि झोलाछापों ने जान बचाई मुझे कम ठीक लगी। बाक़ी कहानी अच्छी है। बधाई

    Reply
  4. Anil Thakur says:
    2 years ago

    आज जब आम आदमी चिकित्सा माफिया के पंजे में फंसा कराह रहा है, जचगी में लूट-खसोट का माहौल है, बागड़ी जी की कहानी ने दाई माँ के जरिये नयी पीढ़ी के सामने ऐसे सच को उजागर किया है जिससे उन्हें इन समस्याओं से निपटने का संबल मिलेगा, यही इस कहानी की विशेषता है और सार्थकता भी!

    Reply
    • Uma Dubey says:
      2 years ago

      Kahaani mein vaastvikta ke saath Buddho bua ke kirdaar ko likha gaya hae..Ek unchhua vishye or jiwantt prastuti…sunder rachna ke liye aapko hardik shubhkaamnaaye ..🙏

      Reply
  5. Shashibhushan mishra says:
    2 years ago

    दाई की पीड़ा के मूल में है – उत्तर आधुनिक सभ्यता का दंभ और निर्दयता । रचना के भीतर प्रवेश करते हुए हम दाई की पीड़ा से जुड़ते जाते हैं, सजल होती जाती हैं आंखें । आधुनिक सभ्यता के छद्म को भेदते हुए रचनाकार ने ज्वलंत मुद्दे को बहुत संवेदनशील ढंग से बुना है । लेखक और समालोचन को हार्दिक बधाई…

    Reply
  6. सतीश जायसवाल। says:
    2 years ago

    प्रिय बागड़ी जी,

    “समालोचन” में आपकी कहानी देखी — दाई मां।
    एक अच्छी कहानी की बधाई लीजिए।इस कहानी में आपने उस समय को उसकी पूरी स्थानीय प्रथा परंपराओं और प्राचीन ज्ञान पद्धतियों में पुनर्जीवन दे दिया !
    दाई मां को वापस उसी सम्मान के साथ स्थापित किया, जो उसके हक का है।
    बस एक शब्द में कहूंगा — वाह..

    सतीश जायसवाल।
    03 जून

    Reply
  7. ASHA PARASHAR says:
    2 years ago

    बागड़ी जी ने एक लुप्त हुई पद्धति का बहुत रोचक तरीके से वर्णन किया है । मेरी मां कहती थी जिन नवजात शिशुओं को एक औरत का स्नेह भरा हाथ न लग कर फोरसैप ,चिमटी से खींचा जाता है वे भावशून्य ही रहते हैं । बच्चे बड़े होने तक उस महिला के शुक्रगुजार होते थे जिसने उन्हे जीवन दिया ।तभी तो दाई के साथ मां शब्द जुड़ता है ।.बागड़ी जी की हर रचना कमाल की होती है ।

    Reply
  8. बजरंग बिहारी says:
    2 years ago

    अच्छी कहानी है ज्ञानचंद बागड़ी साहब की।

    Reply
  9. विनीता बाडमेरा says:
    2 years ago

    दाई मां शब्द सुने एक लंबा अरसा हो गया। आज फिर बागड़ी सर की यह कहानी से दाईं मां सामने आ खड़ी हो गयी।
    बहुत सुन्दर कहानी बुनी है
    बधाई

    Reply

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समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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