लम्बी कविता
तालाबंदी में किसी अज्ञात की खोज
विजय कुमार
(कोरोना महामारी में संघर्ष करते हुए तमाम अनाम योद्धाओं को समर्पित)
उतरती धूप और सिहरती हुई पत्तियों ने
कहा कुछ मद्धम मद्धम
कबूतरों की शरारती आंखों ने
और
कोयल की कुहू कुहू ने भी कहा
कि
तुम्हारी खामोश मृत्यु के शोक गीत
लिखे जायेंगे इसी तरह से
तुम्हारी शोरगुल से भरी इस बेतरतीब दुनिया में
वे सांस लेते हैं बंद कमरों में
एक खालीपन की ऊब में
मृत्यु के गलियारे में जमा जरूरतों
और अर्थहीन वस्तुओं के पैम्फ्लेट पलटते
इस उदित होते अस्त होते सूरज को देखो
भूख तुम्हें बताएगी
कुछ आदिम सच्चाईयों के बारे में
सुनसान पड़ी सड़कों के कुछ और भी अर्थ हो सकते हैं
जो तुम्हें समझ में आयेंगे
क्रूरताओं के घूरे पर
कोई थकान उतरी पड़ी होगी
और
कुछ मर्म स्थल बचे हुए होंगे भूले बिसरे
रुई का एक फाहा उड़ता चला जायेगा
इस पूरे संसार पर
रिकॉर्ड रूम से
सेमिनारों से
विडियो कॉन्फ्रेंसों से
परे धकेले जा सकते हैं
तुम्हारी उपलब्धियों के बखान और
गला काट स्पर्धाओं के उद्बोधन
गायब हो चुके सफल मनुष्यों की खोपडियां
एक तरफ रख दी जायेंगी
उनके भीतर भरे हुए
जानकारियों के भंडारों का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा
प्रेतों की तरह से खड़े होंगे
बंद पड़े शीशे के शो रूमों में
वैक्यूम क्लीनर ,
कारों के नये मॉडल,
फ्रिज
और वातानुकूलित यंत्र
कम्यूटर के की-बोर्ड पर उंगलियां चल रही होंगी
पर स्क्रीन पर कुछ नहीं आएगा
कोई
भोलापन कहेगा कि यकीन करो मुझ पर
सुंदरता अभी भी टहल रही है
अंगडाई लेते कुत्तों के झुंड में
नो पार्किंग बोर्डों के नीचे से
लौट रहा होगा कोई अनाम वक्त
बाजारों में
बंद शॉपिंग कॉम्पलेक्सों के व्यर्थ सूचना पट्टों से
कुछ मत कहो कुछ मत कहो
उदास रोते हुए विवरण होंगे
एक लालची दुनिया की चिपचिपाहट
मुरझाये हुए गुलदस्ते, बर्गर किंग,
ऑनलाइन पेमेंट के डेबिट कार्ड
भयभीत देहों से झर रहा होगा जिये हुए जीवन का पलस्तर
रोबदार समझी गयी हर आवाज में
भरी होगी अनिश्चय की कोई सड़ांध
और झुर्रियां सभ्यता की भी हो सकती है
इससे पहले कभी इतनी साफ नहीं देखी होंगी.
बुनियादें हिल रही हैं
बुनियादें हिल रही हैं
कौन ? कौन ?
कोई नहीं बस एक मौन.
अवरुद्ध हरकतों के पीछे जो अदृश्य है
उसे एक तेज चाकू की तरह से पढो
कि
पहले कब दो फांक खुल गया था इस तरह से समय
(दो)
हर चेहरे पर एक मास्क
हर मास्क के पीछे एक चेहरा
छुप गए सारे हाव भाव
मुस्कुराहटें
क्रोध
और कातरता
तुमने धरती को भी तो पहना दिया था एक मास्क
छिप गए पहाड़ नदियां चरागाह और जंगल
कई सदियों तक
धूप आई और गई
कई सूर्योदय हुए कई सूर्यास्त
पीढियां बीतती गईं
इतिहास के पन्ने पलटते गए
तुम्हारी अवैध संतान की तरह से
तुम्हारा ही एक शत्रु कहीं पल रहा था अनाम
सत्ताधीशों, सेनाध्यक्षों, नगरपिताओं
धनकुबेरों
अब
युद्ध की घोषणाएं करो
बिगुल बजाओ
प्रवचन, उपदेश, व्याख्यान
बालकनियों में खड़े दासों से
घण्टे घड़ियाल बजवाओ
भेज दो सेनाओं को
विजय अभियान पर
पर कहां भेजोगे ?
किन दिशाओं में ?
आखेट स्थल कहाँ
युद्ध भूमियाँ कहाँ
पुलवामा कहां है
बालाकोट कहां है
सिनाई की पहाड़ियां कहाँ हैं
गाज़ा पट्टी कहां है
मेक्सिको की सीमा पर खड़ी
कंटीले तारों की बाड़ कहां है
कौन सी है \’लाइन ऑफ़ डिफेंस\’
कौन सा है अतिक्रमण
शत्रु अदृश्य
निराकार
गति से अधिक तेज
तिलस्म की मानिंद सर्वव्यापी
आकार से अधिक सूक्ष्म
छह फुट की सोशल डिस्टेनसिंग
हंसती है एक बेहया हंसी
सारे भूमंडलीकरण पर
स्पर्श में छुपी है मृत्यु
स्पर्श में छिपे हैं अन्त
कल किसने देखा है
एक गुडी मुडी
सिकुडा हुआ वर्तमान
घडी की रेंगती सुइयों
सरकती हुई तारीखों पर
भोले विश्वासों पर, यकीनों पर
मेटल स्क्रीन, सीट बेल्ट, बटन और कमीज के अस्तर पर
और
व्यापार समझौतों की दुनिया पर
यह किसका अट्टाहास है ?
यह कब्र किसके लिये खोदी गयी है
यह शव पेटिका किसके लिये बन रही है
वह जो मरेगा कल या परसों या उसके अगले दिन
वह जो दुनिया का पांच लाख पांच सौ पचपनवा संक्रामक रोगी है
पर जो अभी ज़िन्दा है
तुम्हारे आँकड़ों में
छिन्न भिन्नताऐं कहती हैं
लिखो हमारे नए इतिहास
तुम्हारे स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन उदास
कारखाने बिसूरते हुए
शेयर बाजारों से उड़ती हैं धूल
निवेश सूचियां
सीली हुई मिसाइलों की तरह
फुसफुसा कर कहा उन्होंने कल
कि कहीं कोई कूड़ेदान खाली नहीं है
इस दुनिया में
पंख कटे मेघदूतों जैसे ये सारे डेवेलपमेंट प्लान
तुम्हारी मूर्खताओं के स्मारक हैं
वातानुकूलित अधिवेशन कक्षों से उठे
जो वक्ता
और जाने कब गली के गटर में गिर पड़े.
लंच पर
एक सभासद ने कहा दूसरे से सहसा मुड़कर
सभा में आप देर तक कुछ बोल रहे थे
क्या बोल रहे थे
मैं भी तो कुछ बोलना चाहता था
बहस में शरीक भी होना चाहता था
पर राष्ट्रीय संकट की घड़ी है
रात को नींद ठीक से आती नहीं है
किसी ने कहा कि दुनिया हो गयी है अनिश्चित
दूसरे ने कहा यह जीवन संध्या है
तीसरे ने कुछ और कहा
चौथे ने कुछ और
बाकी मुंह बाये तबलीगी जमातियों की खोज के भड़कीले किस्से सुन रहे थे
दुश्मनों की शिनाख़्त हुई
विपदाओं ने रचे नए मुहावरे
कुछ नए शब्द ईजाद हुए
खौलते हुए खून के बारे में
कुछ कौमी घृणाओं और लानतों के बारे में
धमकी देता हुआ दहाड़ता था वाशिंग्टन में कोई बेचारगी में
हँस पड़ता था बेजिंग में कोई घाघ हँसी
प्रधान सेवक माँगता था राष्ट्र से माफी हर रोज एक नयी मोहक अदा में
पर कहीं कोई शब्द नहीं था
भूख की किसी अंधेरी गुफा के बारे में
सैंकड़ो मील चल पड़े
सिर पर पोटली उठाये
सड़क पर चलते चलते हुई किसी मृत्यु के बारे में
एक खामोश रुदन अभी पड़ा था अलक्षित.
(तीन)
चिंतकों ने कहा के इस संसार के सारे संकट है मनुष्य निर्मित
पर हम पंगु है
भाषा में उनकी पहचान अब संभव नहीं
धर्म जाति कुल वंश देश भाषा समाज हैसियत
से परे अब उसकी पहचान
वह भाषा में समाता ही नहीं
कलाकारों ने कहा की
आकार–प्रकार दिखाई नहीं देता
शत्रु है अगोचर
वह रूप में अब बंधता नहीं
वह कभी विचारों से उठता है
कभी इरादों से
कभी त्वचा की सूक्ष्म रंध्रों से
कवि ने कहा कि सारे अतीत राजनीतिक हैं
और वर्तमान भी राजनीतिक है
ऊपर आकाश में चमकता चन्द्रमा भी राजनीतिक है
राजनीतिक हैं आकाश, धूप, परछाइयां, नदी, पोखर,पहाड़
और आदिवासी भी
खामोशियों में किये गये एकालाप भी राजनीतिक हैं
हम हैं सिर्फ एक कच्चा माल उनके लिये
रोग, जीवाणु, औषधियां, प्रयोगशालाएं
सब राजनीतिक हैं
चिल्लाता है कोई ईरान से कोई बल्गारिया से
जो सेफ्टी किट भेजा गया वह नकली है
त्वचा की भी इस तरह से एक राजनीति है
सेनिटाइज़र नहीं बचे थे अब
चिंतकों लेखकों कलाकारों कवियों बौद्धिकों
तुम अमर रहो
तुम्हारी जन्म शताब्दियां मनायी जाती रहें
पिछले युगों की तरह से निर्विघ्न
तुम्हारी मेजों पर
जीवन और मृत्यु के सवाल
जमा रहें सारे शब्दकोश पैमाने सूक्ष्मदर्शी यंत्र
ध्वनियाँ प्रतिध्वनियाँ मुहावरे तर्कों के विश्लेषण
और
कल्पनाएं भी थोड़ी बहुत
इस बीच लोग जो रोज थोड़ा थोड़ा खत्म होते जा रहे थे
थोड़े से भोजन, थोड़ी सी साँसे, थोड़ी सी नींद
और
दस बाई दस की खोलियों आठ-दस ठुंसे हुए लोगों के उदास चेहरों के बीच से
घर की ओर लौटते नंगे पैर थे, भूख और जिल्लत की रोटी थी
घर पर छह महीने की बच्चियों को छोड़ आयी कुछ नर्से थीं
एक सफाई कर्मचारी गली में झाडू लगता हुआ अकेला
इनके आंसू छिप जाते थे सेफ्टी मास्कों के पीछे
चैनलों पर नाच गानों के बगल में
सलमान खान, कैटरीना कैफ और कपिल शर्मा के बगल में
रोज मरने वालों के आँकड़े
मेरा समय की सबसे बड़ी खबर थी
और मृतकों की संख्याएं
वे रोज पहले से ज़्यादा थीं उत्तेजक
रोज एक विकराल शोर शराबे में
मनाया जाता था मृत्यु का महोत्सव एक अलग त\’रीके से
रोज एक नयी दिलचस्पी का सामान
जुटाया जाता था कितनी मेहनत से
किसी ने कहा कि बहुत कुछ घट रहा है
और कुछ सिद्ध नहीं होता
आकाश अपराध बोध से घिरा है
\’इतिहास के अंत और सभ्यताओं के संघर्ष\’ की घोषणा वाली वह किताब
धूल चाट रही है कहीं
और एक वायरस खोजता फिर रहा है सैमुअल हटिंग्टन की कब्र को
वुहान से मिलान तक
न्यूयॉर्क से ईरान तक
समय के इस अज्ञात को कहां पकड़ा जा सकता था ?
कहाँ था उसका ठिकाना ?
कौन से पते और कौन से पिन कोड पर ?
एक वरिष्ठ कवि कह गया कि संसार की सभ्यताएं
अपने अंतिम दिन गिन रही हैं
दूसरा वरिष्ठ कवि जाते जाते कह गया –
मुझे विश्वास है
यह पृथ्वी रहेगी
यदि और कहीं नहीं तो
मेरी हड्डियों में
मैं अपने वरिष्ठ कवियों के अस्थि कलशों को स्पर्श करना चाहता हूं
और
संसार के सारे म्युजियम
फिलवक्त लॉक डाउन की घेरा बंदी में हैं.
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बहुत बेचैनियों से भरी कविता । सिर्फ़ महामारी ही नहीं, राजनीतिक दृश्य की विद्रूपताएं भी साथ साथ उजागर होती जाती हैं । कवि जैसे धीरे धीरे समय के कपड़े उतार रहा हो । एक नंगा समय सामने