लम्बी कवितासफ़ेद के सातों रंग
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एक
यह कविता कंगना रनावत पर होती तो
मैं तुम्हें तुम्हारे नाम से बुलाता
फिर भी तुम बताओ बार-बार, हर बार
तुम उनके मोड़ क्यों मुड़ जाती हो
यह जानते हुए भी कि वे कहीं नहीं जा रहे हैं
वे लौटंगे अपने माल असबाब के साथ और मलबे में बदल जाएंगे
तुम देखती तो हो
मेरी आवाज़ को प्रचलित परम्पराओं के खूँटे में बाँध दिया गया है ज़ंजीर से
और मेरा देस-गाँव किन्हीं राजाओं के शक्ल वाले शैतानों के हाथों में
तुम जानती तो हो
मैं धरती की घड़ी में चाभी भर रहा हूँ
जो वक्त की सुइयों से नहीं
साँसों से चलती हैं तुम्हारी हमारी
तुम्हें पता तो है
मेरे हाथों में न मेरी चाभी है न मेरे पैरों में वो यात्राएं
जो ज़रूरी है तुम तक पहुँचने के लिए
मैं भटक गया हूँ हार मानने की तरह
मेरे हिस्से की उम्मीद उधड़ती है जैसे उधड़ता है कोई पुराना स्वेटर
मेरी आत्मा को छापते जा रहे हैं गर्व के असंख्य दीमक
मेरा मस्तिष्क विलुप्त होता जा रहा है सत्ता के माथे की शिकन में
मेरा चुप रहना दम तोड़ता है मेरा
और तुम हो कि उनके मोड़ मुड़ जाती हो.
दो
मैंने जहाँ तुम्हारी राह देखी थी
मुझे बुलाते हैं वे रास्ते अभी भी
तुम कहाँ से आवाज़ दे रही हो मुझे
उन रास्तों से अलग राह लेने पर हर रास्ते धकेल देते हैं मुझे
कि यह तुम्हारा रास्ता नहीं है, तुम जाओ यहाँ से.
तुमने तो नहीं कहा था कभी कि तुम जाओ यहाँ से ?
अपना कहना याद तो होगा तुम्हें !
मुझे तो इतना याद है कि मैं उसे मंत्र की तरह लगाता हूँ
और तंत्र की तरह विलगाता हूँ
मैं वर्णमाला में अक्षर खोजता हूँ जो वर्तनी की साज–सज्जा से सुसज्जित हो
यह संभव नहीं था !!!
तो यह भी कहाँ संभव था कि वर्णमाला में कोई इमोजी मिले ?
फिर मैं कैसे छूट गया ?
किस ख़ाल से बनी है मेरी आत्मा
तुम्हारा सौन्दर्य कितना है मेरी देह में
मेरी आस्था में कितनी है तुम्हारी आत्मा
तुम्हारा विस्थापन कितना है मेरे पलायन में
तुम्हारे ताप में कितनी नमी है मेरी
और मैं यह जो जी रहा हूँ तुम कितनी मर रही हो
यह कैसी हिंसा है कि मैं तुम्हें तुम्हारे नाम से नहीं बुला सकता
जबकि मैं तुम्हारा नाम लेकर चीखना चाहता हूँ
मैंने खून थूक के मरते हुए लोगों के बारे में सुना था
इसलिए तुम्हारा नाम चीख के मरने का ख्याल दिल से निकाल दिया
मेरा जीवन इतना साझे का था कि मैंने नमक पानी में कभी ओज (कमी ) नहीं की
मेरे मैं में तुम्हारा मैं इतना था कि मैंने बेईमानी की बात भी मुस्करा के कही
कि तुम हो मेरी आदिम पहचान की
और तुम्हारा अस्तित्व धरती का दर्शन
लेकिन तुमने तो बेईमानी की बात पर भी रूला दिया
क्या चाहती हो तुम !!!
मैं अपने ख़ुशी के आंशुओं के लिए अफ़सोस क्यों करू
तुम्हें पुकारने की सज़ा मुझे कब तक मिलेगी
नरसंहार का प्रणेता कब तक राजा बना रहेगा
मैं क्यों चूक जाऊँ तुम्हारे रास्ते से
लेकिन तुम हो कि बार-बार
हर बार उनके मोड़ ,मुड़ जाती हो.
तीन
यह कविता तुम पर होती तो कैसी होती
तब क्या इतने सवाल होते और कितनी मधुर होती
आह यह दग्ध लेखन !!!
फिर भी यह तो देखों ही
मनुष्य कितनी अज्ञानता से निकला था
कि वह नहीं जानता था एक दिन समुद्र सूखने का दृश्य
नदियों को बिलाने का प्रमाण और पहाड़ों के चूर होने की ख़बरें
प्रलय की तरह उसके सामने होंगी
वह प्रजातियों के बिलुप्त होते संसार को बढ़ते
और जाति-नस्ल के गर्व में लिप्त फैलते संसार को घटते देखेगा
लेकिन अब ये जो उपज रहे हैं मनुष्यों के ज्ञान की हत्या कर के
जो जानते हैं जीने के लिए सबसे ज़्यादा ज़रूरी
ऑक्सीजन और प्रेम जैसी किन्हीं अदृश्य चीज़ों का होना है
फिर भी वे ताप से धधकती पृथ्वी के जंगलों को
गनों और मशीनों के हवाले करना चाहते हैं
और रचना चाहते हैं एक रेखीय साम्राज्य
जिसका सूरज इनकी ऐशगाहों से फूटता है और चन्द्रमा इनके छलों से
देखो इनका व्यापार और व्यापारियों के कंधे पर पड़े सुकून के इनके हाथों को
तुमने तो एक पल के लिए भी मुझे नहीं दिया हैं वैसा सुकून
मुझे नहीं चाहिए वैसा सुकून जिनकी नाभि का अमृत
जन गण मन की दुर्दशा की रक्त से बन कर जमा हो रहा है
मुझे अपनी बेचैनी दो, दो अपना भय
अपनी प्रतीक्षा में निहारो मुझे, बाँधो अपनी पीड़ा में
जोड़ो अपने प्रतिकार से, ज़िद से और लो मेरी आज़ाद साँसे
जिसे मैं अपने दु:स्वप्नों से परे जा कर
संघर्ष की मीठी बेलें चुनकर
तुम्हारे सपनों की सुन्दरतम हरियाली से छांट कर हासिल की है
उनकी जयकारा मत देखो
उनकी सरपरस्ती हमसे हमारी धरती छीन लेगी
तुमसे तुम्हारा मैं
लेकिन तुम हो कि बार बार
हर बार उनके मोड़ मुड़ जाती हो.
चार
क्या तुम जान गई हो कि हमने सातों जनम साथ बिताए थे
कि तुम ऊब गई हो मुझसे
और इस आठवें जनम में भी तुम्हें चींह लेना खल गाया है तुम्हें
कि सातों जनम में मैंने ही कैसे पहचाना तुम्हें
तुम पागल हो ! यह सब क्या सोचती रहती हो !
मैं तुम्हारे संघर्षों का प्रतिफल था
तुम्हारे प्रेम का प्रतिदान भी
इसलिए मैंने जमाने से घबरा कर तुम्हें आवाज़ दी
और गुलदस्ता भी
और तुमने उनके चौराहों पर उसे टांग दिया
कि देखो मेरा प्रेम
जैसा कि ज़माना था, जैसे कि ज़माना होता है
उसने तुम्हारा हुलसना नहीं, टांगना भर देखा
और सरेयाम मेरी जिबह के लिए निकल आया
आख़िर तुम्हारा प्रेमी इतना कमज़ोर कैसे हो सकता है कि जो जमाने को धत्ता न बता दे
कौन हो तुम मेरी जान
क्यों मुझे चीन्हने से कर रही हो इनकार
हँसी नहीं आती तुम्हें इस बात पर
कि मैंने कैसे पत्रों की बिंदी से तुम्हारे माथे की बिंदी को मिलाया था
और उस दिन तुम अपने प्रेम में यूं उगी थी
कि चांदनी भी तुम्हारे मोह से भर गई
तुम्हें दुःख नहीं होता
कि तुम्हारे हाथों की अँगूठी से मैं अपना ग्रह दोष शांत करता हूँ
तुम्हें नहीं पता कि
अपनी प्रेमिका के हाथों में ज्योतिष की अँगूठी देख कर कितना टूटता है प्रेमी
तुम मत उतारना उसे
औचक जैसे तुमने बिंदी उतार दी थी
तुम यह क्या कर रही हो
यह हमारा पहला जनम है
और तुम हो कि बार बार
हर बार उनके मोड़ मुड़ जाती हो.
पाँच
धूल भरी हवाएं उछल रही है समुद्र के उपर
नमक के पहाड़ पसीज रहे है धरती की प्यास में
अम्ल बरस रहा है जल स्रोतों पर
आग सहज हो रही है बारिश में
सहज होना बदल रहा है सड़ा हुआ पानी में
जबकि पानी जबड़े और जांघों से टकरा कर
स्वाद पैदा करा रहा है लहरों के बिखरने-संवरने का
यह इस समय की सच्चाई से ज़्यादा
मेरे होने का यथार्थ है जो न जाने क्यों इस क्रूरता में भी तुम्हें ही खोज रहा है
और तुम हो कि बार बार
हर बार उनके मोड़ मुड़ जाती हो.
छह
क्या तुम्हें नहीं पता था
देवताओं की अदृश्यता ने
देवताओं की तरह उन्होंने अपने लिए चार अदृश्य हाथ गढ़ लिए थे
और उनकी सजग भीड़ गालियों को शौर्य की भाषा बनाती
एक हाथ से अभ्यास कर रही थी शांति और न्याय की ढोंग का
दूसरे हाथ से गलियों में लिंच कर रही थी
अपने घर लौटते हुए बदहवास लोगों की
तीसरे हाथ से विश्व गुरू के तिलिस्म में हमें धकेल कर
विजित कर रही थी एक संस्कृति को
चौथे हाथ से हमारे मिले हुए हाथ को अलगा रही थी
क्या तुम सच में इस बात से अनजान थी
आघातों ,हादसों से ही नहीं
देर सुबह जगे राजा की उचटती हुई नींद भी तोड़ सकती है हमें
यह तो तुम्हारे सामने हुआ कि प्रधान राजा से कैमरा थोड़ा फिसला भर
सीमा पर मारे गए सैनिक और खेतों में उनके परिजन
स्कूल में मास्टर और सड़को पर उनका ज्ञान
घरों में उद्यमिता और बाज़ार में संवेदना
और यह एक बार नहीं सैकड़ो बार हुआ कि –
आकाश अपनी नींद के लिए आता हमारे प्रांगण में
इससे पहले कि हम उसके लिए कोई सतरंगी चादर विछाते
कोई कहीं किसी के ईशारे पर उसकी नींद को विस्फ़ोट से उड़ा देता
और हम उसके बिखरे हुए किरचों को चुनते हुए थक कर
एक दूसरे को ही चुभने लगते
फिर भी तुम बार बार
हर बार उनके ही मोड़ मुड़ जाती हो.
सात
क्या तुमने सांझ के वक्त आकाश को धरती के गोद में जाते हुए नहीं देखा था
क्या तुमने भी मान लिया कि क्षितिज हमारे आँखों की सीमा का एक सुंदर दृश्य भर है
तुम्हारे सर को गोद में लिए मेरा वजूद सुंदर से ज़्यादा
एक नाद रचता है मृत्यु के नाव पर पैर रखे जीवन का
जिस पर सौ साल तक बिना थके नाच सकते हैं हम
फिर भी तुम आकाश को देखो
देखो कैसे वो अपनी लहूलुहान देह और क्षतिग्रस्त नींद के बाद भी
बरसता है हमारे ऊपर
कि हमारा प्रेम का सावन कभी दहक कर भस्म ना हो जाए
फिर भी तुम बार –बार
हर बार उनके मोड़ मुड़ जाती हो.
आठ
एक आकाश है
कभी निरभ्र , कभी अब्रज़दा , कभी धूप की दहक में
एक सागर
कभी चित , कभी शांत और ज़्यदा हहराता
एक धरती सात रंगों की
एक ज़हर है नश्वरता की
एक शुरूआत है शाश्वत
एक आग है
कभी अबूझ और ज़्यादा भूख जितनी परिचित
एक रक्त है
कभी लाल, कभी सफ़ेद , कभी शुद्धता और ज़्यादा नस्ल की
कभी तो यह हो कि इतना सारा कुछ के बाद भी हो
कि एक तुम हो और एक मैं
लेकिन इन सब कुछ ने हमें खो दिया हैं कहीं
और तुम हो कि बार–बार
हर बार उनके मोड़ मुड़ जाती हो.
नौ
तुम्हारे सीने पर मेरा हाथ है , और तुम्हारी जीभ पर मेरा लहू
मैं नश्वरता का काँटा उखाड़ने में हिल गया
कि मेरा हाथ न हटे तुम्हारे सीने से
तुम डर रही हो कि मेरा लहू ख़त्म न हो जाए
मानो हम अपने रक्त बदल रहे हो एक दूसरे से
क्या तुम अब भी नहीं मानोगी
कि हम अपने रक्त बदल कर ही आज़ाद सांस ले सकते हैं
क्या तुम्हें नहीं पता था
कि विज्ञान ने जो भी बनाया था उसे सत्ता के अधीन हो जाना था एक दिन
क्या अपने ही खोज़ों से कांपते-कराहते टूटते मरते विज्ञान और उनकी संस्थाओं को नहीं देखा था
कि विज्ञान इतना कम पड़ गया
कि जिनके मात्र दो हाथों से ही खेवा गया विज्ञान का श्रम
अस्पताल पहुंचते–पहुंचते
उसके कतारों में ,गलियारों में , नंबरों में , पर्चियों में और नक़ली दवाओं में दम तोड़ दे रहा है
फिर उनके पास क्या बचता है
बार बार चलने भागने और पलायन करने के सिवाय
लेकिन तुम हो कि बार बार
हर बार उनके मोड़ मुड़ जाती हो
दस
तुम क्यों डर रही हो
तुम्हें तो आसमान इतना प्रिय था कि तुम उसे धरती के साथ टांक देना चाहती थी
जैसे टांकती थी लड़कियां अपने दुपट्टे में सितारों को
और देहरी से बाहर जाते , सहमते हुए उनके पैर
देहरी के अंदर आते हुए सितारे ले कर लौटते थे
तुम्हें तो आसमान का नीलापन इतना पसंद था
कि तुम स्याही की पीछे इतनी चलती चली गयी
कि कहती गयी
कि मैं चलती जाऊंगी मैंने शर्तिया रूप से हारने को चुना है
और नीले को निहारती गई ऐसे
जैसे स्कूल जाते समय निहारती थी नदियों – झीलों , ताल –तलैया को
और कॉपी पर समुद्र से निकालती गयी इन्हें
कि इनके बिना समुद्र का रंग कोई नहीं होता
और रंगती गई इन्हें सफ़ेद रंगों से
कि होते हैं सातों रंग सफ़ेद के
और जब मैं निहार रहा हूँ नीले को
जैसे बिना गुनाह किया कैदी सलाखों के पीछे से निहारता है नीला आसमान
फिर भी तुम बार बार
हर बार उनके मोड़ मुड़ जाती हो
ग्यारह
मैंने तो प्रेम में काला पड़ जाने का किया है स्वागत
कि काला रंग है रंगों के संघर्ष का रंग
काले को भस्म की तरह लगाया माथे पर
और देखो तनिक नज़र उठा कर देखो
स्वाद और स्पर्श के आदिम संबंध से परे
शक्ति और संहार के वर्णित अस्तित्व से परे
देखो कि इतनी सीमाओं के बाद भी
हम अपने लहू से एक दूसरे का लहू सींच रहे हैं
और तुम कितनी सुंदर हो गयी हो
मैं तुम्हें चम्पई हरे नीले रंगों के नन्हें–नन्हें फूलों के छाप वाले स्कर्ट में
देखता हूँ तो लगता है तुम संभावना देती हो और उससे ज़्यादा उम्र
लेकिन तुम हो कि बार–बार
हर बार उनके मोड़ मुड़ जाती हो
बारह
जब तुम स्कूल के अहाते में तितलियों के पीछे भाग रही थी
मैं स्कूल से आते ही बधार में छुई–मुई के पौधे छूते – खोजते
गंगा किनारे चला जाता और जब मुड़ के देखता तो
एक तरफ सूरज डूब रहा था
और दूसरी तरफ तुम निकल जाना चाह रही थी
किसी भी अहाते से
ध्यान रखना एक बात है, जो कही जाती है
ध्यान रखना एक और बात है जो करनी पड़ती है
एक बात और है जो होती रहती है
उसके होने का ध्यान रखना पड़ता है
मुझे बस इसी बात का ध्यान रहता है
कि मैं तुम्हें याद कर रहा हूँ कि नहीं
मैं बार बार रास्ता बदल रहा हूँ ताकि तुम अपना मोड़ मुड़ सको
तुम अपना मोड़ क्यों नहीं मुड़ जाती और कहती
कि मैंने मोड़ लिया है अपनी धारा और मुड़ गयी हूँ
उस रास्ते की तरफ
जहाँ तुम अपनी सारी थकान के बाद भी पहुँच सकते हो
जहाँ तुम लथपथ हार के बाद भी हँस सकते हो
तुम कब कहोगी कि तुम मेरे मोड़ क्यों नहीं मुड़ जाते !!!
शेषनाथ पाण्डेय पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां एंव कविताएँ प्रकाशित. मुम्बई में रह कर फ़िल्म एंव टेलीविजन के लिए पटकथा लेखन. sheshmumbai@gmail.com |
‘ सफेद के सातों रंग ‘ शेषनाथ जी की अद्भुत कविताएं हैं। बहुत दिनों बाद इतनी अच्छी कविताओं को हम पाठकों तक पहुंचाने के लिए अरुण देव और समालोचन को बहुत शुक्रिया।
शेषनाथ जी की कविताएं एक नए मोड़ की कविताएं हैं जिसमें प्रेम के साथ जीवन के अनेक रंग भी शामिल है।
शेषनाथ भाई ने इस कविता में हमारे समय का सब कुछ समेट लिया है. मुझे बार बार जर्मन फ़िल्म ‘मेफ़िस्तो’ की याद आ रही थी, ऐसा लग रहा था कि कवि ने उसे ही संबोधित करके लिखा है. बहुत बहुत बधाई शेषनाथ भाई को. अरुण भाई का शुक्रिया इस कविता को पढ़वाने के लिए.
शेषनाथ जी की कविताएँ रहस्यमय संसार में ले जाती हैं । वहाँ का डर दिखाकर हमें बचाकर वापस ले आती हैं । कंगना रानौत ने बंबई के मालिक बाला साहब ठाकरे के गार्ड संजय राउत को पानी पिला दिया था । वह मोड़ नहीं मुड़ी । लेकिन शेष साहब की कविताओं ने सिर चकरा दिया । कविताएँ विस्मयादिबोधक हैं । धरती की सूइयों में एक सूई इनकी भी लगी हुई है । जीभ से रक्त निकलने की कथा डरावनी है । नाभि-नाल का संबंध जोड़ रही है । धीरे-धीरे प्रेयसी को उसके बचपन में ले जाती है । वहाँ निरभ्र नीला आकाश है । मानो हरे रंग का नीला घाघरा और दुपट्टा लहरा रहा हो ।
बहुत गहराई है। इसमें डूबने लगते हैं कि प्रवाह बहा लेजाता है। सारी जटिल धाराओं के बीच प्रेम की धारा अजस्र है। ताना-बाना उसी के इर्द-गिर्द है।
– दिवा भट्ट
नायाब कविताएं
अद्भुत