ज्ञान का अर्थ पर्वत का शिखर नहीं है, समुद्र की तलहटी है.
ज्ञान की भाषा का मुक़ाबला अज्ञान की भाषा है. यदि ज्ञान का घमंड घातक है, तो अज्ञान का घमंड महाघातक है. ज्ञान जो सबसे अच्छी चीज़ सिखाता है, वह है घमंड से दूर रहना. अज्ञान जो चीज़ सबसे ज़्यादा सिखाता है, वह है ज्ञान का उपहास करना. उपहास करने वाला हमेशा एक सीढ़ी ऊपर खड़ा रहता है. इस तरह अज्ञान, ज्ञान से सुपीरियर बन जाता है.
मेरी भाषा में कई बुद्धिजीवी (?) अज्ञान के घमंड में चूर हैं. इसीलिए वे हमेशा उपहास करने की अवस्था में रहते हैं.
बेकार शार्पनर सिर्फ़ पेंसिल की नोंक तोड़ता है. यह पेंसिल के जीवन का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि उसकी नोंक लिखते समय टूटने के बजाय छीलते समय टूट जाए.
शब्द – कविता के भीतर न हों
अर्थ- कविता की परिधि पर ही हों
मौन- कविता के केंद्र में हों
गति- कविता का स्वप्न हो
स्थिरता- कविता का महास्वप्न हो
रूप- यह कविता का भ्रम है.
दिखना गौणता है. होना प्रधानता है.
दिख रहे को खोजा नहीं जाता.
होने को खोजना पड़ता है.
खोजना कला का सुख है.
वह चीज़ महत्वपूर्ण नहीं है, जो वे मुझे दिखाना चाहते हैं, बल्कि वह है, जो वे मुझसे छिपा ले जाते हैं. और सबसे महत्वपूर्ण वह है, जिसके अपने भीतर होने पर उन्हें संदेह तक नहीं होता.
रॉबर्ट ब्रेसां
रचना और मेरे बीच एक निर्वात है.
कुछ कविताएं जीवन की पुनर्प्रस्तुति करती हैं
कुछ कविताएं जीवन की रचना करती हैं
दूसरी कविता श्रेष्ठतम कवि का अभीष्ट है.
प्रकाश हर वस्तु पर पड़ता है. जिन पर नहीं पड़ता, हम वहां तक पहुंचते हैं, उन्हें देखते हैं. दृष्टि, प्रकाश है. अंतर्दृष्टि, अंतर- प्रकाश है. विषय पर दृष्टि या अंतर्दृष्टि का प्रकाश पड़ता है, तो छाया उत्पन्न होती है. कविता छायांकन है. कविता में हम हमेशा उस छाया को पकड़ना चाहते हैं. विषयांकन अच्छी कविता की रुचि का नहीं. विषयांकन का कला में मोल नहीं. छायांकन को अभी मेरी भाषा में यथोचति स्वीकृति नहीं मिली है.
पालि के ग्रंथ \’अभिधम्म पिटक\’ या \’धम्मसंगिनी\’ के \’रूप\’ अध्याय को मैं कविता की संरचना के बहुत क़रीब पाता हूं. रूप बाह्य अवधारणा है. वह भीतर नहीं पाया जाता. भीतर का रूप दृष्टि से बाहर है. अनुभूति के दायरे में है. गोकि भीतर पाया नहीं जाता, फिर भी पाया जाता है. दिखता नहीं, फिर भी होता है. जो निरी आंखों से दिख जाए, वह भौतिक है. जो न दिखे, फिर भी अनुभूत हो, वह भी अभौतिक नहीं है, बल्कि भौतिक ही है. इसीलिए मैं ईश्वर की अवधारणा को एक भौतिक प्रश्न मानता हूं. उसमें अभौतिक या अधिभौतिक जैसा कुछ नहीं. ईश्वर एक तर्क है. तर्क कभी अभौतिक नहीं होता.
कविता में रूप बाह्य का उत्सर्जन है, लेकिन सच तो यह है कि वह भीतर का उत्सर्जन है. सुंदर कविताएं अपने भीतर के रूप से सुंदर बनती हैं. बाहरी रूप सिर्फ़ एक वाहन है, भीतरी रूप तक पहुंचने का. एक कोड है. अच्छे पाठक, अच्छे कवि को कविता के कोड्स तोड़ना आना चाहिए. और कोड्स बनाना भी.
ग्रंथ कहता है– \’चित्त और चेतसिका मिलकर रूप की रचना करते हैं. रूप भौतिक विश्व है. यह शारीरिक, संरचनागत या भौतिक गुणों के लिए प्रयुक्त होने वाला शब्द है. इसके भी दो प्रकार हैं– भूत रूप यानी बुनियादी भौतिक गुण. दूसरे– उप्पादा रूप यानी अर्जित भौतिक गुण.\’
कविता भूत रूप से ज़्यादा उप्पादा रूप पर टिकी होती है. कविता किन भौतिक गुणों को अर्जित कर आस्वादक में प्रविष्ट होती है, उसके वे गुण उसके विभव की रचना करते हैं.
एक फॉर्म है, वह मनुष्य की चेतना से जुड़ा हुआ है. उसे \’सब्बम् रूपम्\’ कहते हैं. यानी वह रूप, जिसमें सारे तत्व मौजूद हों. पालि ग्रंथ संरचना की पंचतत्व विधि की जगह चार–तत्व विधि पर यक़ीन करता है. बुद्ध के समकालीन विचारक अजितकेश कम्बली तथा अन्य ने चार तत्व की परिकल्पना की थी– पथवी धातु यानी पृथ्वी, आपोधातु यानी जल या तरल, तेजोधातु यानी अग्नि और वायोधातु यानी हवा या निराधार प्रसार. (कविता के संदर्भ में मैं हवा को निराधार प्रसार का गुण मानता हूं. उस पर अगली पंक्तिओं में.) और जो इन चारों को धारण करता है, वह स्वयं पांचवां है. \’सब्बम रूपम\’ में ही भूत रूप भी शामिल है, उप्पादा रूप भी और महाभूतम भी.
चारों तत्व और दो मिश्रित तत्वों को देखते हैं.
पथवी धातु – ठोस, खुरदुरी, कठोर, दृढ़ भौतिकता. यह बाहरी होती है. पकड़ में आ सके या न आ सके.
आपोधातु – तरलता, चिपकने का गुण. आपस में जुड़े रहने का भाव. बाहरी या भीतरी. पकड़ में आ सके या न आ सके.
तेजोधातु – ज्वलनशील, गर्म, ज्वाला से जुड़ी हुई. ताप की रिश्तेदार. बाहरी या भीतरी. पकड़ में आ सके या न आ सके.
वायोधातु – हवा. हवा से जुड़ा या रिश्ते में हवा. कंपन. अ–दृढ़ता. स्फीति. स्खलन.
महाभूतम – स्पर्शयोग्य, ठोस, भौतिक या ऐंद्रिक तत्व और तरल तत्व के समावेश से बना क्षेत्र या आकाश. यहां हमारा पांचवां पारंपरिक तत्व आकाश, दो तत्वों के मेल से बनता है. और दरअसल वह आकाश ही महाभूतम की तरह प्रतिष्ठित होता है.
उप्पादा रूपम – दृष्टि, श्रव्यता, गंध, स्वाद, ऐंद्रिकता, दैहिकता के समाहन से निर्मित क्षेत्र या आकाश. दृश्य, ध्वनि, गंध, स्वाद के समाहन से बना क्षेत्र या आकाश. यह सारे तत्वों के मिश्रण से अर्जित होता है. यह प्रदत्त तत्व नहीं है, यह अर्जित तत्व है.
कविता भी प्रदत्त तत्वों के मेल से की गई अर्जना है. सुंदर कविता महाभूतम है. पथवी और आपोधातु के संयोग से बनने वाली. एक ठोस बाहरी गुण है. दूसरा तरलता का गुण है. तरलता को यहां भाववादी गुण न समझा जाए. यह एक किस्म की गोंद है, चिपचिपापन, जो दो वस्तुओं को जोड़ती है, दो स्थितियों या अनुभूतियों को. कविता का पथवी तत्व कोई ज़रूरी नहीं कि सुंदरतम शब्दों से ही बने, वहां सुंदरता से ज़्यादा ज़ोर ठोस, खुरदुरेपन और दृढ़ भौतिकता पर है. शब्दों का दृढ़ प्रयोग. यानी सिर्फ़ शब्दों के प्रयोग में तरलता या चिपकाने वाली गोंद के मिश्रण से भी सुंदर रचना हो सकती है. वहां अर्जना अपने आप हो जाती है. वह आस्वादक की अर्जना होती है. हमारी भाषा में कई शब्द युग्म, कई मुहावरे या शब्द समूह ऐसे होते हैं, जिनका कोई अर्थ नहीं होता, किंतु जिनके अर्थ की अर्जना स्वयं श्रोता कर लेता है. जैसे धिन–चक. यह दो पथवी धातु और आपोधातु है. दोनों को साथ रख देना, इस युग्म का जल है. इसका अर्थ हर श्रोता अपनी स्मृति व अनुभव के आधार पर पा लेगा. जिसके पास ऐसी स्मृति या अनुभव नहीं होगा, वह इसका अर्थ पूछ लेगा.
कई कवि महाभूतम के कवि होते हैं. हालांकि ये कवि बहुत विरले होते हैं, जल्दी स्वीकृत नहीं होते, किंतु बहुधा चमत्कारिक भी होते हैं. संक्रामक भी. मेरी पढ़त में बेई दाओ ऐसे कवि हैं. उन्हीं के ज़रिए मैं पाउल त्सेलान तक पहुंचा था. वह भी ऐसे ही हैं. हिंदी में निराला की कई कविताएं महाभूतम की प्रमाण हैं. वहां सिर्फ़ गोंद का काम लिया गया है. और वे अद्भ़त कविताएं हैं.
लेकिन एक श्रेष्ठ, मेहनती और महत्वाकांक्षी कवि हमेशा उप्पादा रूपम की ओर जाना चाहेगा. वह सारे तत्वों की सृष्टि करना चाहेगा. वह पहले अपनी अर्जना को धारण करेगा, काव्य के भीतर उस अर्जना का गुप्त प्रस्ताव करेगा और फिर देखेगा, कि उसका प्रस्ताव कितने पाठकों से अनुमोदित हुआ. कितने उस प्रस्ताव के पास पहुंचे. चूंकि उप्पादा में ही महाभूतम भी शामिल है, इसलिए यहां अर्थ की एक विशेष अर्जना आस्वादक भी अपने लिए करेगा. यह कविता सभी इंद्रियों से महसूस की जाने वाली कविता होगी. यानी दृष्टि जब कविता पढ़ेगी, तो वह आपकी त्वचा पर लिखी जा रही होगी. जब त्वचा पर लिखी जा रही होगी, तब वह सांस से भीतर जा रही होगी. जब सांस से भीतर जा रही होगी, उसी समय भीतर की ध्वनि बनकर वह कानों से फूट रही होगी. और जीभ पर उसका स्वाद तैर रहा होगा. एक अच्छी कविता आपकी इंद्रियों को पकड़ लेती है. और इंद्रियों के पार चले जाना उसका महती गुण है.
जबकि ज्यादातर कवि, जो कि औसत या बुरे होते हैं, वे हमेशा भूत रूपम की कविता करते हैं. वे भूत रूपम को तेजोधातु से मिला देते हैं और ज्वलनशील बन जाते हैं. जबकि उन्हें वायोधातु पर ज़्यादा यक़ीन करना चाहिए. मैंने कहा, वायोधातु को मैं कविता में निराधार प्रसार की तरह देखता हूं. हर धातु पथवी धातु पर अवलंबित है. तेजोधातु पथवी पर संभव है. आपोधातु पथवी के आधार पर बहती है. लेकिन वायोधातु को कोई आधार नहीं चाहिए. कविता के भाव निराधार बहने चाहिए. उन्हें शब्दों का ग़ुलाम नहीं होना चाहिए.
मक्कारी आंखों से झांक–झांक जाती है. आंखें अभिनय का हुनर बारहा भूलती हैं. पकड़ ली जाती हैं. जबकि मक्कारी अपने आप में नेत्रहीन गुण है. यानी आप मक्कार की आंखों में झांककर देख सकते हैं, मक्कारी की आंखों में झांकने का सुख आपको नहीं मिलेगा.
एक पुरानी यूरोपियन लोककथा है. बचपन में पढ़ी थी, लेकिन जब \’सिनेमा पारादीसो\’ देखी, तो याद आ गई. उसमें इस कहानी को नैरेट किया गया है –
\’\’एक समय की बात है. एक राजा ने दावत दी. उसमें आसपास की कई राजकुमारियां भी आईं. एक सैनिक, जिसका नाम बास्ता था, उसने राजा की बेटी को देखा. वह सबसे ज़्यादा सुंदर थी. और वह तुरंत उसके प्रेम में पड़ गया. लेकिन राजकुमारी के सामने ग़रीब सिपाही की क्या बिसात? एक दिन बास्ता ने राजकुमारी से मिलने का मौक़ा ताड़ ही लिया और उससे कहा कि वह उसे इतना चाहता है कि उसके बिना जि़ंदा नहीं रह सकता. राजकुमारी उसकी भावनाओं की गहराई को देख भीतर तक पसीज गई और उससे कहा, अगर तुम सौ रातें मेरे महल की बालकनी के नीचे गुज़ारो, तो मैं तुम्हारी हो जाऊंगी. सिपाही ख़ुशी–ख़ुशी राज़ी हो गया. एक रात, दो रात, दस, बीस… हर रात राजकुमारी अपनी बालकनी से झांकती, और उस सिपाही को वहां बग़ीचे में बैठा हुआ पाती. बारिश हो, हवा चले, बर्फ़ गिरे, लेकिन सिपाही नहीं डिगा. चिडि़यों ने उस पर शिट कर दिया और मक्खियां उसे क़रीब चबा गईं. 90 रातों के बाद वह एकदम मरियल और पीला हो चुका था, उसकी आंख से आंसुओं की धारा बह रही थी, लेकिन वह उसे रोक नहीं पा रहा था. उसमें अब इतनी भी शक्ति नहीं थी कि निढाल होकर सो जाए. राजकुमारी लगातार उसे देख रही थी… और 99वीं रात वह सिपाही खड़ा हुआ, अपनी कुर्सी उठाई और वहां से चला गया.\’\’
फिल्म के अंत में वह किरदार इस कहानी को फिर याद करता है :
\’\’अब मेरी समझ में आ रहा है कि वह सिपाही मियाद पूरी होने से ठीक पहले चला क्यों गया. सिर्फ़ एक रात और राजकुमारी उसकी हो जाती. लेकिन यह भी संभव है कि राजकुमारी अपना वादा निभाती ही नहीं. और अगर ऐसा होता, तो सिपाही उसी समय मर जाता. 99 रातों के बाद कम से कम वह इस भ्रम में तो जिएगा ही कि कहीं न कहीं राजकुमारी उसकी प्रतीक्षा कर रही है…\’\’
इस छोटी–सी कहानी में एक साथ कई संकेत हैं. पहला संकेत प्रेम में शर्त, इम्तिहान और खेल का है. सिपाही को पहली नज़र में प्रेम हुआ है, लेकिन राजकुमारी को नहीं. निवेदन सिपाही कर रहा है, यानी प्रेम की स्वीकृति की सत्ता राजकुमारी के पास है. प्रेम को हमेशा स्वीकृति की दरकार होती है और यह प्रेम की सबसे बड़ी विडंबना है कि उसे स्वीकृति वही देता है, जो या तो प्रेम नहीं कर रहा होता या बहुत कम प्रेम कर रहा होता है. सत्ता का स्वभाव है चुनौती देना और परीक्षा लेना. स्वीकृत की सत्ताधीश राजकुमारी उसके सामने शर्त रखती है, उसका इम्तिहान लेना चाहती है और साथ ही उससे अपना मनोरंजन करना चाहती है.
यह शर्त है. जैसे ही राजकुमारी ने सौ रातों की शर्त रखी, यह दिख जाता है कि राजकुमारी उससे प्रेम नहीं कर पाएगी. राजकुमारी सहानुभूति से भरी हुई है. सुंदरता की सत्ता आपको बाज़ दफ़ा क्रूर सहानुभूति से भरती है. सहानुभूति हमेशा कोमल नहीं होती. यदि वह कोमल होती, तो राजकुमारी सविनय इंकार कर देती. सिर्फ़ क्रूर होती, तो वह सौ कोड़े मरवाती. लेकिन उसके भीतर यह सहानुभूति है कि वह उस सिपाही का सीधे–सीधे दिल नहीं दुखाना चाहती, प्रणय–निवेदन के बदले उसका अपमान नहीं करना चाहती, और यह सैडिज़्म भी है कि उसके सामने एक असंभव लक्ष्य रखती है. लक्ष्य का असंभाव्य ही उसकी क्रूरता है. राजकुमारी को पूरा विश्वास है कि वह सौ रात पूरी नहीं कर पाएगा, ख़ुद ही हार मान जाएगा और ताउम्र इसके दुख में रहेगा. अगर उसे ज़रा भी अंदाज़ा होता, कि यह सौ रात इंतज़ार कर सकता है, बिना सोए, बिना हिले–डुले, तो यक़ीनन वह एक हज़ार रातों की शर्त रखती. ऐसी शर्त रखना पहले निवेदन में ही सिपाही के प्रेम को अविश्वास की दृष्टि से देखना है, उसे बहुत चतुराई के साथ ख़ारिज कर देना है.
यह इम्तिहान है. अगर मुझसे सच में प्रेम करते हो, तो सौ रातें वहां बैठो. प्रेम इम्तिहान लेता है, यह तो सच है, लेकिन अमूमन इम्तिहान व्यक्ति लेते हैं और उसे प्रेम के सिर मढ़ देते हैं. जब राजकुमारी में पहली नज़र का प्रेम ही नहीं था, तो उसके द्वारा लिया गया इम्तिहान पूरी तरह एक व्यक्ति और एक सत्ता द्वारा लिया गया इम्तिहान है. यदि सौ रातों के बाद राजकुमारी उस सिपाही की हो जाती, तो वह उससे क्या कहती? चूंकि तुमने मेरे लिए सौ रातों की प्रतीक्षा की है, इसलिए मैं तुमसे प्रेम करने लग गई हूं? तो वह प्रेम किससे करती? सिपाही की प्रतीक्षा–शक्ति से? उसकी जिद से? या उसके परीक्षा में पास हो जाने से? या इस बात से कि तुम मेरे लिए इतना कुछ कर सकते हो? यह सब सिपाही के फ्रेगमेंट्स होते, पूरा सिपाही नहीं होता. यानी राजकुमारी अगर सिपाही के प्रेम में पड़ती भी, तो सिपाही के फ्रेगमेंट्स से प्रेम करती, सिपाही से क़तई नहीं कर पाती. और प्रेम हो जाने के बाद सिपाही उसकी परीक्षा लेता, तब? वह किस तरह की परीक्षा होती? सौ रातों बाद वह कहता, मुझे यक़ीन नहीं होता कि तुम मुझसे प्रेम करती हो, तुम मुझे मेरी सौ रातें लौटा दो, तो मैं मान लूंगा कि तुम मुझसे प्रेम करती हो. सिपाही को उस समय जो प्रेम मिलता, वह प्रेम के बदले मिला प्रेम नहीं होता, बल्कि शौर्य के बदले मिला प्रेम होता, इनाम में मिला प्रेम होता, जैसे खु़श होने पर राज–परिवार अपने गले से एक हार निकालकर इनाम में दे देता है. वह प्रेम नहीं होता, प्रेम की वस्तु होती या वस्तुरूप में प्रेम होता. आत्मा से बाहर कोई भी करतब करके पाया गया प्रेम इनाम की तरह होता है.
यह खेल है. यह अनुभूति कि कोई आपसे इतना प्रेम करता है कि वह आपके लिए कुछ भी कर सकता है, वह हत्या कर सकता है, वह चार लोगों को पीट सकता है, वह सौ रातें मेरा इंतज़ार भी कर सकता है, बिना किसी शिकन के… यह अनुभूति प्रेम से कहीं ज़्यादा तोष देती है. प्रेम आपके ईगो को नष्ट करता है, यह अनुभूति आपके ईगो को पैम्पर करती है. जिसके पास प्रेम को स्वीकृति देने की सत्ता होती है, वह हमेशा उस प्रेम–संबंध में एक सूक्ष्म अहंकार से भरा होता है, कई बार स्थूल अहंकार से भी. सत्ता स्वभाव से मनोरंजन–प्रिय होती है. राजकुमारी को अपने ईगो की तुष्टि के लिए, मनोरंजन के लिए बस खिड़की से बाहर देखना होता. \’देखो, बेचारा अब भी बैठा है, पगला है, मर जाएगा ऐसे…. मैं कहती हूं, शर्त लगा लो, सात रातों के बाद भूत उतर जाएगा… थोड़ा जि़द्दी लगता है… पंद्रहवीं में भाग जाएगा… देखो, सूरज ढलने को है, और ये अभी तक अपनी कुर्सी लेकर नहीं आया… मान लो मेरी.. गया अब तो ये… नहीं आएगा… अरे, देखो फिर आ गया… जान प्यारी नहीं है बंदे को… मरे बिना चैन नहीं मिलेगा इसे….\’ राजकुमारी अपने कमरे में बैठी सहेलियों से इसी भाषा में बात करती होगी. यह एक व्यक्ति को तिल–तिल कर मरते देखने का सुख है. ग्लैडिएटर्स की मृत्यु खेल में बदल जाती है. प्रेम किसी न किसी क्षण आपको मृत्यु के खेल में अपमानित होते एक ग्लैडिएटर में तब्दील कर देता है.
सिपाही के उठ कर जाने के बाद इस कहानी में कुछ नहीं बचता. सिर्फ़ एक चीज़ बचती है. उस एक चीज़ तक अभी पहुंचेंगे. पर उससे पहले सिनेमा पारीदीसो की वह आखि़री उक्ति, जो कि अत्यंत यथार्थवादी है. चूंकि राजकुमारी ने वह परीक्षा प्रेम के वशीभूत होकर नहीं ली, बल्कि स्वीकृति की सत्ता के मद में ली है, संभव है कि वह अपनी हार बर्दाश्त नहीं कर पाती, और नई शर्त रख देती. और यह बड़ी संभावना है कि वह मुकर जाती. आखि़र राजकुमारियों को मुकरना ही होता है. यह उनकी नियति भी है. तो ऐसे में वह सिपाही तो टूटकर ख़त्म ही हो जाता.
बहुत दिनों बाद कल एक फि़ल्म देखी, बुख़ार और भड़कदार माइग्रेन के बाद. \’लोपे\’ 2010 में आई थी. यह स्पेन के कवि लोपे दे वेगा के जीवन पर है. बनता हुआ माद्रिद और एक आत्महंता कवि….
तस्वीर उसी का एक दृश्य है. अलबर्तो अमान और पिलार लोपेस दे अयाला चार सौ साल पुराने माद्रिद की किसी छत पर बैठे हैं. वह अकेला था, और सिर्फ़ उसी चीज़ को अस्वीकार करता रहा.
कवियों का जीवन प्राय: एक जैसा होता है. जिसे वह अपनी विजय समझता है, वह उसकी पराजय होती है.
हर कवि ताउम्र एक स्त्री का अपराधी होता है. उसके मरने के बरसों बाद भी जब उसकी रचनाएं पढ़ी जाती हैं, तो उनमें एक स्त्री की सुबक बेआवाज़ भटकती है.
उसकी रचना का हर पाठ उस अनाम, अनजान स्त्री के प्रति अर्घ्य होता है. अकेलापन कवि के दाहिने हाथ पर बंधा रक्षा–सूत्र है.
काफ़्का की एक पंक्ति याद आती है – \’जिस तरह फ़र्श पर सोते व्यक्ति को गिरने का ख़तरा नहीं होता, उसी तरह मुझे लगता है, जब तक मैं अकेला हूं, मुझे कुछ नहीं हो सकता.\’
वोंग कार–वाई की दो फि़ल्मों के दो अलग–अलग सीक्वेंस याद आ रहे हैं.
\’इन द मूड फॉर लव\’ का एक संवाद है:
\’\’पुराने दिनों में जब कोई शख़्स अपना राज़ किसी से बांटना नहीं चाहता था… तो जानते हो, क्या करता था? वह पहाड़ पर चढ़ता, कोई अकेला पेड़ खोजता, उसके तने में एक छेद बनाता, फिर उस छेद पर मुंहकर सारा राज़ वहां फुसफुसाता. फिर उसे गीली मिट्टी से ढंक देता. इसलिए उसका राज़ हमेशा के लिए वहां सुरक्षित रह जाता.\’\’
फिल्म के आखिरी दृश्य में टोनी लिऊंग, आंगकोर वाट मंदिर जाता है. वहां एक खंडहर की दीवार पर उसे छेद दिखता है. चेहरा वहां कर वह कुछ फुसफुसाता है. हमें पता नहीं, वह क्या कहता है. फिर भी हम जानते हैं कि वह वहां मैगी के प्रति अपना प्रेम फुसफुसा रहा है. अपना प्रायश्चित, अपना अपराधबोध, अपना अकेलापन, अपनी पीड़ा, अपनी उद्विग्नता. कोई आपको समझ नहीं पाया, यह जीवन का सबसे बड़ा राज़ होता है. यह राज़ आप उसे भी नहीं बताते, जो आपको समझ नहीं पाया.
राज़ हमेशा छेदों में रहते हैं. राज़ हमेशा गीली मिट्टी से ढंके होते हैं.
उन्हीं की फिल्म \’हैप्पी टुगेदर\’ के दृश्य हैं :
फिल्म की शुरुआत में ही टोनी लिऊंग की मुलाक़ात चांग चेन से होती है. दोनों मित्र बन जाते हैं. चांग चेन आवाज़ों के प्रति संवेदनशील है. वह आवाज़ों के पार आवाज़ें भी सुन लेता है और उससे परेशान भी रहता है. एक दिन वह टोनी को एक टेप देता है. फिर बताता है कि आर्हेंतीना में एक जगह है, तिएर्रा देल फेगो, यानी अग्निभूमि. वह पृथ्वी के आखि़री छोर पर है. वहां समंदर के बीच एक लाइटहाउस है. वहां लोग अपनी भावनात्मक पीड़ाओं को डुबो आते हैं. फिल्म के अंत में चांग पीड़ा के शिखर पर है. वह उसी लाइटहाउस पर पहुंचता है. पाता है कि उसके झोले में वही टेप पड़ा है. जब वह उसे बजाता है, तो उसमें देर तक सुबकने की आवाज़ें हैं. टेप के भीतर कोई रो रहा है.
उसकी पीड़ा, उसका अवसाद, उसका अकेलापन, उसकी चुप्पी, किसी से न कह सकने की खुरचन, ये सब हवा के साथ बह जाते हैं. टेप से निकलते हैं. समंदर में डूब जाते हैं. गले के भीतर कांटों की फ़सल उगती है.
हृदय हमारी देह का सबसे भारी अंग है.
वह कोशिकाओं से नहीं, अनुभूतियों से बनता है.
पहाड़ भी अनूभूतियों से बनते हैं, इसीलिए अपनी जगह से खिसकते नहीं.
तोते दूसरों के शब्द दोहराते हैं, अपनी मृत्यु में वे चुप्पी की उंगली पकड़ प्रवेश करते हैं.
एक दिन हवा सब कुछ बहा ले जाती है.
एक दिन समंदर सब कुछ लील जाता है.
एक दिन मिट्टी सबकुछ ढंक लेती है.
वह अनिवार्यत: हृदय से भी भारी गीली मिट्टी होती है.
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भाषा हमें लिखती है और इस तरह हमारी एकल विशिष्टता को नष्ट कर देती है.
बाबा बोर्हेस
उन्होंने ऐसा क्यों कहा था? भाषा हमें लिखती है, यह तो बीते बरसों में लोगों ने दोहरा–दोहराकर क्लीशे बना दिया, जैसे कविता हमें लिखती है, हम चित्र नहीं बनाते, चित्र हमें बनाता है आदि–अनादि, पर इस वाक्य का यह दूसरा हिस्सा क्या है?
उनकी सबसे क़रीबी दोस्त कहती थी कि इस आदमी में कोई प्रतिभा नहीं, क्योंकि यह एक आदमी है ही नहीं. 1933 में एक लेखक पेरिस से बेनस आयर्स जाता है, सिर्फ़ बोर्हेस से घंटों बतियाने के लिए. लौटकर एक फ्रेंच अख़बार में लिखता है, 34 साल का वह लड़का उन कहानियों के लिए प्रसिद्ध है, जो वह आने वाले बरसों में लिखेगा. जिसके भीतर के कवि ने सबसे उर्वर वर्षों में 31 साल लंबा राइटर्स ब्लॉक झेला.
चालीस के दशक में मेक्सिको के लेखक कार्लोस फेन्तेस अपनी तरुणाई में इस लेखक को पढ़ना शुरू करते हैं और क़सम खा लेते हैं कि इनसे रूबरू कभी नहीं मिलेंगे. जिस आदमी को सिर्फ़ पढ़–भर लेने से आपका जीवन बदल जाता है, उससे मिल लिए, तो जाने क्या होगा.
बहुत कम लोग जानते थे कि 16-18 घंटे लगातार पढ़ने वाला यह आदमी बहुत मज़ाकि़या भी है. उनके शहर से बाहर बहुत कम लोग उसे पहचानते थे. उनकी भाषा के बाहर जब लोगों ने उन्हें ढंग से पहचानना शुरू किया, तब तक वह साठ के हो चुके थे.
आनुवंशिक रोग और बेतहाशा पढ़ाई के कारण युवावस्था में ही नेत्रज्योति गंवा बैठे बोर्हेस जब अपने शहर की गली से गुज़रते थे, तो कई लोग उनके पास आकर पूछते थे– \’क्या आप ही बोर्हेस हैं?\’ उनका जवाब होता था– \’हां, पर कभी–कभी ही.\’
वह कभी एक रहे ही नहीं, वह हमेशा अनेक रहे. यह किसी में दस–बीस आदमी होने जैसा निदा फ़ाज़ली वाला शेर नहीं है. वह हमेशा अनेक रहे और अपने भीतर के हर एक को जानते–पहचानते रहे. लोग आत्म की तलाश में जीवन गुज़ार देते हैं. बोर्हेस ने सबसे पहले आत्म को ही त्याग दिया था. वह हमेशा \’द अदर\’ या दूसरा व्यक्ति बन जाना चाहते थे. वह हमेशा वैलरी को कोट करते थे, \’दुनिया का सारा साहित्य अलग–अलग लोग नहीं लिखते, बल्कि असंख्य अलग–अलग नामों वाला एक ही आदमी लिखता है.\’
यानी दुनिया के सारे लेखक देह से अलग हैं, लेकिन हैं एक ही अस्तित्व. कोई बहुनामी आत्मा?
जब उन्होंने ऊपर शुरू में दी वह पंक्ति लिखी थी, तो साथ ही कहा था– \’जब आप शेक्सपियर को पढ़ते हैं, तो आप ख़ुद शेक्सपियर हो जाते हैं. और जब आप दोस्तोएवस्की को पढ़ते हैं, तब रस्कोलनिकोव हो जाते हैं.\’
यानी लिखने के बाद शेक्सपियर अपना आप खो देते हैं, उनकी एकल विशिष्टता, सार्वजनिक साधारणता में बदल जाती है कि जो भी उन्हें पढ़े, शेक्सपियर बन जाए. यहां लेखक ख़त्म हो गया. वह ख़ुद पाठक में बदल गया है. और पाठक की एकल विशिष्टता ठीक शेक्सपियर को पढ़ते समय ही ख़त्म हो गई. उसने अपना आत्म त्याग दिया और लेखक में विलीन हो गया. यानी एक पृष्ठ पर लिखी हुई भाषा ने एक साथ दो लोगों की एकल विशिष्टता को समाहित कर लिया, अपने भीतर सोख लिया. उस समय वे दोनों व्यक्ति नहीं रहे, बल्कि एक पाठ बन गए हैं. दोनों ही शब्दों के भीतर खो जाते हैं, इस तरह दोनों की ही निजता का क्षरण हो जाता है और हम एक विशेष कि़स्म की नाम–विहीनता में उपस्थित हो जाते हैं. शायद बोर्हेस का यह दर्शन साहित्यिक अहंकारों के खि़लाफ़ उनका एक सूक्ष्म दांव भी रहा हो.
बाबा की वह पंक्ति कहीं अड़ी बैठी थी. सुबह के इस क्षण उनका आशय थोड़ा–थोड़ा समझ आ रहा है. मैं बहुत धीमा हूं.
होमर के एखिलिस और वेद व्यास के कृष्ण में मुझे कई समानताएं दिखती हैं.
दोनों युद्ध में माहिर थे. दोनों महान कूटनीतिज्ञ थे. दोनों ने संगीत साधा था. दोनों एक बार जिन स्थानों को छोड़ गए, वहां कभी लौटे नहीं. दोनों एक साथ कई प्रेम में शामिल रहते थे. दोनों ने पराये युद्ध लड़े. दोनों प्रदत्त देवत्व को हीन करते थे. दोनों व्यक्तिगत द्वंद्व को तरज़ीह देते थे. दोनों मौक़ा पड़ने पर छल को महती औज़ार की तरह इस्तेमाल करते थे. दोनों की मौत एड़ी में चोट लगने से हुई थी. पैर में छल से लगे तीर के कारण छलिया कृष्ण की मृत्यु हुई थी. एखिलिस का पूरा शरीर फ़ौलाद का था. वह सिर्फ़ एड़ी में चोट लगने से मर सकता था. वह उसी तरह मरा. इसीलिए अंग्रेज़ी में किसी के कमज़ोर हिस्से को \’एखिलिस हील\’ मुहावरे से संबोधित किया जाता है.
जब मैंने गुरचरन दास की एक किताब में एखिलिस और अर्जुन के बीच ऐसी ही समानताएं खोजने की कोशिश पाई, तो और दिलचस्प लगी. उनके पास एक और मुद्दा था– एखिलिस और अर्जुन, दोनों ने ही अपने जवान बेटे की युद्ध में छल से मौत देखी थी. एखिलिस ने बदला लेने के लिए हेक्टर को मारकर उसकी लाश रथ में बांधकर घसीटा था, तो अर्जुन ने भी बहुत क्रोध में बदला लिया था.
होमर और व्यास दोनों ही युद्धों के महान व कारुणिक रचयिता हैं.
\’वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ़ सॉलीट्यूड\’ लिखने में मारकेस को बहुत समय लगा था. अठारह महीनों तक लगातार लिखने-काटने में उलझे रहने के कारण उन्होंने कोई और काम नहीं किया था. इस दौरान घर चलाने के लिए उनकी पत्नी मर्सेदीस ने एक-एक कर लगभग सारा सामान बेच दिया. जब उपन्यास पूरा हुआ, तो मारकेस दंपति के पास इतने पैसे भी नहीं थे कि वे पांडुलिपि को प्रकाशक के पास बार्सेलोना भेज सकें.
उपन्यास कितना बिका, सब जानते हैं. मारकेस पर कनकधारा बरसी. यश की. धन की. कुछ बरसों बाद ही उन्होंने मेक्सिको सिटी में एक बड़ा-सा मकान लिया, जो पूरी तरह सेंट्रलाइज़्ड एयर कंडीशंड था. उस ज़माने में ऐसे मकान गिनती के थे. अब तो उनके पास पूरी दुनिया में पांच से ज़्यादा आलीशान मकान हैं.
एक रात मारकेस ने मर्सेदीस से कहा, \’जिस दिन मैं पैदा हुआ था, उसी दिन मुझे पता चल गया था कि मैं दुनिया का सर्वश्रेष्ठ लेखक हूं….\’
वाक्य पूरा होने के इंतज़ार में मर्सेदीस उनका चेहरा देखती रहीं, तब उन्होंने कहा, \’…. बस, दुनिया को यह बात पता चलने में 42 साल लग गए.\’
यह टिपिकल मारकेसियन बयान है. 🙂
इसके बाद मुझे मारकेस के कई संवाद याद आ रहे हैं. वह संवादों का प्रयोग वैसे भी कम करते हैं, लेकिन जो भी करते हैं, वे संक्षिप्त, अर्थगर्भी और हमेशा एक दार्शनिक-मख़ौल के साथ होते हैं. वह अख़बारों के लिए लिखते रहे और वहां संवादों की कम जगह होती है, इसे उन्होंने अपने गल्प में शामिल कर लिया. इसीलिए उनके यहां वर्णन की केंद्रीयता है.
वह फिल्मों के लिए लिखते रहे. शायद उनका यह अनुभव भी उनके गल्प में काम आया. फिल्मों में संवाद का बड़ा महत्व है. इसीलिए जब भी उन्हें अपने गल्प में संवाद का प्रयोग करना पड़ा, उन्होंने नाटकीय संवादों की शैली अपनाई. यानी एक ही संवाद से कई अर्थ-भावबोध का विकास. \’लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा\’ के कई संवाद ज़बानी याद हैं. उनमें वैसा ही असर है, जैसा अपने यहां \’मुग़ल-ए-आज़म\’ और \’शोले\’ के संवादों का.
इसी प्रकृति का संवाद उनके \’…कर्नल\’ के आखि़री पन्ने पर आता है. अंत का दृ श्य है. बदहाली की मंझधार में खड़ी पत्नी कर्नल से पूछती है- अब हम खाएंगे क्या?
कर्नल एक शब्द में जवाब देता है- शिट.
जिस तरह का उपन्यास है, जैसी स्थितियां हैं, मैं कई बार सोचता हूं, कि क्या गाबो इस जवाब से बच सकते थे? हर बार लगता है, नहीं. यह विवशता, झल्लाहट और अनिश्चितता का शिखर है. \’शिट खाएंगे\’ अप्रतिम-अपरिहार्य विवशता है.
लेकिन ऊपर के इस अनुच्छेद से एक यह बात भी दिखती है कि आत्मविश्वास और मनोबल बहुत ज़रूरी तत्व हैं. आत्मविश्वास से च्युत प्रतिभा बड़े जोखिम नहीं उठाती. बिना प्रतिभा के आत्मविश्वास बौड़म की अड़ है.
डाली अपनी किशोरावस्था से ख़ुद को जीनियस मानते थे. बाद में पूरी दुनिया ने माना.
दाली से कहना, उससे प्रेम है
मैं उनकी ओर देखता भी नहीं
उनकी बातें भी नहीं करता
लेकिन जो मैं देखता हूं, सोचता हूं, रचता हूं
उस पर उन्हीं का नियंत्रण होता है.
— सल्वादोर दाली
मूर्स अरब लोग थे, जो बर्बर थे. जिन्होंने मध्य युग में कई यूरोपीय देशों पर हमला किया था. उनकी क्रूरता और विलासिता के इतिहास में कई कि़स्से मिलते हैं. एक समय उन्होंने स्पेन को लगभग बर्बाद कर दिया था. अचरज है कि सल्वादोर दाली ख़ुद को मूर्स का वंशज मानता था. विलासिता और आरामदेह चीज़ों के प्रति अपनी दीवानगी को वह अपनी कलाकारोचित रसिकता से नहीं, बल्कि मूर्स का वंशज होने की अपनी कल्पना से जोड़ता था.
क्या एक कलाकार अपने जीवन या कला की प्रेरणा क्रूरताओं से भी पा सकता है? दाली ने अपने अतियथार्थवादी चित्रों में कई बार सूक्ष्म क्रूरताओं का चित्रण व प्रदर्शन किया है. एक स्त्री की पीठ में एक बड़ा-सा गड्ढा दिखाना भी कई बार मुझे क्रूरता ही लगता है. आरपार दिखने वाला गड्ढा. ऐसे चित्रों का सर्रियलिस्टिक विश्लेषण अलग तरीक़े से किया जा सकता है, लेकिन क्या ऐसी क्रूरताओं के मूल में दाली की मूर्स से जुड़ाव की कल्पना होगी? या उसके ख़ानदानी पैरानोइया को इसका मूल माना जाए? या सर्रियलिस्टिक आंदोलन का अगुआ होने के कारण? लेकिन अगर उसकी क्रूरता की यह कल्पना न हो, तो वह सर्रियलिज़्म में भी धंस नहीं पाएगा.
मैं अपना अवचेतन नहीं जान पाता. दाली का अवचेतन क्या ख़ाक जानूंगा?
हमारा अजाना असीमित है, जाना सीमित. हम बहुत सीमित कृतित्व हैं. हम यानी मनुष्य और उनमें भी कलाकार ऐसा विरोधाभासी जीव होता है कि वह एक ही पल में सीमित और असीमित दोनों होता है. जब वह उत्सर्जन करता है, तो वह तमाम ब्रह्मांड के असीमित में जाकर मिल जाता है. जब वह ग्रहण करता है, तब वह तमाम ब्रह्मांड का तिल-बराबर ग्रहण होता है. इससे ज़्यादा ग्रहण की उसकी सीमा नहीं होता.
यह कला का स्वभाव है. इसे ऐसे देखो-
देना असीमित हो. लेना सदैव सीमित हो.
इसीलिए जब किसी को कोई चीज़ समझ में न आए, तो उसे प्यार से देखना चाहिए. वह अपनी सीमा का सम्मान कर रहा है.
पर उनका क्या किया जाए, जिन्हें अपनी सीमा का भान नहीं होता, उल्टे वह इस गर्व में होते हैं कि उनकी सीमा असीमित है. वे घातक लोग हैं. वे कुटिल हैं. वे अनर्थवादी हैं.
धर्म और रहस्य में हमेशा गठजोड़ होता है.
दाली और पिकासो के बीच अजीब संबंध था. पिकासो की एक प्रेमिका के परिवार में दाली का बचपन से ही आना जाना था. वहां पिकासो भी कई बार आते थे. उस स्त्री के पति और बच्चों के मुंह से अक्सर दाली पिकासो के कि़स्से सुना करते थे. बड़े होने पर दोनों में कोई ख़ास संबंध नहीं बन पाया. लेकिन दाली जब पहली बार पेरिस गए, तो उन्होंने सबसे पहले पिकासो से ही मुलाक़ात की. दाली के ही सुंदर शब्दों में- Picasso was the first \’monument\’ I visited in Paris, even before the Lovre.
स्कूल में पेंटिंग की क्लास में दाली को जो सिखाया जाता था, वह ठीक उसका उल्टा करता था. मसलन उसे सॉफ़्ट पेंसिल और सॉफ़्ट ब्रश इस्तेमाल करने का सुझाव दिया गया, लेकिन वह गाढ़़ी पेंसिल और चटख़ रंगों का प्रयोग करता था. और वह भी ऐसे पैशन के साथ कि सारे नियम मानने वाले बच्चे अपना काम छोड़कर उसका चित्र देखने लग जाते थे.
उसके बाद वह अपने चित्र को रगड़कर रेशे निकाल देता था. फिर उसे फाड़ भी देता. फिर उसे पत्थरों पर चिपका देता. फिर पत्थरों पर रंगने लगता. ऐसे छोटे-छोटे कई पत्थर उसने रंगे थे. इसे उसने डायरी ऑफ़ अ जीनियस में उसने अपना स्टोन पीरियड कहा है. यानी पाषाण-काल.
चित्र बनाना सीखता था या आनंद पाना? कला में आनंद से बड़ी कोई उपलब्धि नहीं. अगर कविता लिखने के बाद तुम्हें उस काग़ज़ को जलाकर राख करने देने में आनंद आए, तो वही करो. बशर्ते आनंद मिले. बशर्ते दो साल बाद उस क्षण पर प्रायश्चित न हो.
कुछ प्रायश्चित गौरव देते हैं. कुछ प्रायश्चित सिवा आनंद के कुछ नहीं होते.
Dali was always fascinated by optical illusions. Being an artist is in fact being an illusionist. An Optical Illusionist.
कलाकार हमेशा सेल्फ़ और अदर सेल्फ़ के संघर्ष में रहता है. श्रेष्ठ कला बिना अदर सेल्फ़ में के नहीं घटित होती. कला इन्हीं दोनों पड़ावों के बीच रहती है, और कला ही वह ज़रिया है जिससे दोनों का एक होना संभव होता है. सेल्फ़ और अदर सेल्फ़ के बीच कला का पुल है. बोर्हेस के बारे में यह बात मैं कह ही चुका हूं. यहां दाली के बारे में है. उसका अपने मृत भाई के साथ जो संबंध है, वह सेल्फ़ और अदर सेल्फ़ का संघर्ष है. बहुत मोटे तौर पर इस संबंध को डॉक्टर जैकिल-मिस्टर हाइड में देखा जा सकता है, लेकिन जिस संघर्ष की ओर मेरा ध्यान है, वह इससे कहीं ज़्यादा सूक्ष्म है. वह मल्टीपल पर्सनैलिटी डिसऑर्डर नहीं है, बल्कि ऑर्डर ऑफ़ आर्ट है.
पमुक के उपन्यासों में जैसा द्वंद्वपूर्ण संबंध उनके नायकों को अपने भाई के साथ होता है, वह भी इसी के प्रतीक की तरह दिखता है. ऐसा लगभग हर कलाकार के साथ होना चाहिए.
मुश्किल यह है कि हर कलाकार ख़ुद को इस नज़रिए से देखकर अपने अनुभवों का वर्णन नहीं कर सकता, लेकिन यह एक अनिवार्य प्रक्रिया है. क्या मैं इसे भावजगत व वस्तुजगत के जड़ व चेतन के परस्पर अस्तित्वगत संघर्ष से जोड़कर देख सकता हूं?
यक़ीनन, देख सकता हूं!